नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016

रेलवे स्टेशन


नारायण जी शासकीय स्कूल से हेडमास्टर की नौकरी से रिटायर होकर इसी छोटे से कस्बे राजनगर में बस गए थे क्योंकि उनके गाँव में पुश्तैनी संपत्ति के नाम पर मात्र एक कच्चा घर था जिसमें उनके दो भाई अपने बड़े परिवार के साथ रहते थे. उस मकान में अब और लोगों के रहने की वैसे भी गुंजाइश नहीं थी.
नारायण जी के पिताजी उत्तरप्रदेश के एक गाँव से बेहद ही गरीब परिवार से थे और भीख मांगकर गुजारा करते थे. बाद में उडीसा के किसी गाँव में उन्हें पुरोहित का काम मिल गया और गाँव वालों ने रहने के लिए एक कच्चा मकान भी दे दिया. पुरोहिती के काम से इन लोगों का गुजारा चल जाता था. नारायणजी तीन भाई और एक बहन थे जिनमे नारायणजी सबसे छोटे थे.
समय बीतता रहा. उस ज़माने में पढाई-लिखाई को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता था और आर्थिक स्थित भी कुछ हद तक इसके लिए जिम्मेवार मानी जाती थी इसलिए नारायण जी के भाई-बहनों ने शासकीय स्कूल में चौथी-पांचवी तक पढ़ कर छोड़ दिया मगर नारायण जी की पढाई में विशेष रूचि को देखकर गाँव के ही एक धनाढ्य एवं सज्जन व्यक्ति ने उन्हें आगे पढ़ने में सहयोग किया और इस तरह से नारायणजी की पढाई जारी रही और उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंको से उत्तीर्ण कर ली. अब तक उनके बड़े भाइयों और बहन का भी शादी-ब्याह हो चुका था और उनके लिए भी रिश्ते आने शुरू हो गए थे मगर नारायणजी का कहना था कि अपने पैरों पर खड़े होने के बाद ही विवाह करना उचित होगा. उस समय मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करना ही बड़ी बात थी अतः उन्हें बड़े आराम से शासकीय शिक्षक की नौकरी मिल गई मगर उन्हें अध्यापन हेतु राजनगर जाना पडा जो वहां से सैकडों मील दूर था. नौकरी तो करनी ही थी इसलिए नारायणजी को वहीँ पर किराये का घर लेकर रहना पड़ा. विवाह न करने के लिए भी अब उनके पास कोई बहाना न था इसलिए जल्दी ही उनका विवाह कर दिया गया. नारायणजी अपने परिवार से मिलने कभी-कभार छुट्टियों में ही जा पाते थे क्योंकि उन दिनों आने-जाने के साधन भी बहुत कम हुआ करते थे. छोटे परिवार का महत्व नारायणजी को पता था इसलिए उन्होंने हम दो हमारे दो के नारे पर अमल किया. बड़ी बेटी थी और छोटा बेटा था. नारायणजी ने बच्चों की पढाई-लिखाई पर विशेष ध्यान दिया जिसके परिणाम स्वरूप उनकी बेटी आगे चलकर डाक्टर बन गई और एक बहुत ही संपन्न परिवार में उसका ब्याह हो गया. बेटा भी पढाई-लिखाई में ठीक ही था. कद-काठी ठीक-ठाक थी अतः वह भी पुलिस में भर्ती हो गया और ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग भी इसी कस्बे में मिल गई. बेटे का ब्याह भी पास के ही शहर में हो गया. नारायणजी भी प्रोन्नत होकर अब हेडमास्टर बन चुके थे और इसी वर्ष वह भी रिटायर हुए.
नारायणजी ने काफी पहले से राजनगर में ही बसने का मन बना लिया था क्योंकि यह छोटा सा क़स्बा हरियाली से भी भरपूर था और प्रमुख राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित था. राजनगर में रेलवे स्टेशन भी था जहाँ पर कई पैसेंजर गाड़ियाँ रूकती थीं और आगे चलकर बड़ा स्टेशन बनने की पूरी सम्भावना थी. रिटायर्मेंट में मिले रुपयों से उन्होंने एक तीन कमरों का एक बढ़िया मकान बनाया. मकान के लिए जमीन उन्होंने पहले ही ले रखी थी. नारायणजी के यहाँ अब तक एक पोते और एक पोती का जन्म हो चुका था. बहू का स्वाभाव थोड़ा चिडचिडा था मगर नारायणजी और उनकी धर्मपत्नी सज्जन स्वाभाव के होने की वजह से उसे भी झेल जाते थे. समय बीतता रहा. नारायणजी के पोते-पोती अब बड़े हो गए थे और स्कूल भी जाने लगे थे नारायणजी के यहाँ सब ठीक ही चल रहा था कि उनकी धर्मपत्नी का टीबी की बीमारी से अचानक ही देहांत हो गया जिसके बाद नारायणजी एकदम टूट से गए और काफी अकेलापन महसूस करने लगे. टी.वी., कम्यूटर और मोबाईल के ज़माने में बूढों के पास बैठने का समय आजकल किसके पास है. उन्हें तब और झटका लगा जब बेटे के स्वभाव में भी कुछ परिवर्तन आना शुरू हुआ जिसे नारायणजी ने यह सोचकर टाल दिया कि नौकरी की वजह से थकावट हो जाती होगी इसलिए थोडा चिडचिडा हो गया है मगर जब बच्चों का भी उनके कमरे में आना-जाना बंद हो गया तब उन्हें लगा कि यह सब जानबूझकर किया जा रहा है! हो सकता है पत्नी की मृत्यु टीबी की बीमारी की वजह से हुई है शायद इसलिए उन्हें छुआछूत का डर लगता हो!.

नारायणजी समय बिताने के लिए सुबह-शाम टहलने जाने लगे. सुबह तो पास के बागीचे में चले जाते थे जहाँ पर लोगों की चहल-पहल देखकर ही समय कट जाता था और शाम के समय रेलवे स्टेशन जाने लगे जहाँ पर आठ-दस बूढ़े लोग एकत्रित होकर अपना सुख-दुःख साझा करते थे. बूढों की इस गोष्ठी में ग्राम पंचायत से लेकर संयुक्त राष्ट्र महासभा तक और नुक्कड़ नाटक से लेकर हालीवुड फिल्मों तक की समीक्षा होती थी कई छोटी-बड़ी असहमतियों के बावजूद डेढ़-दो घंटे की गोष्ठी आख़िरकार आपसी संधि पर आकर ख़त्म होती थी और अगले दिन मिलने के वादे के साथ गोष्ठी का समापन होता था.

एक दिन दोपहर के बाद नारायण जी काफी उदास और अकेलापन महसूस कर रहे थे तो उन्होंने सोचा क्यों न बच्चों के कमरे में चलकर बच्चों से कुछ बातें की जाएँ. वह बच्चों के कमरे में पहुंचे तो किताबें फैलाकर पढने का बहाना किये बच्चे मोबाईल पर गेम खेल रहे थे. दादाजी के अनपेक्षित आगमन पर बच्चे अचानक हडबड़ा गए और मोबाईल छुपाने लगे तो नारायण जी हँसते हुए कहने लगे
“तुम लोग पढने के बजाय मोबाईल पर गेम खेलते हो! मैनें तो देख लिया है अब छुपाने से भला क्या फायदा!”.
बच्चे एकदम से घबरा गए तभी बहू भी कमरे में आ गई और पूछने लगी
“क्या हो रहा है यहाँ पर?”.
नारायण जी कुछ कह पाते उसके पहले ही बच्चे बोल पड़े
“हम लोग तो चुपचाप पढाई कर रहे थे दादाजी ही आकर हमें डिस्टर्ब कर रहे हैं.”
नारायणजी कुछ सफाई दे पाते इसके पहले ही बहु शुरू हो गई “आपसे अपने कमरे में नहीं रहा जाता क्या? बच्चों को क्यों परेशान कर रहे हैं.”
नारायणजी का संयोग इतना ख़राब था की उसी समय उनका बेटा भी ड्यूटी से घर आ गया था और शोर-शराबा सुनकर वह भी पत्नी की बातों में आकर नारायणजी को भला-बुरा कहने लगा.
नारायणजी को इतना सब सुनने के बाद कुछ भी न सूझा तो वह अपने कमरे में आकर निढाल होकर बिस्तर पर गिर पड़े. क्या-क्या सपने नहीं देखे थे उन्होंने अपनी पत्नी के साथ मिलकर. हमारे दो ही तो बच्चे हैं, बेटी तो शादी के बाद अपने घर चली जाएगी और हमारा बेटा इतना संस्कारी है की लोगबाग भी इसकी तारीफ़ करते नहीं थकते, कहते हैं कि नारायणजी आपने अपने बच्चों को इतनी अच्छी शिक्षा और संस्कार दिए हैं. आपका बुढ़ापा तो अच्छे से कटेगा. बच्चों की तारीफ सुनकर नारायणजी गदगद हो जाते और एक सुन्दर और सुखद भविष्य (बुढ़ापे) की तस्वीर उनकी आँखों के सामने आकार लेने लगती. आज नारायणजी की आँखों में आंसू थे और मन बहुत भारी हो चुका था. उन्होंने घडी की तरफ देखा मगर अभी शाम होने में काफी समय था फिर भी उन्होंने अपने आंसू पोछे और छड़ी उठाकर रेलवे स्टेशन की तरफ चल पड़े.
 कृष्ण धर शर्मा

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