नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 21 सितंबर 2019

छत्तीसगढ़ का इतिहास

 

 

छत्तीसगढ़

भारत का राज्य

राजधानी

रायपुर(नवा रायपुर अटल नगर)

सबसे बड़ा शहर

रायपुर

जनसंख्या

2,55,45,198

 - घनत्व

189 /किमी

क्षेत्रफल

1,35,192 किमी 

 - ज़िले

27

राजभाषा

हिन्दीछत्तीसगढ़ी

गठन

नवम्बर 2000

सरकार

छत्तीसगढ़ सरकार

 - राज्यपाल

अनुसुइया उइके

 - मुख्यमंत्री

भूपेश बघेल

 - विधानमण्डल

एकसदनीय
विधान सभा (90 
सीटें)

 - भारतीय संसद

राज्य सभा (5 सीटें)
लोक सभा (11 
सीटें)

 - उच्च न्यायालय

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय

डाक सूचक संख्या

49

वाहन अक्षर

CG

आइएसओ 3166-2

IN-CT

छत्तीसगढ़ भारत का एक राज्य है। इसका गठन १ नवम्बर २००० को हुआ था और यह भारत का २६वां राज्य है। पहले यह मध्य प्रदेश के अन्तर्गत था। डॉ॰ हीरालाल के मतानुसार छत्तीसगढ़ 'चेदीशगढ़का अपभ्रंश हो सकता है। कहते हैं किसी समय इस क्षेत्र में 36 गढ़ थेइसीलिये इसका नाम छत्तीसगढ़ पड़ा। किंतु गढ़ों की संख्या में वृद्धि हो जाने पर भी नाम में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। भारत में दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदल गया - एक तो 'मगधजो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "बिहार" बन गया और दूसरा 'दक्षिण कौशलजो छत्तीस गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण "छत्तीसगढ़" बन गया। किन्तु ये दोनों ही क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं। "छत्तीसगढ़" तो वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णवशैवशाक्तबौद्ध संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है। एक संसाधन संपन्न राज्ययह देश के लिए बिजली और इस्पात का एक स्रोत हैजिसका उत्पादन कुल स्टील का 15% है। छत्तीसगढ़ भारत में सबसे तेजी से विकसित राज्यों में से एक है।

इतिहास

रामायणकालीन छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कोशल का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कोशलप्रदेशकालान्तर में 'उत्तर कोशलऔर 'दक्षिण कोशलनाम से दो भागों में विभक्त हो गया था इसी का 'दक्षिण कोशलवर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है। इस क्षेत्र के महानदी (जिसका नाम उस काल में 'चित्रोत्पलाथा) का मत्स्य पुराण महाभारत के भीष्म पर्व तथा ब्रह्म पुराण के भारतवर्ष वर्णन प्रकरण में उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण में भी छत्तीसगढ़ के बीहड़ वनों तथा महानदी का स्पष्ट विवरण है। स्थित सिहावा पर्वत के आश्रम में निवास करने वाले श्रृंगी ऋषि ने ही अयोध्या में राजा दशरथ के यहाँ पुत्र्येष्टि यज्ञ करवाया था जिससे कि तीनों भाइयों सहित भगवान श्री राम का पृथ्वी पर अवतार हुआ। राम के काल में यहाँ के वनों में ऋषि-मुनि-तपस्वी आश्रम बना कर निवास करते थे और अपने वनवास की अवधि में राम यहाँ आये थे।

इतिहास में इसके प्राचीनतम उल्लेख सन 639 ई० में प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्मवेनसांग के यात्रा विवरण में मिलते हैं। उनकी यात्रा विवरण में लिखा है कि दक्षिण-कौसल की राजधानी सिरपुर थी। बौद्ध धर्म की महायान शाखा के संस्थापक बोधिसत्व नागार्जुन का आश्रम सिरपुर (श्रीपुर) में ही था। इस समय छत्तीसगढ़ पर सातवाहन वंश की एक शाखा का शासन था। महाकवि कालिदास का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हुआ माना जाता है। प्राचीन काल में दक्षिण-कौसल के नाम से प्रसिद्ध इस प्रदेश में मौर्योंसातवाहनोंवकाटकोंगुप्तोंराजर्षितुल्य कुलशरभपुरीय वंशोंसोमवंशियोंनल वंशियोंकलचुरियों का शासन था। छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजवंशो का शासन भी कई जगहों पर मौजूद था। क्षेत्रिय राजवंशों में प्रमुख थे: बस्तर के नल और नाग वंशकांकेर के सोमवंशी और कवर्धा के फणि-नाग वंशी। बिलासपुर जिले के पास स्थित कवर्धा रियासत में चौरा नाम का एक मंदिर है जिसे लोग मंडवा-महल भी कहा जाता है। इस मंदिर में सन् 1349 ई. का एक शिलालेख है जिसमें नाग वंश के राजाओं की वंशावली दी गयी है। नाग वंश के राजा रामचन्द्र ने यह लेख खुदवाया था। इस वंश के प्रथम राजा अहिराज कहे जाते हैं। भोरमदेव के क्षेत्र पर इस नागवंश का राजत्व 14 वीं सदी तक कायम रहा।

भूगोल

छत्तीसगढ़ के उत्तर में उत्तर प्रदेश और उत्तर-पश्चिम में मध्यप्रदेश का शहडोल संभागउत्तर-पूर्व में उड़ीसा और झारखंडदक्षिण में तेलंगाना और पश्चिम में महाराष्ट्र राज्य स्थित हैं। यह प्रदेश ऊँची नीची पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ घने जंगलों वाला राज्य है। यहाँ सालसागौनसाजा और बीजा और बाँस के वृक्षों की अधिकता है। यहाँ सबसे ज्यादा मिस्रित वन पाया जाता है। सागौन की कुछ उन्नत किस्म भी छत्तीसगढ़ के वनो में पायी जाती है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियाँ एक विशाल और उपजाऊ मैदान का निर्माण करती हैंजो लगभग 80 कि॰मी॰ चौड़ा और 322 कि॰मी॰ लम्बा है। समुद्र सतह से यह मैदान करीब 300 मीटर ऊँचा है। इस मैदान के पश्चिम में महानदी तथा शिवनाथ का दोआब है। इस मैदानी क्षेत्र के भीतर हैं रायपुरदुर्ग और बिलासपुर जिले के दक्षिणी भाग। धान की भरपूर पैदावार के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। मैदानी क्षेत्र के उत्तर में है मैकल पर्वत शृंखला। सरगुजा की उच्चतम भूमि ईशान कोण में है। पूर्व में उड़ीसा की छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ हैं और आग्नेय में सिहावा के पर्वत शृंग है। दक्षिण में बस्तर भी गिरि-मालाओं से भरा हुआ है। छत्तीसगढ़ के तीन प्राकृतिक खण्ड हैं : उत्तर में सतपुड़ामध्य में महानदी और उसकी सहायक नदियों का मैदानी क्षेत्र और दक्षिण में बस्तर का पठार। राज्य की प्रमुख नदियाँ हैं - महानदीशिवनाथखारुनअरपापैरी तथा इंद्रावती नदी

छत्तीसगढ़ का विभाजन

एक नये राज्य छत्तीसगढ़ की शुरुआती मांग सन १९२० में उठी। इसी प्रकार की अनेक मांगें उठती रही लेकिन कभी एक संगठित रूप से कोइ मांग नहीं की गयी। संगठित रूप से पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की सर्वप्रथम १९२४ में रायपुर की कांग्रेस यूनीट द्वारा की गयी और बाद में त्रिपुरा में भारतीय कांग्रेस की वार्षिक सत्र में चर्चा की गयी। एक क्षेत्रीय कांग्रेस संगठन बनाने की भी मांग उठी।

जिले

छत्तीसगढ़ राज्य गठन के समय यहाँ सिर्फ 16 जिले थे पर बाद में 2 नए जिलो की घोषणा की गयी जो कि नारायणपुर व बीजापुर थे। पर इसके बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह ने 15 अगस्त 2011 को 9 और नए जिलो कि और घोषणा कि जो 1 जनवरी 2012 से अस्तित्व में आ गये। 15 अगस्त 2019 को छत्तीसगढ़ की नई सरकार के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने बिलासपुर जिले से काट कर 1 नए जिले के निर्माण की घोषणा की। इस तरह अब छत्तीसगढ़ में कुल 28 जिले हो गए हैं।

·         कवर्धा जिला  • *कांकेर जिला (उत्तर बस्तर)  • कोरबा जिला  • कोरिया जिला  • जशपुर जिला  • जांजगीर-चम्पा जिला  • दन्तेवाड़ा जिला (दक्षिण बस्तर)  • दुर्ग जिला  • धमतरी जिला  • बिलासपुर जिला  • बस्तर जिला  • महासमुन्द जिला  • राजनांदगांव जिला  • रायगढ जिला  • रायपुर जिला  • सरगुजा जिला  • नारायणपुर जिला  • बीजापुर • बेमेतरा  • बालोद जिला  • बलौदा बाज़ार • बलरामपुर  • गरियाबंद  • सूरजपुर  • कोंडागांव जिला • मुंगेली जिला • सुकमा जिला • गौरेला-पेंड्रा-मारवाही जिला

कला एवं संस्कृति

आदिवासी कला काफी पुरानी है। प्रदेश की आधिकारिक भाषा हिन्दी है और लगभग संपूर्ण जनसंख्या उसका प्रयोग करती है। प्रदेश की आदिवासी जनसंख्या हिन्दी की एक उपभाषा छत्तीसगढ़ी बोलती है।

 

 

साहित्य

छत्तीसगढ़ी साहित्य और छत्तीसगढ़ के प्रमुख साहित्यकार

छत्तीसगढ़ साहित्यिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में अति समृद्ध प्रदेश है। इस जनपद का लेखन हिन्दी साहित्य के सुनहरे पृष्ठों को पुरातन समय से सजाता-संवारता रहा है। छत्तीसगढ़ी और अवधी दोनों का जन्म अर्धमागधी के गर्भ से आज से लगभग 1080 वर्ष पूर्व नवीं-दसव शताब्दी में हुआ था।"] भाषा साहित्य पर और साहित्य भाषा पर अवलंबित होते है। इसीलिये भाषा और साहित्य साथ-साथ पनपते है। परन्तु हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी लिखित साहित्य के विकास अतीत में स्पष्ट रूप में नहीं हुई है। अनेक लेखकों का मत है कि इसका कारण यह है कि अतीत में यहाँ के लेखकों ने संस्कृत भाषा को लेखन का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ी के प्रति ज़रा उदासीन रहे। इसीलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में जो साहित्य रचा गयावह करीब एक हज़ार साल से हुआ है।

अनेक साहित्यको ने इस एक हजार वर्ष को इस प्रकार विभाजित किया है :

·         छत्तीसगढ़ी गाथा युग - सन् 1000 से 1500 ई. तक

·         छत्तीसगढ़ी भक्ति युग - मध्य कालसन् 1500 से 1900 ई. तक

·         छत्तीसगढ़ी आधुनिक युग - सन् 1900 से आज तक

यह विभाजन किसी प्रवृत्ति की सापेक्षिक अधिकता को देखकर किया गया है। एक और उल्लेखनीय बत यह है कि दूसरे आर्यभाषाओं के जैसे छत्तीसगढ़ी में भी मध्ययुग तक सिर्फ पद्यात्मक रचनाएँ हुई है।

लोकगीत और लोकनृत्य

छत्तीसगढ़ की संस्कृति में गीत एवं नृत्य का बहुत महत्व है। यहाँ के लोकगीतों में विविधता है। गीत आकार में अमूमन छोटे और गेय होते है एवं गीतों का प्राणतत्व है -- भाव प्रवणता। छत्तीसगढ़ के प्रमुख और लोकप्रिय गीतों में से कुछ हैं: भोजलीपंडवानीजस गीतभरथरी लोकगाथाबाँस गीतगऊरा गऊरी गीतसुआ गीतदेवार गीतकरमाददरियाडण्डाफागचनौनीराउत गीत और पंथी गीत। इनमें से सुआकरमाडण्डा व पंथी गीत नाच के साथ गाये जाते हैं।

खेल

छत्तीसगढ़ी बाल खेलों में अटकन-बटकन लोकप्रिय सामूहिक खेल है। इस खेल में बच्चे आंगन परछी में बैठकरगोलाकार घेरा बनाते है। घेरा बनाने के बाद जमीन में हाथों के पंजे रख देते है। एक लड़का अगुवा के रूप में अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उन उल्टे पंजों पर बारी-बारी से छुआता है। गीत की अंतिम अंगुली जिसकी हथेली पर समाप्त होती है वह अपनी हथेली सीधी कर लेता है। इस क्रम में जब सबकी हथेली सीधे हो जाते हैतो अंतिम बच्चा गीत को आगे बढ़ाता है। इस गीत के बाद एक दूसरे के कान पकड़कर गीत गाते है।

फुगड़ी

बालिकाओं द्वारा खेला जाने वाला फुगड़ी लोकप्रिय खेल है। चारछः लड़कियां इकट्ठा होकरऊंखरु बैठकर बारी-बारी से लोच के साथ पैर को पंजों के द्वारा आगे-पीछे चलाती है। थककर या सांस भरने से जिस खिलाड़ी के पांव चलने रुक जाते हैं वह हट जाती है।

लंगड़ी

यह वृद्धि चातुर्थ और चालाकी का खेल है। यह छू छुओवल की भांति खेला जाता है। इसमें खिलाड़ी एड़ी मोड़कर बैठ जाते है और हथेली घुटनों पर रख लेते है। जो बच्चा हाथ रखने में पीछे होता है बीच में उठकर कहता है।

खुडुवा (कबड्डी)

खुड़वा पाली दर पाली कबड्डी की भांति खेला जाने वाला खेल है। दल बनाने के इसके नियम कबड्डी से भिन्न है। दो खिलाड़ी अगुवा बन जाते है। शेष खिलाड़ी जोड़ी में गुप्त नाम धर कर अगुवा खिलाड़ियों के पास जाते है - चटक जा कहने पर वे अपना गुप्त नाम बताते है। नाम चयन के आधार पर दल बन जाता है। इसमें निर्णायक की भूमिका नहीं होतीसामूहिक निर्णय लिया जाता है।

डांडी पौहा

डांडी पौहा गोल घेरे में खेला जाने वाला स्पर्द्धात्मक खेल है। गली में या मैदान में लकड़ी से गोल घेरा बना दिया जाता है। खिलाड़ी दल गोल घेरे के भीतर रहते है। एक खिलाड़ी गोले से बाहर रहता है। खिलाड़ियों के बीच लय बद्ध गीत होता है। गीत की समाप्ति पर बाहर की खिलाड़ी भीतर के खिलाड़ी किसी लकड़े के नाम लेकर पुकारता है। नाम बोलते ही शेष गोल घेरे से बाहर आ जाते है और संकेत के साथ बाहर और भीतर के खिलाड़ी एक दूसरे को अपनी ओर करने के लिए बल लगाते हैजो खींचने में सफल होता वह जीतता है। अंतिम क्रम तक यह स्पर्द्धा चलती है।

जातियां

छत्तीसगढ़ मॆं कई जातियां और जनजातियां हैं। जनगणना 2011 के अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य की कुल जनसंख्या में से 30.62 प्रतिशत (78.22 लाख) जनसंख्या अनुसूचित जनजातियों की है। अघरीयागोंडकंवरबिंझवार ,उरांवहल्बाभतरासवरा आदि प्रमुख जनजातियॉ है। अबूझमाड़ियाकमारबैगापहाड़ी कोरवा तथा बिरहोर राज्य के विशेष पिछड़ी जनजातियाँ हैं। इनके अतिरिक्त अन्य जनजाति समूह भी हैजिनकी जनसंख्या अपेक्षाकृत कम है।

छत्तीसगढ़ की जातियाँ

छत्तीसगढ़ मॆं कई जातियां और जनजातियां होतीं हैं। वहां की जातियाँ इस प्रकार से हैं।

छत्तीसगढ राज्य में धनवार(धनुहार)जनजाति बहुतायत में निवास रत है। इस जाति को लोधा एवं बैगा भी कहा जाता है ये लोग प्राय:जंगल,पहाड़ में रहते है और कंदमूल जंगली जानवरों का शिकार करके अपना पेट भरते है। ये लोगों को तो सरकार ने आदिवासी घोसित किया है परंतु आज भी इस जाति पूर्ण रूप से लाभ नहीं मिल पा रहा है

गोंड

दक्षिण क्षेत्र की प्रमुख जनजाति गोंड है। जनसंख्या की दृष्टि से यह सबसे बड़ा आदिवासी समूह है। ये छत्तीसगढ़ के पूरे अंचल में फैले हुए हैं। पहले महाकौशल में सम्मिलित भूभाग का अधिकांश हिस्सा गोंडवाना कहलाता था। आजादी के पूर्व छत्तीसगढ़ राज्य के अंतर्गत आने वाली 14 रियासतों में 4 रियासत क्रमशः कवर्धारायगढ़सारनगढ एवं शक्ति गोंड रियासत थी। गोंडों ने श्रेष्ठ सौन्दर्यपरक संस्कृति विकसित की है। नृत्य व गायन उनका प्रमुख मनोरंजन है। बस्तर क्षेत्र की गोंड जनजातियां अपने सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन के लिए महत्वपूर्ण समझी जाती हैं। ये लोग व्यवस्थित रूप से गाँवों में रहते हैं। मुख्य व्यवसाय कृषि कार्य एवं लकड़हारे का कार्य करना है। इनकी कृषि प्रथा डिप्पा कहलाती है। इनमें ईमानदारी बहुत होती है।

बैगा

बैगा जनजाति मंडला जिले के चाड़ा के घने जंगलों में निवास करने वाली जनजाति है। इस जनजाति के प्रमुख नृत्यों में बैगानी करमादशहरा या बिलमा तथा परधौनी नृत्य है। इसके अलावा विभिन्न अवसरों पर घोड़ा पैठाईबैगा झरपट तथा रीना और फाग नृत्य भी करते हैं। नृत्यों की विविधता का जहां तक सवाल है तो निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मध्यप्रदेश की बैगा जनजाति जितने नृत्य करती है और उनमें जैसी विविधता है वैसी संभवतः किसी और जनजाति में कठिनाई से मिलेगी। बैनृत्यगा करधौनी विवाह के अवसर पर बारात की अगवानी के समय किया जाता हैइसी अवसर पर लड़के वालों की ओर से आंगन में हाथी बनकर नचाया जाता हैइसमें विवाह के अवसर को समारोहित करने की कलात्मक चेष्टा है। बैगा फाग होली के अवसर पर किया जाता है। इस नृत्य में मुखौटे का प्रयोग भी होता है।

मुरिया

बस्तर की मुरिया जनजाति अपने सौन्दर्यबोधकलात्मक रुझान और कला परम्परा में विविधता के लिए ख्यात है। इस जनजाति के ककसारमांदरीगेंड़ी नृत्य अपनी गीतात्मकअत्यंत कोमल संरचनाओं और सुन्दर कलात्मक विन्यास के लिए प्रख्यात है। मुरिया जनजाति में माओपाटा के रूप में एक आदिम शिकार नृत्य-नाटिका का प्रचल न भी हैजिसमें उल्लेखनीय रूप से नाट्य के आदिम तत्व मौजूद हैं। गेंड़ी नृत्य किया जाता है गीत नहीं गाये जाते। यह अत्यधिक गतिशील नृत्य है। प्रदर्शनकारी नृत्य रूप के दृष्टिकोण से यह मुरिया जनजाति के जातिगत संगठन में युवाओं की गतिविधि के केन्द्र घोटुल का प्रमुख नृत्य हैइसमें स्त्रियां हिस्सा नहीं लेती। ककसार धार्मिक नृत्य-गीत है। नृत्य के समय युवा पुरुष नर्तक अपनी कमर में पीतल अथवा लोहे की घंटियां बांधे रहते है साथ में छतरी और सिर पर आकर्षक सजावट कर वे नृत्य करते है।

हल्बा

यह जनजाति रायपुरदुर्ग, dhamatari तथा बस्तर जिलों में बसी हुई है। बस्तरहाछत्तीसगढ़ीयां तथा मरेथियांहल्बाओं की शाखाएँ हैं। मरेथियाँ अर्थात् हल्बाओं की बोली पर मराठी प्रभाव दिखता है। हल्बा कुशल कृषक होते हैं। अधिकांश हल्बा लोग शिक्षित होकर शासन में ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच गये हैंअन्य समाजों के सम्पर्क में आकर इनके रीति-रिवाजों में भी पर्याप्त परिवर्तन हुआ है। कुछ हल्बा कबीर पंथी हो गए हैं।

नगेशिया:---यह जनजाति अम्बिकापुर (उत्तर-पुर्व) के डिपाडीहलखनपुरअनुपपुरराजपुरप्रतापपुरसीतापुर क्षेत्रमें बसी हुई है ! नगेशिया जनजाति का मुख्य व्यवसाय कृषि कार्य एवं लकड़हारे का कार्य करना हैयह जनजाति जंगलों में निवास करने वाली जनजाति है।

अन्य जातियाँ

 • कोरबा • उराँव • भतरा • कँवर • कमार • माड़िय • मुड़िया • भैना • भारिया • बिंझवार • धनवार • नगेशिया • मंझवार • खैरवार • भुंजिया • पारधी • खरिया • गड़ाबा या गड़वा • महरा,महार,माहरा

 

 

पर्यटन स्‍थल

नवागढ़

नवागढ़ बेमेतरा जिले में है। पहले यह अवभाजित दुर्ग जिले में था। यह दुर्ग से इसकी दूरी करीब 100 कि०मी० और बेमेतरा से 25 कि०मी० है। यह मुंगेली व बेमेतरा जिले के ठीक मध्य में स्थित है।

मंदिरों की नगरी कहा जाने वाला नवागढ़ अपने आप में पुरातात्विक इतिहास संजोए है। कल्चुरी राजाओं के 36 गढ़ों में से एक गढ़ के रूप में नवागढ़ आज भी प्रतिष्टित है। जहाँ राजा के द्वारा निर्माण करायी हुई बावड़ी आज भी बावली पारा में विद्यमान हैजिसमें अत्यधिक पानी होने के कारण लोहे के दरवाजे से बंद कर दिया गया हैजो पहले पुरे नगर में जल का स्रोत हुआ करता था।

यहाँ समय-समय पर अनेक प्राचीन अवशेष मिलते हैंजो इसकी पुरातात्विक महत्त्व को प्रदर्शित करता है। नवागढ़ और उसके आसपास उपजाऊ भूमि है। लेकिन सिंचाई का साधन नहीं होने के कारण कृषि उन्नत नहीं है। श्री शमी गणेश का विश्व का एक मात्र प्रसिद्ध मन्दिर नवागढ़ की शोभा को चार चाँद लगाता है। इस मन्दिर की रचना तांत्रिक विधि द्वारा की गयी है। इसके अतिरिक्त यहाँ पर बहुत प्राचीन तालाब है,यहाँ तालाबो की बहुत संख्या है|

 

सेतगंगा

श्वेतगंगा या सेतगंगा छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले में स्थित एक हिन्दू तीर्थस्थल है। यहाँ का श्रीरामजानकी मन्दिर 9वीं 10वीं शताब्दी में बनाया गया था। सेतगंगा का प्राचीन नाम श्वेतगंगा है। यह मुंगेली से 15 कि.मी. की दुरी पर पश्चिम में राष्ट्रीय राजमार्ग 130A पर स्थित है।

चित्रकोट जलप्रपात

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चित्रकोट जलप्रपात 

भारत के छत्तीसगढ़ प्रदेश में स्थित एक जलप्रपात है। इस जल प्रपात की ऊँचाई 90 फुट है।

जगदलपुर से 39 किमी दूर इन्द्रावती नदी पर यह जलप्रपात बनता है। समीक्षकों ने इस प्रपात को आनन्द और आतंक का मिलाप माना है। 90 फुट ऊपर से इन्द्रावती की ओजस्विन धारा गर्जना करते हुये गिरती है। इसके बहाव में इन्द्रधनुष का मनोरम दृश्यआल्हादकारी है। यह बस्तर संभाग का सबसे प्रमुख जलप्रपात माना जाता है। जगदलपुर से समीप होने के कारण यह एक प्रमुख पिकनिक स्पाट के रूप में भी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है। अपने घोडे की नाल समान मुख के कारण इस जाल प्रपात को भारत का नियाग्रा भी कहा जाता है

 

तीरथगढ जलप्रपात

तीरथगढ़ के झरने छत्तीसगढ़ के बस्तर ज़िले में कांगेर घाटी पर स्थित कई झरने है।

 

तीरथगढ़ झरने जगदलपुर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 35 किमी की दूरी पर स्थित है।

तीरथगढ़ झरने भारत के सबसे ऊँचे झरनों में से एक है।

तीरथगढ़ झरनों की ऊँचाई लगभग 300 फीट है।

तीरथगढ़ झरनों पर पिकनिक का आनंद उठाया जा सकता है।

तीरथगढ़ झरनों को घूमने के लिए अक्टूबर-फरवरी का समय सबसे बेहतर है।

 

इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान

इंद्रावती राष्ट्रीय उद्यान भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के बीजापुर ज़िले में स्थित एक राष्ट्रीय उद्यान है।[1] यह इंद्रावती नदी के किनारे बसा हुआ है जिससे इसको अपना नाम मिला है। यह दुर्लभ जंगली भैंसेकी अंतिम आबादी वाली जगहों में से एक है। इसका कुल क्षेत्रफल २७९९ वर्ग कि॰मी॰ है[2]


स्थापना-1978


जिला- बीजापुर (छत्तीसगढ़)


   
क्षेत्रफ़ल- 1258 sq-km


टाइगर रिज़र्व - 2009


प्रॉजेक्ट टाइगर- 1983


इंद्रावती नदी के तट पर


कुटरू गेम सेंचुरी

 

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान  छत्तीसगढ प्रान्त के बस्तर जिला में स्थित है।

प्रकृति ने कांगेर घाटी को एसा उपहार सौंपा हैजहाँ वन देवी अपने पूरे श्रृंगार मे मंत्रमुग्ध कर देने वाली दृश्यावलियों को समेटेभूमिगार्भित गुफाओ को सीने से लगाकर यूं खडी होती है मानो आपके आगमन का इंतजार कर रही हो। कांगेर घाटी का दर्शन एक संतोषप्रद अवर्णनीय एवं बेजोड प्राकृतिक अनुभव का उदाहरण है।

स्थिति एवं दूरी

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान छत्तीसगढ के जगदलपुर जिला से मात्र २७ किमी की दूरी पर स्थित है। रायपुर जिला से लगभग ३३० किमी की दूरी पर है। यह उत्तर पश्चिम किनारे पर तीरथगढ जलप्रपात से प्रारंभ होकर पूर्व मे उडिसा की सीमा कोलाब नदी तक फैला है। कांगेर नदी इसके बीचो-बीच इठलाती हुई चलती है। इसकी औसत चौडाई ६ किमी एवं लम्बाई ४८ किमी है। इसका क्षेत्रफल २०० वर्ग किमी है। इसकी सीमा ४८ गाँवों से घिरी है।

जीवमंडल रिजर्व

बस्तर मे प्रकृति के इस उपहार को संरक्षण के लिये आरक्षित अनोखे वन को जुलाई १९८२ मे कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया। इसके अनछुये एवं कुंवारे वनो के सौंदर्य को देखकर इसे जीवमंडल (बायोस्फियर) रिजर्व भी घोषित किया गया है। आरक्षित वन घोषित करने का उद्देश्य जंगल एवं इसके प्राकृतिक मृतप्राय घटको को पुनर्जीवित कर हर हालत मे इसे सुरक्षा प्रदान करवन्य प्राणियों के लिये उपयुक्त शरण स्थल प्रदान करना था एवं प्रकृति प्रेमियों एवं पर्यटको के लिये एक आकर्षक का केन्द्र बनाना था।

वन प्रजाति

इस राष्ट्रीय उद्यान मे कई प्रकार की वन प्रजातियां मिलती है। जिससे यहां के वनो की विविधिता बढती है। इनमें दक्षिणी पेनिनसुलर मिक्स्ड डेसिहुअस बनआर्ड सागौनवन-इनमे सालबीजासाजाहल्दुचारतेंदु कोसमबेंतबांस एवं कई प्रकार के वनौषधि पौधे मिलते है।

पक्षियों का कलरव

पक्षियों का चहचहाना सुनना है तो कांगेर घाटी मे आपका स्वागत है। यहां वन्य प्राणियों के साथ साथ कई रंग-बिरंगी चिडियाअं उडते हुये दिख जाती है। छत्तीसगढ का राज्य पक्षी पहाडी मैना इन्ही जंगलो मे निवास करती है। इनमे पहाडी मैना के साथ भृगराजउल्लूवनमुर्गीजंगल मुर्गाक्रेस्टेडसरपेंट इगलश्यामा रैकेट टेलड्रांगो आदि सामान्यत: पाये जाते है।

आवास व्यव्स्था

आवास के लिये उद्यान मे कई वन विश्राम गृह है जिनमे कोटमसरनेतानारतीरथ्गढदरभा और जगदलपुर मे है। जिनका आरक्षण संचालककांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यानजगदलपुर से कराया जाता है।

आवागमन

कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान पहुचने मे वायु मार्ग के लिये निकटतम हवाई अड्डा रायपुर है जो देश के प्रमुख नगरो से जुडा है। रेलमार्ग मे विशाखापटनम-किरंदुल रेलमार्ग पर निकटतम रेल्वे स्टेशन जगदलपुर है। दिल्ली-मुंबई हावडा रेलमार्ग पर निकटतम रेल्वे स्टेशन रायपुर है। सडक मार्ग मे रायपुर-जगदलपुर ३०३ किमी है। विशाखापटनम-जगदलपुर ३१३ किमी है। हैदराबाद-जगदलपुर ५६५ किमी है।

मौसम एवं तापमान

वर्ष भर यहां का मौसम भ्रमण के लिये अनुकुल है। शीत ऋतु मे अधिकतम तापमान ३० सेन्टीग्रेड व न्युनतम १३ सेन्टीग्रेड रहता है। ग्रीष्म मे अधिकतम ४२सेन्टीग्रेड व न्युनतम २० सेन्टीग्रेड रहता है। यहां औसत वर्षा १५२ सेमी होती है।

महत्वपूर्ण जानकारी

उद्यान १ नवम्बर से ३० जून तक खुला रहता है। वर्षाकाल मे जुलाई से अक्टूबर तक उद्यान बंद रहता है। पक्षियों को निहारने के लिये बायनाकुलर ले जाना न भुले व कैमरा भी ले जाना न भुले। वन्य प्राणी प्रात: व शाम को विचरण के लिये निकलते है। दुर्लभ प्राणी कई बार कई कई दिनो मे दिखते है। कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान मे वो सभी चीजे है जो किसी राष्ट्रीय उद्यान की विशेषता होती है। यहां वनाच्छादित धरा के साथ वन्य प्राणियोंके अतिरिक्त कल-कल करते प्रपात व इठलाती कांगेर नदी भी है। यहां की निरवता एक अलग वातावरण बनाती है। प्रकृति प्रेमियों के लिये यह स्वर्ग है। यहां पर रोमांचक खेलों जैसे ट्रेकिन्गमेचर ट्रेल पर विचरणरैपलिंग आदि की असीम संभावना है।

गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान

गुरू घासीदास राष्ट्रीय उद्यान बैकुंठपुरजिला कोरिया के बैकुंठपुर सोनहत मार्ग पर ५ कि.मी. की दुरी पर स्थित है। इसकी स्थापना सन्‌ २००१ में की गई थी , इसके पूर्व यह राष्ट्रीय उद्यान संजय राष्ट्रीय उद्यान , सिधी मध्य प्रदेश का भाग था। इस राष्ट्रीय उद्यान का कुल क्षेत्रफल १४४०.७०५ वर्ग कि.मी. है। इस राष्ट्रीय उद्यान से हसदेवगोपद एवं अरपा नदी बहती है। अरपा नदी का उद्गम इस राष्ट्रीय उद्यान के अंदर है। इसके अतिरिक्त नेऊरबीजागुरबनास,रेहंठनदीयों का जलग्रहण क्षेत्र यह राष्ट्रीय उद्यान है। यह राष्ट्रीय उद्यान उन्नत पहाडों एवं नदियों से घिरा हुआ है। यहां सालसाजा,धावड़ाकुसुमतेन्दुआंवलाआमहल्दुजामुनकर्रा एवं बांस के वृक्षों के अतिरिक्त जडी बुटियां पायी जाती है। इस अभयारण्य में बाघ,तेन्दुआ,गौरचिंकारा,कोडरीसांभरभेडियाउदबिलावचीतलनीलगायजंगली सुअरभालूलंगूरसेहीमाउस डिवर,छिंदभालूचिरक माल खरगोशबंदरसिवेटहायनाजंगली कुत्तासियारलोमडीआदि जानवर एवं मुर्गेमोरधनेशमहोखट्रीपाईबाजचीलडीयरहुदहुदकिंगफिसरबसंतगौरीनाइटजारउल्लूतोताबीइटर , बगुलामैनाआदि पक्षी पाये जाते है। इस राष्ट्रीय उद्यान के अंदर ३५ राजस्व ग्राम हैं जिनमें मुख्यतः चेरवापांडोगोड़खैरवारअगरियाजनजातियॉं निवास करती हैं। इनकी भाषा हिन्दी है।

कैलाश गुफा

छत्तीसगढ़ के उतरी भाग में स्थित जशपुर जिले के बगीचा तहसील से लगभग 29 k.m की दुरी पर एक गुफा स्थित है जिसे कैलाश गुफा के नाम से जाना जाता हैकैलाश गुफा पहाड़ी पर स्थित है यंहा घन घोर जंगल है इस जंगल में बहुत बन्दर है लेकिन ये इंसान को कोई नुक्सान नही पहुचाते है , कैलाश गुफा प्राकृतिक सोंदर्य से भर पुर है कैलाश गुफा आने जाने का मार्ग आज कल काफी हद तक अच्छी हो गई है , कैलाश गुफा पर हर साल शिवरात्री में मेला लगता है जो दो तीन दिनों तक चलता हैइसे छोटा बाबा धाम भी बोला जाता है यंहा सावन के महीने में पुरे महीने मेला लगा रहता है और दूर दूर से श्रद्धालु जन भगवान् शिव को जल चढाने कांवर लेकर पैदल यात्रा कर के आते है

गंगरेल बांध

गंगरेल बांध छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले की महानदी पर बना हुआ है।

यह रायपुर से धमतरी ( 70km ) की दूरी और धमतरी से 13km की दूरी पर स्तिथ है। यह बांध रविशंकर बांध के नाम से भी जाना जाता है

 

सिरपुर

सिरपुर छत्तीसगढ़ में महानदी के तट स्थित एक पुरातात्विक स्थल है। इस स्थान का प्राचीन नाम श्रीपुर है यह एक विशाल नगर हुआ करता था तथा यह दक्षिण कोशल की राजधानी थी। सोमवंशी नरेशों ने यहाँ पर राम मंदिर और लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया था। ईंटों से बना हुआ प्राचीन लक्ष्मण मंदिर आज भी यहाँ का दर्शनीय स्थान है। उत्खनन में यहाँ पर प्राचीन बौद्ध मठ भी पाये गये हैं।

प्राचीन बाजार के ध्वंसावशेष

सिरपुर में महानदी का वही स्थान है जो भारत में गंगा नदी का है। महानदी के तट पर स्थिति सिरपुर का अतीत सांस्कृतिक विविधता तथा वास्तुकला के लालित्य से ओत-प्रोत रहा है। सिरपुर प्राचीन काल में श्रीपुर के नाम से विख्यात रहा है तथा सोमवंशी शासकों के काल में इसे दक्षिण कौसल की राजधानी होने का गौरव हासिल है।

कला के शाश्वत नैतिक मूल्यों एवं मौलिक स्थापत्य शैली के साथ-साथ धार्मिक सौहार्द्र तथा आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान के प्रकाश से आलोकित सिरपुर भारतीय कला के इतिहास में विशिष्ट कला तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है।

अतीत के पन्नों में सिरपुर की गाथा :-
सिरपुर का प्राचीन नाम श्रीपुर हैइतिहासकारों के अनुसार सिरपुर पांचवीं शताब्दी के मध्य दक्षिण कौसल की राजधानी रह चुका है। छठी शताब्दी में चीनी यात्री व्हेनसांग भी यहां आया था। छठी शताब्दी में निर्मित भारत का सबसे पहले ईंटों से बना मंदिर है।

यह मंदिर सोमवंशी राजा हर्षगुप्त की विधवा रानी बासटा देवी द्वारा बनवाया गया था। अलंकरणसौंदर्यमौलिक अभिप्राय तथा निर्माण कौशल की दृष्टि से यह अपूर्व है। लगभग 07 फुट ऊंची पाषाण निर्मित जगती पर स्थित यह मंदिर रानी बासटामहाशिव गुप्त बालार्जुन की माता एवं मगध के राजा सूर्यबर्मन की पुत्री थीयह अत्यंत भव्य है।

पंचस्थ प्रकार का यह मंदिर गर्भगृहअंतराल तथा मंडप से संयुक्त है। मंदिर के बाह्य भित्तियों पर कूट-द्वार बातायन आकृति चैत्य गवाक्षभारवाहकगर्णगजकीर्तिमान आदि अभिप्राय दर्शनीय है। मंदिर का प्रवेश द्वार अत्यंत सुंदर है। सिरदल पर शेषदायी विष्णु प्रदर्शित है। उभय द्वार शाखाओं पर विष्णु के प्रमुख अवतार विष्णु लीला के दृश्य अलंकारात्मक प्रतीकमिथुन दृश्य तथा वैष्णव द्वारपालों का अंकन है। गर्भगृह में रागराज अनंत शेष की बैठी हुई सौम्य प्रतिमा स्थापित है।

पुरातात्विक नगरी सिरपुर में वैसे तो प्रायः हर तालाब और पाण्डुवंशीय काल में बड़े-बड़े मंदिरोंका निर्माण हुआ। जिनमें त्रिदेव मंदिर भी प्रमुख है। जिसका प्रवेश द्वार कम से कम दस फुट चौड़ा था। इसी दौरान सुरंग टीला पंचायतन मंदिर गंधेश्वर मंदिर के सामने बड़ा शिव मंदिर आदि का निर्माण हुआ। सिरपुर में गंधेश्वर मंदिर महानदी के पावन तट पर हैजहां इसका निर्माण हुआ।

सिरपुर गंधेश्वर मंदिर महानदी के पावन तट पर हैजहां पैदल प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु श्रावण मास में बम्महनी (महासमुंद) सेतगंगा से कांवड यात्रा कर 'बोल बमके जयकारे के साथ पैदल सिरपुर पहुंचकर भगवान गंधेश्वर में जल अर्पित करते हैं।

श्रावण मास में सिरपुर भगवा रंग में रंग जाता है। यहां गंधेश्वर मंदिर जिसका संचालन पब्लिक ट्रस्ट करती है इस मंदिर की पूजा-अर्चना गोस्वामी परिवार की तीसरी पीढ़ी कर रही है। राधा-कृष्ण मंदिर एवं विभिन्न सम्प्रदाय के लोगों के यहां मंदिरों का निर्माण कराया गया है। मंदिर का संचालन एक ट्रस्ट एवं सामाजिक जनों द्वारा किया जाता है।

सिरपुर महोत्सव की शुरुआत :
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री बृजमोहन अग्रवाल के विशेष पहल पर स्थानीय लोगों की मांग पर वर्ष 2006 से सिरपुर महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इस महोत्सव से सिरपुर को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है।

महोत्सव के आयोजन के बाद से पुरातात्विक स्थलों के उत्खनन में भी तेजी आई है। स्थलों के उत्खनन से बड़े-बड़े शिव मंदिरों सहित विशेष रूप से यहां पंचायत शैली का मंदिर मिले हैं जो कि पंचायतन शैली में निर्मित भारत का सबसे बड़ा मंदिर है। इसके अलावा बौद्धिक स्तूप और राज प्रसाद भी नए उत्खनन में मिले हैं।

आकर्षण का केन्द्र :
इस गौरवशाली महोत्सव के भव्य और सफल आयोजन के विभिन्न राज्यों से आए कलाकारों द्वारा रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति की जाती है। साथ ही साथ छत्तीसगढ़ी लोकगीतों और लोकनृत्यों की विभिन्न शैलियों को पूरे पंरपरा के साथ मंच में प्रस्तुत किया जाता है। लोकगीत और लोकनृत्य विविध रूपों ददरियाकरमादेवार नृत्य की मनमोहक प्रस्तुति दी जाती हैभक्तगण मेले के दौरान आयोजित होने वाले विभिन्न कार्यक्रमों का लुत्फ उठाते हैं।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर राष्ट्रीय 53 सड़क मार्ग द्वारा 77 कि.मी. की दूरी पर हैयहां सुगमतापूर्वक पहुंचा जा सकता है।

 

भोरमदेव मंदिर

बनावट

मंदिर के चारो ओर मैकल पर्वत समूह है जिनके मध्य हरी भरी घाटी में यह मंदिर है। मंदिर के सामने एक सुंदर तालाब भी है। इस मंदिर की बनावटखजुराहो तथा कोणार्क के मंदिर के समान है। जिसके कारण लोग इस मंदिर को छत्तीसगढ का खजुराहो भी कहते हैं। यह मंदिर एक एतिहासिक मंदिर है इस मंदिर को 11 वीं शताब्दी में नागवंशी राजा देवराय ने बनवाया था।ऎसा कहा जाता है कि गोड राजाओं के देवता भोरमदेव थे जो कि शिवजी का ही एक नाम है। जिसके कारण इस मंदिर का नाम भोरमदेव पडा।

समय काल

मंदिर के मंडप में रखी हुइ एक दाढी- मूंछ वाले योगी की बैठी हुइ मुर्ति पर एक लेख लिखा है। जिसमे इस मुर्ति के निर्माण का समय कल्चुरी संवत 8.40 दिया है इससे यह पता चलता है कि इस मंदिर का निर्माण छठवे फणी नागवंशी राजा गोपाल देव के शासन काल में हुआ था। कल्चुरी संवत 8.40 का अर्थ 10 वीं शताब्दी के बीच का समय होता है।

कला शैली

मंदिर का मुख पूर्व की ओर है। मंदिर नागर शैली का एक सुन्दर उदाहरण है। मंदिर में तीन ओर से प्रवेश किया जा सकता है। मंदिर एक पाँच फूट ऊंचे चबुतरे पर बनाया गया है। तीनो प्रवेश द्वारो से सीधे मंदिर के मंडप में प्रवेश किया जा सकता है। मंडप की लंबाई60 फुट है और चौडाई 40 फुट है। मंडप के बीच में में 4 खंबे है तथा किनारे की ओर 12 खम्बे है जिन्होने मंदप की छत को संभाल रखा है। सभी खंबे बहुत ही सुंदर एवं कलात्मक है। प्रत्येक खंबे पर कीचन बना हुआ है। जो कि छत का भार संभाले हुए हैं। मंडप में लक्ष्मीविश्नु एवं गरूड की मुर्ति रखी है तथा भगवान के ध्यान में बैठे हुए एक राजपुरूष की मुर्ति भी रखी हुई है। मंदिर के गर्भगृह में अनेक मुर्तियां रखी है तथा इन सबके बीच में एक काले पत्थर से बना हुआ शिवलिंग स्थापित है। गर्भगृह में एक पंचमुखी नाग की मुर्ति है साथ ही नृत्य करते हुए गणेश जी की मुर्ति तथा ध्यानमग्न अवस्था में राजपुरूष एवं उपासना करते हुए एक स्त्री पुरूष की मुर्ति भी है। मंदिर के ऊपरी भाग का शिखर नहीं है। मंदिर के चारो ओर बाहरी दीवारो पर विश्नुशिव चामुंडा तथा गणेश आदि की मुर्तियां लगी है। इसके साथ ही लक्ष्मी विश्नु एवं वामन अवतार की मुर्ति भी दीवार पर लगी हुई है। देवी सरस्वती की मुर्ति तथा शिव की अर्धनारिश्वर की मुर्ति भी यहां लगी हइ है।

 

मैनपाट

 

मैनपाट मे स्थित भगवान बुध्द का मन्दिर

मैनपाट अम्बिकापुर से 75 किलोमीटर दुरी पर है इसे छत्तीसगढ का शिमला कहा जाता है। मैंनपाट विन्ध पर्वत माला पर स्थित है जिसकी समुद्र सतह से ऊंचाई 3781 फीट है इसकी लम्बाई 28 किलोमीटर और चौडाई 10 से 13 किलोमीटर है अम्बिकापुर से मैंनपाट जाने के लिए दो रास्ते हैं पहला रास्ता अम्बिकापुर-सीतापुर रोड से होकर जाता और दुसरा ग्राम दरिमा होते हुए मैंनपाट तक जाता है। प्राकृतिक सम्पदा से भरपुर यह एक सुन्दर स्थान है। यहां सरभंजा जल प्रपातटाईगर प्वांइट तथा मछली प्वांइट प्रमुख दर्शनीय स्थल हैं। मैनपाट से ही रिहन्द एवं मांड नदी का उदगम हुआ है। मैनपाट में मेहता प्वांइट भी एक दर्शनीय स्थल है |

इसे छत्तीसगढ का तिब्बत भी कहा जाता हैं। यहां तिब्बती लोगों का जीवन एवं बौध मंदिर आकर्षण का केन्द्र है। यहां पर एक सैनिक स्कूल भी प्रस्तावित है। यह कालीन और पामेरियन कुत्तो के लिये प्रसिद्ध है।

 

 

बमलेश्वरी मंदिर

छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव जिले के डोंगरगढ़ में स्थित है। यह मन्दिर एक पहाड़ी के ऊपर १६०० फुट की ऊँचाई पर स्थित है। पहाड़ी के शिखर पर स्थित मंदिर को 'बड़ी बम्बलेश्वरी मन्दिरकहते हैं जबकि इस परिसर से आधा किमी दूर नीचे स्थित मंदिर को 'छोटी बम्बलेश्वरी मन्दिरकहते हैं। क्वार मास की नौरात्रि और चैत्र मास की नवरात्रि को यहाँ दर्शन के लिये भारी भीड़ एकत्र होती है। नौरात्रि में यहाँ 'ज्योतिकलशप्रकाशित किया जाता है।

जल विहार बुका 

 हसदेव नदी के चारो तरफ हरे भरे पहाड़ियों से घिरा जलमग्न सुंदर प्राकृतिक सौंदय से परिपूर्ण मिनीमाता बांगो बांध का भराओ वाला जगह है जो कोरबा जिला के मड़ई गांव से पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां नाविक रहते है जो जल विहार कराते है।

केंदई जल प्रपात 

 केंदई जलप्रपात कोरबा जिला मुख्यालय से 85 किलोमीटर की दूरी पर अम्बिकापुर रोड पर स्थित है इस पर सड़क मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। जलप्रपात के नीचे जाने पर इंद्रधनुष की सुंदर चित्र बनती है जो मनमोहक है देखा जा सकता है। तथा चारो ओर हरे भरे पहाड़ियों से घिरा हुआ है।

गोल्डन आइलैंड 

 गोल्डन आइलैंड केंदई ग्राम से सात किलोमीटर मीटर दक्षिण में है जहां तक सड़क मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है। जो हसदेव नदी पर एक लैंड बना हुआ है जहां नाविक भी रहते है जो कभी भी जल विहार करा सकते है। जो बहुत ही आनंदमय जगह है। तथा पिकनिक स्पॉट भी है।

 

छत्तीसगढ़ी भाषा

छत्तीसगढ़ी भारत के छत्तीसगढ़ राज्य में बोली जाने वाली एक अत्यन्त ही मधुर व सरस भाषा है। यह हिन्दी के अत्यन्त निकट है और इसकी लिपि देवनागरी है। छत्तीसगढ़ी का अपना समृद्ध साहित्य  व्याकरण है।

छत्तीसगढ़ी 2 करोड़ लोगों की मातृभाषा है। यह पूर्वी हिन्दी की प्रमुख बोली है और छत्तीसगढ़ राज्य की प्रमुख भाषा है। राज्य की 82.56 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में तथा शहरी क्षेत्रों में केवल 17 प्रतिशत लोग रहते हैं। यह निर्विवाद सत्य है कि छत्तीसगढ़ का अधिकतर जीवन छत्तीसगढ़ी के सहारे गतिमान है। यह अलग बात है कि गिने-चुने शहरों के कार्य-व्यापार राष्ट्रभाषा हिन्दी व उर्दूपंजाबीउड़ियामराठीगुजरातीबाँग्लातेलुगुसिन्धी आदि भाषा में एवं आदिवासी क्षेत्रों में हलबीभतरीमुरियामाडियापहाड़ी कोरवाउराँव आदि बोलियो के सहारे ही संपर्क होता है। इस सबके बावजूद छत्तीसगढ़ी ही ऐसी भाषा है जो समूचे राज्य में बोलीव समझी जाती है। एक दूसरे के दिल को छू लेने वाली यह छत्तीसगढ़ी एक तरह से छत्तीसगढ़ राज्य की संपर्क भाषा है। वस्तुतः छत्तीसगढ़ राज्य के नामकरण के पीछे उसकी भाषिक विशेषता भी है।

छत्तीसगढ़ी की प्राचीनता

सन् 875 ईस्वी में बिलासपुर जिले के रतनपुर में चेदिवंशीय राजा कल्लोल का राज्य था। तत्पश्चात एक सहस्र वर्ष तक यहाँ हैहयवंशी नरेशों का राजकाज आरम्भ हुआ। कनिंघम (1885) के अनुसार उस समय का “दक्षिण कोसल” ही “महाकोसल” था और यही “बृहत् छत्तीसगढ़” थाजिस में उड़ीसामहाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के कुछ जिलेअर्थात् सुन्दरगढ़संबलपुरबलाँगीरबौदफुलवनीकालाहाँड़ीकोरापुट (वर्तमान ओड़िसा में)भंडाराचंद्रपुरशहडोलमंडलाबालाघाट (वर्तमान मध्य प्रदेश में) शामिल थे। उत्तर में स्थित अयोध्या राज्य कोशल राज्य कहलाया जहाँ की बोली अवधी है। दक्षिण कौशल में अवधी की ही सहोदरा छत्तीसगढ़ी कहलाई। हैहयवंशियों ने इस अंचल में इसका प्रचार कार्य प्रारम्भ किया जो यहाँ पर राजकीय प्रभुत्व वाली सिद्ध हुई। इससे वे बोलियाँ बिखर कर पहाड़ी एवं वन्याञ्चलों में सिमट कर रह गई और इन्हीं क्षेत्रों में छत्तीसगढ़ी का प्राचीन रूप स्थिर होने लगा।

छत्तीसगढ़ी के प्रारम्भिक लिखित रूप के बारे में कहा जाता है कि वह 1703 ईस्वी के दन्तेवाड़ा के दंतेश्वरी मंदिर के मैथिल पण्डित भगवान मिश्र द्वारा लिखित शिलालेख में है।

छत्तीसगढ़ी साहित्य

श्री प्यारेलाल गुप्त अपनी पुस्तक " प्राचीन छत्तीसगढ़" में बड़े ही रोचकता से लिखते है - " छत्तीसगढ़ी भाषा अर्धमागधी की दुहिता एवं अवधी की सहोदरा है " (पृ 21 प्रकाशक रविशंकर विश्वविद्यालय1973)। " छत्तीसगढ़ी और अवधी दोनों का जन्म अर्धमागधी के गर्भ से आज से लगभग 1080 वर्ष पूर्व नवीं-दसवीं शताब्दी में हुआ था।"

डॉ॰ भोलानाथ तिवारीअपनी पुस्तक " हिन्दी भाषा" में लिखते है - " छत्तीसगढ़ी भाषा भाषियों की संख्या अवधी की अपेक्षा कहीं अधिक है और इस दृष्टि से यह बोली के स्तर के ऊपर उठकर भाषा का स्वरुप प्राप्त करती है।"

भाषा साहित्य पर और साहित्य भाषा पर अवलंबित होते है। इसीलिये भाषा और साहित्य साथ-साथ पनपते है। परन्तु हम देखते है कि छत्तीसगढ़ी लिखित साहित्य के विकास अतीत में स्पष्ट रूप में नहीं हुई है। अनेक लेखकों का मत है कि इसका कारण यह है कि अतीत में यहाँ के लेखकों ने संस्कृत भाषा को लेखन का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ी के प्रति ज़रा उदासीन रहे।

इसीलिए छत्तीसगढ़ी भाषा में जो साहित्य रचा गयावह करीब एक हज़ार साल से हुआ है।

अनेक साहित्यको ने इस एक हजार वर्ष को इस प्रकार विभाजित किया है :

·         (१) गाथा युग (सन् 1000 से 1500 ई. तक)

·         (२) भक्ति युग - मध्य काल (सन् 1500 से 1900 ई. तक)

·         (३) आधुनिक युग (सन् 1900 से आज तक)

ये विभाजन साहित्यिक प्रवृत्तियों के अनुसार किया गया है यद्यपि प्यारेलाल गुप्त जी का कहना ठीक है कि - " साहित्य का प्रवाह अखण्डित और अव्याहत होता है।" श्री प्यारेलाल गुप्त जी ने बड़े सुन्दर अन्दाज़ से आगे कहते है - " तथापि विशिष्ट युग की प्रवृत्तियाँ साहित्य के वक्ष पर अपने चरण-चिह्म भी छोड़ती है : प्रवृत्यानुरुप नामकरण को देखकर यह नहीं सोचना चाहिए कि किसी युग में किसी विशिष्ट प्रवृत्तियों से युक्त साहित्य की रचना ही की जाती थी। तथा अन्य प्रकार की रचनाओं की उस युग में एकान्त अभाव था।"

यह विभाजन किसी प्रवृत्ति की सापेक्षिक अधिकता को देखकर किया गया है। एक और उल्लेखनीय बत यह है कि दूसरे आर्यभाषाओं के जैसे छत्तीसगढ़ी में भी मध्ययुग तक सिर्फ पद्यात्मक रचनाएँ हुई है।

 

छत्तीसगढ़ के उत्सव

छेरछेरा-

छेर-छेरा पुन्नीके नाम से जाने वाला यह त्योहार हर साल पौष मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन दान करने से घर में अनाज की कभी कमी नहीं होती।एवं गांव में छोटे छोटे बच्चे दुसरो के घर जाकर धान मांगते हैं।

होली

जातीय उत्साह की अभिव्यक्ति का एक और उम्दा माध्यम हैछत्तीसगढ़ के अपने तीज-त्यौहार हैं। हिन्दुओं के त्यौहार ही प्रायः मानते हैं। अलबत्ता कुछेक त्यौहार जरुर ऐसे होते हैं जो खास महत्व लिए रहते हैं। इन्हीं में फागुन की मस्ती में डूबा होली विशेष त्यौहार है। होली देवार में काफी उमंग-हड़दंग के संग मनती है। इस दिन समूचा कुनबा महुये की मदमस्ती में मस्त हो जाता है। मांदरढोल मंजीरे के संग गीत भी गाये जाते है। होली पर किसी चिन्हित स्थान पर एकत्र होने का चलन है। इस रोज शुभ मुहुर्त देखकर बैगा अनुष्ठान करना है और उसकी अनुमति के उपरांत प्रतीकात्मक होली जलाई जाती है। वृद्ध-जवान और बच्चा मंडली भी मदिरा पीकर लोट-पोट होती है।

पोरा

देवारों में पोरा काफी महत्व है। अलबला तीजा नहीं मानते। सामान्यतः बहन को भाई जिस तरह अपने घर लाते हैं उस परंपरा की बजाय बहन ससुराल में रहकर ही तीजा मानती है। वहीं व्रत-उपवास आदि होता है। लेकिन वस्त्रादि उपहार स्वद्वप देने का कोई चलन नहीं है। पोरा में कुम्हारों से मिट्टी की कुछ वस्तुयें खरीदकर उसकी पूजा के बाद बलि दी जाती है। भादो के शुक्ल पक्ष में ठाकुर देव को भी ये लोग बड़ी आस्था से पूजते हैं और बलि के बाद प्रसाद बंटता है।

सकट

देवारों में सकट का अत्यधिक महत्वपूर्ण पर्व है। सकट में महिलायें अपने माता-पिता के घर आती है। उपवास रखा जाता है। सामूहिक भोज से उपवास तोड़ा जाता है। परिजन वस्त्रश्रृंगार सामग्रियां अपनी कन्या को देते हैं।

हरेली

हरेली यद्यपि खेतिहर-समाज का पर्व है फिर भी इसके दूसरे स्वरुप यानी तंत्र मंत्र वाले हिस्से को देवारों का वर्ग मानता है। जिस तरह छत्तीसगढ़ के ग्राम्यांचलों में बुरी-बलाओं को बाहर ही रखने नीम की पत्तियों को लवय की तरह इस्तेमाल करते है। उसी तरह देवार भी नीम की डंगालों का सहारा लेते है। सुअर डेरा के बाहर नीम की पत्तियां खोंसी जाती हैं। अपने संगीतिक उपकरण को भी हरेली पर पूजते हैं। लेकिन व्यापक तौर पर हरेली का उत्सव नहीं मनता।

 

हरेली के अवसर पर नीम के साथ एक ग्रामीण

नृत्य-गान

देवारों की प्रामणिक पहचान उनका सांस्कृतिक ज्ञान हैं। जन-सामान्य में भी उनके इसी रूप की सर्वाधिक ख्याति हैं। इन्हें प्रतिष्ठा दिलवाने में गायनवादन एवं नृत्य पर इनका अचूक अधिका माना गया हैं। इस जन्म-जात और असाधारण कला-ज्ञान के चलते हर हमेशा से देवार जीवंत बने हुए हैं। जीवन के प्रत्येक पल में गीत नृत्य की खनक दीवारों का जातीय गुण हैं। इनकी इसी विशेषता के दर्शन रोजमर्रा की दिनचर्या में सायंकाल के समय में डेरा में आसानी से कर सकते हैं। जीविकोपार्जन का एक ठोस माध्यम तो यह हैं हीवाद्यगायन एवं नर्तन इन तीन बिंदुओं के सहारे भी इनकी विशेषतायें समझी जा सकती है। सांगीतक भेद को आधार मानें तो रायपुरिहा और रतनपुरिहा देवारों की अलग-अलग पहचान हैं। जो इन्हें समझने में भी सहायक बनते हैं।

 

छत्तीसगढ़ के आदिवासी देवी देवता

छत्तीसगढ़ में बहुत से वनवासी देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। इनमें से कुछ प्रमुख की सूची इस प्रकार से है:

देवताओं की सूची

·         करमकोट लोधा देव

·         बुढ़ादेव

·         डोकरादेव

·         बरह तरह के भीमा

·         घुटाल

·         कुंअर

·         भैरमबलहा

·         चिकटराव

·         डाक्टर देव

·         सियानदेव

·         चौरासीदेव

·         पाटदेव

·         भैरमबाबा

·         डालर देव

·         आंगापाटदेव

·         ठाकुर देव

देवियों की सूची

बस्तर के प्रमुख वनवासी देवी

·         केशरपालीन

·         मावली

·         गोदनामाता

·         आमाबलिन

·         तेलंगीन

·         घाटमुंडीन

·         आमाबलिन

·         कंकालीन

·         सातवाहिन

·         लोहडीगुड़ीन

·         लोहराजमाता

·         दाबागोसीन

·         दुलारदई

·         घाटमुंडील

·         शीतलादई

·         हिंगलाजीन

·         परदेशीन

·         फोदईबुढ़ी

·         महिषासुन मर्दिनी

·         करमकोटिन

·         कोटगढ़ीन

·         नोनी मसवासी

·         दंतेश्वरी

. अन्य देवी-देवता

·         गणेश

·         भेरुजी

·         पंथवारी

·         शीतला माताyतेजा बाबजी

·         हनुमानजी

·         लालबाईफूलबाई

·         छप्पन भेरु

·         सती माता

·         जुझार बाबजी

·         गोगाजी

·         नाग बाबजी

·         गंगा माता

·         छींक माता

·         कुलदेवी

·         सन्त सिंगाजी

·         अवन्तिका देवी

·         काजली माता

·         उज्जैनी

·         गणगौर

·         परीमाता

·         अम्बा माता

·         ठोकर्या भेरु

·         रामदेवजी

·         देवनारायणजी

·         महमाया देवी

·         समलाया देवी

·         कुदरगढी

·         वामका

·         रोगटा

·         जलदेवी

·         बोदरी माता

·         मोती बाबजी

·         विजासना माता बन्दीछोड़ बाबा

देवारों के अपने देवी-देवता

देवारों में लोक देवी देवता के संदर्भ में एक बेहद रोचक रीति नामांतरण की मिलती है। एक ही आराध्य देव अलग-अलग समयप्रसंग और संदर्भों में विविध परिचय से पूजा जाता हैं मसलन खैरागढ़िया देव इसे घर के बाहर शुद्धता के साथ भी रखते है। जब इस देवता को बाहर पूजतें हैं तो उसे बैरासू कहते है। इसी देव की धर भीतर आराधन्य होने से या दूतहा नाम मं बदल जाता है। फिर इसी परिचय के संग उसकी अर्चना की जाती हैं। देवारों में दूसरे कुल गौत्र के वाहक इसे गोसाई-पोसाई के नाम से आराधते हैं। मांगलिक प्रसंगों की तरह ही अनुष्ठातिक क्रिया-कलापों में बलि देने की प्रथा का अनिवार्य चलन है। जितने देवी-देवताउनकी अपनी पसंद के अनुसार बलि दे कर कार्य संपादित किया जाता है। किन्हीं खास पूजा अथवा देवी-देवता की अर्चना में महिलायें सम्मिलित नहीं होती। पुरुष वर्ग ही इसमें भाग लेता है।

·         सौंरा देव

·         कोंढी बाई

·         रिच्छीन देवी

·         मावली माता

·         रकत मावली

·         दंतेश्वरी माई

·         नरम बाबा

·         महामाया

·         घसमिन देवी

·         ठाकुर देव

·         गौंदा गुठला

·         बूढ़ी माई

·         काली माई

·         भँइसासुर

·         कंकाली देवी

·         नांग देव

·         अंधी माई

·         खैरागढ़िया

·         दूल्हा देव

रायगढ़ में देवताओं के शिल्प

एकताल रायगढ़ के झारा धातुशिल्पियों द्वारा तैयार 21 देवी-देवताओं की कलाकृतियां हैं। इनकी सूची इस प्रकार से है:-

बुढ़ी मां

बुढ़ी मां बुढ़ी रहती हैजिसके बाल सफेदगाल चिपके हुए एवं कमर झुकी हुईहाथ में डन्डा लिए हुए रहती है। टुकना में लीम के डालबाहरीलाल कपड़ा पूजा वालात्रिशुल रखी रहती है। उसके शरीर में चेचक का चिन्ह रहती है।

मावली

मावली बकरी रूप में दिखाई देती है।

फूल मावली

स्त्री के चेहरा एवं पूरा शरीर में फूल दिखाई देती।

रक्त मावली

मुंह से खून बहती रहती है। एक हाथ में खड़गएक हाथ में त्रिशूल एवं बाल बिखरे हुए दिखाई देती है।

चुरजीव मां

नाखून बड़े एवं हाथ उल्टा पैर टेड़ामेड़ाबाल बिखरे हुए दांत बाहर निकला हुआ। मुंह भी पीछे थन बहुत लम्बा

बुढ़ा रक्सा

21 बहिनों से हम बुढ़ा देव जी मानते है वो कमर में डिढौरीकनधा में टांगाहाथ में एक डांग और एक चोंगी पकड़ के पीता है। इसका पहचान यही होता है।

तरुणी माँ

तरुणी मां आंख बंद करके ओ मां जी है जब से उसका नाम लेकर पूजा करते हैं तो हमारा काम सफल होता है। इसके दोनों हाथ आशीर्वाद देते हुए रहते हैं। इस मां के कृपा से कष्ट पड़ने पर जग को तार देती है। इसका जीभ लम्बा होता है।

मंगला माँ

चैत महिना में मंगला मां का पूजा होता है। मंगला मां का पहचान एक हाथ में त्रिशुलएक हाथ खड्ग और हाथ भर चुड़ी रहेगा।

गरत मावली

गरत मावली मां का पेट भरा (गर्भवती) व बड़ा रहता है। जिस औरत पेट में रहकर मर जाता है तो उसका हम आदिवासी गरत मावली मां बनता है।

दन्देश्वरी मां

दन्तेश्वरी मां दुर्गा अवतार लिए है। इसका पहचान महिषासुर का किए दिखाया जाता है।

टिकरा गोसई

इसका पहचान सिर में बाल नही और देवी का रूप दिखना है।

सात बहिनी

सातों बहिनी देवी का सकल एक ही दिखाई इसके लिए इसे सातों बहिनी माना जाता है।

फूल सुन्दरी

फूल सुन्दरी मां का पहचान जाता है अति सुन्दर दिखाई देती है। किसी आदमी उसको नजर करता है तो उसका शरीर में बाधा आ जाता है।

गरब सोल मावली

जिस औरत पेट में आठ महिना रहता है तो उसको गरब सोल मारता है तो वह टेढ़ा होकर उसका प्राण जाता है। तो उसको मनाया जाता है गरब सोल मावली।

खेंदर

गांव में दुर्घटना आता है तो उसका पहचान आदमी के शरीर में माता दाई आ जाता है। यही इसका पहचान है जान खतरा में भी हो सकता है।

दूधमाई

दूध गोड़ी माई के आने से शरीर में छोटा-छोटा दाना आ जाता है। उसमें भी आदमी का खतरा होने का रहता है। जब यह बड़ जाता है तो यह बाहर व भीतर भी हो जाता है। इसका पूजा पाठ करने से वह आदमी ठीक हो जाता है।

सल तलियन

इसको हम समलपुर का समलई है। इसका पहचान इसके पूरे शरीर कांटा-कांटा रहता है।

चावल पूरने मां

चावर पूरन मां दोनों हाथ में चावर पकड़ा रहता है। उसको चावर पूरन मां माना जाता है।

हीरा कुडेन मां

हीरा कुडेन मां को माना जाता है। एकदम बालिका रूप में दिखाई देते है। हाथ चुड़ी माथा में सिन्दुर मांग में सिन्दुर मुह में लाली यही हीरा कुडेन मां का पहचान है।

निरमला देवी

निरमला माता का पहचान सिर कमल का फूल और योग आसन हाथ में गोल-गोल चक्री रहता है। यही इसका पहचान है।

मुचिन खेंदर

मुचिन खेंदर का पहचान जाता है कि जब आदमी उल्टी-टट्टी करते हुए मर जाता है उसका हर जा बीमार माना जाता है। उसका पहचान आंख बंद करके उल्टी करते हुए बैठ के मर जाता है।

खपर वाली माई

माना जाता है कि नग्न रूप में दिखाई देता है। जीभ लम्बा बड़े-बड़े थन और गला में सिर का माला पहचान होता है। कमर में हाथ को कपड़ा बनाकर पहनते हैं। यही खपर वाली माई का पहचान होता है।

छत्तीसगढ़ का खाना

मालपुवा - चावल को कूट कर उसमे गुड को मिला कर बनाया जाता है। यहां के सतनामी जाति के लोगों में इसका विशेष महत्व है

मानव सभ्यता जितनी पुरानी है लगभग उतना ही पुराना है- स्वाद का संसार। सभ्यता के विकास के साथ स्वाद की दुनिया बदलती चली गई। सहज सुलभ कलेवा होता हुआ खानपान का यह रूप आज नये दौर में हैषट्-रस तो वही हैं लेकिन जिनमें प्रपंच स्वाद से कम नहीं। मध्य भारत के पांच अहम् लोकांचल हैंबुंदेलखण्डबघेलखण्डनिमाड़मालवा और हमारा अपना छत्तीसगढ़। अपनी-अपनी रस विशिष्टता के साथ। ऐसे में हमें याद आती हैं हमारी परंपराएं इस मामले में छत्तीसगढ़ संभवतः सबसे अनूठा है।

छत्तीसगढ़ की संस्कृति में खानपान की विशिष्ट और दुर्लभ परंपराएं हैंजो हर प्रहरबेलामौसम और तीज-त्यौहार के मुताबिक सामने आती है। आदिवासी समाज का कलेवा यदि प्राकृतिक वनोपज है तो जनपदीय संस्कृति के वाहको का कलेवा अपनी विविधताओं से हतप्रभ करता है। मांगलिक और गैर-मांगलिक दोनों प्रसंग के व्यंजनों की अपार श्रृंखला है। ये व्यंजन भुने हुएभाप में पकाएतेल में तले और इन तीनों की बगैर सहायता से भी तैयार होते हैं।

कुछ मुख्य व्यंजन इस प्रकार हैं:-

मीठे व्यंजन

तसमई

छत्तीसगढ़ी तसमई खीर जैसा व्यंजन है। दूधचांवल का यह पकवान विशेष अवसरो व खुशियों में विशेष तौर पर बनता है।जैसे आमला नवमी विवाह आदि अवसरो में।

खुरमी

गेहूं तथा चावल के आटे के मिश्रण से निर्मित मीठी प्रकृति का लोकप्रिय व्यंजन है। गुड़ चिरौंजी और नारियल इसका स्वाद बढ़ा देते हैं।

पपची

गेहूं-चावल के आटे से बनी पपची बालूशाही को भी मात कर सकती है। मीठी पपची मंद आंच में सेके जाने से कुरमुरी और स्वादिष्ट बन जाती है।

अनरसा

चावल आटा और गुड़ की चाशनी से बना छत्तीसगढ़ी पकवानों का स्वादिष्ट रूप है। विशेष अवसरो में।

देहरौरी

दरदरे चांवल और चाशनी में भींगी देहरौरी को रसगुल्ले का देसी रूप कह सकते हैं।

फरा

फरा पके हुए चावल का बनाया जाता है मीठा फरा में गुड़ का घोल प्रयुक्त होता है और दूसरा भाप में पकाया हुआ जिसको बघार लगाकर अधिक स्वादिष्ट किया जाता है।

चौसेला

हरेलीपोराछेरछेरा त्यौहारों में चांवल के आटे से तलकर तैयार किया जाने वाले इस व्यंजन का जायका गुड़ व आचार बढ़ा देते हैं।

नमकीन व्यंजन

ठेठरी

लम्बी या गोल आकृति वाला यह नमकीन व्यंजन बेसन से बनता है।

करी

करीबेसन का मोटा सेव हैइसे नमक डालकर नमकीन करी बनाते हैं तथा बिना नमक के करी से गुड़ वाला मीठा लड्डू बनता है। दुःख-सुख के अवसरों में करी का गुरहा लड्डू बनाया जाता है।

सोहारी

शादि-ब्याह और भोज में पतली और बड़ी पूरी-सोहारी बनायी जाती है।

बरा

उड़द दाल से बने इस व्यंजन का शादि-ब्याह तथा पितर में विशेष चलन है।

चीला

चावल के आटे में नमक डालने से नुनहा चीला बनता है एवं घोल में गुड़ डाल देने से गुरहा चीला। इन दोनों चीले का स्वाद हरी मिर्च और टमाटर की चटनी से बढ़ जाता है।

छत्तीसगढ़ी व्यंजन संतुलितस्वास्थ्यवर्धक और स्वादिष्ट होते हैं। साथ ही पारंपरिकता की सौंधी महक इनको बेजोड़ बनाती है। आधुनिकता के इस दौर में चूल्हा-चौके से निकले स्वाद के अपने और विनम्र संसार में उतरने का अवसर दे रहा है।

 

छत्तीसगढ़ के मेले

मेले में राउत नाच

विविधतापूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में विभिन्न स्वरुप के मेलों का लंबा सिलसिला हैइनमें मुख्यतः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र यानि जशपुर-रायगढ़ अंचल में जतरा अथवा रामरेखारायगढ़-सारंगढ़ का विष्णु यज्ञ-हरिहाटचइत-राई और व्यापारिक मेलाकटघोरा-कोरबा अंचल का बारदक्षिणी क्षेत्र यानि बस्तर के जिलों में मड़ई और अन्य हिस्सों में बजारमातर और मेला जैसे विभिन्न जुड़ाव अपनी बहुरंगी छटा के साथ राज्य की सांस्कृतिक सम्पन्नता के जीवान्त उत्सव हैं।

गीता का उद्धरण है- मासानां मार्गशीर्षोअहं ...कृषि संस्कृति में खरीफ क्षेत्र में अगहन मास में घर-घर धन-धान्य एकत्र होने लगता हैइसलिए इसे माहों में श्रेष्ठ कहा गया है। यह व्याख्या सटीक जान पड़ती है और स्वाभाविक ही इसी माह से मेलों की तैयारियां होने लगती हैं। मेलों की गिनती का आरंभ इस अंचल की परम्परा के अनुरुप राम अर्थात् रामनामियों के बड़े भजन से किया जा सकता है और फिर पौष पूर्णिमा अर्थात् छेरछेरा पर्व पर तुरतरियासगनी घाट (अहिवारा)चरौदा (धरसीवां) और गोर्रइया (मांढर) का मेला भरता है। इसी तिथि पर अमोरा (तखतपुर)रामपुररनबोर (बलौदाबाजार) का मेला होता है[1]यह समय रउताही बाजारों के समापन और मेलो के क्रम के आरंभ का होता हैजो चैत मास तक चलता है। बेरला (बेमेतरा) का विशाल मेला भी पौष माह में (जनवरी में शनिवार को) भरता है। उद्धरण के अगले शब्द हैं- ...ऋतूनां कुसुमाकरःवसंत ऋतु तक चलने वाले मेलों के मुख्य सिलसिले का समापन चइत-राई से होता हैसरसींवा और भटगांव के चैत नवरात्रि से वैशाख माह के आरंभ तक चलने वाले चइत-राई मेले पुराने और बड़े मेले हैं। कुदरगढ़ (सरगुजा) में रामनवमी पर बड़ा मेला भरता है। कुंवर अछरिया (सिंघनगढ़साजा) और खल्लारी का मेला चैत पूर्णिमा पर भरता है। सावन में तुर्रीधाम (सक्ती) के मेले में भारी संख्या में लोग पहुँचते हैं ये मेला महाशिवरात्रि में भी इसी भीड़ के साथ देखने को मिलता है।

गंगा दशहरा

भौगोलिक दृष्टि से उत्तरी क्षेत्र में कोरिया अंचल के पटनाबैकुठपुरचिरमिरी आदि कई स्थानों में गंगा दशहरा के अवसर पर मेला भरता है तो पुराने रजवाड़े नगरों मेंविशेषकर जगदलपुर में दशहरा का मेला प्रमुख हैकिन्तु खैरागढ़ के अलावा खंडुआ (सिमगा)ओड़ेकेरा और जैजैपुर में भी दशहरा के अवसर पर विशाल मेला भरता है और भण्डारपुरी में दशहरा के अगले दिन मेला भरता है। सारंगढ़ अंचल के अनेक स्थलों में विष्णु यज्ञों का आयोजन होता है और यह मेले का स्वरुप ले लेता हैजिन्हें हरिहाट मेला भी कहा जाता है। सारंगढ अंचम में सहजपाली और पोरथ में मकर संक्रांति पर मेला लगता है। इसके साथ-साथ क्वांर और चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवरात्रियों पर भी मेला भरने का चलन पिछले सालों में बढ़ा हैइनमें झलमला (बालोद) में दोनों नवरात्रि पर बड़े मेले भरते हैं और रतनपुर में इस अवसर पर प्रज्वलित होने वाले ज्योति कलशों की संख्या दस हजार पार कर जाती है। अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता हैजिसमें पहाड़ के जाती है। अकलतरा के निकट दलहा पहाड़ पर नागपंचमी का मेला होता हैजिसमें पहाड़ के उपर चढ़ने की प्रथा है। विगत वर्षो में कावड़िया श्रद्धालुओं द्वारा सावन सोमवार पर शिव मंदिरों में जल चढ़ाने की प्रथा भी तेजी से बढ़ी है। पारम्परिक तिथि-पर्वो से हटकर सर्वाधिक उल्लेखनीय कटघोरा का मेला हैजो प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व गणतंत्र दिवस पर 26 जनवरी को भरता है। आमतौर पर फरवरी माह में पड़ने वाला दुर्ग का हजरत बाबा अब्दुल रहमान शाह का उर्सराजनांदगांव का सैयद बाबा अटल शाह का उर्सलुतरा शरीफ (सीपत)सोनपुर (अंबिकापुर) और हजरत रहमत शाह बाबा सारंगढ़ का उर्स 17 मई को प्रतिवर्ष लगता है एवं चंद्रपुर में नवम्‍बर दिसम्‍बर में सैयद साहब बाबा का उर्स प्रतिवर्ष लगता है जिसका स्वरुप मेलों की तरह होता है। रायगढ़ अंचल में पिछली सदी के जनजातीय धार्मिक प्रमुख प्रमुख और समाज सुधारक गहिरा गुरु के मेले चिखलीसूरजगढ़रेंगापालीलेंध्राबरमकेला आदि कई स्थानों पर भरते हैंइनमें सबसे बड़ा माघ सुदी 11 को ग्राम गहिरा (घरघोड़ा) में भरने वाला मेला है।

इसी प्रकार कुदुरमाल (कोरबा)दामाखेड़ा (सिमगा) में माघ पूर्णिमा पर कबीरपंथी विशाल मेले आयोजित होते हैं तथा ऐसे कई अन्य कबीरपंथी जुड़ाव-भण्डारा सरगुजा अंचल में होते रहते हैं। दामाखेड़ाकबीरपंथियों की महत्वपूर्ण गद्दी में से हैजबकि कुदुरमाल में कबीरदास जी के प्रमुख शिष्य धरमदास के पुत्र चुड़ामनदास एवं अन्य दो गुरुओं की समाधियां है। मेले के अवसर पर यहां अन्य धार्मिक अनुष्ठानों के साथ कबीर पंथ में दीक्षित भी किया जाता है। विगत वर्षो में गुरु घासीदास के जन्म स्थान गिरोदपुरी में फाल्गुन सुदी 5 से भरने वाले तीन दिवसीय मेले में उपस्थिति कई गुना बढ़ गई है। शिवनाथ नदी के बीच मनोरम प्राकृतिक टापू मदकूघाट अथवा मदकूदीपदरवन (बैतलपुर) में सामान्यतः फरवरी माह में विगत 97 वर्षों से भर रहा इसाई मेला और मालखरौदा का क्रिसमस सप्ताह का धार्मिक समागम उल्लेखनीय है। मदकूदीप में एक अन्य पारम्परिक मेला पौष में भी भरता है।

दुर्ग जिला का ग्राम नगपुरा प्राचीन शिव मंदिर के कारण जाना जाता हैकिन्तु यहां से तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्राचीन प्रतिमा भी प्राप्त हुई है। पिछले वर्षों में यह स्थल श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ के रूप में विकसित हो गया है। यहां दिसम्बर माह में शिवनाथ उत्सवनगपुरा नमस्कार मेला का आयोजन किया जा रहा हैजिसमें जैन धर्मावलंबियों की बड़ी संख्या में उपस्थिति होती है। इसी प्रकार वैष्णव मत के पुष्टिमार्गीय शाखा के अनुयायी पूरे देश और विदेशों में भी बड़ी तादाद में चम्पारण में आते हैंजो महाप्रभु वल्लभाचार्य का प्राकट्य स्थल माना जाता है और यह अवसर होता है उनकी जयंती (वैशाख बदी 11) का।

आमतौर पर प्रति तीसरे साल आयोजित होने वाले बार में तुमान (कटघोरा) तथा बसीबार (पाली) का 12 दिन और 12 रात लगातार चलने वाले मेले का अपना विशिष्ट स्वरुप है। छत्तीसगढ़ी का शब्द युग्म तिहार-बार इसीसे बना है। इस आयोजन के लिए शब्द युग्म तीज-तिहार के तीज की तरह ही बेटी-बहुओं और रिश्तेदारों को खास आग्रह सहित आमंत्रित किया जाता है। गांव का शायद ही कोई घर छूटता होजहां इस मौके पर अतिथि न होते हों। यानि बार भी मेलों की तरह सामान्यतः पारिवारिकसामाजिकसामुदायिकआर्थिक आवश्यकता-पूर्ति के माध्यम हैं। इनमें तुमान बार की चर्चा और प्रसिद्धि बैलों की दौड़ के कारण होती है। कटघोरा-कोरबा क्षेत्र का बार आगे बढ़करसरगुजा अंचल में बायर नाम से आयोजित होता है। बायर में ददरिया या कव्वाली की तरह युवक-युवतियों में परस्पर आशु-काव्य के सवाल-जवाब से लेकर गहरे श्रृंगारिक भावपूर्ण समस्या पूर्ति के काव्यात्मक संवाद होते हैं। कटघोरा क्षेत्र के बार में गीत-नृत्य का आरंभ हाय मोर दइया रेराम जोहइया तोला मया ह लागे टेक से होता है।

रायगढ़ की चर्चा मेलों के नगर के रूप में की जा सकती है। यहां रथयात्राजन्माष्टमी और गोपाष्टमी धूमधाम से मनाया जाता है और इन अवसरों पर मेले का माहौल चक्रधर समारोह में लोगों की उपस्थिति किसी मेले से कम नहीं होता। छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद इसका स्वरुप और चमकदार हो गया है। इसी प्रकार सारंगढ़ का रथयात्रा और दशहरा का मेला भी उल्लेखनीय है। बिलासपुर में चांटीडीह के पारम्परिक मेले के साथअपने नए स्वरुप में रावत नाच महोत्सव (शनिचरी) और लोक विधाओं के बिलासा महोत्सव का महत्वपूर्ण आयोजन होता है। रायपुर में कार्तिक पूर्णिमा पर महादेव घाट का पारंपरिक मेला भरता है।

छत्तीसगढ़ राज्य गठित होने के पश्चात् आरंभ हुए राज्य के सबसे नए बड़े मेले के रूप में रायपुर के राज्योत्सव की गणना हैविगत दो वर्षों से राज्य स्थापना की वर्षगांठ पर जिला मुख्यालयों में भी राज्योत्सव का आयोजन किया जा रहा है। इस क्रम में विभिन्न उत्सवों का जिक्र उपयुक्त होगा। भोरमदेव उत्सवकवर्धा (अप्रैल)रामगढ़ उत्सवसरगुजा (आषाढ़)लोककला महोत्सवभाटापारा (मई-जून)सिरपुर उत्सव (फरवरी)खल्लारी उत्सवमहासमुंद (मार्च-अप्रैल)ताला महोत्सवबिलासपुर (फरवरी-मार्च)रावत नाच महोत्सवबिलासपुर (नवम्बर)जाज्वल्य महोत्सव (जनवरी)शिवरीनारायण महोत्सवजांजगीर-चांपा (माघ-पूर्णिमा)लोक-मड़ईराजनांदगांव (मई-जून) आदि आयोजनों ने मेले का स्वरुप ले लिया हैइनमें से कुछ उत्सव-महोत्सव वस्तुतः पारंपरिक मेलों के अवसर पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में आयोजित किए जाते हैंजिनमें श्री राजीवलोचन महोत्सवराजिम (माघ-पूर्णिमा) सर्वाधिक उल्लेखनीय है।

राजिम मेले की गिनती राज्य के विशालतम मेलों में है। राज्य बनने के पश्चात् क्रमशः इस मेले ने न सिर्फ अपना पुराना आकार फिर से पाया हैबल्कि इसके स्वरुप और आकार में खासी बढ़ोतरी हुई है। माघ-पूर्णिमा पर भरने वाले इस मेले का केन्द्र राजिम होता हैकिन्तु इसका विस्तार पंचक्रोशी क्षेत्र में पटेवा (पटेश्वर)कोपरा (कोपेश्वर)फिंगेश्वर कारण मेले का माहौल शिवरात्रि तक बना रहता है। विगत वर्षो में इस मेले का रूप लघु कुंभ जैसा हो गया है और अब श्री राजीवलोचन कुंभ के नाम से आयोजित हो रहा है। मेले के दौरान कल्पवास और संत समागम से यहां प्रतिवर्ष आगन्तुकों की संख्या में वृद्धि हो रही है। संख्या की दृष्टि से राज्य के विशाल मेलों में से एक जगदलपुर का दशहरा मेला है। इसके अतिरिक्त चपकाबस्तर की प्रतिष्ठा बड़े मेले के रूप में है। शिवरीनारायण-खरौद का मेला भी माघ-पूर्णिमा से आरंभ होकर महाशिवरात्रि तक चलता है। मान्यता है कि माघ-पूर्णिमा के दिन पुरी के जगन्नाथ मंदिर का पट बंद रहता है और वे शिवरीनारायण में विराजते हैं। इस मेले में दूर-दूर से श्रद्धालु और मेलार्थी पहुंचते हैंयह संकल्प अथवा मान्यता के लिए किये जाने वाले उद्यम की प्रथा है। प्रतिवर्ष अब उत्सव का आयोजन होने से लोक विधाओं को प्रोत्साहन मिल रहा है। छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण की प्रतिष्ठा तीर्थराज जैसी है। अंचल के लोग सामान्य धार्मिक अनुष्ठानों से लेकर अस्थि विसर्जन तक का कार्य यहां सम्पन्न होते हैं। इस अवसर पर मंदिर के प्रांगण में अभी भी सिर्फ ग्यारह रुपए में सत्यनारायण भगवान की कथा कराई जा सकती है। यह मेला जाति-पंचायतों के कारण भी महत्वपूर्ण हैजहां रामनामीनिषाददेवारनायक और अघरिया-पटेल-मरार जाति-समाज की सालाना पंचायत होती है। विभिन्न सम्प्रदायोअखाड़ों के साधु-सन्यासी और मनौरंजन के लिए मौत का कुंआचारोंधामझूलासर्कससिनेमा जैसे मेला के सभी घटक शिवरीनारायण मेले में देखे जा सकते हैं। पहले गोदना गुदवाने के लिए भी मेले का इंतजार होता थाअब इसकी जगह रंग-छापे वाली मेहंदी ने ले लिया है। गन्ने के रस में पगा लाई का उखरा प्रत्येक मेलार्थी अवश्य खरीदता है। मेले की चहल-पहल शिवरीनारायण के माघ पूर्णिमा से खरौद की शिवरात्रि तक फैल जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में पिन खजूर खरीदी के लिए आमतौर पर उपलब्ध न होने और विशिष्टता के कारणमेलों की खास चीज होती थी।

उखरा की तरह ही मेलों की सर्वप्रिय एक खरीदी बताशे की होती है। यह एक प्रकार से कथित क्रमशः उपर और खाल्हे राज के मेलों की पहचान भी है। इस संदर्भ में उपर और खाल्हे राज की पहचान का प्रयास करना आवश्यक प्रतीत होता है। इसके अलावा एक अन्य प्रचलित भौगोलिक नामकरण चांतर राज हैजो निर्विवाद रूप से छत्तीसगढ़ का मध्य मैदानी हिस्सा हैकिन्तु उपर और खाल्हे राजउच्च और निम्न का बोध कराते हैं और शायद इसीलिएउच्चता की चाह होने के कारण इस संबंध में मान्यता एकाधिक है। ऐतिहासिक दृष्टि से राजधानी होने के कारण रतनपुरजो लीलागर नदी के दाहिने तट पर हैको उपर राज और लीलागर नदी के बायें तट का क्षेत्र खाल्हे राज कहलाया और कभी-कभार दक्षिणी-रायपुर क्षेत्र को भी पुराने लोग बातचीन में खाल्हे राज कहा करते हैं। बाद में राजधानी-संभागीय मुख्यालय रायपुर आ जाने के बाद उपर राज का विशेषणइस क्षेत्र ने अपने लिए निर्धारित कर लियाजिसे अन्य ने भी मान्य कर लिया। एक मत यह भी है कि शिवनाथ का दाहिना-दक्षिण तटउपर राज और बायां-उत्तरी तट खाल्हे राजजाना जाता है किन्तु अधिक संभव और तार्किक जान पड़ता है कि शिवनाथ के बहाव की दिशा में यानि उद्गम क्षेत्र उपर राज और संगम की ओर खाल्हे राज के रूप में माना गया है।

छत्तीसगढ़ का काशी कहे जाने वाले खरौद के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर में दर्शन और लाखा चांउर चढ़ाने की परंपरा हैजिसमें हाथ से दरापछीना और निमारा गिन कर साबुत एक लाख चांवल मंदिर में चढ़ाए जाने की प्रथा है। इसी क्रम में लीलागर के नंदियाखंड़ में बसंत पंचमी पर कुटीघाट का प्रसिद्ध मेला भरता है। इस मेले में तीज की तरह बेटियों को आमंत्रित करने का विशेष प्रयोजन होता हैक्योंकि इस मेले की प्रसिद्धि वैवाहिक रिश्तों के लिए परिचय सम्मेलन जैसा होने के कारण भी है। बताया जाता है कि विक्रमी संवत् की इक्कीसवीं शताब्दी आरंभ होने के उपलक्ष्य में रतनपुर में आयोजित श्री विष्णु महायज्ञ के पश्चात् कुटीघाट में भी विशाल यज्ञ आयोजित हुआ जो मेले का स्वरुप प्राप्त कर प्रतिवर्ष भरता आ रहा है।

लाखा चांउर की प्रथा हसदेव नदी के किनारे कलेश्वरनाथ महादेव मंदिरपीथमपुर में भी हैजहां होली-धूल पंचमी पर मेला भरता है। इस मेले की विशिष्टता नागा साधुओं द्वारा निकाली जाने वाली शिवजी की बारात है। मान्यता है कि यहां महादेवजी के दर्शन से पेट के रोग दूर होते है। इस संबंध में पेट के रोग से पीड़ित एक तौलिक द्वारा स्वप्नादेश के आधार पर शिवलिंग स्थापना की कथा और सर्वविदित है। वर्तमान मंदिर का निर्माण खरियार के जमींदार द्वारा कराया गया हैजबकि मंदिर का पुजारी परंपरा से साहू जाति का होता है। इस मेले का स्वरुप प्राकृतिक आपदाओं व अन्य दुर्घटनाओं के बावजूद भी लगभग अप्रभावित है। कोरबा अंचल के प्राचीन स्थल ग्राम कनकी के जांता महादेव मंदिर का पुजारी परंपरा से यादव जाति का होता है। इस स्थान पर भी शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेला भरता है।

चांतर राज में पारम्परिक रूप से मेले की सर्वाधिक महत्पूर्ण तिथियां माघ पूर्णिमा और महाशिवरात्रि (फाल्गुन बदी 13) हैं और इन्हीं तिथियों पर अधिकतर बड़े मेले भरते हैं। माघ पूर्णिमा पर भरने वाले अन्य बड़े मेलों में सेतगंगारतनपुरबेलपानलोदामबानबरदझिरनाडोंगरिया (पांडातराई)खड़सरासहसपुरचकनार-नरबदा (गंड़ई)बंगोली और सिरपुर प्रमुख है। इसी प्रकार शिवरात्रि पर भरने वाले प्रमुख मेलों में सेमरसलअखरारकोटसागरलोरमीनगपुरा (बेलतरा)मल्हारपालीपरसाही (अकलतरा)देवरघटतुर्रीदशरंगपुरसोमनाथदेव बलौदा और किलकिला पहाड़ (जशपुर) मेला हैं। कुछेक शैव स्थलों पर अन्य तिथियों पर मेला भरता हैजिनमें मोहरा (राजनांदगांव) का मेला कार्तिक पूर्णिमा कोभोरमदेव का मेला चैत्र बदी 13 को तथा लटेश्वरनाथकिरारी (मस्तूरी) का मेला माघ बदी 13 को भरता है।

रामनवमी से प्रारंभ होने वाले डभरा (चंदरपुर) का मेला दिन की गरमी में ठंडा पड़ा रहता है लेकिन जैसे-जेसे शाम ढलती हैलोगों का आना शुरु हो जाती है और गहराती रात के साथ यह मेला अपने पूरे शबाब पर आ जाता है। संपन्न अघरिया कृषकों के क्षेत्र में भरने वाले इस मेले की खासियत चर्चित थी कि यह मेला अच्छे-खासे कँसीनो को चुनौती दे सकता था। यहां अनुसूचित जाति के एक भक्त द्वारा निर्मित चतुर्भुज विष्णु का मंदिर भी है। कौड़िया का शिवरात्रि का मेला प्रेतबाधा से मुक्ति और झाड़-फूंक के लिए जाना जाता है। कुछ साल पहले तक पीथमपुरशिवरीनारायणमल्हारचेटुआ आदि कई मेलों की चर्चा देह-व्यापार के लिए भी होती थी। कहा जाता है कि इस प्रयोजन के मुहावरे पाल तानना और रावटी जाना जैसे शब्दइन मैलों से निकले हैं। रात्रिकालीन मेलों का उत्स अगहन में भरने वाले डुंगुल पहाड़ (जशपुर) के रामरेखा में दिखता है। इस क्षेत्र का एक अन्य महत्वपूर्ण व्यापारिक आयोजन बागबहार का फरवरी में भरने वाला मेला है। धमतरी अंचल को मेला और मड़ई का समन्वय क्षेत्र माना जा सकता है। इस क्षेत्र में कंवर की मड़ईरुद्रेश्वर महादेव का रुद्री मेला और देवपुर का माघ मेला भरता है। एक अन्य प्रसिद्ध मेला चंवर का अंगारमोती देवी का मेला है। इस मेले का स्थल गंगरेल बांध के डूब में आने के बाद अब बांध के पास ही पहले की तरह दीवाली के बाद आने वाले शुक्रवार को भरता है। मेला और मड़ई दोनों का प्रयोजन धार्मिक होता हैकिन्तु मेला स्थिर-स्थायी देव स्थलों में भरता हैजबकि मड़ई में निर्धारित देव स्थान पर आस-पास के देवताओं का प्रतीक- डांग लाया जाता है अर्थात् मड़ई एक प्रकार का देव सम्मेलन भी है। मैदानी छत्तीसगढ़ में बइगा,-निखाद और यादव समुदाय की भूमिका मड़ई में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है। बइगामड़ई लाते और पूजते हैंजबकि यादव नृत्य सहित बाजार परिक्रमाजिसे बिहाव या परघाना कहा जाता हैकरते है। मेलाआमतौर पर निश्चित तिथि-पर्व पर भरता है किन्तु मड़ई सामान्यतः सप्ताह के निर्धारित दिन पर भरती हैक्योंकि यह साल भर लगने वाले साप्ताहिक बाजार का एक दिवसीय सालाना रूप माना जा सकता है। ऐसा स्थानजहां साप्ताहिक बाजार नहीं लगतावहां ग्रामवासी आपसी राय कर मड़ई का दिन निर्धारित करते हैं। मोटे तौर पर मेला और मड़ई में यही फर्क है।

मड़ई का सिलसिला शुरु होने के पहलेदीपावली के पश्चात् यादव समुदाय द्वारा मातर का आयोजन किया जाता हैजिसमें मवेशी इकट्ठा होने की जगह- दइहान अथवा निर्धारित स्थल पर बाजार भरता है। मेला-मड़ई की तिथि को खड़खड़िया और सिनेमा सर्कस वाले भी प्रभावित करते थे और कई बार इन आयोजनों में प्रायोजक के रूप में इनकी मुख्य भागीदारी होती थी। दूसरी तरफ मेला आयोजकखासकर सिनेमा (टूरिंग टाकीज) संचालकों को मेले के लिए आमंत्रित किया करते थे और किसी मेले में टूरिंग टाकीज की संख्या के आधार पर मेले का आकार और उसकी महत्ता का अनुमान लगाया जाता था। मेला-मड़ई के संदर्भ में मवेशी बाजार का उल्लेख आवश्यक हैक्योंकि मैदानी छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि में नायक-बंजारों के साथ तालाबों की परम्परामवेशी व्यापार और प्राचीन थलमार्ग की जानकारी मिलती है।

बस्तर के जिलों में मड़ई की परम्परा हैजो दिसम्बर-जनवरी माह से आरंभ होती है। अधिकतर मड़ई एक दिन की ही होती हैलेकिन समेटते हुए दूसरे दिन की बासी मड़ई भी लगभग स्वाभाविक अनिवार्यता है। चूंकि मड़ईतिथि-पर्व से संलग्न सप्ताह दिवसों पर भरती हैइसलिए इनका उल्लेख मोटे तौर पर अंगरेजी माहों अनुसार किया जा सकता है। केशकाल घाटी के ऊपरजन्माष्टमी और पोला के बीचभादों बदी के प्रथम शनिवार (सामान्यतः सितम्बर) को भरने वाली भंगाराम देवी की मड़ई को भादों जात्रा भी कहा जाता है। भादों जात्रा के इस विशाल आयोजन में सिलियाकोण्गूर औरवरीहडेंगाकोपराविश्रामपुरीआलौरकोंगेटा और पीपरानौ परगनों के मांझी क्षेत्रों के लगभग 450 ग्रामों के लोग अपने देवताओं को लेकर आते है। भंगाराम देवी प्रमुख होने के नाते प्रत्येक देवी-देवताओं के कार्यो की समीक्षा करती है और निर्देश या दंड भी देती है। माना जाता है कि इस क्षेत्र में कई ग्रामों की देव शक्तियां आज भी बंदी है। यहां के मंदिर का सिरहाबंदी देवता के सिरहा पुजारी से भाव आने पर वार्ता कर दंड या मुक्ति तय करता है। परम्परा और आकार की दृष्टि से भंगाराम मड़ई का स्थान विशिष्ट और महत्वपूर्ण है।

मड़ई के नियमित सिलसिले की शुरुआत अगहन पूर्णिमा पर केशरपाल में भरने वाली मड़ई से देखी जा सकती है। इसी दौर में सरवंडीनरहरपुरदेवी नवागांव और लखनपुरी की मड़ई भरती है। जनवरी माह में कांकेर (पहला रविवार)चारामा और चित्रकोट मेला तथा गोविंदपुरहल्बाहर्राडुलापटंगांवसेलेगांव (गुरुवारकभी फरवरी के आरंभ में भी)अन्तागढ़जैतलूर और भद्रकाली की मड़ई होती है। फरवरी में देवरीसरोनानारायणपुरदेवड़ादुर्गकोंदलकोड़ेकुर्सेहाटकर्रा (रविवार)संबलपुर (बुधवार)भानुप्रतापपुर (रविवार)आसुलखार (सोमवार)कोरर (सोमवार) की मड़ई होती है।

बस्तर की मड़ई माघ-पूर्णिमा को होती है। बस्तर के बाद घोटियामूलीजैतगिरीगारेंगा और करपावंड की मड़ई भरती है। यही दौर महाशिवरात्रि के अवसर पर चपका की मड़ई का हैजो अपने घटते-बढ़ते आकार और लोकप्रियता के साथ आज भी अंचल का अत्यधिक महत्पूर्ण आयोजन है। मार्च में कोंडागांव (होली जलने के पूर्व मंगलवार)केशकालफरसगांवविश्रामपुरी और मद्देड़ का सकलनारायण मेला होता है। दन्तेवाड़ा में दन्तेश्वरी का फागुन मेला 9 दिन चलता है। अप्रैल में धनोराभनपुरीतीरथगढ़मावलीपदरघोटपालरामाराम (सुकमा) मड़ई होती है। इस क्रम का समापन इलमिड़ी में पोचम्मा देवी के मई के आरंभ में भरने वाले मेले से होता है।

मेला-मड़ई के स्वरुप में समय के साथ परिवर्तन अवश्य हुआ हैकिन्तु धार्मिक पृष्ठभूमि में समाज की आर्थिक-सामुदायिक आवश्यकता के अनुरुप इन सतरंगी मेलों के रंग की चमक अब भी बनी हुई है और सामाजिक चलन की नब्ज टटोलने का जैसा सुअवसर आज भी मेलों में मिलता हैवैसा अन्यत्र कहीं नहीं।

साभार- मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से

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कृष्णधर शर्मा 

 

 

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