पत्थरों
के बीच रहकर
खुद
भी पत्थर होता जाता है आदमी पत्थरों के साथ ही जागना-सोना
उन्ही के साथ जीना-मरना
भी सीख जाता है आदमी
पत्थरों को तोड़ते हुए, तराशते हुए
तलाशता रहता है खुद को भी उन्हीं में
पत्थरों के संगीत को ही जब
जीवन संगीत मान बैठता है आदमी
तब उसके पत्थर हो जाने में नहीं
रह जाता कोई संशय
मिलकर-घुलकर रह जाता है
वह भी पत्थरों में
नहीं लौटना चाहता फिर वह
वापस अपनी दुनिया में
जहाँ पर आदमी के भेष में
पत्थर रहते हैं
(कृष्ण धर शर्मा, २०१५)
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