नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

तेरे सिवा कुछ भी नहीं

सोचा नहीं अच्छा बुरा, देखा सुना कुछ भी नहीं

मांगा ख़ुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं 

सोचा तुझे, देखा तुझे, चाहा तुझे पूजा तुझे 

मेरी वफ़ा मेरी ख़ता, तेरी ख़ता कुछ भी नहीं 

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर

भेजा वही काग़ज़ उसे, हमने लिखा कुछ भी नहीं 

इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक

आँखों से की बातें बहुत, मुँह से कहा कुछ भी नहीं 

दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा

जब आग पर काग़ज़ रखा, बाकी बचा कुछ भी नहीं 

अहसास की ख़ुशबू कहाँ, आवाज़ के जुगनू कहाँ

ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं

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