वर्तमान में ही रिजर्व बैंक ने व्यवस्था कर रखी है कि निजी और सरकारी बैंकों को प्राथमिकता वाले क्षेत्र को ऋण देना अनिवार्य होता है। इस अनिवार्यता को ग्रामीण क्षेत्र में विकास आदि पर लागू किया जा सकता था। क्योंकि रिजर्व बैंक इस कार्य को करने में असफल रहा इसलिए सरकार ने इन बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और हम कुएं से निकलकर खाई में जा गिरे। कुएं से निकले इसलिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में शाखाओं का विकास हुआ लेकिन खाई में गिरे इसलिए कि सरकारी बैंकों में लगाई गई आम आदमी की पूंजी का भक्षण सरकारी कर्मियों ने कर लिया। इसलिए सरकार को चाहिए की विलय जैसे दिखावा करने के स्थान पर सभी सरकारी बैंकों का पूर्ण निजीकरण कर दें और रिजर्व बैंक इन्हें मजबूर करे कि यह ग्रामीण एवं प्राथमिकता वाले क्षेत्र में पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराए।
दिवर्ष 1969 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उनका मानना था कि इन बैंकों पर निजी उद्यमियों का वर्चस्व है और ये जनता के पैसे को अपने व्यक्तिगत काम में ले रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तथा गरीब लोगों को बैंक की सुविधा उपलब्ध कराने में इनकी रुचि नहीं है। इसमें कोई संशय नहीं कि राष्ट्रीयकरण के बाद सरकारी बैंकों की शाखाओं का ग्रामीण क्षेत्रों में भारी विस्तार हुआ है और आम आदमी के लिए बैंक तक पहुंचना आसान हो गया है। इस दृष्टि से राष्ट्रीयकरण को सफल मानना चाहिए। लेकिन राष्ट्रीयकरण के बीते 50 सालों में दूसरी समस्या उत्पन्न हो गई है।
इस लम्बी अवधि में सरकार ने इन बैंकों में जो भी पूंजी का निवेश किया है उसका पूरी तरह क्षरण हो चुका है। वर्ष 2014 से 2019 के बीच केंद्र सरकार ने लगभग 250 करोड़ रुपए का निवेश इन बैंकों में किया है। आज के दिन इन सभी सरकारी बैंकों की सम्मिलित मार्केट कैपिटलाइजेशन यानि इनके समस्त शेयरों की शेयर बाजार में कुल मूल्य लगभग 300 करोड़ रुपए है। अर्थ हुआ कि पिछले 50 वर्षों में देश ने इन बैंकों में जो विशाल पूंजी निवेश किया है वह उसमें से कुल 50 करोड़ रुपए आज बचा है और शेष का क्षरण हो चुका है। यह क्षरण मूलत: इसलिए हुआ है कि इनके द्वारा भारी घाटा खाया जा रहा है।
सरकार इनमें लगातार पूंजी डाल रही है और इनके द्वारा लगातार खाए जा रहे घाटे में यह यह पूंजी समाप्त होती जा रही है। यह घाटा मूलत: इसलिए हो रहा है कि सरकारी बैंक के कर्मियों के व्यक्तिगत स्वार्थ हो और बैंक के स्वार्थों में समन्वय नहीं है। ये अलग-अलग दिशा में चलते हैं। सरकारी बैंक के मुख्य अधिकारी के लिए लाभप्रद होता है कि वह घूस लेकर अथवा राजनीतिक दबाव में ऐसे लोगों को लोन दे जो कि बाद में खटाई में पड़ जाए। ऐसा करने से मुख्य अधिकारी को स्वयं लाभ होता है जबकि बैंक को घाटा होता है। निजी बैंकों में यह समस्या उत्पन नहीं होती है क्योंकि बैंक के मुख्य अधिकारी द्वारा घटिया लोन देने से बैंक को जो घाटा लगता है वह भी उसी मुख्य अधिकारी का होता है। ये एक दिशा में चलते हैं। सरकारी बैंकों के मालिक यानि सरकार और मुख्य अधिकारी के उद्देश्यों में समन्वय नहीं होता है जबकि निजी बैंकों के मालिक और मुख्य अधिकारी एक ही व्यक्ति होते हैं इसलिए उनके उद्देश्यों में समन्वय रहता है। इसलिए निजी बैंकों द्वारा घटिया लोन कम दिए जाते हैं।
इस समस्या का हल सरकारी दायरे में नहीं दिखता है। प्रमाण यह है कि बीते छ: वर्षों में एनडीए सरकार ने सरकारी बैंकों के कार्य में हस्तक्षेप करना कम कर दिया है परन्तु इनकी स्थिति पूर्ववत बिगड़ती ही जा रही है। अर्थ हुआ कि राजनीतिक दखल को इन बैंकों की खस्ता हालत का कारण नहीं कहा जा सकता है। इनके घाटे अपनी संरचना के कारण है जिसमें मुख्य अधिकारी के लिए बैंक को घाटे में डालकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को सिद्ध करना संभव होता है। इसी दृष्टि से सरकार द्वारा गठित पी.जे. नायक समिति ने 2014 में संस्तुति की थी कि बैंकों का निजीकरण कर दिया जाए।
वित्त मंत्री ने बजट में इन बैंकों के निजीकरण करने के स्थान पर 10 बड़े सरकारी बैंकों का आपस में विलय करके इन्हें 4 बड़े बैंकों में बनाने का निर्णय लिया है। लेकिन यदि सरकारी बैंक के मुख्य अधिकारी के व्यक्तिगत उद्देश्य बैंक को घाटे में डालकर सिद्ध होते हैं तो विलय से इस समस्या का हल नहीं हो सकता है। विलय से सिर्फ इतना ही हो सकता है कि जो मुख्य अधिकारी ज्यादा घटिया था उसकी तुलना में अब कम घटिया मुख्य अधिकारी उस बैंक का संचालन करेगा। सभी मुख्य अधिकारी मूलरूप से एक से हैं जैसे सभी पॉकेटमार मूलरूप से एक से होते हैं। प्रमाण यह है कि सभी बैंकों की सम्मिलित पूंजियां शून्य हो गई है। यही कारण है कि बीते 50 वर्षों में जनता की गाड़ी कमाई से किया गया निवेश आज शून्य हो गया है। इसमें लाभ और घाटे में चलने वाले सभी बैंक सम्मिलित है।
जानकार बताते हैं कि विलय के पीछे सरकार की मंशा है कि जो पूंजी निवेश किया जाए वह बजट में न दिखे। यदि लाभ में चल रहे सरकारी बैंक द्वारा सरकार को डिविडेंड दिया जाए और उस डिविडेंड की रकम से सरकार घाटे में चलने वाली सरकारी बैंक में निवेश करे तो यह लेन-देन सरकार के बजट में दीखता है। तुलना में यदि घाटे में चलने वाले बैंक का लाभ में चलने वाले बैंक से विलय कर दिया जाए तो वही रकम हस्तांतरित होती है लेकिन वह रकम बजट के बाहर हो जाती है। लाभ में चलने वाले बैंक द्वारा कमाई गई रकम घाटे में चलने वाले बैंक की शाखाओं को जीवित रखने में लग जाती है। यह लेन-देन बजट से बाहर रहता है। अत: विलय से सरकारी बैंकों के कार्य में न कोई सुधार होगा और न ही अर्थव्यवस्था को लाभ होगा।
इस परिप्रेक्ष्य में हमें 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के निर्णय पर पुन: विचार करना चाहिए। उस समय उद्देश्य था कि बैंकों द्वारा छोटे उद्योगों और ग्रामीण क्षेत्रों में सेवाएं उपलब्ध कराई जाए। प्रश्न यह है कि इस कार्य को रिजर्व बैंक द्वारा निजी बैंकों से क्यों नहीं कराया जा सका था? रिजर्व बैंक के पास पर्याप्त अधिकार है। वह निजी बैंकों को मजबूर कर सकता है कि वे विशेष ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी शाखाएं खोले। वर्तमान में ही रिजर्व बैंक ने व्यवस्था कर रखी है कि निजी और सरकारी बैंकों को प्राथमिकता वाले क्षेत्र को ऋण देना अनिवार्य होता है। इस अनिवार्यता को ग्रामीण क्षेत्र में विकास आदि पर लागू किया जा सकता था।
क्योंकि रिजर्व बैंक इस कार्य को करने में असफल रहा इसलिए सरकार ने इन बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और हम कुएं से निकलकर खाई में जा गिरे। कुएं से निकले इसलिए कि ग्रामीण क्षेत्रों में शाखाओं का विकास हुआ लेकिन खाई में गिरे इसलिए कि सरकारी बैंकों में लगाई गई आम आदमी की पूंजी का भक्षण सरकारी कर्मियों ने कर लिया। इसलिए सरकार को चाहिए की विलय जैसे दिखावा करने के स्थान पर सभी सरकारी बैंकों का पूर्ण निजीकरण कर दें और रिजर्व बैंक इन्हें मजबूर करे कि यह ग्रामीण एवं प्राथमिकता वाले क्षेत्र में पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराए।
डॉ. भरत झुनझुनवाला (साभार-देशबंधु)