नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

गोवर्धन पर्वत [गिरीराज]

मथुरा से कुछ दूरी पर स्थित है गोवर्धन पर्वत यह पावन धाम हिंदुओं का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है. जहां भगवान श्री कृष्ण ने अनेक लीलाएं की थी. अपने पौराणिक महत्व के फलस्वरूप यह पर्वत सभी के लिए पूजनिय धाम बना है. गोवर्धन पर्वत जिसे गिरीराज के नाम से भी जाना जाता है . 
गोवर्धन पर्वत पर अनेक पवित्र स्थल मौजूद हैं जो जिनका दर्शन पाकर सभी धन्य होते हैं. कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की तिथी को गोवर्धन पूजा की जाती है इस दिन अन्न कुट, मार्गपाली आदि का आयोजन किया जाता है. यह ब्रज का मुख्य त्यौहार होता है. 
अन्नकुट जिसे गोवर्धन पूजा भी कहा जाता बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है़ इस दिन गाय बैल का पूजन किया जाता है उन्हें फूल माला, चन्दन आदि लगाया जाता है.  गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर उसका पूजन होता है तथा परिक्रमा की जाती है. 

  
    

गोवर्धन पर्वत कथा

इस पर्वत के साथ अनेक कथाएं जुड़ी हुई हैं. कहते हैं कि यह पर्वत रोज कम होता जाता है. 
किंवदंती अनुसार एक बार मुनी पुलस्थय भ्रमण करते हुए गोवर्धन पर्वत जा पहूँचे,  वहां का सुंदर मनोहर नजारा देखकर उनका हृदय प्रसन्न हो गया उनके मन में  गोरिराज को अपने साथ ले जाने का विचार उत्पन्न हुआ. 
मुनी ने राजा से ओरोंकल गोवर्धन ले जाने की बात रखी उन्हों ने कहा की वह जहां से आए हैं वहां पर एक भी सुंदर पर्वत नहीं है अत: आप इस अनमोल रत्न को मुझे सौंप दें. परंतु राजा ने मुनी को कुछ और मांगने को कहा वह उसे नही देना चाहते थे. यह सब बातें गोवर्धन ने सुन ली और मुनी से कहा की मैं आपके साथ जाने के लिए तैयार हूं किंतु मेरी एक शर्त है कि आप मुझे जहां भी रखेगें मै वहीं पर रूक जाऊंगा और वहां से हिलूंगा भी नही. 
मुनी ने यह बात स्वीकार कर ली. पुलस्थय मुनि गोवर्धन को अपने दायें हाथ पर रख कर कली के लिए निकल पडे़. जब मुनी ब्रज से गुजर रहे थे तब मुनी साधना के लिए रूक गए और उन्होंने गोवर्धन को भूल वश वहीं रख दिया तथा जब मुनी की अराधना समाप्त हुई तो उन्होंने पर्वत को उठाना चाहा परंतु गोवर्धन तो वहीं पर स्थिर हो चुका था. 
उन्हें गोवर्धन की कही बात याद आई परंतु ऋषि न माने और हठ करने लगे इतने पर भी जब पर्वत अपने स्थान से नही हिला तो उन्हें बहुत क्रोध आया ओर क्रोधवश उन्होंने पर्वत को शाप देते हुए कहा कि गोवर्धन तुम घरती में धसते चले जाओंग ओर एक दिन पूर्ण रुप से धरती के गर्भ में समा जाओगे. इसी कारण गोवर्धन प्रतिदिन नीचे धसते चले जा रहे हैं. 
इसके अतिरिक्त कहते हैं कि गोवर्धन पर्वत को भगवान कृष्ण ने अपनी कनिष्ठा अँगुली पर उठा लिया था और इन्द्र के प्रकोप से ब्रज वासियों की रक्षा की थी तब से गोवर्धन पूजा की जाती है.
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की तिथी को गोवर्धन पूजा की जाती है इस दिन अन्न कुट, मार्गपाली आदि का आयोजन किया जाता है. यह ब्रज का मुख्य त्यौहार होता है. अन्नकुट जिसे गोवर्धन पूजा भी कहा जाता बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती है़ इस दिन गाय बैल का पूजन किया जाता है उन्हें फूल माला, चन्दन आदि लगाया जाता है.  गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाकर उसका पूजन होता है तथा परिक्रमा की जाती है. 

 

गोवर्धन धार्मिक स्थल

गोवर्धन में अनेक रमणीय स्थल देखने को मिलते हैं इसकी परिक्रमा करते समय रास्ते में प्रमुख स्थल देखे जा सकते हैं जिनका अपना एक इतिहास है और कुछ भगवान की लीलाओं का आधार रहे. मार्ग मे अनेक कुण्ड दिखाई पड़ते है जिसमें से कुछ प्रमुख स्थल इस प्रकार हैं 

दान घाटी

  गोवर्धन के मार्ग पर  यह मन्दिर स्थित है यहां पर एक सुंदर मंदिर स्थापित है और जब गोवर्धन परिक्रमा की शुरूआत की जाती है तब इसी मंदिर से आरंम्भ होते हुए यहीं पर समाप्त भी होती है. मान्यता है कि इसी स्थान पर कृष्ण भगवान ने दानी बनकर गोपीयों से दान मांगा था ओर राधा ने दान दिया था.
कृष्ण की इस लीला का वर्णन अनेक कवियों ने अपने ग्रंथों में किया है. इस मन भावन लीला का वर्णन गौडी़य संप्रदाय के लोग भक्ति रस के गीतों मे करते रहे हैं वहीं  दानकेलि कौमुदी आदि ग्रन्थों में इस प्रेम लीला का वर्णन मिलता है. इस प्रसंग के कारण ही इस जगह को दान घाटी के नाम से जाना जाता है तथा मंदिर में विराजमान गोवर्धन  शीला का दूधाभिषेक किया जाता.
 

जतीपुरा


जतीपुरा जो गोपालपुरा के नाम से भ जाना जाता था में श्रीनाथ भगवान का मंदिर है कहते हैं यहीं पर कृष्ण के परम भक्त कवि सूरदास जी भगवान के गितों को गाया करते थे तथा कीर्तन किया करते थे. यह स्थल बल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र रहा है यहां  बल्लभ सम्प्रदाय के अनेक मन्दिर देखे जा सकते हैं. यहीं मुखारबिन्द है. बिलछू कुण्ड , ढाक, श्याम, हरजी कुण्ड, गोविन्द स्वामी की कदम्ब खण्डी आदि ऐतिहासिक स्थान भी हैं. 

श्रीलौठाजी मन्दिर


गोवर्धन से कुछ दूरी पर स्थित है पूंछरी गांव जो परिक्रमा मार्ग में आता है यहां  श्रीलौठाजी का मन्दिर स्थापित है मान्यता है कि भगवान कृष्ण के एक मित्र थे लौठा जब भगवान ब्र्ज छोड़कर जा रहे थे तोउन्होंने लौठा को भी अपने साथ चलने को कहा परंतु उन्होंने मना कर दिया और कहा की जब तक तुम वापस ब्रज नहीं आते तब तक मै अन्न जल ग्रहण नहीं करूंगा ओर अपने प्राण त्याग दूंगा.
इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें वरदान दिया की तुम्हे कुछ नही होगा तुम जीवित रहोगे. तभी से लौठाजी तपस्या मे लीन हैं और उन्हें यकीन है कि भगवान यहां वापस जरूर आएंगे अत: यहां श्रीलौठाजी का मन्दिर स्थापित है. सभी भक्त लोग यहां आकर अदभुत शांति का अनुभव करते हैं एक भक्त की अनूठी श्रद्धा का प्रतीक है यह मंदिर. 

मानसी गंगा


गोवर्धन गाँव के बीच में श्री मानसी गंगा है इस पर एक कथा प्रचलित है एक बार सभी ब्रजवासी गंगा स्नान करने के लिए गंगा धाम जाने लगे संध्या समय वे गोवर्धन पहुँचे ओर वहीं पर रात्रि व्यतीत करने का विचार व्यक्त किया भगवान कृष्ण मन में विचारते है. 
ब्रज तो तीर्थों का स्थल है यहां से कहीं ओर जाने की क्या आवश्यकता है. अत: इस विचार के आते ही गंगा जी मानसी रुप में गोवर्धन पर्वत की तलहटी में प्रकट हो गईं. और जब प्रात समय ब्रजवासियों ने वहां गंगा जी के दर्शन किए तो सभी चकित रह गए ओर श्री कृष्ण के कहने पर सभी ने वहीं पर गंगा स्नान किया एवं पवित्र गंगा जल में दीप दान किया.
 श्री कृष्ण के मन से उत्पन्न (आविर्भूत) होने के कारण गंगाजी को मानसीगंगा कहा जाता है. यहां मानसी गंगा स्नान का महत्व गंगा स्नान जितना ही है भक्तगण यहाँ पर स्नान पूजा-अर्चना करते हैं । भाग्यवान भक्तों को कभी-कभी इसमें दूध की धारा का दर्शन होता है.मानसी गंगा के किनारे पर मुखारविन्द मन्दिर स्थित है.

कुसुम सरोवर
17:40, 26 सितम्बर 2009 के समय के संस्करण का थम्ब प्रारूप।
गोवर्धन से लगभग 2 किलोमीटर दूर राधाकुण्ड के निकट स्थापत्य कला के नमूने का एक समूह जवाहर सिंह द्वारा अपने पिता सूरजमल ( ई.1707-1763) की स्मृति में बनवाया गया। ई. 1675 से पहले यह कच्चा कुण्ड था जिसे ओरछा के राजा वीर सिंह ने पक्का कराया उसके बाद राजा सूरजमल ने इसे अपनी रानी किशोरी के लिए बाग़-बगीचे का रूप दिया और इसे अधिक सुन्दर और मनोरम स्थल बना दिया

 

राधाकुण्ड और कृष्ण कुण्ड

 
एक समय भगवान कृष्ण अपनी गायों को चराने के लिए जा रहे थे उसी समय एक राक्षस उनकी गायों मे गाय का रूप बना कर आ गया और उत्पात मचाने लगा। भगवान कृष्ण ने उसे पहचान लिया और उसका वध कर उसकी करनी का दण्ड दिया। वध करने के पश्‍चात भगवान कृष्ण राधा से मिलने गये। राधा ने कहा कि मैं  आपसे नहीं मिलूगी. और आपको गौ हत्या का पाप लग गया है। 
कहा की उन पर गौ हत्या का पाप लगा है जब तक आप इस पाप से मुक्ति नहीं पा लेते तब तक मुझसे नहीं मिल पाओगे अत: भगवान ने  प्रायश्चित स्वरूप वहां पर एक कुण्ड का निर्माण किया तथा समस्त  तीर्थों को आह्वान किया व उन्हें जलरूप द्वारा कुण्ड में प्रवेश करवाया तत्पश्चात पवित्र निर्मल जल मे स्नान कर पाप से मुक्ति प्राप्त कि किन्तु राधा उस कुण्ड से भी सुन्दर कुण्ड का निर्माण करके सभी को चकित करना चाहती थी
इसलिए उन्होंने अपने कंगन से एक मनोहर कुण्ड का निर्माण कर दिया और वह कुण्ड भी सब तीर्थों के जल से परिपूर्ण हो गया. इस प्रकार इन कुण्डों का निर्माण हुआ जिस कारण यह स्थल पवित्र पावन स्थल माना जाता है. और कार्तिक मास की कृष्णाष्टमी के दिन असंख्य श्रद्धालु यहां पर स्नान  करते हैं.

उद्धव कुण्ड


गोवर्धन परिक्रमा मार्ग पर स्थित है उद्धव कुण्ड यह भगवान के सखा एवं भक्त उद्धव के नाम से प्रसिद्ध है. अनेक ग्रंथों मे इसके बारे में उल्लेख प्राप्त होते हैं. कहते हैं की वज्रनाभ समेत शाण्डिल्य ऋषि के द्वारा यहाँ उद्धव कुण्ड का निर्माण हुआ था.
स्कन्द पुराण में इसका वर्णन मिलता है माना जाता है कि उद्धव जी यहाँ हमेशा निवास करते हैं. और यहीं पर जब कृष्ण सभी से विछोह कर  चले गए थे तो उद्धव जी ने महिषियों को सांत्वना दी.
इसी प्रकार गोवर्धन पर्वत मार्ग में अन्य कई महत्वपूर्ण स्थान आते हैं आन्यौर, कुसुम सरोवर है जो बहुत ही सुंदर एवं मनहर स्थल है यहां पर मंदिर भी स्थापित है एकचक्रेश्वर महादेव का मंदिर है  मानसी गंगा के समीप मुखारविन्द बना है 
आषाढ़ पूर्णिमा तथा कार्तिक माह की अमावस्या को यहां मेले का आयोजन किया जाता है. गोवर्द्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान के  चरणचिह्न मौजूद हैं. इसके साथ ही यहां श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर, श्री हरिदेव मंदिर, दानबिहारी मंदिर श्री राधा मदनमोहन मंदिर, विश्वकर्मा मंदिर, वेंकटेश्वर मंदिर, श्यामसुन्दर मंदिर तथा चकलेश्वर महादेव मंदिर इत्यादि पवित्र स्थल हैं.  

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

मुहावरे (ग)

गच्चा खाना : किसी फेर में पड़ धोखा खाना।
चौधरी उसे धक्का देकर, नारी जाति पर बल का प्रयोग करके गच्चा खा चुका था।

गज भर की छाती होना : बहुत अधिक उत्साह होना।
जब राणा प्रताप ने देखा कि शक्तिसिंह उनकी सहायता को आ रहा है तब उनकी गजभर की छाती हो गई।
गंगा नहाना : कर्तव्य और दायित्व पूरा करके निश्चिंत होना, सब झंझटों से छुटकारा पाना।

गाँठ बाँधना : याद रखना।
अच्छे लड़के अपने बड़ों की शिक्षा को गाँठ बाँध लेते हैं।

गरदन दबाना : कुछ करने, देने, हानि सहने आदि के लिए विवश करना.
ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गरदन दबाते हैं.

गरदन रेतना : धोखा देकर रुपया लेना, ठगना.
मालूम होता है कि आजकल कहीं कोई रकम मुफ्त हाथ आ गई है. सच कहना, किसकी गरदन रेती है?

गली-गली मारे फिरना : इधर-उधर व्यर्थ घूमना, जीविका के लिए इधर-उधर भटकना.
जब हमको मेहनताना देना ही है तो क्या यही एक वकील है? गली-गली तो मारे-मारे फिरते हैं.

गले पड़ना : किसी व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध उसके पास किसी का रहना, उसके पीछे पड़े रहना.

गले बाँधना : इच्छा के विरुद्ध सौंपना.
गृहस्थी का सारा काम भाइयों ने मेरे गले मढ़ दिया है.

गहरा पेट : गंभीर हृदय जिसका भेद न मिले.
अच्छा तो तुम्हीं अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र खेल रही थीं. मैं जानती तो तुम्हें यहाँ बुलाती ही नहीं. ओफ्फोह, बड़ा गहरा पेट है तुम्हारा.

गाँठ का पूरा : धनी.
आँख के अंधों और गाँठ के पूरी की तलाश आपको भी उतनी ही है जितनी मुझको.

गाँठ खोलना : समस्या का निराकरण करना, कठिनाई - अड़चन दूर करना.

गागर में सागर : थोड़े-से शब्दों में बहुत अधिक भाव-विचार व्यक्त करना, थोड़े-से शब्दों में बड़ी महत्वपूर्ण बात कहना.
मुक्तक की रचना में कवि को गागर में सागर भरना पड़ता है.

गाड़ी अटकना : चलते-चलते काम बंद होना, रुकावट आना.

गाढ़ी छनना : घनिष्ठ मित्रता, बहुत अधिक मेल-जोल होना.

गाढ़ी कमाई : कड़ी मेहनत से कमाया हुआ पैसा, धन.

गाल बजाना : डींग मारना, बढ़-चढ़कर बातें करना.

गाली खाना : दुर्वचन सुनना.
ब्याह करूँगा तो जन्म भर गालियाँ खाने को मिलेंगी.

गाली गाना : विवाह आदि के शुभ अवसर पर गाली के गीत गाना.

गिरगिट की तरह रंग बदलना : अपनी बातों को सदा बदलते रहना, अपना मत, व्यवहार, वृत्ति बदलते रहना, कभी कुछ और कभी कुछ बनना.

गुजर जाना : मर जाना. कई दिन हुए वे गुजर गए.

गुड़ गोबर कर देना : बना-बनाया काम बिगाड़ देना.

गुड़ियों का खेल : बहुत आसान काम.

गुरु घंटाल : दुष्टों का नेता, धूर्तों का सरताज. वह अंधकार का गीदड़, वह दुर्गन्धमय राक्षस, जो इन सभी दुरात्माओं का गुरु घंटाल था.

गुल करना : दीपक या चिराग बुझा देना. वह चिराग गुल करके सो गया.

गुल खिलना : कोई अजीब बात, घटना होना. अचानक कोई बखेड़ा होना, भेद खुलना.

गुलछर्रे उड़ाना : मौज करना, आमोद-प्रमोद करना.

गुस्सा उतारना : क्रोध की शांति के लिए किसी पर बिगड़ना, मारना. क्रोध एक व्यक्ति पर हो और दूसरे को डांट-फटकार कर या दण्ड देकर अपने दिल को शांत करना.

गूंगे का गुड़ : वह आनंदानुभूति, सुख का अनुभव जिसका वर्णन न किया जा सके. भक्त को भगवान के चिंतन में जो आनंद मिलता है वह कहा नहीं जा सकता. वह तो गूंगे का गुड़ ही रहेगा.

गूलर का कीड़ा : कूपमंडूक, अल्पज्ञ व्यक्ति.

गोता खाना : डूबना, धोखा खाना. उसकी चिकनी-चुपड़ी बातों से मैं गोता खा गया.

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

बिल नहीं भरोगे तो काट देंगे

कस्टमर-हेलो!  मुझे फोन पर धमकियां मिल रही है।

पुलिस- कौन है?  जो आपको धमकियां दे रहा है?

कस्टमर- टेलीफोन वाले बोलते है‍ कि बिल नहीं भरोगे तो काट देंगे।

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" (७ मार्च, १९११- ४ अप्रैल, १९८७) को प्रतिभासम्पन्न कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देनेवाले कथाकार, ललित-निबन्धकार, सम्पादक और सफल अध्यापक के रूप में जाना जाता है। इनका जन्म ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कुशीनगर नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ। बचपन लखनऊ, कश्मीर, बिहार और मद्रास में बीता। बी.एस.सी. करके अंग्रेजी में एम.ए. करते समय क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़कर फरार हुए और १९३० ई. के अन्त में पकड़ लिए गये। अज्ञेय प्रयोगवाद एवं नई कविता को साहित्य जगत में प्रतिष्ठित करने वाले कवि हैं। अनेक जापानी हाइकु कविताओं को अज्ञेय ने अनूदित किया। बहुआयामी व्यक्तित्व के एकान्तमुखी प्रखर कवि होने के साथ-साथ वे एक अच्छे फोटोग्राफर और सत्यान्वेषी पर्यटक भी थे।
शिक्षा का प्रारम्भ संस्कृत-मौखिक परम्परा से हुआ 1915 से ’19 तक श्रीनगर और जम्मू में। यहीं पर संस्कृत पंडित से रघुवंश रामायण, हितोपदेश, फारसी मौलवी से शेख सादी और अमेरिकी पादरी से अंग्रेजी की शिक्षा घर पर शुरू हुई। शास्त्री जी को स्कूल शिक्षा में विश्वास नहीं था। बचपन में व्याकरण के पण्डित से मेल नहीं हुआ। घर पर धार्मिक अनुष्ठान स्मार्त ढंग से होते थे। बड़ी बहन जो लगभग आठ की थीं, जितना अधिक स्नेह करती थीं। उतना ही दोनों बड़े भाई (ब्रह्मानन्द और जीवानन्द जो’ 34 में दिवंगत हो गए) प्रतिस्पर्धा रखते थे। छोटे भाई वत्सराज के प्रति सच्चिदानन्द का स्नेह बचपन से ही था, 1919 में पिता के साथ नालन्दा आए, इसके बाद’ 25 तक पिता के ही साथ रहे, पिता जी ने हिन्दी सिखाना शुरू किया। वे सहज और संस्कारी भाषा के पक्ष में थे। हिन्दुस्तानी के सख़्त ख़िलाफ़ थे। नालन्दा से शास्त्री जी पटना आए और वहीं स्व- काशी प्रसाद जायसवाल और स्व. राखालदास वन्द्योपाध्याय से इस परिवार का सम्बन्ध हुआ, पटना में ही अंग्रेजी से विद्रोह का बीज सच्चिदानन्द के मन में अंकुरित हुआ।

शास्त्रीजी के पुराने मित्र रायबहादुर हीरालाल ही उनकी हिन्दी भाषा की लिखाई की जाँच करते। राखालदास के सम्पर्क में आने से बंग्ला की लिखाई की जाँच करते। राखालदास के संपर्क में आने से बंग्ला सीखी और इसी अवधि में इण्डियन प्रेस से छपी बाल रामायण बाल महाभारत, बालभोज इन्दिरा (बकिमचन्द्र) जैसी पुस्तकें पढ़ने को मिलीं और हरिनारायण आप्टे और राखालदास वन्द्योपाध्याय के ऐतिहासिक उपन्यास इसी अवधि में पढ़े गए। 1921-’25 तक ऊटकमंड में रहे यहां नीलिगिरि की श्यामल उपत्यका ने बहुत अधिक प्रभाव डाला। 1921 में उडिपी के मध्याचार्य के द्वारा इनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। इसी मठ के पण्डित ने छः महीने तक संस्कृत और तमिल की शिक्षा दी। इस समय ‘भड़ोत’ से ‘वात्स्यायन’ में परिवर्तन भी हुआ, जो प्राचीनतम संस्कार के नये उत्साह से जीने का एक संकल्प था। पिता ने संकीर्ण प्रदेशिका से ऊपर उठकर गोत्रनाम का प्रचलन कराया। इसी समय पहली बार गीता पढ़ी।

पिताजी के आग्रह से अन्य धर्मों के ग्रन्थ भी पढ़े और घर पर ही पिताजी के पुस्तकालयों का सदुपयोग शुरू किया। वर्ड्सवर्थ, टेनिसन, लांगफेलो और व्हिटमैन की कविताएं इस अवधि में पढ़ीं। शेक्सियर, मारलो, वेब्स्टर के नाटक तथा लिटन, जार्ज एलियट, थैकरे, गोल्डस्मिथ, तोल्स्तोय, तुर्गनेव, गोगोल, विक्टर ह्यूगो तथा मेलविल के उपन्यास भी पढ़े गये। लयबद्ध भाषा के कारण टेनिसन का प्रभाव बड़ा गहरा पड़ा। टेनिसन के अनुकरण में, अंग्रेजी में ढेरों कविताएं भी लिखीं। उपन्यासकारों में ह्यूगो का प्रभाव, विशेषकर उनकी रचना टॉयलर ऑफ़ द सी का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। इसी अवधि में विश्वेश्वर नाथ रेऊ तथा गौरीचन्द हीराचन्द ओझा की हिन्दी में लिखी इतिहास की रचनाएं पढ़ने को मिलीं तथा मीरा, तुलसी के साहित्य का अध्ययन भी इन्होंने किया। साहित्यिक कृतित्व के नाम पर इस अवधि की देन है आनन्द बन्धु जो इस परिवार की निजी पत्रिका थी। इस पत्रिका के समीक्षक थे हीरालाल जी और डॉ.. मौद्गिल। इस अवधि में एक छोटा उपन्यास भी लिखा और इसी अवधि में जब मैट्रिक की तैयारी ये कर रहे थे, मां के साथ इन्होंने जलियावाला बाग-काण्ड की घटना के आसपास पंजाब की यात्रा की थी और अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध विद्रोह की भावना ने जन्म लिया था। इनके पिताजी स्वयं अंग्रेजी की अधीनता की चुभन कभी-कभी व्यक्त करते थे।

एक घटना भी ब्लैकस्टोन नामक अंग्रेजी अधिकारी के साथ घट चुकी थी। वह शास्त्रीजी और राखालदास के साथ यात्रा कर रहा था। डिब्बे में राखालदास की पत्नी भी थीं। वह स्नानकक्ष से अर्धनग्न डिब्बे के भीतर आया। शास्त्रीजी ने उस से पूछा, ‘‘क्या इस रूप में तुम किसी अंग्रेज महिला के सामने आ सकते थे ?’ उत्तर में वह कुछ बोला नहीं, हंसता रहा। शास्त्रीजी ने उसे उठाकर डिब्बे से बाहर फेंक दिया। उसने आजीवन शत्रुता निभाई, यहां तक कि पिता द्वारा किए गए इस अपमान का बदला पुत्र से चुकाया, जब वे लाहौर किले में नज़रबन्द हुए। दूसरी घटना ऊटी में स्वंय सच्चिदानन्द के साथ घटी थी, जब वे दो-तीन महीने अंग्रेज़ों के साथ स्कूल में पढ़ने गए। वहां अंग्रेज लड़कों की मरम्मत करके ही इन्हें स्कूल में कार्ड मिला, जिसे फेंक कर ये घर चले आए। 1925 में पंजाब से मैट्रिक की प्राइवेट परीक्षा दी और उसी वर्ष इण्टरमीडिएट साइंस पढ़ने मद्रास क्रिश्चियन कालेज में दाखिल हुए। यहाँ उन्होंने गणित, भौतिकशास्त्र और संस्कृत विषय लिए थे। यहां इनके अंग्रेजी प्रोफेसर हेण्डरसन ने (जिन्हें त्रिशंकु समर्पित की गई) साहित्य के अध्ययन की प्रेरणा दी।

ये स्वयं भारत के भक्त थे। इन्हीं के साथ टैगोर अध्ययन-मण्डल की स्थापना की और रस्किन के सौन्दर्यशास्त्र तथा आचरणशास्त्र का अध्ययन किया। कला-क्षेत्रों के बीच घूमते-घूमते स्थाप्तय और शिल्प दोनों का राग-बोध परिपक्व होता गया। दक्षिण के मन्दिर और नीलगिरि के दृश्य ने उनके व्यक्तित्व में प्रकृति-प्रेम और कलाप्रेम को निखार दिया। मद्रास में सामाजिक विषमता की चेतना जगने लगी थी और जाति के विरुद्ध विद्रोह मन में इसी अवधि में उमड़ना शुरू हुआ। शास्त्रीजी स्वयं जाति में विश्वास न कर के वर्ण में विश्वास करते थे और पुत्रों से आशा करते थे कि ब्राह्मणवर्ण का स्वभाव—त्याग, अभय और सत्य—उन्हें कभी नहीं छोड़ना चाहिए।

बचपन से किशोरावस्था तक की यह अवधि उलझन और आकुलता के बीच कठिन अध्यवसाय की अवधि है। एक ओर परिवार के और बाहर के अनेक प्रकार के प्रिय-अप्रिय प्रभावों ने उनके चित्त को उद्वेलित किया, तो दूसरी ओर पिता के कठिन अनुशासन ने परिश्रम में लगातार लगाए रख कर मन और शरीर को संयम में ढाला। बचपन में इन्हें ‘सच्चा’ के नाम से पुकारा जाता था और जब-जब इनकी सच्चाई पर विश्वास नहीं किया गया, इन्होंने मौन विद्रोह किया। एक बार की घटना ऐसी है कि बड़े भाई और इनमें होड़ लगी कि चौदह रोटी कौन खा सकता है ? बड़े भाई ने कहा कि तुम खाओ तो तुम्हें मैं इनाम दूँगा। ये खाने बैठे, पिता जी को इसकी सूचना मिली, उन्होंने बड़े भाई को डांटा और इनसे कहा कि तुम न खाओ, उठ जा। ये चौदह के आस-पास तक पहुंच रहे थे, अपने मन से उठे नहीं, इसलिए उन्होंने भाई से इनाम मांगा। उन्होंने देने से इन्कार किया तो मौन विरोध में इन्होंने खाना ही कम कर दिया इस प्रकार का आत्मपीड़क क्रोध इनमें बहुत दिनों तक रहा है। और अब भी किसी न किसी रूप में कभी न कभी उभर आता है। इसी क्रोध में आकर इन्होंने अपनी आर्थिक बर्बादी भी कम नहीं की।

1927 में लाहौर फॉरमन कॉलेज में ये बी. एस-सी. में भर्ती हुए। इसी कालेज में नवजवान भारत-सभा के सम्पर्क में आए और हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के प्रमुख सदस्य आज़ाद, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा से परिचय हुआ। इस कालेज में बी.एस-सी. तक तो ये सक्रिय रूप से कान्तिकारी आन्दोलन में प्रविष्ट नहीं हुए थे, यद्यपि 1929 में पं. मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस का जो अधिवेशन लाहौर में हुआ, उस में ये स्वयं सेवक अफसर के रूप में मौजूद थे। यहीं इन्हीं के स्वयं सेवक दल ने उन लोगों को जबरदस्ती स्वयंसेवक कैम्प में बन्द रखा था, जो गांधीजी के उस प्रस्ताव का अप्रिय रूप में विरोध करने वाले थे, जो उन्होंने इरविन को बधाई देने के लिए रखा था। इसी स्वयंसेवक शिविर में कदाचित पहली बार कांग्रेस के मंच से ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’ का नारा लगाया गया था।

1929 में बी.एस-सी. करके अंग्रेजी एम.ए. में दाखिल हुए। इसी साल से ये क्रान्तिकारी दल में भी प्रविष्ट हुए इनके साथ थे देवराज, कमलकृष्ण और वेदप्रकाश नन्दा। कालेज में जिन दो अध्यापकों ने सबसे अधिक इन्हें प्रभावित किया, वे थे, जे.एम. बनेड और डेनियल। जे.एम.बनेड ने तो इनके जेल जाने पर भी अपना स्नेह सम्बन्ध बनाए रखा। बनेड ने ही (यद्यपि वे भौतिकशास्त्र के अध्यापक थे) विभिन्न धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन की प्रेरणा दी। प्रो. डेनियल ने इन्हें ब्राउनिंग की ओर उन्मुख किया। इनके क्रान्तिकारी जीवन की अवधि 1929 से आरम्भ होकर 1936 तक है। इस अवधि का अधिकांशतः इतिहास देश के इतिहास से सम्बद्ध है। उसमें कहने की इतनी बातें हैं कि यहां उन पर विस्तार से विचार करना अनावश्यक है। घटनाक्रम कुल यह है कि पहला क्रर्यक्रम इन का और इनके साथियों का भगतसिंह को छुड़ाने का हुआ। इस बीच में भगवती चरण वोहरा एक दुर्घटना में शहीद हुए और यह कार्यक्रम स्थगित हो गया।

दूसरा कार्यक्रम दिल्ली-हिमालयन-टॉयलेट्स फैक्ट्री के बहाने बम बनाने का कारखाना कायम करने का था। उस फैक्ट्री में अज्ञेय वैज्ञानिक के रूप में सलाहकार थे। तीसरा कार्यक्रम अमृतसर में पिस्तौल की मरम्मत और कारतूस भरने का कारखाना कायम करने का शुरू हुआ और यहीं देवराज और कमलकृष्ण के साथ 15 नवम्बर, 1930 को गिरफ्तार हुए। गिरफ्तारी के बाद एक महीने लाहौर किले में, फिर अमृतसर की हवालात में। यहीं से यातना शुरू हुई। आर्म्स ऐक्ट वाले मुकदमें में ये छूटे, पर दिल्ली में 1931 में नया मुकदमा शुरू किया गया। यह मुकदमा 1933 तक चलता रहा। दिल्ली जेल में ही काल-कोठरी में बन्द रहे और यहीं रह कर छायावाद से मनोविज्ञान, राजनीति अर्थशास्त्र और कानून—ये सारे विषय पढ़े। यहीं रहकर चिन्ता, विपथगा की अनेक कहानियां और शेखर लिखा; पर यह पूरी अवधि कुल ले-देकर घोर आत्ममन्थन, शारीरिक यातना और स्वप्नभंग की पीड़ा की अवधि रही।

1934 की फरवरी में छूटे, फिर लाहौर में दूसरे कानून के अन्तर्गत नज़रबन्द किये गये। यहीं रह कर कोठरी की बात और चिन्ता की रचना की और इसी अवधि में कहानियों का छपना शुरू हुआ। 1934 के मध्य में घर के अन्दर नज़रबन्द हो गई और घर आने पर एक साथ छोटे भाई और माता की मृत्यु और पिता जी की नौकरी से निवृत्ति—इन सभी घटनाओं ने रोते चित्त में नये उद्वेलन पैदा किए नज़रबन्दी हटने तक ये डलहौजी़ और लाहौर रहे। सात साल के इस अर्से ने कई छाप छोड़ी हैं। रावी के पुल से छलांग मारने पर घुटने की टोपी उतरी और वह दर्द मौका पाते ही आज भी लौट आता है। क्रान्तिकारी जीवन के साथियों में जो लोग आदर्शच्युत हुए या जो टूटने लगे उनके कारण घोर आत्मपीड़न का भाव जाग गया और एकाकीपन का अभ्यास जो बढ़ा, वह अभी भी नहीं छूटा। अज्ञेय को अत्यधिक सामाजिकता इतनी असह्य है, इसका प्रमाण मैं स्वयं दे सकता हूं। कभी-कभी वे स्वागत-समारोहों के बाद लौटने पर ऐसा अनुभव करते हैं कि किसी यन्त्रणा से गुजर कर आए हैं। पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण छाप इस जीवन की उनकी राग अनुभूति को सघन बनाने में है। इस जीवन में प्रखर शक्ति और ताप जिस स्रोत से मिला था, उसके आकस्मिक निधन की चोट बड़ी गहरी पड़ी है।

यह वियोग उन्हीं के शब्दों में ‘स्थायी वियोग’ है। उस ‘अत्यन्तगता’ की स्मृति एक अमूल्य थाती है। इसी के सहारे हारिल का धर्म निभाना सबसे बड़ा पार्थिव धर्म उन्होंने जाना है। यह उन्होंने जाना और अपनी ‘मांग को स्वंय अपना खंडन’ माना। ‘आहुति बनकर’ ही उन्होंने प्रेम को ‘यज्ञ की ज्वाला’ के रूप में देखा। ‘वंचनाओं के दुर्ग के रुद्ध सिंहद्वार खोल कर मुक्त आकाश’ के लिए जो अदम्य आशा उनके चित्त में हमेशा भरती रहती है अपने को तटस्थ और एकाकी रख सकने का वह लम्बा अभ्यास। यह सही है कि शिल्प की दृष्टि से और भाषा की दृष्टि से इस अवधि की कविताओं पर छायावाद का गहरा प्रभाव है, पर साथ ही यह भी निर्विवाद है कि कथ्य छायावाद की भूमिका से बिलकुल अलग है। उसका आधार अरूप प्रेम नहीं, न मिटने वाली प्यास नहीं, रहस्य-अन्वेषण नहीं, है ऊर्जस्वी और मांसल प्रेम, प्रत्यंचा तोड़ धनुष का सन्धान (शक्ति के परे आत्मोत्सर्ग) और एक दुर्निवार ऊर्ध्वग ज्वाल। इस दृष्टि से इस अवधि को भट्ठी में गलाई की अवधि कहा जा सकता है।

गदहपचीसी पार करके 1936 में जब जीविका के लिए कर्मक्षेत्र में उतरे तो पहले एक आश्रम खोलने की बात सोची। पर पिता की एक डांट ने इस भिखमंगी से इन्हें विरत कर दिया। फिर सैनिक के सम्पादन-मण्डल में आए और वहां साल-भर रहे। इसी समय मेरठ के किसान आन्दोलन में भी काम किया और इस अवधि में रामविलास शर्मा, प्रकाश चन्द्र गुप्त, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन से परिचय हुआ। राजनैतिक विचारों में भी उथल-पुथल शुरू हुई। गांधीजी के प्रति जहां श्रद्धा बिलकुल नहीं थी, वहां आदर-भाव जगा, पर कांग्रेस के मन्त्रिमण्डल में सम्मिलित न होने के पक्ष में न होते हुए भी, और सुभाष चन्द्र बसु के साथ त्रिपुरी में न्याय नहीं हुआ यह मानते हुए भी, सुभाष बाबू के लिए श्रद्धा न कर सके। जवाहरलाल नेहरू के खतरनाक विचार और खतरनाक जीवन के नारे ने पहले बहुत प्रभावित किया था, बाद में उनकी बौद्धिक सच्चाई की ही छाप मन में अधिक गहरी पड़ी।

1937 के अन्त में बनारसीदास चतुर्वेदी के आग्रह से विशाल भारत में गये। लगभग डेढ़ वर्ष कलकत्ता रहे। यहां सुधीन्द्र दत्त, बुद्धदेव बसु, हजारी प्रसाद द्विवेदी, बलराज साहनी और पुलिन सेन परिचय की परिधि में आए। कलकत्ता के महानगर का पहला अनुभव बहुत तीखा रहा। इसके विमानवीकृत पहलू ने इनके संवेदनशील चित्त को बहुत व्यथित किया। विशाल भारत को व्यक्तिगत कारणों से इन्होंने छोड़ा और 1939 में पिताजी के पास बड़ौदा गये। पिताजी ने विदेश जाकर अध्ययन पूरा करने के लिए कहा। इतने में ही महायुद्ध छिड़ गया और दिल्ली आल इण्डिया रेडियो में नौकरी करने चले आये। इसी अन्तराल में हिन्दी साहित्य के अनेकानेक आयामों और चक्रों से तो परिचित हुए ही, पत्रकारिता के आदर्श और व्यवहार के वैषम्य का भी साक्षात् अनुभव प्राप्त किया। इन आकाशवृत्तियों के लाभ मुख्यतः दो हुए। एक तो हिन्दी की साहित्यिक परिधि के भीतर पैठ और दूसरा-अपना जीवन-पथ निर्माण करने का एक विश्वास। यह विश्वास कुछ आवश्यकता से अधिक ही हुआ और इसी के कारण 1940 में एक बहुत बड़ी गलती सिविल मैरेज करके इन्होंने की। यह शादी बहुत बड़ी चुभन बनी। इस चुभन के कारण, कुछ अपने फ़ासिस्ट-विरोधी विश्वास के उफान में इन्होंने 1942 के आन्दोलन को उपयोगी न समझा और उसी साल दिल्ली में अखिल भारतीय फ़ासिस्ट-विरोधी सम्मेलन का आयोजन किया। इस सम्मेलन के बाद में प्रगतिशील लेखक संघ का एक अलग गुट बन गया।
हस्ताक्षर:Hastaksharagyeya.jpg

प्रमुख कृतियां

  • कविता संग्रह: भग्नदूत, चिन्ता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्रधनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आँगन के पार द्वार, पूर्वा (इत्यलम् तथा हरी घास पर क्षण भर), सुनहले शैवाल, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, महावृक्ष के नीचे, नदी की बाँक पर छाया, प्रिज़न डेज़ एण्ड अदर पोयम्स (अंग्रेजी में) और ऐसा कोई घर आपने देखा है।
  • कहानी-संग्रह: विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप |
  • उपन्यास: शेखर: एक जीवनी, नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी।
  • यात्रा वृत्तांत: अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली।
  • निबंध संग्रह : सबरंग, त्रिशंकु, आत्मनेपद, आधुनिक साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल,
  • संस्मरण: स्मृति लेखा
  • डायरियां: भवंती, अंतरा और शाश्वती।
  • विचार गद्य: संवत्‍सर
  • नाटक: उत्तरप्रियदर्शी
उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध सर्जना और सन्दर्भ तथा केंद्र और परिधि नामक ग्रंथो में संकलित हुए हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ अज्ञेय ने तारसप्तक, दूसरा सप्तक, और तीसरा सप्तक जैसे युगांतरकारी काव्य संकलनों का भी संपादन किया तथा पुष्करिणी और रूपांबरा जैसे काव्य-संकलनों का भी। वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध- संग्रहों के भी संपादक हैं। प्रख्यात साहित्यकार अज्ञेय ने यद्यपि कहानियां कम ही लिखीं और एक समय के बाद कहानी लिखना बिलकुल बंद कर दिया, परंतु हिन्दी कहानी को आधुनिकता की दिशा में एक नया और स्थायी मोड़ देने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।

बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

चश्मा लगने के बाद मै पढ़ तो पाउँगा ना?

संता [डॉक्टर  बंता से] - डॉक्टर साहब! चश्मा लगने के बाद मै पढ़ तो पाउँगा ना?
डॉक्टर बंता - हाँ भाई  जरूर  पढ़ पाओगे.
संता - तब ठीक है, वर्ना अनपढ़ आदमी की जिंदगी भी कोई जिंदगी है क्या!

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

मुहावरे (ख)

खटाई में पड़ना : काम रुक जाना, टल जाना।
दुल्हन यदि बैलगाड़ी से जाती तो कहारों का पैसा खटाई में पड़ जाता।

खड़ी पछाड़ें खाना : खड़े हो-होकर गिर पड़ना।
पति की मृत्यु का समाचार पाते ही विमला खड़ी पछाड़ें खाने लगी।

खरी-खरी सुनाना : सच्ची बात कहना चाहे किसी को भला लगे या बुरा लगे।

खाक फाँकना : इधर-उधर मारा-मारा फिरना।
वह नौकरी की तलाश में चारों तरफ खाक फाँकता था।

खाट से लगना : इतना बीमार पड़ना कि चारपाई से उठ न सके। अत्यन्त दुर्बल हो जाना।

खीस निपोरना : दीनभाव से कृपा अथवा अनुग्रह की प्रार्थना करना।

खुदा की पनाह : ईश्वर बचाए।
बीबी की जूती पैजार से खुदा की पनाह।

खून के आँसू रुलाना : बहुत अधिक सताना।
स्वर्ग का रास्ता बन्द पाकर राजा साहब अपनी रियासत को ही खून के आँसू रुलाना चाहते थे।

खून-खच्चर होना : लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट होना।
तुमने बहुत अच्छा किया जो उनके साथ न हुए, नहीं तो खून-खच्चर हो जाता।

खून लगाकर शहीद होना : थोड़ा-सा दिखावटी काम करके बड़े आदमियों में शामिल होने का प्रयत्न।

खेलने खाने के दिन : बचपन या जवानी का समय जब मनुष्य चिन्तामुक्त जीवन व्यतीत करता है।

खोद-खोदकर पूछना : तर्क, शंका में अनेक सवाल पूछना।
उसने खोद-खोद कर पूछने की चेष्टा तो बहुत की परन्तु उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ा।

खोपड़ी भिनभिनाना : तंग आना।
बच्चों का शोर सुनकर मेरी खोपड़ी भिनभिना उठी।

शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

'क्यों भई, तुम यहां क्या कर रहे हो?'

एक दुकान के बाहर लिखा था: 'इन्सानों की तरह बात करने वाला कुत्ता बिकाऊ है.'

एक आदमी दुकानदार से जाकर बोला: 'मैं उस कुत्ते को देखना चाहता हूं...' दुकानदार ने कहा: 'साथ के कमरे में बैठा है, जा कर मिल लो।'

ग्राहक उस कमरे में गया। कुर्सी पर एक हट्टा-कट्टा कुत्ता बैठा था. पूछा: 'क्यों भई, तुम यहां क्या कर रहे हो?'
कुत्ते ने बताया: 'कर तो मैं बहुत कुछ सकता हूं, लेकिन आजकल इस दुकान की रखवाली करता हूं. इससे पहले अमेरिका के जासूसी महकमे में काम करता था और कई खूंखार आतंकवादियों को पकड़वाया... फिर मैं इंग्लैंड चला गया जहां पुलिस के लिए मुखबरी करता था. एक साल बाद यहां आ गया.'

उस आदमी ने दुकानदार से पूछा: 'इतने गुणवान कुत्ते को आप बेचना क्यों चाहते हैं?'

'अव्वल नम्बर का झूठा है...' जवाब मिला.
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गधों को इंसान बनाया है
पप्पू क्लास में एक गधा ले कर आया।
टीचर: इसको क्यों लाये हो?
पप्पू: आपने ही तो कहा था कि आपने कई गधों को इंसान बनाया है, अब बनाओ।

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

मुहावरे (क)

कंघी - चोटी करना : श्रृंगार करना, बनाव-सिंगार करना।
आज सबेरे से मेरी ही सेवा में लगी रही। नहलाया-धुलाया, कंघी-चोटी की, कपड़े-बपड़े पहनाये, सभी उसी ने किया।

कंचन बरसना : बहुत अधिक लाभ होना।
सुजान की खेती में कई साल से कंचन बरस रहा था।

कच्चा चबाना : कठोर दण्ड देना।
नारायणी भी तो आने वाली थी, कब आएगी? उसे भी तो तेरी भाभी कच्चा ही चबा जाएगी।

कच्ची गोली खेलना : अनाड़ीपन, ऐसा काम करना जिससे विफलता हाथ लगे।
आप शायद चाहते होंगे, जब आपको राजा साहब से रुपये मिल जाते तो आप मुझे दो हजार रुपये दे देते तो मैं ऐसी कच्ची गोली नहीं खेलता।

कट जाना : बहुत लज्जित होना।
जब मैं स्त्रियों के ऊपर दया दिखाने का उत्साह पुरुषों में देखती हूँ तो जैसे कट जाती हूँ।

कठपुतली की तरह नचाना : दूसरों से अपनी इच्छा के अनुसार काम कराना।
यही लोग उन बेचारों को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं।

कढ़ी का - सा उबाल : शीघ्र ही समाप्त हो जाने वाला जोश।
मैं उस पर विश्वास नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें कढ़ी का-सा उबाल आता है।

कतरब्योंत से : हिसाब से, समझ-बूझकर।
वह ऐसी कतरब्योंत से चलते हैं कि थोड़ी आमदनी में अपनी प्रतिष्ठा बनाए हुए हैं।

कन्नी काटना : कतराकर, बचकर किनारे से निकल जाना।

कब्र में पाँव लटकाना : मौत के निकट आना।
अब मुझे अम्मा कब्र में पैर लटकाए दीख पड़ती थीं।

कबाब में हड्डी : सुखोपभोग में बाधक होना।
एक बार तो मेरे जी में आया कि चलो लौट चलो, क्यों खामखाह किसी के कबाब में हड्डी बन रहे हो।

करम फूटना : अभागा होना, भाग्य बिगड़ना।
मेरे तो करम फूटे हैं ही।

कमर कसना : तैयार होना।
उसने निश्चय किया कि वह कमर कसकर नए सिरे से अपना जीवन-संघर्ष आरम्भ करेगा।

कलई खुलना : रहस्य प्रकट होना, वास्तविक बात ज्ञात होना।
उन्हें सबसे विषम वेदना यही थी कि मेरे मनोभावों की कलई खुल गई।

कलेजा बैठना : घोर दु:ख या ग्लानि होना, उत्साह मंद पड़ना।
यह याद करके मेरा कलेजा बैठा जा रहा है कि अब मैं आप लोगों के लिए कुछ भी न कर सकूँगा।

कलेजे पर पत्थर रखना : जी कड़ा करना।
यह सशंकिता विधवा अपने कलेजे पर पत्थर रखकर अपनी इस प्यारी संतान को त्याग देने के लिए बाध्य हुई।

कलेजा पसीजना : दया आना।
उसका करुण क्रन्दन सुनकर सबका कलेजा पसीज गया।

कलेजे का टुकड़ा : पुत्र।
वे अपने ही कलेजे के टुकड़े हैं।

कलेजे में आग लगना : दु:ख देना।
यह शब्द उसके कलेजे में चुभ गए थे।

कसौटी पर कसना : अच्छी तरह जाँच करना, परीक्षा लेना।
निस्सन्देह कृष्ण भगवान ने मुझे प्रेम-कसौटी पर कसा और मैं खोटी निकली।

कहा-सुनी हो जाना : झगड़ा, वाद-विवाद होना।
प्राय: बच्चों के पीछे पति-पत्नी में कहा-सुनी हो जाती थी।

कहानी समाप्त होना : मृत्यु हो जाना।
जिस समय उसने जबरदस्ती मुझे अपनी विशाल भुजाओं में घेर लिया उस समय मैंने सोचा कि कहानी समाप्त हो गई।

कहीं का न रखना : किसी काम का न छोड़ना, निराश्रय कर देना।
आपने सारी जायदाद चौपट कर दी, हम लोगों को कहीं का न रखा।

काँटा निकालना : बाधा या खटका दूर करना।
यह न समझो कि मैं अपने लिए, अपने पहलू का काँटा निकालने के लिए तुमसे ये बातें कर रही हूँ।

काँटा बोना : अनिष्ट, बुराई करना।
मैं ऐसा पागल नहीं हूँ कि जो मुझे काँटे बोये, मैं उसके लिए फूल बोता फिरूँ।

काँटों में घसीटना : बहुत दुख देना।
वह हाथ में आ जाता तो काँटों में ऐसा घसीटता कि उसे होश आ जाता।

काँव-काँव करना : शोरगुल, हल्ला मचाना।
बिरादरी का झंझट जो है, सारा गाँव काँव-काँव करने लगेगा।

काग़ज की नाव : अस्थायी, क्षणिक, न टिकने वाली वस्तु।
हमारा शरीर काग़ज की नाव है, अतएव इस पर गर्व नहीं करना चाहिए।

काग़जी घोड़े दौड़ाना : लिखा-पढ़ी करना, केवल काग़जी कार्रवाई करना।
आप क्या करते हैं, सिर्फ कागजी घोड़े दौड़ाते हैं।

काटो तो खून नहीं : स्तब्ध हो जाना, सन्न हो जाना।
मुझे काटो तो खून नहीं, तब क्या बात सचमुच ही यहाँ तक बढ़ गई थी?

कान का कच्चा : बिना सोचे-बिचारे दूसरों की बातों पर विश्वास कर
लेने वाला।
पन्तजी ऐसे पहले महाकवि नहीं थे जो ऐसे मामलों में कान के कच्चे थे।

कान काटना : चालाकी, धूर्तता आदि में किसी से बढ़कर होना।
मान गया बहू जी तुम्हें, वाह, क्या हिकमत निकाली है। हम सबके कान काट लिए।

कान पर जूँ न रेंगना : बार-बार कहने पर भी बात को ध्यान में न
बच्चे लाख चीखें, रोएँ-चिल्लाएँ, उस सहिष्णु जननी के कान पर कभी जूँ नहीं रेंगती।

कान भरना : शिकायत करना।
वह मेरे विरुद्ध गुरुजी के कान भरता है।

काना-फूँसी करना : चुपके-चुपके, बहुत धीरे-धीरे बात करना
कुछ लोग आपस में काना-फूँसी कर रहे थे, माया शंकर कितना भाग्यवान लड़का है।

कानून छाँटना : व्यर्थ की दलीलें देना, निरर्थक तर्क उपस्थित करना

कानों में अंगुली डालना : किसी बात को न सुनने का प्रयास करना, सुनने की इच्छा न होना।

काफूर हो जाना : एकाएक गायब हो जाना
द्वारकादास की नैराश्य उत्पादक दशा से तारा की कठोरता काफूर हो गई।

काया पलट होना : रूप, गुण, दशा, स्थिति आदि का पूर्णतया बदल जाना, और का और हो जाना
अभी यह मेरे साथ बैठा हुआ कैसी-कैसी बातें कर रहा था। इतनी ही देर में इसकी ऐसी कायापलट हो गई कि मेरी जड़ खोदने पर तुला हुआ है।

कारूँ का खजाना : कुबेर का कोष अतुल धनराशि।

काला धन : बेईमानी और तस्करी आदि से पैदा किया हुआ धन।
मैं उनके काले धन का हिसाब रखा करता था।

काला बाजार : वह बाजार जहाँ चोरी और तस्करी आदि की चीजों का क्रय-विक्रय होता है।
आजादी के बाद आया फूट, असंगठन, विलास,व्यभिचार, लूट, डाके, खून और काले बाजार काजमाना।

कालिख पोतना : कलंकित करना।
अब मेरी जान बख्शो, क्यों मेरे मुँह में कालिख पोत रहीहो?

काले कोसों : बहुत दूर।
सुबह दस बजे इसे तरकारी लाने के वास्ते भेजा था और वह भी काले कोसों नहीं।

काले पानी भेजना : देश निकाले का दंड देना, अंडमान द्वीप मेंभेजना जहाँ पहले आजीवन कैद का दंड पाने वालेअपराधी भेजे जाते थे।

किताबी कीड़ा : जो मनुष्य केवल पुस्तक पढ़ता रहता हो,जिसके पास केवल किताबों का ज्ञान हो, बुद्धि तथा अनुभव न हो।
मेरे जैसे किताब के कीड़े को कौन औरत पसन्द करेगी?

किला फतह करना : अत्यन्त कठिना काम करना।
यह कहकर मानों उन्होंने किला फतह कर लिया।

किस मुँह से : अपनी हीनता, अयोग्यता आदि का विचारकरके, अपने को दीन-हीन समझते हुए।
बहू से अब वह कहती भी तो किस मुँह से?

किसी के आगे पानी भरना : किसी की तुलना में अति तुच्छहोना, फीका पड़ना।
उन पाँच दिनों क्या ठाट रहते हैं वोटर के, बारात कादूल्हा भी उसके आगे पानी भरे।

किसी के घर में आग लगाकर अपना हाथ सेंकना : अपने काम केलिए दूसरों को भारी हानि पहुँचाना।
डॉक्टर साहब उन लोगों में हैं जो दूसरों के घर में आग लगाकरअपना हाथ सेकते हैं।

किसी के साथ मुँह काला करना : किसी के साथ व्यभिचार करना।
सारा दोष बुढ़िया का है, अरे दिन-दहाड़े जो यह डॉक्टरनीउसके बेटे के साथ मुँह काला किए फिर रही है, उससे अच्छायह नहीं है कि इसे बहू बना ले?

किसी को न गिनना : सबको तुच्छ, नगण्य समझना।
इस सफलता से मनीराम का सिर फिर गया था, वह किसी कोन गिनता था।

किसी खूंटे से बाँधना : किसी के साथ विवाह करना।
तेरी दीदी तो ऐसी गऊ है जिसे हमें ही किसी खूंटे से बाँधना
होगा।

किसी पर बरस पड़ना : एकाएक किसी से क्रोधपूर्ण बातें करना।
उनके जाते ही वह अपनी माँ पर बरस पड़ी।

किसी पर हाथ छोड़ देना : किसी को मारना-पीटना।
कभी-कभी हरसिंह अपनी बीवी पर हाथ छोड़ देता था।

किस्मत का फेर : अभाग्य, दुर्भाग्य, जमाने का उलट-फेर।
किस्मत का फेर देखिए, जो राजा थे वे रंक हो गए और जो रंक थे वे राजा हो गए।

कीड़े काटना : बेचैनी होना, जी उकताना।
दस मिनट पढ़ने के बाद उसे कीड़े काटने लगते हैं।

कुएँ का मेढ़क : बहुत अल्पज्ञ या कम अनुभव का व्यक्ति।

कुएँ में बाँस डालना : बहुत खोज करना।
उसके लिए कुओं में बाँस डाले गए, पर उसका पता नहीं चला।

कुएँ में भाँग पड़ना : सबकी बुद्धि मारी जाना, सबका पागल, मूर्खजैसा व्यवहार करना।

कुत्ता काटना : पागल होना।
क्या हमें कुत्ते ने काटा है जो हम इतनी रात को वहाँजाएँगे?

कुप्पा होना : फूल जाना, अत्यंत प्रसन्न होना।
जिस समय वह परीक्षा में पास होने की बात सुनेगाफूलकर कुप्पा हो जाएगा।

कुरसी देना : सम्मान करना।
बड़े-बड़े हाकिम उसे कुरसी देते हैं।

कोढ़ में खाज : दुख पर दुख, संकट पर संकट।

कोर-कसर न रखना : हर संभव प्रयास करना।
वह भिन्न-भिन्न प्रकृति और संस्कृति की इन युक्तियों को संघर्ष से बचाने और प्रेम से रखने में कुछ कोर-कसर न रखती थी।

कोरा जवाब देना : साफ इन्कार करना।
अगर सोफिया को क्लर्क से प्रेम न था, तो क्या वह उन्हें कोरा जवाब न दे सकती थी?

कोल्हू का बैल : बहुत अधिक परिश्रम करना वाला व्यक्ति।
कोल्हू के बैल की तरह खटकर सारी उम्र काट दी इसके यहाँ, कभी एक पैसे की जलेबी भी लाकर दी है इसके खसम ने?

कौड़ियों के मोल बिकना : बहुत ही सस्ते या कम दाम पर बिकना।