नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

मंगलवार, 24 जून 2014

क्या जल, जंगल, जमीन, खनिज सब कुछ बाजार के हवाले कर देना ही विकास है?


पर्यावरण के प्रति सचेत समुदाय को विकास विरोधी का तमगा देना अब फैशन बन गया है। क्या जल, जंगल, जमीन, खनिज सब कुछ बाजार के हवाले कर देना ही विकास है? बाजार का विस्तार तय करने को भी कोई तैयार नहीं है। गंगा के कायाकल्प को साकार करने के लिए सिर्फ  उसी एक नदी पर केंद्रित होने से बात नहीं बनेगी। उत्तराखंड सहित पूरे देश में हो रहे विकास पर भी प्रश्न चिन्ह लगेगा। बहते पानी को रोकना और अनियंर्तित शहरी औद्योगिक विकास ही प्रदूषण का मुख्य कारण है। नई सरकार यदि वास्तव में भारत के भविष्य को लेकर चिंतित है तो उसे अंतिम वृक्ष, आखिरी नदी और अंतिम मछली का इंतजार नहीं करना चाहिए और पूरी शिद्दत से स्वीकारना चाहिए कि पैसे खाकर जिंदा नहीं रहा जा सकता।
जब अंतिम वृक्ष काट दिया गया होगा
जब आखिरी नदी विषैली हो चुकी होगी
जब अंतिम मछली पकड़ी जा चुकी होगी
तभी तुम्हें अहसास होगा
कि पैसे खाए नहीं जा सकते
 
मारलो मार्गन
सारी दुनिया के सामने आज अस्तित्व का संकट खड़े होने की वजह परमाणु हथियार नहीं बल्कि जलवायु परिवर्तन है। अब तक माना जा रहा था कि दक्षिण के देश इस संकट की चपेट में नहीं आएंगे। गौरतलब है कि सन् 2010 में जब पाकिस्तान में अभूतपूर्व बाढ़ आई थी उसी दौरान रूस में असाधारण गर्मी पडऩे की वजह से जंगलों में आग लग गई थी। सन् 2010 में ही इंग्लैंड में वर्ष 1890 के बाद सबसे भीषण ठंड पड़ी। यानि एक ही वर्ष में विश्व का एक हिस्सा जहां वर्षा की अति से प्रभावित था, तो दूसरा गर्मी की अति से और तीसरा सर्दी के चरम से। यानि कोई भी मौसम अब सामान्य नहीं रह गया है। पिछले वर्षों में फ्रांस में अत्यधिक गर्मी की वजह से लोगों की मौतें हुई तो अमेरिका में उत्तरी ध्रुव से भी ज्यादा बर्फ  गिरने से सैकड़ों लोगों की जान गई। ऐसे में ऐसा लग रहा था कि भारत की नई सरकार इस दिशा में गंभीर रुख अपनाएगी लेकिन इस सरकार ने तो पर्यावरण को इस लायक भी नहीं समझा कि उसे एक पूर्णकालिक मंर्ती ही उपलब्ध करा दिया जाए।
कबीर ने कहा है,
हम मरैं मरिहै संसारा।
हमकौ मिला जिआवनहारा।।
आश्चर्य इस बात का है कि भारत की अमरता की यह सोच तब भी बरकरार है, जबकि हाल ही में मौसम पर्यावरण ने उसे उसकी नश्वरता और क्षणभंगुरता का अहसास करा दिया था। याद करिए इसी वर्ष 24 फरवरी से 14 मार्च तक करीब 18 दिन तक देश के : प्रमुख राज्यों मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान आंध्रप्रदेश में आसमान से कहर बरपा है। इस दौरान हुई असमय वर्षा और भीषण ओलावृष्टि से इन इलाकों की खड़ी फसल नष्ट हो गई। केवल मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में 46.50 लाख हेक्टेयर भूमि पर खड़ी फसल पूरी तरह से बर्बाद हो गई है। इस बर्बादी से प्रभावित 100 से ज्यादा किसान अभी तक आत्महत्या कर चुके हैं और यह क्रम बदस्तूर जारी है। अभी 27 मई को इंदौर में एक युवा किसान ने इसी वजह से आत्महत्या की है।
ऐसा नहीं है कि जलवायु परिवर्तन का यह बवंडर एकाएक प्रकट हो गया। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गठित जलवायु परिवर्तन पर अन्तरसरकार परिषद् ने सन् 1990 में जारी अपनी पहली रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के खतरों के प्रति आगाह कर दिया था। लेकिन स्थितियां जबानी जमा खर्च से आगे नहीं बढ़ी। अमेरिका कनाडा ने अंतर्राष्ट्रीय समझौतों पर हस्ताक्षर नहीं किए और वे भारत चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं को स्वच्छ वातावरण की नसीहतें देते रहे। जबकि वास्तविकता यह है कि अमेरिका सर्वाधिक प्रदूषण फैलाने वाला देश है। वहीं भारत और चीन भी अपने को विकासशील बताकर प्रदूषण फैलाने पर हकदारी दिखाते रहे। इस हक को स्थापित करने में उन्होंने प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की मार्ता को आधार बनाया। यह शायद बिरला मामला है, जिसमें दोनों ही पक्ष दोषी हैं और सजा पूरी मानवता को मिल रही है। पहली रिपोर्ट आने के बाद स्थितियां बद् से बद्तर होती गई। इसके तकरीबन 23 वर्ष पश्चात सितंबर 2013 और मार्च 2014 में परिषद् की दो भागों में आई रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि एशिया सन् 2021 तक सूखे, ग्लेशियरों के पिघलने, समुद्री तूफानों और तटीय बाढ़ों से जबरदस्त प्रभावित होगा। इतना ही नहीं रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सन् 2030 तक उपज में जबरदस्त कमी आने लगेगी।
दूसरी ओर समस्या यह है कि विपदा जाने के बाद सभी ओर से राहत और नुकसान भरपाई को लेकर खलबली मचने लगती है। केंद्र राज्य सरकारें बढ़-चढ़कर राहत राशि देने और अधिकाधिक क्षेत्र को फसल बीमा की परिधि में लाने का अभियान छेड़ देती हैं। यह बात अलग है कि किए गए अधिकांश वायदे पूरे नहीं होते। बदलते मौसम की विभीषिका से निपटने की बात इसी कोलाहल में डूब जाती है और सरकार भी तात्कालिक प्रतिक्रिया देकर शांत बैठ जाती है। इस बार लगातार बीस दिनों तक भारत के मध्य के राज्यों में मौसम की चरम स्थिति बने रहने के बावजूद पर्यावरण जलवायु परिवर्तन मुद्दा नहीं बन पाया। केंद्रीय मंर्तीमंडल में पूर्णकालिक पर्यावरण वन विभाग की गैर मौजूदगी इस आशंका को सत्यापित कर रही है।
नई सरकार के कृषि मंत्री की यह घोषणा कि भारत में जी.एम खाद्योंं के उत्पादन पर रोक लगेगी, स्वागतयोग्य है। इससे जहां हमारी खेती की विषाक्तता को कम करने में मदद मिलेगी। वहीं दूसरी ओर हमारी जैव बीज विविधता के भी कायम रहने की उम्मीद बंधी है। वैसे भी यजुर्वेद (मंत्र  4/10) में लिखा है, सुसस्था: कृषि स्कृंधि यानि उत्तम अन्नों की खेती करें, दूषित अन्न, एवं सब्जियों को उत्पन्न कर समाज को दूषित करें।  अगर उपरोक्त निर्णय पर पूरी तरह से अमल हो गया तो इसे भारतीय कृषि पर्यावरण के लिए शुभ संकेत माना जा सकता है। वैसे भी नए हाइब्रीड बीजों में प्रयुक्त रासायनिक खाद् कीटनाशक कमोवेश पर्यावरण के लिए अत्यंत घातक सिद्ध हो रहे हैं।
लेकिन नए शहरी विकास मंर्ती ने देशभर में शीघ्र ही 100 नए शहरों के निर्माण की आत्मघाती बात कहकर पर्यावरण के सामने नया संकट खड़ा कर दिया है। आज की आवश्यकता तो यह है कि पहले से विद्यमान शहरों को रहने लायक बनाया जाए। नए शहरों के निर्माण में जिस मार्ता में प्राकृतिक संसाधनों की आवश्यकता पड़ेगी वह तो भारत के पूरे दृश्यबंध (लेंडस्केप) को ही बदल देगा। जो छोटी पहाडिय़ां हमें आज दिखाई दे रही हैं वह भी दिखना बंद हो जाएंगी। दिल्ली जैसे शहर अभी भी बांध बनाकर 200 किलोमीटर दूर से पानी लाकर जिंदा हैं। वहीं इंदौर जैसे मध्यम आकार के शहर भी 100 से 150 किलोमीटर दूर से पानी लाकर अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं। इसके अलावा नदियों में पानी लगातार कम होता जा रहा है। ऐसे में नए शहरों को किस तरह बनाया, बसाया एवं आबाद किया जाएगा?
शहरों में पेयजल जैसी सार्वजनिक व्यवस्थाएं दम तोड़ रही हैं। निजीकरण की आड़ में इन्हें लाभ कमाने का जरिया बनाया जा रहा है। गौर करिए जब पानी ही नहीं होगा तो आपूर्ति किसकी करेंगे? विकास की दौड़ में कोई भी रुककर यह सोचने को तैयार नहीं है कि शहरों का विस्तार नियंर्तित हो। उनकी आवश्यकताओं की खाद्य वस्तुएं आसपास ही पैदा की जाएं। जिससे की भंडारण/परिवहन की सुविधाओं पर अनावश्यक खर्च हो। इस बात पर भी विचार होना चाहिए कि खाद्य प्रसंस्करण में कितनेे प्रतिशत  खाद्य सामग्री नष्ट होती है। सं.रा. संघ का ही मानना है कि डिब्बा बंद खाद्य सामग्री में से 15 से 25 प्रतिशत को समयावधि पूर्ण हो जाने पर फेंक देना पड़ता है। लेकिन हमारी नई सरकार ने तो खाद्य प्रसंस्करण को पूरा विभाग बनाकर एक पूर्णकालिक मंर्ती तक दे दिया वहीं इस लेख में तीसरी बार उल्लेख करना पड़ रहा है कि पर्यावरण को पूरे मंत्रालय का दर्जा ही नहीं दिया गया।
पर्यावरण के प्रति सचेत समुदाय को विकास विरोधी का तमगा देना अब फैशन बन गया है। क्या जल, जंगल, जमीन, खनिज सबकुछ बाजार के हवाले कर देना ही विकास है? बाजार का विस्तार तय करने को भी कोई तैयार नहीं है। गंगा के कायाकल्प को साकार करने के लिए सिर्फ  उसी एक नदी पर केंद्रित होने से बात नहीं बनेगी। उत्तराखंड सहित पूरे देश में हो रहे विकास पर भी प्रश्न चिन्ह लगेगा। बहते पानी को रोकना और अनियंर्तित शहरी औद्योगिक विकास ही प्रदूषण का मुख्य कारण है। नई सरकार यदि वास्तव में भारत के भविष्य को लेकर चिंतित है तो उसे अंतिम वृक्ष, आखिरी नदी और अंतिम मछली का इंतजार नहीं करना चाहिए और पूरी शिद्दत से स्वीकारना चाहिए कि पैसे खाकर जिंदा नहीं रहा जा सकता।
वैसे कबीर यह भी कह गए हैं,
मन ऐसो निर्मल भयो जैसे गंगा नीर।
पीछे पीछे हरि फिरे कहत कबीर-कबीर।।
(चिन्मय मिश्र)
साभार-देशबन्धु