रिश्तों में अब वह
पहले सी गर्माहट कहाँ
अपनों से मिलने की
वह छटपटाहट कहाँ
दरवाजों पर नजरें
गड़ाये राह तकती बूढ़ी आँखें
अब अपनों के लौटकर
आने की वह आहट कहाँ
त्योहारों के बहाने
जब घर लौट आते थे परदेशी
अब गाँव देहातों
में वह रौनक कहाँ
जगमगाते थे घर जब अपनों
की रोशनी से
महकती थी गलियाँ
पकवानों की खुशबू से
पकवान तो अब भी
बनते ही होंगे शायद
अकेले बैठकर
खाने में वह लज्जत कहाँ
व्यस्तता इतनी है
कि एक घर में रहकर भी
दूसरे का हाल क्या
है यह जानने की फुर्सत कहाँ
मरता भी है कोई गर
तो मरे अपनी गरज से
क्यूँ मरा वह जानकर
हम करेंगे भी क्या
इतनी बेहयाई तो
जानवरों में भी न थी
हम क्योंकर इंसान
हुए भला.....
(कृष्णधर शर्मा 28.8.2021)
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