जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९ - १४ जनवरी १९३७) हिन्दी कवि, नाटकार, कथाकार, उपन्यासकार तथा
निबन्धकार थे।
वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं।
उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य
में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन
गई। आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में
इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ
कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास
के क्षेत्र में हिंदी को गौरव करने लायक कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ
छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए है; नाटक लेखन में
भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे जिनके नाटक आज
भी पाठक चाव से पढते हैं। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने
कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा
के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और
आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की। उन्हें 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन
में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझकर ही साहित्य की रचना
करते रहे। कुल मिलाकर ऐसी विविध प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेगा
जिसने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से समृद्ध किया हो।
जीवन परिचय
प्रसाद जी
का जन्म माघ शुक्ल 10, संवत् 1946 वि. में काशी के
सरायगोवर्धन में हुआ। इनके पितामह बाबू शिवरतन साहू दान देने में प्रसिद्ध थे और
इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी
में बड़ा सम्मान था और काशी की जनता काशीनरेश के बाद 'हर हर महादेव' से बाबू देवीप्रसाद
का ही स्वागत करती थी।
किशोरावस्था के पूर्व ही माता और बड़े भाई का देहावसान हो
जाने के कारण १७ वर्ष की उम्र में ही प्रसाद जी पर आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा। कच्ची
गृहस्थी, घर में
सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी, कुटुबिंयों, परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का
षड्यंत्र, इन सबका
सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया। प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा काशी
मे क्वींस कालेज में हुई,
किंतु
बाद में घर पर इनकी शिक्षा का व्यापक प्रबंध किया गया, जहाँ संस्कृत, हिंदी, उर्दू, तथा फारसी का
अध्ययन इन्होंने किया। दीनबंधु ब्रह्मचारी जैसे विद्वान् इनके संस्कृत के अध्यापक
थे। इनके गुरुओं में 'रसमय सिद्ध' की भी चर्चा की
जाती है। घर के वातावरण के कारण साहित्य
और कला के प्रति उनमें प्रारंभ से ही रुचि थी और कहा जाता है कि नौ वर्ष की उम्र
में ही उन्होंने 'कलाधर' के नाम से व्रजभाषा
में एक सवैया लिखकर 'रसमय सिद्ध' को दिखाया था।
उन्होंने वेद, इतिहास, पुराण तथा साहित्य
शास्त्र का अत्यंत गंभीर अध्ययन किया था। वे बाग-बगीचे तथा भोजन बनाने के शौकीन थे
और शतरंज के खिलाड़ी भी थे। वे नियमित व्यायाम करनेवाले, सात्विक खान पान
एवं गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे। वे नागरीप्रचारिणी सभा के उपाध्यक्ष भी थे। क्षय
रोग से जनवरी 14, 1937 (उम्र 47) को उनका देहांत
काशी में हुआ।
कृतियाँ
प्रसाद जी के
जीवनकाल में ऐसे साहित्यकार काशी में वर्तमान थे जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा
हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि की। उनके बीच रहकर प्रसाद ने भी अनन्य गौरवशाली
साहित्य की सृष्टि की। कविता, कहानी,
उपन्यास, नाटक ओर निबंध, साहित्य की प्राय:
सभी विधाओं में उन्होंने ऐतिहासिक महत्व की रचनाएँ कीं तथा खड़ी बोली की श्रीसंपदा
को महान् और मौलिक दान से समृद्ध किया। कालक्रम से प्रकाशित उनकी कृतियाँ ये हैं
: उर्वशी (चंपू) ; सम्राट चंद्रगुप्त
मौर्य (निबंध); शोकोच्छवास
(कविता); प्रेमराज्य
(क) ; सज्जन
(एकांक), कल्याणी
परिणय (एकाकीं); छाया
(कहानीसंग्रह); कानन कुसुम
(काव्य); करुणालय
(गीतिकाव्य); प्रेमपथिक
(काव्य); प्रायश्चित
(एकांकी); महाराणा का
महत्व (काव्य); राजश्री
(नाटक) चित्राधार (इसमे उनकी 20 वर्ष तक की ही रचनाएँ हैं)। झरना (काव्य); विशाख (नाटक); अजातशत्रु (नाटक); कामना (नाटक), आँसू (काव्य), जनमेजय का नागयज्ञ
(नाटक); प्रतिध्वनि
(कहानी संग्रह); स्कंदगुप्त
(नाटक); एक घूँट
(एकांकी); अकाशदीप
(कहानी संग्रह); ध्रुवस्वामिनी
(नाटक); तितली
(उपन्यास); लहर (काव्य
संग्रह); इंद्रजाल
(कहानीसंग्रह); कामायनी
(महाकाव्य); इरावती
(अधूरा उपन्यास)। प्रसाद संगीत (नाटकों में आए हुए गीत)। काव्य
कानन कुसुम महाराणा का
महत्व झरना आंसू
लहर कामायनी प्रेम पथिक
नाटक
स्कंदगुप्त चंद्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी जन्मेजय का नाग यज्ञ राज्यश्री कामना
एक घूंट कहानी संग्रह छाया
प्रतिध्वनि आकाशदीप आंधी
इन्द्रजाल उपन्यास कंकाल
तितली इरावती काव्य
प्रसाद ने काव्यरचना ब्रजभाषा में आरंभ की और धीर-धीरे खड़ी बोली को अपनाते
हुए इस भाँति अग्रसर हुए कि खड़ी बोली के मूर्धन्य कवियों में उनकी गणना की जाने
लगी और वे युगवर्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
उनकी काव्य रचनाएँ दो वर्गो में विभक्त है :
काव्यपथ अनुसंधान की रचनाएँ और रससिद्ध रचनाएँ। आँसू, लहर तथा कामायनी
दूसरे वर्ग की रचनाएँ हैं। इस समस्त रचनाओं की विशेषताओं का आकलन करने पर हिंदी
काव्य को प्रसाद जी की निम्नांकित देन मानी जा सकती है। उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना
की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित
हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई।
उनकी सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' 1914 ई. में इंदु में
प्रकाशित हुई। वे छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस
संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी हैं। उन्होंने हिंदी में 'करुणालय' द्वारा गीत नाट्य
का भी आरंभ किया। उन्होंने भिन्न तुकांत काव्य लिखने के लिये मौलिक छंदचयन किया और
अनेक छंद का संभवत: उन्होंने सबसे पहले प्रयोग किया। उन्होंने नाटकीय ढंग पर
काव्य-कथा-शैली का मनोवैज्ञानिक पथ पर विकास किया। साथ ही कहानी कला की नई टेकनीक
का संयोग काव्यकथा से कराया। प्रगीतों की ओर विशेष रूप से उन्होंने गद्य साहित्य को
संपुष्ट किया और नीरस इतिवृत्तात्मक काव्यपद्धति को भावपद्धति के सिंहासन पर
स्थापित किया। काव्यक्षेत्र में प्रसाद की
कीर्ति का मूलाधार 'कामायनी' है। खड़ी बोली का
यह अद्वितीय महाकव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने
का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा
(बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर
संयोजित किया गया है। उनकी यह कृति छायावाद ओर खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत
उदाहरण है। सुमित्रानंदन पंत इसे 'हिंदी में ताजमहल के समान' मानते हैं। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं
भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा
सकती है।
आह ! वेदना मिली विदाई
आह ! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख
लुटाई
छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से
गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता
अनंत अँगड़ाई
श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु
छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई
लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी
आशा आह !
बावली तूने खो दी सकल कमाई
चढ़कर
मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे
हारी-होड़ लगाई
लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी
करुणा हा-हा खाती विश्व !
न सँभलेगी यह मुझसे इसने
मन की लाज गँवाई
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध
भारती
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध
शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो,
दृढ़-प्रतिज्ञ सोच
लो
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो
असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण
दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में, सुबाड़वाग्नि से
जलो
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो
कहानी तथा उपन्यास
कथा के
क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन् 1912 ई. में 'इंदु' में उनकी पहली
कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई।
प्राय: तभी से गतिपूर्वक आधुनिक काहनियों की रचना हिंदी मे आरंभ हुई। प्रसाद जी ने
कुल 72 कहानियाँ
लिखी हैं। उनकी अधिकतर कहानियों में भावना की प्रधानता है किंतु उन्होंने यथार्थ
की दृष्टि से भी कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी हैं। उनकी वातावरणप्रधान कहानियाँ
अत्यंत सफल हुई हैं। उन्होंने ऐतिहासिक, प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक कथानकों पर मौलिक एवं कलात्मक
कहानियाँ लिखी हैं। भावना-प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ लिखी हैं। भावना प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक
कहानियाँ, रहस्यवादी, प्रतीकात्मक और
आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उत्तम कहानियाँ, भी उन्होंने लिखी हैं। ये कहानियाँ भावनाओं की मिठास तथा
कवित्व से पूर्ण हैं। प्रसाद जी भारत के
उन्नत अतीत का जीवित वातावरण प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। उनकी कितनी ही
कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें आदि से अंत तक भारतीय संस्कृति एवं आदर्शो की रक्षा का
सफल प्रयास किया गया है।
तानसेन:
यह छोटा सा परिवार भी क्या ही सुन्दर है, सुहावने आम और
जामुन के वृक्ष चारों ओर से इसे घेरे हुए हैं। दूर से देखने में यहॉँ केवल एक
बड़ा-सा वृक्षों का झुरमुट दिखाई देता है, पर इसका स्वच्छ जल अपने सौन्दर्य को ऊँचे ढूहों में
छिपाये हुए है। कठोर-हृदया धरणी के वक्षस्थल में यह छोटा-सा करुणा कुण्ड, बड़ी सावधानी से, प्रकृति ने छिपा
रक्खा है। सन्ध्या हो चली है। विहँग-कुल
कोमल कल-रव करते हुए अपने-अपने नीड़ की ओर लौटने लगे हैं। अन्धकार अपना आगमन सूचित
कराता हुआ वृक्षों के ऊँचे टहनियों के कोमल किसलयों को धुँधले रंग का बना रहा है।
पर सूर्य की अन्तिम किरणें अभी अपना स्थान नहीं छोडऩा चाहती हैं। वे हवा के झोकों
से हटाई जाने पर भी अन्धकार के अधिकार का विरोध करती हुई सूर्यदेव की उँगलियों की
तरह हिल रही हैं। सन्ध्या हो गई। कोकिल
बोल उठा। एक सुन्दर कोमल कण्ठ से निकली हुई रसीली तान ने उसे भी चुप कर दिया।
मनोहर-स्वर-लहरी उस सरोवर-तीर से उठकर तट के सब वृक्षों को गुंजरित करने लगी।
मधुर-मलयानिल-ताड़ित जल-लहरी उस स्वर के ताल पर नाचने लगी। हर-एक पत्ता ताल देने
लगा। अद्भुत आनन्द का समावेश था। शान्ति का नैसर्गिक राज्य उस छोटी रमणीय भूमि
में मानों जमकर बैठ गया था। यह आनन्द-कानन
अपना मनोहर स्वरूप एक पथिक से छिपा न सका, क्योंकि वह प्यासा था। जल की उसे आवश्यकता थी। उसका
घोड़ा, जो बड़ी
शीघ्रता से आ रहा था, रुका, ओर वह उतर पड़ा।
पथिक बड़े वेग से अश्व से उतरा, पर वह भी स्तब्ध खड़ा हो गया; क्योंकि उसको भी उसी स्वर-लहरी ने
मन्त्रमुग्ध फणी की तरह बना दिया। मृगया-शील पथिक क्लान्त था-वृक्ष के सहारे खड़ा
हो गया। थोड़ी देर तक वह अपने को भूल गया। जब स्वर-लहरी ठहरी, तब उसकी निद्रा भी
टूटी। युवक सारे श्रम को भूल गया, उसके अंग में एक अद्भुत स्फूर्ति मालूम हुई। वह, जहाँ से स्वर सुनाई
पड़ता था, उसी ओर
चला। जाकर देखा, एक युवक
खड़ा होकर उस अन्धकार-रंजित जल की ओर देख रहा है।
पथिक ने उत्साह के साथ जाकर उस युवक के कंधे को पकड़ कर हिलाया। युवक का
ध्यान टूटा। उसने पलटकर देखा। 2 पथिक का वीर-वेश भी सुन्दर था। उसकी खड़ी
मूँछें उसके स्वाभाविक गर्व को तनकर जता रही थीं। युवक को उसके इस असभ्य बर्ताव पर
क्रोध तो आया, पर कुछ
सोचकर वह चुप हो रहा। और,
इधर
पथिक ने सरल स्वर से एक छोटा-सा प्रश्न कर दिया-क्यों भई, तुम्हारा नाम क्या
है? युवक ने उत्तर दिया-रामप्रसाद। पथिक-यहाँ कहाँ रहते हो? अगर बाहर के रहने
वाले हो, तो चलो, हमारे घर पर आज
ठहरो। युवक कुछ न बोला, किन्तु उसने एक
स्वीकार-सूचक इंगित किया। पथिक और युवक, दोनों, अश्व के समीप आये। पथिक ने उसकी लगाम हाथ में ले ली। दोनों
पैदल ही सड़क की ओर बढ़े। दोनों एक विशाल
दुर्ग के फाटक पर पहुँचे और उसमें प्रवेश किया। द्वार के रक्षकों ने उठकर आदर के
साथ उस पथिक को अभिवादन किया। एक ने बढक़र घोड़ा थाम लिया। अब दोनों ने बड़े
दालानों और अमराइयों को पार करके एक छोटे से पाईं बाग में प्रवेश किया। रामप्रसाद चकित था, उसे यह नहीं ज्ञात
होता था कि वह किसके संग कहाँ जा रहा है। हाँ, यह उसे अवश्य प्रतीत हो गया कि यह पथिक इस दुर्ग का कोई
प्रधान पुरुष है। पाईं बाग में बीचोबीच एक
चबूतरा था, जो संगमरमर
का बना था। छोटी-छोटी सीढिय़ाँ चढक़र दोनों उस पर पहुँचे। थोड़ी देर में एक दासी
पानदान और दूसरी वारुणी की बोतल लिये हुए आ पहुँची। पथिक, जिसे अब हम पथिक न कहेंगे, ग्वालियर-दुर्ग का किलेदार था, मुगल सम्राट अकबर
के सरदारों में से था। बिछे हुए पारसी कालीन पर मसनद के सहारे वह बैठ गया। दोनों
दासियाँ फिर एक हुक्का ले आईं और उसे रखकर मसनद के पीछे खड़ी होकर चँवर करने लगीं।
एक ने रामप्रसाद की ओर बहुत बचाकर देखा।
युवक सरदार ने थोड़ी-सी वारुणी ली। दो-चार गिलौरी पान की खाकर फिर वह
हुक्का खींचने लगा। रामप्रसाद क्या करे; बैठे-बैठे सरदार का मुँह देख रहा था। सरदार के ईरानी
चेहरे पर वारुणी ने वार्निश का काम किया। उसका चेहरा चमक उठा। उत्साह से भरकर उसने
कहा-रामप्रसाद, कुछ-कुछ
गाओ। यह उस दासी की ओर देख रहा था। 3 रामप्रसाद, सरदार के साथ बहुत मिल गया। उसे अब कहीं भी रोक-टोक नहीं
है। उसी पाईं-बाग में उसके रहने की जगह है। अपनी खिचड़ी आँच पर चढ़ाकर प्राय:
चबूतरे पर आकर गुनगुनाया करता। ऐसा करने की उसे मनाही नहीं थी। सरदार भी कभी-कभी
खड़े होकर बड़े प्रेम से उसे सुनते थे। किन्तु उस गुनगुनाहट ने एक बड़ा बेढब कार्य
किया। वह यह कि सरदार-महल की एक नवीना दासी, उस गुनगुनाहट की धुन में, कभी-कभी पान में चूना रखना भूल जाया करती थी, और कभी-कभी मालकिन
के 'किताब' माँगने पर 'आफ़ताबा' ले जाकर बड़ी
लज्जित होती थी। पर तो भी बरामदे में से उसे एक बार उस चबूतरे की ओर देखना ही
पड़ता था। रामप्रसाद को कुछ नहीं-वह जंगली
जीव था। उसे इस छोटे-से उद्यान में रहना पसन्द नहीं था, पर क्या करे। उसने
भी एक कौतुक सोच रक्खा था। जब उसके स्वर में मुग्ध होकर कोई अपने कार्य में च्युत
हो जाता, तब उसे
बड़ा आनन्द मिलता। सरदार अपने कार्य में
व्यस्त रहते थे। उन्हें सन्ध्या को चबूतरे पर बैठकर रामप्रसाद के दो-एक गाने सुनने
का नशा हो गया था। जिस दिन गाना नहीं सुनते, उस दिन उनको वारुणी में नशा कम हो जाता-उनकी विचित्र दशा
हो जाती थी। रामप्रसाद ने एक दिन अपने पूर्व-परिचित सरोवर पर जाने के लिए छुट्टी
माँगी; मिल भी
गई। सन्ध्या को सरदार चबूतरे पर नहीं बैठे, महल में चले गये।
उनकी स्त्री ने कहा-आज आप उदास क्यों हैं? सरदार-रामप्रसाद
के गाने में मुझे बड़ा ही सुख मिलता है।
सरदार-पत्नी-क्या आपका रामप्रसाद इतना अच्छा गाता है जो उसके बिना आपको चैन
नहीं? मेरी समझ
में मेरी बाँदी उससे अच्छा गा सकती है।
सरदार-(हँसकर) भला! उसका नाम क्या है? सरदार-पत्नी-वही, सौसन-जिसे में
देहली से खरीदकर ले आई हूँ। सरदार-क्या
खूब! अजी, उसको तो
मैं रोज देखता हूँ। वह गाना जानती होती, तो क्या मैं आज तक न सुन सकता। सरदार-पत्नी-तो इसमें बहस की कोई जरूरत नहीं
है। कल उसका और रामप्रसाद का सामना कराया जावे।
सरदार-क्या हर्ज। 4 आज उस छोटे-से उद्यान में अच्छी सज-धज है। साज
लेकर दासियाँ बजा रही हैं। 'सौसन'
संकुचित
होकर रामप्रसाद के सामने बैठी है। सरदार ने उसे गाने की आज्ञा दी। उसने गाना आरम्भ
किया- कहो री, जो कहिबे की
होई। बिरह बिथा अन्तर की वेदन सो जाने
जेहि होई।। ऐसे कठिन भये पिय प्यारे
काहि सुनावों रोई। 'सूरदास' सुखमूरि मनोहर लै
जुगयो मन गोई।। कमनीय कामिनी-कण्ठ की
प्रत्येक तान में ऐसी सुन्दरता थी कि सुननेवाले बजानेवाले-सब चित्र लिखे-से हो
गये। रामप्रसाद की विचित्र दशा थी, क्योंकि सौसन के स्वाभाविक भाव, जो उसकी ओर देखकर
होते थे-उसे मुग्ध किये हुए थे। रामप्रसाद
गायक था, किन्तु
रमणी-सुलभ भ्रू-भाव उसे नहीं आते थे। उसकी अन्तरात्मा ने उससे धीरे-से कहा कि 'सर्वस्व हार चुका'!
सरदार ने कहा-रामप्रसाद, तुम भी गाओ। वह भी एक अनिवार्य आकर्षण से-इच्छा न रहने
पर भी, गाने
लगा। हमारो हिरदय कलिसहु जीत्यो। फटत न सखी अजहुँ उहि आसा बरिस दिवस पर
बीत्यो।। हमहूँ समुझि पर्यो नीके कर
यह आसा तनु रीत्यो। 'सूरस्याम' दासी सुख सोवहु भयउ
उभय मन चीत्यो। सौसन के चेहरे पर गाने का
भाव एकबारगी अरुणिमा में प्रगट हो गया। रामप्रसाद ने ऐसे करुण स्वर से इस पद को
गाया कि दोनों मुग्ध हो गये। सरदार ने
देखा कि मेरी जीत हुई। प्रसन्न होकर बोल उठा-रामप्रसाद, जो इच्छा हो, माँग लो। यह सुनकर सरदार-पत्नी के यहाँ से एक बाँदी आई
और सौसन से बोली-बेगम ने कहा है कि तुम्हें भी जो माँगना हो, हमसे माँग लो। रामप्रसाद ने थोड़ी देर तक कुछ न कहा। जब दूसरी
बार सरदार ने माँगने को कहा, तब उसका चेहरा कुछ अस्वाभाविक-सा हो उठा। वह विक्षिप्त स्वर
से बोल उठा-यदि आप अपनी बात पर दृढ़ हों, तो 'सौसन'
को
मुझे दे दीजिये। उसी समय सौसन भी उस बाँदी
से बोली-बेगम साहिबा यदि कुछ मुझे देना चाहें, तो अपने दासीपन से मुझे मुक्त कर दें। बाँदी भीतर चली गई। सरदार चुप रह गये। बाँदी
फिर आई और बोली-बेगम ने तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार की और यह हार दिया है। इतना कहकर उसने एक जड़ाऊ हार सौसन को पहना
दिया। सरदार ने कहा-रामप्रसाद, आज से तुम 'तानसेन' हुए। यह सौसन भी
तुम्हारी हुई; लेकिन धरम
से इसके साथ ब्याह करो। तानसेन ने कहा-आज
से हमारा धर्म 'प्रेम' है।
चंदा:
चैत्र-कृष्णाष्टमी का चन्द्रमा अपना उज्ज्वल प्रकाश 'चन्द्रप्रभा' के निर्मल
जल पर डाल रहा है। गिरि-श्रेणी के तरुवर अपने रंग को छोड़कर धवलित हो रहे हैं; कल-नादिनी
समीर के संग धीरे-धीरे बह रही है। एक शिला-तल पर बैठी हुई कोलकुमारी सुरीले स्वर
से-'दरद दिल काहि सुनाऊँ प्यारे! दरद' ...गा रही
है। गीत अधूरा ही है कि अकस्मात् एक
कोलयुवक धीर-पद-संचालन करता हुआ उस रमणी के सम्मुख आकर खड़ा हो गया। उसे देखते ही
रमणी की हृदय-तन्त्री बज उठी। रमणी बाह्य-स्वर भूलकर आन्तरिक स्वर से सुमधुर संगीत
गाने लगी और उठकर खड़ी हो गई। प्रणय के वेग को सहन न करके वर्षा-वारिपूरिता
स्रोतस्विनी के समान कोलकुमार के कंध-कूल से रमणी ने आलिंगन किया। दोनों उसी शिला पर बैठ गये, और
निर्निमेष सजल नेत्रों से परस्पर अवलोकन करने लगे। युवती ने कहा-तुम कैसे आये? युवक-जैसे तुमने बुलाया। युवती-(हँसकर) हमने तुम्हें कब बुलाया? और क्यों
बुलाया? युवक-गाकर बुलाया, और दरद
सुनाने के लिये। युवती-(दीर्घ नि:श्वास
लेकर) कैसे क्या करूँ? पिता ने तो उसी से विवाह करना निश्चय किया
है। युवक-(उत्तेजना से खड़ा होकर) तो जो
कहो, मैं करने के लिए प्रस्तुत हूँ। युवती-(चन्द्रप्रभा की ओर दिखाकर) बस, यही शरण
है। युवक-तो हमारे लिए कौन दूसरा स्थान है? युवती-मैं तो प्रस्तुत हूँ। युवक-हम तुम्हारे पहले। युवती ने कहा-तो चलो। युवक ने मेघ-गर्जन-स्वर से कहा-चलो। दोनों हाथ में हाथ मिलाकर पहाड़ी से उतरने लगे।
दोनों उतरकर चन्द्रप्रभा के तट पर आये, और एक शिला पर खड़े
हो गये। तब युवती ने कहा-अब विदा! युवक ने
कहा-किससे? मैं तो तुम्हारे साथ-जब तक सृष्टि रहेगी तब तक-रहूँगा। इतने ही में शाल-वृक्ष के नीचे एक छाया दिखाई
पड़ी और वह इन्हीं दोनों की ओर आती हुई दिखाई देने लगी। दोनों ने चकित होकर देखा
कि एक कोल खड़ा है। उसने गम्भीर स्वर से युवती से पूछा-चंदा! तू यहाँ क्यों आई? युवती-तुम पूछने वाले कौन हो? आगन्तुक युवक-मैं तुम्हारा भावी पति 'रामू' हूँ। युवती-मैं तुमसे ब्याह न करूँगी। आगन्तुक युवक-फिर किससे तुम्हारा ब्याह होगा? युवती ने पहले के आये हुए युवक की ओर इंगित
करके कहा-इन्हीं से। आगन्तुक युवक से अब न
सहा गया। घूमकर पूछा-क्यों हीरा! तुम ब्याह करोगे? हीरा-तो इसमें तुम्हारा क्या तात्पर्य है? रामू-तुम्हें इससे अलग हो जाना चाहिये। हीरा-क्यों, तुम कौन होते हो? रामू-हमारा इससे संबंध पक्का हो चुका
है। हीरा-पर जिससे संबंध होने वाला है, वह सहमत न
हो, तब? रामू-क्यों
चंदा! क्या कहती हो? चंदा-मैं
तुमसे ब्याह न करूँगी। रामू-तो हीरा से भी
तुम ब्याह नहीं कर सकतीं! चंदा-क्यों? रामू-(हीरा से) अब हमारा-तुम्हारा फैसला हो
जाना चाहिये, क्योंकि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। इतना कहकर हीरा के ऊपर झपटकर उसने अचानक छुरे
का वार किया। हीरा, यद्यपि
सचेत हो रहा था; पर उसको सम्हलने में विलम्ब हुआ, इससे घाव लग
गया, और वह वक्ष थामकर बैठ गया। इतने में चंदा जोर से क्रन्दन कर
उठी-साथ ही एक वृद्ध भील आता हुआ दिखाई पड़ा।
2 युवती मुँह ढाँपकर रो रही है, और युवक
रक्ताक्त छूरा लिये, घृणा की दृष्टि से खड़े हुए, हीरा की ओर
देख रहा है। विमल चन्द्रिका में चित्र की तरह वे दिखाई दे रहे हैं। वृद्ध को जब
चंदा ने देखा, तो और वेग से रोने लगी। उस दृश्य को देखते ही वृद्ध कोल-पति
सब बात समझ गया, और रामू के समीप जाकर छूरा उसके हाथ से ले लिया, और आज्ञा
के स्वर में कहा-तुम दोनों हीरा को उठाकर नदी के समीप ले चलो। इतना कहकर वृद्ध उन सबों के साथ आकर नदी-तट पर
जल के समीप खड़ा हो गया। रामू और चंदा दोनों ने मिलकर उसके घाव को धोया और हीरा के
मुँह पर छींटा दिया, जिससे उसकी मूच्र्छा दूर हुई। तब वृद्ध ने
सब बातें हीरा से पूछीं; पूछ लेने पर रामू से कहा-क्यों, यह सब ठीक
है? रामू ने कहा-सब
सत्य है। वृद्ध-तो तुम अब चंदा के योग्य
नहीं हो, और यह छूरा भी-जिसे हमने तुम्हें दिया था। तुम्हारे योग्य
नहीं है। तुम शीघ्र ही हमारे जंगल से चले जाओ, नहीं तो तुम्हारा
हाल महाराज से कह देंगे, और उसका क्या परिणाम होगा सो तुम स्वयं समझ
सकते हो। (हीरा की ओर देखकर) बेटा! तुम्हारा घाव शीघ्र अच्छा हो जायगा, घबड़ाना
नहीं, चंदा तुम्हारी ही होगी।
यह सुनकर चंदा और हीरा का मुख प्रसन्नता से चमकने लगा, पर हीरा ने
लेटे-ही-लेटे हाथ जोड़कर कहा-पिता! एक बात कहनी है, यदि आपकी आज्ञा
हो। वृद्ध-हम समझ गये, बेटा! रामू
विश्वासघाती है। हीरा-नहीं पिता! अब वह
ऐसा कार्य नहीं करेगा। आप क्षमा करेंगे, मैं ऐसी आशा करता
हूँ। वृद्ध-जैसी तुम्हारी इच्छा। कुछ दिन के बाद जब हीरा अच्छी प्रकार से आरोग्य
हो गया, तब उसका ब्याह चंदा से हो गया। रामू भी उस उत्सव में सम्मिलित
हुआ, पर उसका बदन मलीन और चिन्तापूर्ण था। वृद्ध कुछ ही काल में
अपना पद हीरा को सौंप स्वर्ग को सिधारा। हीरा और चंदा सुख से विमल चाँदनी में
बैठकर पहाड़ी झरनों का कल-नाद-मय आनन्द-संगीत सुनते थे। 3
अंशुमाली अपनी तीक्ष्ण किरणों से वन्य-देश को परितापित कर रहे हैं।
मृग-सिंह एक स्थान पर बैठकर, छाया-सुख में अपने बैर-भाव को भूलकर, ऊँघ रहे
हैं। चन्द्रप्रभा के तट पर पहाड़ी की एक गुहा में जहाँ कि छतनार पेड़ों की छाया
उष्ण वायु को भी शीतल कर देती है, हीरा और चंदा बैठे हैं। हृदय के अनन्त विकास
से उनका मुख प्रफुल्लित दिखाई पड़ता है। उन्हें वस्त्र के लिये वृक्षगण वल्कल देते
हैं; भोजन के लिये प्याज, मेवा इत्यादि जंगली
सुस्वादु फल, शीतल स्वछन्द पवन; निवास के लिये
गिरि-गुहा; प्राकृतिक झरनों का शीतल जल उनके सब अभावों को दूर करता है, और सबल तथा
स्वछन्द बनाने में ये सब सहायता देते हैं। उन्हें किसी की अपेक्षा नहीं पड़ती।
अस्तु, उन्हीं सब सुखों से आनन्दित व्यक्तिद्वय 'चन्द्रप्रभा' के जल का
कल-नाद सुनकर अपनी हृदय-वीणा को बजाते हैं।
चंदा-प्रिय! आज उदासीन क्यों हो?
हीरा-नहीं तो, मैं यह सोच रहा हूँ
कि इस वन में राजा आने वाले हैं। हम लोग यद्यपि अधीन नहीं हैं तो भी उन्हें शिकार
खेलाया जाता है, और इसमें हम लोगों की कुछ हानि भी नहीं है। उसके प्रतिकार में
हम लोगों को कुछ मिलता है, पर आजकल इस वन में जानवर दिखाई नहीं पड़ते।
इसलिये सोचता हूँ कि कोई शेर या छोटा चीता भी मिल जाता, तो कार्य
हो जाता। चंदा-खोज किया था? हीरा-हाँ, आदमी तो गया
है। इतने में एक कोल दौड़ता हुआ आया, और कहा
राजा आ गये हैं और तहखाने में बैठे हैं। एक तेंदुआ भी दिखाई दिया है। हीरा का मुख प्रसन्नता से चमकने लगा, और वह अपना
कुल्हाड़ा सम्हालकर उस आगन्तुक के साथ वहाँ पहुँचा, जहाँ शिकार का
आयोजन हो चुका था। राजा साहब झंझरी में
बंदूक की नाल रखे हुए ताक रहे हैं। एक ओर से बाजा बज उठा। एक चीता भागता हुआ सामने
से निकला। राजा साहब ने उस पर वार किया। गोली लगी, पर चमड़े को छेदती
हुई पार हो गई; इससे वह जानवर भागकर निकल गया। अब तो राजा साहब बहुत ही
दु:खित हुए। हीरा को बुलाकर कहा-क्यों जी, यह जानवर नहीं
मिलेगा? उस वीर कोल ने
कहा-क्यों नहीं? इतना कहकर वह उसी
ओर चला। झाड़ी में, जहाँ वह चीता घाव से व्याकुल बैठा था, वहाँ
पहुँचकर उसने देखना आरम्भ किया। क्रोध से भरा हुआ चीता उस कोल-युवक को देखते ही
झपटा। युवक असावधानी के कारण वार न कर सका, पर दोनों हाथों से
उस भयानक जन्तु की गर्दन को पकड़ लिया, और उसने भी इसके
कंधे पर अपने दोनों पंजों को जमा दिया।
दोनों में बल-प्रयोग होने लगा। थोड़ी देर में दोनों जमीन पर लेट गये। 4 यह
बात राजा साहब को विदित हुई। उन्होंने उसकी मदद के लिए कोलों को जाने की आज्ञा दी।
रामू उस अवसर पर था। उसने सबके पहले जाने के लिए पैर बढ़ाया, और चला।
वहाँ जब पहुँचा, तो उस दृश्य को देखकर घबड़ा गया, और हीरा से
कहा-हाथ ढीला कर; जब यह छोड़ने लगे, तब गोली
मारूँ, नहीं तो सम्भव है कि तुम्हीं को लग जाय। हीरा-नहीं, तुम गोली
मारो। रामू-तुम छोड़ो तो मैं वार
करूँ। हीरा-नहीं, यह अच्छा
नहीं होगा। रामू-तुम उसे छोड़ो, मैं अभी
मारता हूँ। हीरा-नहीं, तुम वार
करो। रामू-वार करने से सम्भव है कि उछले
और तुम्हारे हाथ छूट जायँ, तो तुमको यह तोड़ डालेगा। हीरा-नहीं, तुम मार लो, मेरा हाथ
ढीला हुआ जाता है। रामू-तुम हठ करते हो, मानते
नहीं। इतने में हीरा का हाथ कुछ बात-चीत
करते-करते ढीला पड़ा; वह चीता उछलकर हीरा की कमर को पकड़कर तोड़ने
लगा। रामू खड़ा होकर देख रहा है, और पैशाचिक
आकृति उस घृणित पशु के मुख पर लक्षित हो रही है और वह हँस रहा है। हीरा टूटी हुई साँस से कहने लगा-अब भी मार
ले। रामू ने कहा-अब तू मर ले, तब वह भी
मारा जायेगा। तूने हमारा हृदय निकाल लिया है, तूने हमारा घोर
अपमान किया है, उसी का प्रतिफल है। इसे भोग।
हीरा को चीता खाये डालता है; पर उसने कहा-नीच!
तू जानता है कि 'चंदा' अब तेरी होगी। कभी
नहीं! तू नीच है-इस चीते से भी भयंकर जानवर है।
रामू ने पैशाचिक हँसी हँसकर कहा-चंदा अब तेरी तो नहीं है, अब वह चाहे
जिसकी हो। हीरा ने टूटी हुई आवाज से
कहा-तुझे इस विश्वासघात का फल शीघ्र मिलेगा और चंदा फिर हमसे मिलेगी।
चंदा...प्यारी...च... इतना उसके मुख से
निकला ही था कि चीते ने उसका सिर दाँतों के तले दाब लिया। रामू देखकर पैशाचिक हँसी
हँस रहा था। हीरा के समाप्त हो जाने पर रामू लौट आया, और झूठी
बातें बनाकर राजा से कहा कि उसको हमारे जाने के पहले ही चीता ने मार लिया। राजा बहुत दुखी हुए, और जंगल की
सरदारी रामू को मिली। 5 बसंत की राका चारों ओर अनूठा दृश्य दिखा रही
है। चन्द्रमा न मालूम किस लक्ष्य की ओर दौड़ा चला जा रहा है; कुछ पूछने
से भी नहीं बताता। कुटज की कली का परिमल लिये पवन भी न मालूम कहाँ दौड़ रहा है; उसका भी
कुछ समझ नहीं पड़ता। उसी तरह, चन्द्रप्रभा के तीर पर बैठी हुई कोल-कुमारी
का कोमल कण्ठ-स्वर भी किस धुन में है-नहीं ज्ञात होता। अकस्मात् गोली की आवाज ने उसे चौंका दिया। गाने
के समय जो उसका मुख उद्वेग और करुणा से पूर्ण दिखाई पड़ता था, वह घृणा और
क्रोध से रंजित हो गया, और वह उठकर पुच्छमर्दिता सिंहनी के समान
तनकर खड़ी हो गई, और धीरे से कहा-यही समय है। ज्ञात होता है, राजा इस
समय शिकार खेलने पुन: आ गये हैं-बस, वह अपने वस्त्र को
ठीक करके कोल-बालक बन गई, और कमर में से एक चमचमाता हुआ छुरा निकालकर
चूमा। वह चाँदनी में चमकने लगा। फिर वह कहने लगी-यद्यपि तुमने हीरा का रक्तपात कर
लिया है, लेकिन पिता ने रामू से तुम्हें ले लिया है। अब तुम हमारे हाथ
में हो, तुम्हें आज रामू का भी खून पीना होगा। इतना कहकर वह गोली के शब्द की ओर लक्ष्य करके
चली। देखा कि तहखाने में राजा साहब बैठे हैं। शेर को गोली लग चुकी है, और वह भाग
गया है, उसका पता नहीं लग रहा है, रामू सरदार है, अतएव उसको
खोजने के लिए आज्ञा हुई, वह शीघ्र ही सन्नद्ध हुआ। राजा ने कहा-कोई
साथी लेते जाओ। पहले तो उसने अस्वीकार
किया, पर जब एक कोल युवक स्वयं साथ चलने को तैयार हुआ, तो वह नहीं
भी न कर सका, और सीधे-जिधर शेर गया था, उसी ओर चला।
कोल-बालक भी उसके पीछे हैं। वहाँ घाव से व्याकुल शेर चिंघ्घाड़ रहा है, इसने जाते
ही ललकारा। उसने तत्काल ही निकलकर वार किया। रामू कम साहसी नहीं था, उसने उसके
खुले मुँह में निर्भीक होकर बन्दूक की नाल डाल दी; पर उसके जरा-सा मुँह
घुमा लेने से गोली चमड़ा छेदकर पार निकल गई, और शेर ने क्रुद्ध
होकर दाँत से बंदूक की नाल दबा ली। अब दोनों एक दूसरे को ढकेलने लगे; पर
कोल-बालक चुपचाप खड़ा है। रामू ने कहा-मार, अब देखता क्या है? युवक-तुम इससे बहुत अच्छी तरह लड़ रहे
हो। रामू-मारता क्यों नहीं? युवक-इसी तरह शायद हीरा से भी लड़ाई हुई थी, क्या तुम
नहीं लड़ सकते? रामू-कौन, चंदा! तुम
हो? आह, शीघ्र ही मारो, नहीं तो अब
यह सबल हो रहा है। चंदा ने कहा-हाँ, लो मैं
मारती हूँ, इसी छुरे से हमारे सामने तुमने हीरा को मारा था, यह वही
छुरा है, यह तुझे दु:ख से निश्चय ही छुड़ावेगा-इतना कहकर चंदा ने रामू
की बगल में छुरा उतार दिया। वह छटपटाया। इतने ही में शेर को मौका मिला, वह भी रामू
पर टूट पड़ा और उसका इति कर आप भी वहीं गिर पड़ा।
चंदा ने अपना छुरा निकाल लिया, और उसको चाँदनी में
रंगा हुआ देखने लगी, फिर खिलखिलाकर हँसी और कहा, -'दरद दिल
काहि सुनाऊँ प्यारे!' फिर हँसकर कहा-हीरा! तुम देखते होगे, पर अब तो
यह छुरा ही दिल की दाह सुनेगा। इतना कहकर अपनी छाती में उसे भोंक लिया और उसी जगह
गिर गई, और कहने लगी......हीरा......हम......तुमसे तुमसे......मिले
ही...... चन्द्रमा अपने मन्द प्रकाश में
यह सब देख रहा था।
उनकी कुछ श्रेष्ठ कहानियों के नाम हैं : आकाशदीप, गुंडा, पुरस्कार, सालवती, स्वर्ग के खंडहर
में आँधी, इंद्रजाल, छोटा जादूगर, बिसाती, मधुआ, विरामचिह्न, समुद्रसंतरण; अपनी कहानियों में
जिन अमर चरित्रों की उन्होंने सृष्टि की है, उनमें से कुछ हैं चंपा, मधुलिका, लैला, इरावती, सालवती और मधुआ का शराबी, गुंडा का नन्हकूसिंह और घीसू जो अपने अमिट प्रभाव छोड़
जाते हैं। प्रसाद ने तीन उपन्यास लिखे
हैं। 'कंकाल', में नागरिक सभ्यता
का अंतर यथार्थ उद्घाटित किया गया है। 'तितली' में ग्रामीण जीवन के सुधार के संकेत हैं। प्रथम यथार्थवादी
उन्यास हैं ; दूसरे में
आदर्शोन्मुख यथार्थ है। इन उपन्यासों के द्वारा प्रसाद जी हिंदी में यथार्थवादी
उपन्यास लेखन के क्षेत्र मे अपनी गरिमा स्थापित करते हैं। इरावती ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
पर लिखा गया इनका अधूरा उपन्यास है जो रोमांस के कारण ऐतिहासिक रोमांस के
उपन्यासों में विशेष आदर का पात्र है। इन्होंने अपने उपन्यासों में ग्राम, नगर, प्रकृति और जीवन का
मार्मिक चित्रण किया है जो भावुकता और कवित्व से पूर्ण होते हुए भी प्रौढ़ लोगों
की शैल्पिक जिज्ञासा का समाधान करता है। नाटक
प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं।
इनमें महाभारत
से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गई है। वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ
नाटककार हैं। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर
संस्थित है। जयशंकर प्रसाद ने अपने दौर के
पारसी रंगमंच की परंपरा को अस्वीकारते हुए भारत के गौरवमय अतीत के अनमोल चरित्रों
को सामने लाते हुए अविस्मरनीय नाटकों की रचना की। उनके नाटक स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त आदि में
स्वर्णिम अतीत को सामने रखकर मानों एक सोये हुए देश को जागने की प्रेरणा दी जा रही
थी। उनके नाटकों में देशप्रेम का स्वर अत्यंत दर्शनीय है और इन नाटकों में कई
अत्यंत सुंदर और प्रसिद्ध गीत मिलते हैं। 'हिमाद्रि तुंग शृंग से', 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' जैसे उनके नाटकों
के गीत सुप्रसिद्ध रहे हैं। इनके नाटकों
पर अभिनेय न होने का आरोप है। आक्षेप लगता रहा है कि वे रंगमंच के हिसाब से नहीं
लिखे गए है जिसका कारण यह बताया जाता है कि इनमे काव्यतत्व की प्रधानता, स्वगत कथनों का
विस्तार, गायन का
बीच बीच में प्रयोग तथा दृश्यों का त्रुटिपूर्ण संयोजन है। किंतु उनके अनेक नाटक
सफलतापूर्वक अभिनीत हो चुके हैं। उनके नाटकों में प्राचीन वस्तुविन्यास और रसवादी
भारतीय परंपरा तो है ही, साथ ही
पारसी नाटक कंपनियों, बँगला तथा
भारतेंदुयुगीन नाटकों एवे शेक्सपियर की नाटकीय शिल्पविधि के योग से उन्होंने नवीन
मार्ग ग्रहण किया है। उनके नाटकों के आरंभ और अंत में उनका अपना मौलिक शिल्प है जो
अत्यंत कलात्मक है। उनके नायक और प्रतिनायक दोनों चारित्रिक दृष्टि के गठन से अपनी
विशेषता से मंडित हैं। इनकी नायिकाएँ भी नारीसुलभ गुणों से, प्रेम, त्याग, उत्सर्ग, भावुक उदारता से
पूर्ण हैं। उन्होंने अपने नाटकों में जहाँ राजा, आचार्य, सैनिक, वीर और कूटनीतिज्ञ का चित्रण किया है वहीं ओजस्वी, महिमाशाली
स्त्रियों और विलासिनी, वासनामयी
तथा उग्र नायिकाओं का भी चित्रण किया है। चरित्रचित्रण उनके अत्यंत सफल हैं।
चरित्रचित्रण की दृष्टि से उन्होंने नाटकों में राजश्री एवं चाणक्य को अमर कर दिया
है। नाटकों में इतिहास के आधार पर वर्तमान समस्याओं के समाधान का मार्ग प्रस्तुत
करते हुए वे मिलते हैं। किंतु गंभीर चिंतन के साथ स्वच्छंद काव्यात्मक दृष्टि उनके
समाधान के मूल में है। कथोपकथन स्वाभाविक है किंतु उनकी भाषा संस्कृतगर्भित है।
नाटकों में दार्शनिक गंभीतरता का बाहुल्य है पर वह गद्यात्मक न होकर सरस है।
उन्होंने कुछ नाटकों में स्वगत का भी प्रयोग किया है किंतु ऐसे नाटक केवल चार हैं।
भारतीय नाट्य परंपरा में विश्वास करने के कारण उन्होंने नाट्यरूपक 'कामना' के रूप में
प्रस्तुत किया। ये नाटक प्रभाव की एकता लाने में पूर्ण सफल हैं। अपनी कुछ
त्रुटियों के बावजूद प्रसाद जी नाटककार के रूप में हिंदी मे अप्रतिम हैं।
निबंध प्रसाद ने प्रारंभ में समय समय पर 'इंदु' में विविध विषयों
पर सामान्य निबंध लिखे। बाद में उन्होंने शोधपरक ऐतिहासिक निबंध, यथा: सम्राट्
चंद्रगुप्त मौर्य, प्राचीन
आर्यवर्त और उसका प्रथम सम्राट् आदि: भी लिखे हैं। ये उनकी साहित्यिक मान्यताओं की
विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक भूमिका प्रस्तुत करते हैं। विचारों की गहराई, भावों की प्रबलता
तथा चिंतन और मनन की गंभीरता के ये जाज्वल्य प्रमाण हैं।
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