स्त्री में तुमने क्या
देखा!
उसकी सुंदरता के सिवा
क्या देख सके वह कोमल मन
जिससे निकले है यह जीवन
क्या देख सके उसकी मेह्नत
जिससे सजे है तुम्हारा
तन-मन
तैरते ही रहे सतहों में
तुम
गहराई में तो न उतर सके
फिर पाओगे कैसे मोती
कैसे संवरेगा तुम्हारा
मधुबन
भोर भये से रात गये तक
लडती झंझावातों से
काम में अपने मगन ही रहती
हारती नहीं आघातों से
फिर भी तुम न पहचान सके
तो इसमें उसकी क्या गलती
दो जून की रोटी खाकर वह
वेतन बिन ही खटती रहती
तुम्हें खिलाये पूरा भोजन
जूठन खाकर भी खुश रहती
पुरुष नहीं हो सकता ऐसा
स्त्री ही ऐसी हो सकती...
(कृष्णधर शर्मा 05/02/2019)samaj ki baat
समाज की बात
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