नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 12 जनवरी 2014

गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत

गुरुत्वाकर्षण पदार्थ द्वारा एक दूसरे की ओर आकृष्ट होने की प्रवृति है। गुरुत्वाकर्षण के बारे में पहली बार कोई गणितीय सूत्र देने की कोशिश आइजक न्यूटन द्वारा की गयी जो आश्चर्यजनक रूप से सही था। उन्होंने गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का प्रतिपादन किया। न्यूटन के सिद्धांत को बाद में अलबर्ट आइंस्टाइन द्वारा सापेक्षता सिद्धांत से बदला गया।

भाष्कराचार्य और गुरुत्वाकर्षण

गुरुत्वाकर्षण: "पिताजी, यह पृथ्वी, जिस पर हम निवास करते हैं, किस पर टिकी हुई है?" लीलावती ने शताब्दियों पूर्व यह प्रश्न अपने पिता भास्कराचार्य से पूछा था। इसके उत्तर में भास्कराचार्य ने कहा, "बाले लीलावती !, कुछ लोग जो यह कहते हैं कि यह पृथ्वी शेषनाग, कछुआ या हाथी या अन्य किसी वस्तु पर आधारित है तो वे गलत कहते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि यह किसी वस्तु पर टिकी हुई है तो भी प्रश्न बना रहता है कि वह वस्तु किस पर टिकी हुई है और इस प्रकार कारण का कारण और फिर उसका कारण... यह क्रम चलता रहा, तो न्याय शास्त्र में इसे अनवस्था दोष कहते हैं।
लीलावती ने कहा फिर भी यह प्रश्न बना रहता है पिताजी कि पृथ्वी किस चीज पर टिकी है?
तब भास्कराचार्य ने कहा,क्यों हम यह नहीं मान सकते कि पृथ्वी किसी भी वस्तु पर आधारित नहीं है।..... यदि हम यह कहें कि पृथ्वी अपने ही बल से टिकी है और इसे गुरुत्वाकर्षण शक्ति कह दें तो क्या दोष है?
इस पर लीलावती ने पूछा यह कैसे संभव है। तब भास्कराचार्य सिद्धान्त की बात कहते हैं कि वस्तुओं की शक्ति बड़ी विचित्र है।
मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो
विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
आगे कहते हैं-
आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस्थं
गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या।
आकृष्यते तत्पततीव भाति
समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।
- सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय - भुवनकोश
अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं। पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं।
आजकल हम कहते हैं कि न्यूटन ने ही सर्वप्रथम गुरुत्वाकर्षण की खोज की, परन्तु उसके 550 वर्ष पूर्व भास्कराचार्य ने पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को विस्तार में समझा दिया था।

गैलीलियो

कोई भी वस्तु ऊपर से गिरने पर सीधी पृथ्वी की ओर आती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो कोई अलक्ष्य और अज्ञात शक्ति उसे पृथ्वी की ओर खींच रही है। इटली के वैज्ञानिक, गैलिलीयो गैलिलीआई ने सर्वप्रथम इस तथ्य पर प्रकाश डाला था कि कोई भी पिंड जब ऊपर से गिरता है तब वह एक नियत त्वरण (constant acceleration) से पृथ्वी की ओर आता है। त्वरण का यह मान सभी वस्तुओं के लिए एक सा रहता है। अपने इस निष्कर्ष की पुष्टि उसने प्रयोगों और गणितीय विवेचनों द्वारा की है।

केप्लर की ग्रहीय गति के नियम

जर्मन खगोलविद केप्लर ने ग्रहों की गति का अध्ययन करके तीन नियम दिये।
देखिये केप्लर की ग्रहीय गति के नियम

न्यूटन का सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम

इसके बाद सर आइज़क न्यूटन ने अपनी मौलिक खोजों के आधार पर बताया कि केवल पृथ्वी ही नहीं, अपितु विश्व का प्रत्येक कण प्रत्येक दूसरे कण को अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। दो कणों के बीच कार्य करनेवाला आकर्षण बल उन कणों की संहतियों के गुणनफल का (प्रत्यक्ष) समानुपाती तथा उनके बीच की दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती होता है। कणों के बीच कार्य करनेवाले पारस्परिक आकर्षण को गुरुत्वाकर्षण (Gravitation) तथा उससे उत्पन्न बल को गुरुत्वाकर्षण बल (Force of Gravitation) कहा जाता है। न्यूटन द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त नियम को न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम (Law of Gravitation) कहते हैं। कभी-कभी इस नियम को गुरुत्वाकर्षण का प्रतिलोम वर्ग नियम (Inverse Square Law) भी कहा जाता है।
उपर्युक्त नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है : मान लिया m1 और संहति वाले m2 दो पिंड परस्पर d दूरी पर स्थित हैं। उनके बीच कार्य करनेवाले बल f का संबंध होगा :
F=G m1 m2/d‍^2 .........................(१)
यहाँ G एक समानुपाती नियतांक है जिसका मान सभी पदार्थों के लिए एक जैसा रहता है। इसे गुरुत्व नियतांक (Gravitational Constant) कहते हैं। इस नियतांक की विमा (dimension) है और आंकिक मान प्रयुक्त इकाई पर निर्भर करता है। सूत्र (१) द्वारा किसी पिंड पर पृथ्वी के कारण लगनेवाले आकर्षण बल की गणना की जा सकती है।

न्यूटन का सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त

कोई भी वस्तु ऊपर से गिरने पर सीधी पृथ्वी की ओर आती है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो कोई अलक्ष्य और अज्ञात शक्ति उसे पृथ्वी की ओर खींच रही है। इटली के वैज्ञानिक, गैलिलीयो गैलिलीआई ने सर्वप्रथम इस तथ्य पर प्रकाश डाला था कि कोई भी पिंड जब ऊपर से गिरता है तब वह एक नियत त्वरण से पृथ्वी की ओर आता है। त्वरण का यह मान सभी वस्तुओं के लिए एक सा रहता है। अपने इस निष्कर्ष की पुष्टि उसने प्रयोगों और गणितीय विवेचनों द्वारा की है।
न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण का नियम
इसके बाद सर आइज़क न्यूटन ने अपनी मौलिक खोजों के आधार पर बताया कि केवल पृथ्वी ही नहीं, अपितु विश्व का प्रत्येक कण प्रत्येक दूसरे कण को अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। दो कणों के बीच कार्य करनेवाला आकर्षण बल उन कणों की संहतियों के गुणनफल का (प्रत्यक्ष) समानुपाती तथा उनके बीच की दूरी के वर्ग का व्युत्क्रमानुपाती होता है। कणों के बीच कार्य करनेवाले पारस्परिक आकर्षण को गुरुत्वाकर्षण (Gravitation) तथा उससे उत्पन्न बल को गुरुत्वाकर्षण बल (Force of Gravitation) कहा जाता है। न्यूटन द्वारा प्रतिपादित उपर्युक्त नियम को "न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण नियम" (Law of Gravitation) कहते हैं। कभी-कभी इस नियम को "गुरुत्वाकर्षण का प्रतिलोम वर्ग नियम" (Inverse Square Law) भी कहा जाता है।
उपर्युक्त नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है : मान लिया m1 और संहति वाले m2 दो पिंड परस्पर d दूरी पर स्थित हैं। उनके बीच कार्य करनेवाले बल f का संबंध होगा :
F=G m1 m2/d‍^2 .........................(१)
यहाँ G एक समानुपाती नियतांक है जिसका मान सभी पदार्थों के लिए एक जैसा रहता है। इसे गुरुत्व नियतांक (Gravitational Constant) कहते हैं। इस नियतांक की विमा (dimension) है और आंकिक मान प्रयुक्त इकाई पर निर्भर करता है। सूत्र (१) द्वारा किसी पिंड पर पृथ्वी के कारण लगनेवाले आकर्षण बल की गणना की जा सकती है। मान लीजिए पृथ्वी की संहति M है और इसके धरातल पर m संहतिवाला कोई पिंड पड़ा हुआ है। पृथ्वी की संहति यदि उसके केंद्र पर ही संघनित मानी जाए और पृथ्वी का अर्धव्यास r हो तो पृथ्वी द्वारा उस पिंड पर कार्य करनेवाला आकर्षण बल :
F=G Mm/r‍^2..........................(2)
न्यूटन के द्वितीय गतिनियम के अनुसार किसी पिंड पर लगनेवाला बल उस पिंड की संहति तथा त्वरण के गुणनफल के बराबर होता है। अत: पृथ्वी के आकर्षण के प्रभाव में मुक्त रूप से गिरनेवाले पिंड पर कार्य करनेवाला गुरुत्वाकर्षण बल:
F=m x g
जहाँ g उस पिंड का गुरुत्वजनित त्वरण (acceleration due to gravity) है, अत:
F/m = g...........................(3)
अर्थात g= पिंड की इकाई संहति पर कार्य करनेवाला बल।
किंतु समीकरण (२) से
F/m = G M/r^2..................(4)
अतएव गुरुत्वजनित त्वरण g को बहुधा ‘पृथ्वी’ के गुरुत्वाकर्षण की तीव्रता भी कहते हैं।

गुरुत्व नियतांक का निर्धारण (Determination of G)

न्यूटन द्वारा गुरुत्वाकर्षण के नियम का प्रतिपादन होने के बाद ही गुरुत्व नियतांक G का मान ज्ञात करने की समस्या ने वैज्ञानिकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। इसका कारण यह था कि यह प्रकृति के मूल नियतांको (fundamental constants) में से एक है और देश, काल तथा परिस्थिति से सर्वथा निरपेक्ष है। इसलिए इसे सार्वत्रिक नियतांक (universal constant) कहते हैं। साथ ही, यह पृथ्वी की संहति से भी संबंधित किया जा सकता है (देखें समीकरण २)। अत: पृथ्वी की संहति एवं घनत्व ज्ञात करने के लिए भी इसके मान के ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। यह निम्नलिखित विवेचन से स्पष्ट हो जाएगा :
समीकरण (३) और (४) में तुलना करने पर
g = G x M/r^2
किंतु पृथ्वी की मात्रा (पृथ्वी को पूर्णत: गोल मानने पर)
M = (4/3) p r^3 D
जहाँ D पृथ्वी का माध्य घनत्व (mean density) है।
g = G (4/3) p r^3 D /r^2= (4/3) G p r D
अर्थात्‌ G. D. = 3 g / (4 p r)
इस सूत्र से यह स्पष्ट है कि G या D में से एक का मान ज्ञात करने के लिये दूसरे का मान ज्ञात होना चाहिए। अतएव पृथ्वी का घनत्व ज्ञात करने से पूर्व G का ठीक मान ज्ञात कर सकने की विधियों की ओर वैज्ञानिकों का ध्यान आकृष्ट होना स्वाभाविक ही था।
गुरुत्व नियतांक का मान ज्ञात करने के लि, किए जानेवाले वैज्ञानिक प्रयासों को हम तीन कोटियों में विभक्त कर सकते हैं :
  • 1. पृथ्वी द्वारा किसी पिंड पर ठीक नीचे की ओर लगनेवाले गुरुत्वाकर्षण बल की उस पिंड पर किसी भारी संहतिवाले प्राकृतिक पिंड, (जैसे पर्वत आदि) द्वारा लगनेवाले पार्श्विक (lateral) आकर्षण बल के साथ तुलना करके,
  • 2. पृथ्वी द्वारा किसी पिंड पर लगनेवाले आकर्षण बल की किसी अन्य कृत्रिम पिंड द्वारा लगनेवाले ऊ र्ध्वाधर आर्कषण बल के साथ (किसी तुला द्वारा) तुलना करके, और
  • 3. दो कृत्रिम पिंडों के बीच कार्यरत पारस्परिक आकर्षण बल की गणना करके।

प्रथम कोटि के प्रयासों की समीक्षा

इस विधि का अवलंबन करनेवालों में बूगर (Bouguer) नेविल मैस्केलीन (Nevil Maskelyne) एयरी (Airy) तथा फॉन स्टरनेक (Von Sterneck) के नाम उल्लेखनीय हैं। इसका सिद्धांत संक्षेप में इस प्रकार है :
मान लीजिए m संहति का कोई पिंड पृथ्वी द्वारा आकर्षित हो रहा है। स्पष्ट है कि यह आकर्षण बल उस पिंड के भार w के बराबर होगा। अब यदि उस पिंड पर एक पार्श्विक बल भी, किसी अन्य बृहत्काय प्राकृतिक पिंड (जैसे पहाड़ इत्यादि) द्वारा लग रहा हो तो न्यूटन के नियमानुसार पार्श्विक बल
F = F m m’/ d‍^2.........................(6)
यहाँ m’ उस बृहत्काय प्राकृतिक पिंड की संहति तथा d उसके तथा छोटे पिंड के बीच की दूरी है। यदि पृथ्वी का अर्धव्यास r हो तो
W = G 4/3 µ r3 Dm/r2 = 4/3 mµ r (G.D.) (7)
समीकरण (६) और (७) की तुलना करने पर
W/f = 4/3 r d2 D/m’
अर्थात
D = 3m’/4p r d2 D (W/f)..................(८)
इस समीकरण में G नहीं आता। अत: अन्य राशियाँ ज्ञात रहने पर
पृथ्वी का माध्य घनत्व D ज्ञात हो जायगा। w/f का मान अलग कई प्रयोगों द्वारा ज्ञात कर लिया जाता है।
पुन: समीकरण (६) में m के स्थान पर mg/g अर्थात्‌ (w/g)
रखने पर इस समीकरण से G का मान ज्ञात हो जायगा।
बूगर ने १७४० ई. में दो प्रकार के प्रयोग किए और विभिन्न ऊँचाइयों पर सेकेंड लोलक की लंबाई तथा g के मान ज्ञात करने के प्रयत्न किए। एक स्थान तो दक्षिणी अमरीका के पीरू नामक देश में क्विटो नामक पठार (लगभग ९,४०० फुट ऊँचा) पर चुना। इन दोनों स्थानों की ऊँचाइयों में अंतर के लिए उसने समुद्रतल पर प्राप्त g के मान में संशोधन किया : इस हेतु उसने मान लिया था कि दोनों ऊँचाइयों के बीच में केवल वायु व्याप्त थी। इस प्रकार गणना द्वारा पठार के लिए प्राप्त g के मान और प्रयोग द्वारा प्राप्त मान में १/६९८३ गुने का अंतर पाया। बूगर ने यह निष्कर्ष निकाला कि यह अंतर ९४०० फुट ऊँचे पठार में निहित भूपदार्थ के आकर्षण के ही कारण आया। इस प्रयोग ने यह संकेत दिया कि संपूर्ण पृथ्वी का आकर्षण उस पठार के आकर्षण का ६९८३ गुना है। पठार के आकर्षण की गणना करके बूगर ने अनुमान किया कि पृथ्वी का घनत्व पठार के घनत्व का ४.७ गुना है।
मैस्केलीन ने १७७४ ई. में एक दूसरा प्रयोग किया। स्कॉटलैंड के पर्थशायर प्रांत में स्थित शीहैलियन (Schiehallian) पर्वत के उत्तर और दक्षिण की ओर की खड़ी ढालों के अत्यंत निकट उसने दो केंद्र स्थापित किए, जो एक ही याम्योत्तर (meridian) पर पड़ते हैं। दोनों के अक्षांशों ४२.९४ सेकंड का अंतर था। उसने एक दूरदर्शी में एक साहुल (plumb bob) लगाया और दोनों स्थानों से कई नक्षत्रों की याम्योत्तरीय शिरोबिंदु (meridian zenith) दूरियाँ नापीं। यदि पर्वत न होता तो साहुलसूत्र (plumb line) ऊर्ध्वाधर रहता, जिसके परिणामस्वरूप दोनों केंद्रों से नापी गई शिरोबिंदु दूरियों का अंतर ४२.९४ सें० के बराबर आता। किंतु प्रयोग करने पर यह अंतर ५४.२ सें. आया। इससे स्पष्ट था कि पर्वत के आकर्षण के कारण साहुलसूत्र दोनों केंद्रों पर पर्वत की ओर झुक गया। कालांतर में चार्ल्स हटन ने इस परिणाम की सहायता से पर्वत तथा पृथ्वी के घनत्वों में ५ और ९ की निष्पत्ति प्राप्त की। अन्य प्रयोगों द्वारा पर्वत का माध्य घनत्व (mean density) २.५ ज्ञात हुआ, अत: पृथ्वी का माध्य घनत्व ४.५ तथा इसके अनुसार G का मान ७.४ x १०E-८ स्थिर हुआ।
सर जी. बी. एयरी ने १८५४ ई. में इंग्लैंड के साउथशील्डस प्रांत में स्थित हार्टन खान में एक अन्य प्रयोग किया था जो वस्तुत: बूगर के प्रयोग का ही संशोधित रूप था। एक ही लोलक को एक खान के ऊ पर तथा तली में दोलन कराकर उसके आवर्त कालों (periods) की परस्पर तुलना की और इस प्रकार खान की गहराई के बराबर भूतत्व के आकर्षण की तुलना संपूर्ण पृथ्वी के आकर्षण से की। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है : मान लीजिए पृथ्वी के केंद्र से खान की तली तक भूतत्व का घनत्व D तथा वहाँ से खान के ऊपर तक के भूतत्व का घनत्व d है। यदि खान के ऊ पर तथा तली में गुरुत्वाकर्षण की तीव्रता का मान क्रमश: ga और gb हो तो
gb = G 4/3 r‍^3 D/r^2 = G 4/3 r D ---- (९)
तथा g = G (4/3) p r^3 D/(r+h)^2 + G 4 r^2 hd/r^2 (10)
= G 4/3 p r^3 D/(r+h)^2 + G 4 p h d
\ ga/gb = r2/(r+h) 2 + 3hd/rD = 1- 2h/r + 3hd/rD (11)
उपर्युक्त समीकरणों में g g, r, h तथा d के मान ज्ञात होने पर D और उसके द्वारा G का मान ज्ञात किया जा सकता है यत: d का ठीक ठीक मान ज्ञात कर सकना असंभव है, अत: उसका केवल अनुमानित मान ही लिया जा सकता हैं। एयरी ने अपने विचारों के आधार पर d का कुछ अनुमानित मान स्थिर किया था, जिससे उसे D का मान ६.५ ग्राम प्रति घ. में. मी. तथा G का मान ५.७ x १०E-८ c.g.s. इकाई प्राप्त हुआ था।
उपर्युक्त अनश्चितता के कारण यह विधि भी पर्याप्त संतोषप्रद नहीं कही जा सकती।

द्वितीय कोटि के प्रयासों की समीक्षा

इस विधि का अनुसरण करने वालों में फॉन जॉली (Von Jolly), पॉयंटिंग (Poynting) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इसमें किसी छोटे पिंड के नीचे कोई अन्य भारी पिंड लाकर (उसके आकर्षण के कारण) छोटे पिंड के भार में होनेवाली वृद्धि ज्ञात करके गुरुत्वस्थिरांक का मान ज्ञात करना ही लक्ष्य था। इसका सिद्धांत इस प्रकार है :
मान लीजिए m संहति का कोई पिंड किसी अत्यंत सुग्राही तुला (जैसे रासायनिक तुला)की एक भुजा से किसी तार द्वारा लटकाया गया है। यदि पृथ्वी की संहति M तथा अर्धव्यास r हो तो उस पिंड पर कार्य करने वाला गुरुत्वाकर्षण बल (अर्थात पिंड का भार)
w = G M m/ r^2............................................................(12)
अब इस पिंड के नीचे यदि m संहति का कोई अन्य भारी पिंड लाकर रखा जाय और दोनों पिंडों के केंद्रों के बीच की दूरी d हो तो दोनों के पारस्परिक आकर्षण के कारण पहला पिंड अधिक नीचे की ओर झुक जायगा अर्थात्‌ उसका भार बढ़ जायगा। मान लीजिए भार में यह d w वृद्धि हो तो
w’ = G m m’/d^2....................................(13)
w’/w = m’/M r^2/d^2....................................(14)
पृथ्वी की संहति
M m’ (w’/w, r2/d2).......................................................(15)
इस समीकरण से पृथ्वी की संहति M ज्ञात हो जायगी और इस मान को समीकरण (१२) में रखने पर G का मान ज्ञात किया जा सकता है। G का मान दूसरी विधि से भी ज्ञात किया जा सकता है। हम जानते हैं कि
m g = G M m/ r^2
या g = G M/r^2
G = g r^2/M
यहाँ g का मान सेकंड लोलक (Second’s Pendulum) द्वारा ज्ञात किया जा सकता है।
फ़ॉन जॉली ने सीसे (lead) का एक विशाल गोला लिया जिसका व्यास लगभग १ मीटर और भार ४०० पौड (लगभग १८२ किलोग्राम) था। उसे ५० पौंड (लगभग २३ कि. ग्रा.) भारवाले अन्य गोले के ठीक नीचे रखा जो रासायनिक तुला की एक भुजा से लटकाया गया था। दोनों गोलों के बीच नाममात्र की ही दूरी रखी गई थी। इस प्रकार दूसरे गोले के भार में केवल ०.५ मि. ग्रा. (लगभग ०.००००२ औंस) की ही वृद्धि हो सकी। इस प्रयोग से जॉली ने G का मान ६.४६५ x १०E-४ तथा D का मान ५.६९२ प्राप्त किया।
पॉयटिंग ने इतने सूक्ष्म भारांतर को ठीक-ठीक नापने के लिए एक विशेष प्रकार की तुला बनाई जिसकी डंडी चार फुट लंबी थी। दोनों पलड़ों को हटाकर डंडियों के सिरों से २०-२० कि. ग्रा. के दो गोले १२० सें. मी.लंबे तांगों से लटकाए गए थे। एक बड़ा गोला जिसकी संहति १५० कि.ग्रा. थी, एक क्षैतिज घूमनेवाले टेबुल (turn table) पर रखागया जिसकी धुरी तुला के केंद्रीय क्षुरधार (knife-edge) के ठीक नीचे पड़ती थी। घूमनेवाले टेबुल को इस प्रकार घुमाया जा सकता था कि एक बार बड़े गोले का केंद्र लटकते हुए एक गोले के केंद्र के ठीक नीचे पड़े और दूसरी बार दूसरे के केंद्र के नीचे पड़े। इन स्थितियों में बड़े और छोटे गोलों के केंद्रों में परस्पर ३० सें. मी. की दूरी रह जाती थी। समस्त उपकरण को एक भूगर्भ प्रकोष्ठ में रख दिया गया था और उसे चारों ओर इस प्रकार आवृत्त कर दिया गया था कि पवनधाराओं के कारण कोई व्यवधान न हो सकें। बड़े और छोटे गोलों के पारस्परिक आकर्षण के कारण तुला की डंडी में उत्पन्न होनेवाला झुकाव प्रकोष्ठ के बारह से एक प्रकाशीय युक्ति द्वारा नापा जा सकता था। इस व्यवस्था में एक विशेष प्रकार का दर्पण प्रयुक्त किया गया जो डंडी के झुकाव को १५० गुना संवर्धित कर देता था। यह पहले ही अलग प्रयोगों के द्वारा ज्ञात कर लिया गया था कि डंडी कितने भार के लिये कितनी झुकती है। इससे यह गणना कर ली गई कि दोनों गोलों में पारस्परिक आकर्षण के कारण डंडी में झुकाव कितने बल द्वारा उत्पन्न हुआ था। इस बल के परिमाण को गुरुत्वाकर्षण समीकरण
F = G m1 m2/d^2
में प्रयुक्त कर G का मान ज्ञात कर लिया गया।

तृतीय कोटि के प्रयासों की समीक्षा

इस कोटि के प्रयास करनेवालों में हेनरी कैवेंडिश (सन १७९८) और सर चार्ल्स वरनन बॉयज़ (सन्‌ १८९५) के नाम उल्लेखनीय हैं। वस्तुत: कैवेंडिश ही वह प्रथम व्यक्ति था जिसने गुरुत्व नियतांक का मान अधिक विश्ववस्त सीमा तक ठीक-ठीक ज्ञात कर सकने की उत्कृष्ट प्रयोगशाला विधि का अनुसरण किया। बॉयज़ ने इस विधि को अधिक परिष्कृत एवं सरल करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

कैवेंडिश की विधि

‘अ’ और ‘ब’ दो छोटे गोल पिंड परस्पर १ सें. मी० लंबाईवाली एक पतली डंडी के सिरों पर संतुलित कर दिए गए थे देखें चित्र १ (अ) और (ब)। यह डंडी अपने मध्यबिंदु पर एक लंबे पतले तार द्वारा लटकाई गई थी। इन लघुपिंडों के निकट क्रमश: दो बड़े गोले अ और ब लाए गए। इनके आकर्षण के कारण लघुपिंड इनकी ओर आकृष्ट हुए। इनके परिणामस्वरूप डंडी भी अपनी मध्यमान स्थिति से q कोण घूम गई। यदि छोटे और बड़े पिंडों की मात्राएँ क्रमश: m और m हैं तथा इकाई विक्षेप के लि, तार की ऐंठन का बलयुग्म हो तो संतुलन की स्थिति में, गुरुत्वाकर्षण का बलयुग्म तार की ऐंठन का बलयुग्म
T हो तो संतुलन की स्थिति में, गुरुत्वाकर्षण का बलयुग्म = तार की ऐंठन का बलयुग्म
अर्थात्‌ G m m’/d2´1 = T. q
जहाँ d बड़े और छोटे गोलों के केंद्रों के बीच की दूरी है।
\G = d2/ mm’1. T q
यदि तार से लटकी हुई संपूर्ण प्रणाली को दोलन कराकर उसके दोलनकाल का (T) ज्ञात कर लिया जाए तो
T = 2 त ÖI/T
जहाँ I उस प्रणाली का निलंबन तार (suspension wire) के चारों और जड़ताघूर्ण (moment of intertia) है। अत :
T = 4 p2I/T2
और इस मान को G के सूत्र में रखने पर
G = 4 p2 Id2/mm’ I
अन्या राशियाँ ज्ञात रहने पर G का मान ज्ञात किया जा सकता है।
अपने प्रयोग में कैवेंडिश ने बड़ा पिंड १६९ किलोग्राम का, छोटा पिंड ७८० ग्राम तथा निलंबन तार १ मीटर लंबा लिया था। अधिक सटीक परिणाम प्राप्त करने के लिए उसने पहले भारी पिंडों को छोटे पिंडों के दोनों ओर इस प्रकार रखा जैसा चित्र १ (ब) पूर्ण वृत्त द्वारा प्रदर्शित है। इसके बाद बड़े पिडों को दूसरे पार्श्वों में रखा, जैसा बिंदुओं से प्रदर्शित वृत्तों द्वारा दिखाया गया है। दोनों स्थितियों से G का मान ज्ञात कर उसका मध्यमान ले लेने से अधिक शुद्ध मान प्राप्त हुआ। कैवेंडिश द्वारा प्राप्त परिणाम इस प्रकार है :
G = 6.75´10-8 स. ग. स. इकाई और D = 5.45 ग्राम प्रति घन सें. मी.।
कैवेंडिश की विधि की दुर्बलताओं का परिहार कर उससे अधिक सटीक परिणाम प्राप्त करने के लिए बेली (Baily, सन्‌ १८४३), शील (Reich, सन्‌ १८५२), कॉर्नू और बेली (Cornu & Baily, सन्‌ १८७८) और बॉयज़ (Boys, सन्‌ १८९५), ने कई प्रयोग किए। बॉयज़ ने यह पता लगाया कि क्वार्टज़ के अत्यंत पतले तंतु बनाए जा सकते हैं और दृढ़ता तथा प्रत्यास्थता संबंधी गुणों में वे फौलाद से भी अधिक श्रेष्ठ होंगे। इसलिए कैवेंडिश के प्रयोग में इनका प्रयोग करने पर कैवेंडिश के उपकरण का अनावश्यक दीर्घ आकार कम किया जा सकता है तथा उसके कारण होनेवाली त्रुटियों का बहुत कुछ निराकरण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त त्रुटियों का बहुत कुछ निराकरण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त बॉयज़ ने विक्षेप नापने के लिए दीप ऑर मापनी व्यवस्था ( lamp and scale arrangement) का अवलंबन किया। बॉयज़ की प्रायोगिक व्यवस्था नीचे दिए चित्र २ (अ) द्वारा समझी जा सकती है।
इसमें एक अत्यंत छोटा (लगभग १"लंबा) आयताकार दर्पण द डंडी के स्थान पर प्रयुक्त किया गया था। उससे दो छोटे छोटे गोल ‘अ’ और ‘ब’ (संहति लगभग २.६ ग्राम) क्वार्टज के तागों से लटकाए गए थे जिनके बीच ऊ र्ध्वाधर दूरी लगभग ६" थी इन गोलों पर आकर्षण प्रभाव डालनेवाले गोलों अ और ब का अर्धव्यास लगभग ११ सें. मी. तथा संहति लगभग ८.९ कि. ग्रा. थी। इस प्रकार बड़े और छोटे गोलों के बीच पारस्परिक आकर्षण प्रभाव का बहुत कुछ परिहार कर दिया गया था। बड़े गोलों को पहले छोटे गोलों के अगल बगल इस प्रकार रखा गया था जैसा चित्र (ब) में पूर्णवृत्त द्वारा दिखलाया गया है। इससे दर्पण द में एक और विक्षेप हुआ। पुन: बड़े गोलों को बिंदुओं (dots) द्वारा दिखलाई गई स्थितियों में लाया गया जिससे छोटे गोलों पर विपरीत दिशाओं में आकर्षण हुआ और दर्पण इस बार विपरीत ओर विक्षिप्त हुआ। ज्ञातव्य है कि समतल दर्पण में विक्षेप होने पर परावर्तित किरणों में उसका दूना विक्षेप उत्पन्न होता है। यह विक्षेप दीप और मापनी व्यवस्था द्वारा नाप लिया गया। इसके लिए एक मापनी दर्पण से ७ मीटर दूर रखी गई थी और उसी के नीचे कुछ हटकर, दीप रखा गया था।

गुरूत्वजनित त्वरण (गुरूत्व की तीवता) (Acceleration due to gravity)

 पृथ्वी का गुरुत्व
पृथ्वी के निकट स्थित प्रत्येक पिंड पृथ्वी द्वारा पृथ्वी के केंद्र की ओर आकर्षित होता है। इस आकर्षण बल को पिंड का भार कहते हैं। यदि कोई पिंड पृथ्वी से ऊपर ले जाकर छोड़ा जाय और उस पर किसी प्रकार का अन्य बल कार्य न करे तो वह सीधा पृथ्वी की ओर गिरता है और उसका वेग एक नियत क्रम से बढ़ता जाता है। इस प्रकार पृथ्वी के आकर्षण बल के कारण किसी पिंड में उत्पन्न होने वाली वेगवृद्धि या त्वरण को गुरूत्वजनित त्वरण कहते हैं। इसे अंग्रेजी अक्षर g द्वारा व्यक्त किया जाता है। ऊपर कहा जा चुका है कि इसे किसी स्थान पर गुरूत्व की तीव्रता भी कहते हैं।

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