नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 27 अगस्त 2016

विकास के लिए जरूरी है विशेष राज्य का दर्जा

गुवाहाटी में गत सप्ताह सम्पन्न एक उत्तर-पूर्व के राज्यों में सतत विकास लक्ष्यों से संबंधित मुद्दों पर आयोजित एक सेमीनार में कुछ अर्थविदों ने इस बात पर चिन्ता व्यक्त की कि योजना आयोग के खात्मे के कारण 2017-18 से विशेष श्रेणी दर्जा प्राप्त राज्यों को केन्द्र सरकार से राज्यों को मिलनेवाला अनुदान भी समाप्त हो जाएगा। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा लिए गए निर्णय अनुसार योजना आयोग द्वारा इन राज्यों की राज्य योजनाओं के लिए उनके कुल परिव्यय का 90 प्रतिशत वित्तीय सहायता केन्द्रीय अनुदान के रूप में उपलब्ध करवाई जाती थी। राज्यों की योजनाओं के लिए अनुदान देना या वित्तीय सहायता प्रदान करना योजना आयोग के स्थान पर मोदी सरकार द्वारा स्थापित नीति आयोग के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इस प्रकार अब विशेष दर्जा राज्य केवल नाम के लिए रह जाएंगे। फरवरी 2015 में विशेष श्रेणी दर्जा राज्य के संबंध में पत्रकारों द्वारा पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि चूंकि 14वें वित्त आयोग द्वारा केन्द्रीय कर राजस्व में राज्यों का हिस्सा 32 प्रतिशत से बढ़ाकर 42 प्रतिशत कर दिया गया है जिससे सभी राज्यों को पहले की तुलना में केन्द्र से 50 प्रतिशत अधिक अंतरण प्राप्त होगा इसलिए अब विशेष दर्जा वर्ग राज्य की जरूरत नहीं रह गई है। विशेष श्रेणी दर्जा राज्य के संबंध में वित्तमंत्री अरुण जेटली के बयान के बाद इनके भविष्य के संबंध में एक अनिश्चितता की स्थिति निर्मित हो गई थी तथा उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों में बेचैनी की स्थिति निर्मित होने लगी। 24 मई 2015 को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि विशेष श्रेणी दर्जा को समाप्त नहीं किया जाय। 15 जून 2015 को गुवाहाटी में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री द्वारा आमंत्रित पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित कर केन्द्र सरकार से मांग विशेष दर्जा राज्य की व्यवस्था को यथावत रखे जाने की मांग की गई। इस संबंध में अभी तक प्रधानमंत्री से कोई ठोस सकारात्मक उत्तर नहीं मिलने से अभी भी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है । राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा निर्धारित प्रावधानों के अनुसार सामरिक महत्व की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित ऐसे पहाड़ी राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा प्रदान किया जाता है जिनके पास स्वयं के संसाधन स्रोत सीमित होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 370 के अंतर्गत जम्मू व कश्मीर विशेष दर्जा प्राप्त भारत का पहला राज्य है। जब तक अनुच्छेद 370 बना रहेगा जम्मू व कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त रहेगा। संविधान के अनुच्छेद 371 के अंर्तगत विशेष दर्जा प्राप्त नगालैंड की भी लगभग यही स्थिति है। इन दो राज्यों के अलावा उत्तर-पूर्व के असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, सिक्किम एवं त्रिपुरा राज्य उत्तर-पूर्व तथा हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड उत्तर में विशेष श्रेणी दर्जा प्राप्त राज्य है। उत्तर-पूर्व राज्यों में प्रचलित मूल्यों पर औसत प्रति व्यक्ति व्यक्ति आमदनी 80,135 रुपए है। प्रति व्यक्ति आमदनी में रुपए 1,95,380 के साथ सिक्किम इन राज्यों में चोटी पर है जबकि मणिपुर रुपए 46,573 सबसे नीचे है। पिछले 10 सालों में मेघालय की जीडीपी विकास दर 9 से 10 प्रतिशत रहने से यह इसके विकास की ओर सबसे अधिक तेज गति से अग्रसर राज्य बन गया है। उत्तर के राज्यों में प्रति व्यक्ति आय उत्तराखंड रुपए 1,15,622 तथा हिमाचल प्रदेश रुपए 92,300 थी। असम को छोडक़र उत्तर-पूर्व के राज्यों का मानव विकास सूचकांक रैंकिंग में केरल, दिल्ली, गोवा, हिमाचल प्रदेश तथा पंजाब के बाद 6 वें स्थान पर है। मानव विकास सूचकांक रैंकिंग में जम्मू-कश्मीर 10वें तथा उत्तराखंड 14वें स्थान पर हैं। भारत के सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों की उपलब्धियों में भी उत्तर-पूर्व राज्यों की प्रगति उत्साहवद्र्धक रही है। 1991 की तुलना में 2015 में गरीबी अनुपात में 50 फीसदी कमी लाने का लक्ष्य सभी राज्यों ने 2015 तक प्राप्त कर लिए थे । सिक्किम और मेघालय में गरीबी अनुपात गिरकर क्रमश: 8.6 तथा 8.9 प्रतिशत पर आ गया है। मणिपुर में गरीबी अनुपात 29.9 प्रतिशत है। हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर गरीबी अनुपात क्रमश: 7.2 तथा 8 प्रतिशत है। पूर्वात्तर राज्यों में सहस्राबदी विकास के लक्ष्यानुसार 2015 तक मातृ मृत्यु दर एवं शिशुु मृत्यु दर दोनों में कमी आई है किन्तु हिमाचल प्रदेश में 5 साल से कम शिशुओं की मृत्यु दर में कमी के लक्ष्य प्राप्त नहीं हो सके यह अभी भी उच्च बनी हुई है। कुल मिलाकर सहस्राबदी विकास लक्ष्यों में सभी 8 लक्ष्यों में मणिपुर के अलावा अन्य सभी पूर्वोत्तर राज्यों ने उपलब्ध्यिों के लक्ष्य प्राप्त कर लिए हैं। पर्यावरण संरक्षण सूचकांक में पूर्वोत्तर राज्य उच्चतम स्थान पर है। पूर्वोत्तर विकास परिषद की स्थापना के बाद से परिवहन तथा संचार साधनों का तेजी से विकास हुआ है। इसमें दो राय नहीं है कि पूर्वोत्तर एवं उत्तर के राज्यों का जो भी आर्थिक विकास हुआ है वह विशेष श्रेणी राज्य का दर्जा मिलने से उदार केन्द्रीय सहायता के कारण हुआ है। किन्तु अलग-अलग राज्यों में विकास की गति एवं स्तर अलग-अलग रही है। सिक्किम विकास के सभी मानकों पर सबसे आगे है जबकि मणिपुर सबसे पीछे है। इन राज्यों में जिस राज्य में सबसे अधिक शान्ति एवं सुशासन रहा है वहां विकास की गति उतनी ही तेज रही है। दूसरी ओर जिस राज्य में भारतीय सेना की मौजूदगी के बावजूद अलगाववादियों द्वारा निरन्तर हिंसा जारी है तथा राजनीतिक अस्थिरता रही है वहां विकास की गति धीमी है। विशेष श्रेणी दर्जा राज्यों में राजनैतिक स्थिरता, सुशासन एवं आर्थिक विकास के प्रमुख मानकों पर त्रिपुरा को पहले स्थान पर रखा जा सकता है। त्रिपुरा में राजनीतिक स्थिरता का प्रमुख कारण राजनीतिक दर्शन और उस दर्शन के प्रति प्रतिबद्ध सरकार का होना है। त्रिपुरा को उत्तर पूर्व के लिए रोल माडॅल राज्य माना जा सकता है तथा विकास के लिए त्रिपुरा के मुख्यमंत्री को रोल मॉडल मुख्यमंत्री माना जाना चाहिए। यदि इस राज्य के मुख्यमंत्री पूर्वोत्तर के विकास के लिए विशेष श्रेणी दर्जा राज्य की पैरवी कर रहे हैं तो केन्द्र सरकार को पूर्वोत्तर के लिए विकास के लिए इसको जारी रखना चाहिए। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि विशेष राज्य श्रेणी में उन्हीं राज्यों को रखा जाता है जो अपने राज्य की योजनाओं के लिए स्वयं संसाधन जुटाने में अक्षम है, ऐसी स्थिति में दो ही विकल्प हैं या तो केन्द्र सरकार उन्हें पड़ोसी विकसित समृद्ध राज्यों में शामिल कर दे या उनकी विशेष दर्जा यथावत रखा जाय। चूंकि पहला विकल्प संभव नहीं है इसलिए इन राज्यों के विकास के लिए विशेष राज्य का दर्जा जारी रखना ही विकल्प बचता है। (डॉ.हनुमंत यादव)

ओलम्पिक का सफ़र (ये राह नहीं आसान)

ओलंपिक में भारत एक रजत और कांस्य पदक छोड़ कोई अन्य पदक नहीं जीत पाया। वास्तव में यह शर्म की बात है। भारत से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन उपलब्धि अपेक्षा से बहुत कम रही। हॉकी, जिसे हमने पश्चिम को सिखाया, अब इस उपमहाद्वीप से गायब हो चुका है। खेल को ज्यादा आकर्षक बनाने के नाम पर नियमों में किए गए बदलाव के बाद पश्चिम ने हॉकी पर एकाधिकार स्थापित कर लिया है। लेकिन सिर्फ नियमों में किये गये बदलावों को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। हमारे खिलाडिय़ों के पतन का मूल कारण उनमें आत्मशक्ति एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव रहा है। महिलाओं का प्रदर्शन पुरुषों की तुलना में बेहतर रहा है जबकि इसके लिए कड़ी मेहनत की जरूरत होती है। अगले कुछ वर्षों में हमारा प्रदर्शन उन छोटे देशों से भी खराब हो जाएगा, जो दुनिया के नक्शे पर महज बिंदु भर हैं। आबादी के हिसाब से भारत ओलंपिक पदक के मामले में सबसे निचले पायदान पर है। इसके कई और कारण हैं। भारत में 1500 करोड़ रुपए के केंद्रीय बजट के अलावा मोटे तौर पर प्रत्येक राज्य का 250करोड़ का बजट है। कुछ राज्यों में खेल की आधारभूत संरचनाएं मौजूद हैं, लेकिन उनका सही रखरखाव और नियमित इस्तेमाल नहीं होता। राज्यों एवं केंद्र का खेल के प्रति समग्र रूप में कोई नजरिया नहीं है। नतीजा है कि खेल बजट का महज एक मद होता है, लेकिन किसी भी खास खेल में बेहतरी के नजरिए से कुछ नहीं किया जाता। क्रिकेट आगे बढ़ा है, क्योंकि इसे लेकर जनता ठीक उसी तरह दिवानी है जिस तरह कुछ साल पहले हॉकी को लेकर थी। यह सिर्फ इस बात की हकीकत को दर्शाता है कि खेल को लेकर कोई सही योजना या वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है। मास्को खेल प्रतियोगिता 1980 तक हॉकी भारत का प्रतिष्ठित खेल था, जब भारत ने आठवीं और अंतिम बार हॉकी का स्वर्णपदक जीता था। इसके बाद लगातार गिरावट आती गई और आज तक भारत किसी ओलंपिक में सेमीफाइनल तक भी नहीं पहुंच पाया। इसके विपरीत भारत ने 1983 में पहली बार क्रिकेट का विश्व कप जीता और इसके बाद क्रिकेट लगातार उठान पर ही रहा। आज क्रिकेट ने अनेक अवसर एवं हस्तियां उपलब्ध कराई हैं, जिसके चलते क्रिकेट और भी अधिक लाभप्रद हो गया है। भारत में धर्म के बाद सबसे ज्यादा उन्माद क्रिकेट को लेकर ही है। चूंकि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड बहुत अधिक पैसा कमा रहा है, इस कारण क्रिकेट को सरकारी सहायता की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन, इसके साथ ही क्रिकेट समेत दूसरे खेलों में बहुत अधिक राजनीति घुस गई है। प्रत्येक खेल के राष्ट्रीय फेडरेशनों में किसी न किसी पद पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता काबिज हैं और क्रिकेट भी इसका अपवाद नहीं है। खेलों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा है, क्योंकि राजनीतिज्ञ इनका इस्तेमाल अपने नाम एवं शोहरत के लिए कर रहे हैं। खेद की बात है कि पैसा का इंतजाम करने के लिए आज हर खेल फेडरेशनों द्वारा कुछ मंत्रियों या बड़े नौकरशाहों की मदद ली जा रही है। इसके एवज में राजनीतिज्ञ खेल फेडरेशनों में पद हथिया कर रूतबा और अहमियत हासिल करते हैं। दूसरे शब्दों में इससे दोनों का हित सध रहा है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) एवं इसके कामकाज पर जस्टिस लोधा पैनल की रिपोर्ट के आलोक में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आंखें खोलने वाली है। पैनल की अनुशंसाएं लागू की जाए तो बीसीसीआई या किसी दूसरे खेल फे डरेशनों के पदों पर राजनीतिज्ञों एवं बड़े नौकरशाहों के काबिज होने पर रोक लगेगी। यह हर कोई जानता है कि व्यवस्था चाहे जो भी हो शरद पवार,अरुण जेटली, फारूख अब्दुल्ला, राजीव शुक्ला, जैसे कई लोग इसके अभिन्न अंग बने रहते हैं। ये लोग चूंकि अधिकारियों या दूसरे स्रोतों से पैसा ला सकते हैं, इसलिए वे यहां बने हुए हैं। अगर ये लोग पद छोड़ दें, और सरकार द्वारा बहुत कम वित्तीय सहायता मिले तो इन फेडरेशनों के पास पैसा का इंतजाम करने के लिए कौन सा तंत्र होगा? खेलों के लिए कारपोरेट से आर्थिक सहायता बहुत ही कम है। सिर्फ क्रिकेट इसका अपवाद है। लेकिन सबसे बड़ी कमजोरी ग्रामीण भारत में खेलों के विकास का नहीं होना है। यह वह जगह है जहां अपरिक्व प्रतिभाएं बहुतायत में होती हैं, लेकिन उन्हें खोजने-तलाशने का सही उपाय नहीं है। पुन: खेदजनक है कि भारत में कोई खेल संस्कृति नहीं है। जूनियर सेक्शन में अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन के लिए खेल फेडरेशनों को जो भी थोड़ा-बहुत पैसा मिलता था उसे सरकार ने बंद कर दिया है। सरकार के इस निर्णय ने फेडरेशनों की मुश्किलें और बढ़ा ही दी हैं। युवा प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त मदद के बगैर सरकार श्रेष्ठ प्रदर्शन की उम्मीद कैसे करती है? ओलंपिक में भाग लेने वालों के लिए सिर्फ 300 करोड़ आबंटित कर देने, और वह भी रियो से सिर्फ तीन माह पहले, से काम नहीं चलने वाला। सिर्फ लगातार प्रयास एवं सुसंगत तरीके से लंबे समय तक कोष उपलब्ध कराने से पदक पाने में मदद मिल सकती है। चीन का उदाहरण देखें। यह प्रतिभाओं को बहुत कम उम्र में चुन लेता है और इन लडक़े-लड़कियों को ओलंपिक में पदक हासिल करने लायक बनाने के वक्त तक मदद करता है। इन युवा प्रतिभाओं को ज्यों ही नेशनल सेंटर में दाखिल किया जाता है उनकी जवाबदेही सरकार की हो जाती है और उन्हें किसी बात की चिंता नहीं करनी रहती। यहां तक कि अपनी शिक्षा के बारे में भी नहीं। लेकिन भारत में हम खेल की कीमत पर शिक्षा पर ध्यान देते हैं। दीपा कर्माकार का बेहतरीन प्रदर्शन देखने को मिला। वह पहली जिमनास्ट बनी जिसे ओलंपिक में जगह मिली। ओलंपिक में उसे चौथा स्थान मिलना पदक जीतने से कम नहीं है, क्योंकि त्रिपुरा में बहुत कम सुविधाओं के साथ उसे प्रशिक्षण मिला था। भविष्य की ओर देखते हुए भारत को ओलंपिक में गौरव हासिल करने के रास्तों एवं साधनों के बारे में सोचना चाहिए। भारत को कुछ खेलों के युवा प्रतिभाओं को चुनकर उन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए न कि जो भी थोड़ा-बहुत पैसा है उसे अनाप-शनाप तरीके से ओलंपिक के सभी 28 खेलों पर खर्च कर देना चाहिए। इसके अलावा, सरकार एक खेल नीति बना सकती है। यह खेल नीति मौजूदा नीति से अलग होनी चाहिए, जो खिलाडिय़ों को कॅरियर सुनिश्चित करने की गारंटी प्रदान करे। टुकड़े-टुकड़े में प्रोत्साहन देकर हम पदक नहीं जीत सकते। और हमें अगले ओलंपिक के छह माह पहले मुआयना करना चाहिए कि तैयारियों में हमने कहीं देर तो नहीं की है, जैसा कि अब तक होता रहा है। आएं, रियो को भूल जाएं और टोक्यों के बारे में सोचें और आज से ही तैयारी शुरू कर दें. कुलदीप नैय्यर