नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

गुरुवार, 27 अगस्त 2020

भादों की इस भारी बारिश में

कितने ही चेहरे खिल उठे होंगे
सूखे सावन के बाद हुई
भादों की इस भारी बारिश में
कितने ही अरमानों को आज
पंख मिल गए होंगे
भादों की इस भारी बारिश में
कितने ही तो भजिये खाकर
इतराते होंगे, इठलाते होंगे
भादों की इस भारी बारिश में
कितने ही कवि कवितायें
लिखते होंगे इस बारिश पर
भादों की इस भारी बारिश में
कितनी ही कच्ची दीवारों ने
दम तोड़ा होगा आज अपना
भादों की इस भारी बारिश में
कितने ही बेघर हुए होंगे आज
भादों की इस भारी बारिश में
कितने ही चूल्हे जले न होंगे
भादों की इस भारी बारिश में
चूल्हे को तकती आँखों को देख
कितनी ही माएं होंगी उदास
भादों की इस भारी बारिश में
            (कृष्ण धर शर्मा, 19.08.2020)

बुधवार, 19 अगस्त 2020

दुनिया को एक संदेश है राम जन्मभूमि मंदिर

 अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर दोबारा बनने जा रहा है। इस बीच, दुनिया के एक दूसरे हिस्से से आई खबर ने मेरा ध्यान खींचा है। इस्तांबुल में हागिया सोफिया म्यूजियम को हाल में फिर से मस्जिद बना दिया गया। यह तुर्की की सबसे बड़ी अदालत का फैसला था। तुर्की गणराज्य के संस्थापक कमाल अतातुर्क ने 1935 में सेक्युलरिज्म की राह पकड़ी थी और इसे म्यूजियम बना दिया था। लेकिन अदालत ने उनका निर्णय पलट दिया। दो साल पहले मैं तुर्की गया था। मुझे तभी लगा था कि वहां के लोगों के लिए यह भावनात्मक मुद्दा है। वे अपनी पवित्र जगह पर एक बार फिर इबादत करने को बेकरार थे। 

वहां के अधिकतर लोगों की नजर में म्यूजियम को फिर से मस्जिद बनाना बिल्कुल सही है, लेकिन मुझे ग्रीक ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों का दर्द भी समझ में आ रहा है।  प्रार्थना की हूक हागिया सोफिया बहुत पहले चर्च था। 1453 में तुर्कों ने कुंस्तुनतूनिया फतह कर लिया। वही कुंस्तुनतूनिया, जो करीब एक हजार साल से ग्रीक ऑर्थोडॉक्स चर्च का मरकज था। तुर्कों ने उसका नामोनिशान मिटा दिया। बसाया एक नया शहर इस्तांबुल और हागिया सोफिया चर्च को मस्जिद बना दिया। तो क्या ग्रीक ऑर्थोडॉक्स ईसाइयों के मन में वहां प्रार्थना करने की हूक नहीं उठती? कुछ समय के लिए हागिया सोफिया एक रोमन कैथलिक चर्च भी था। ऐसे में क्या रोमन कैथलिक ईसाई भी वहां प्रार्थना नहीं करना चाहते होंगे? 

सबसे बड़ी विडंबना यह कि किसी को भी आदिम धर्म (पैगन) में विश्वास करने वालों के टेंपल का दर्द महसूस नहीं हो रहा। वह टेंपल, जिसकी बुनियाद पर 1500 साल पहले हागिया सोफिया को बनाया गया। दरअसल यूरोप में प्रचलित धर्मों से अलग आदिम धर्मों को मानने वाला अभी शायद ही कोई हो। तो जब कोई पैगन है ही नहीं तो उस ऐतिहासिक गलती का दर्द कौन महसूस करे?  पैगन एक निषेधात्मक शब्द है। इसका इस्तेमाल उनके लिए किया जाता है जो अब्राहमिक न हों। यानी जो इस्लाम, ईसाई या यहूदी धर्मों को न मानते हों। 

लोग भूल गए हैं कि एक समय पूरा विश्व ही ‘पैगन’ था। मूर्ति पूजक था, देवियों की पूजा करता था और प्रकृति उपासक था। उन लोगों के लिए कोई एक सच नहीं था। वे दिव्यता के कई रूपों के साथ सहज थे। यहां तक कि नास्तिक भी उनमें शामिल थे। लेकिन वे सारी संस्कृतियां नष्ट कर दी गईं। अधिकतर को खून-खराबे के जरिए मिटाया गया। दूसरों के धर्म परिवर्तन के जरिए अपना विस्तार करने में यहूदी धर्म की दिलचस्पी ना के बराबर थी। लेकिन ईसाइयों और मुसलमानों ने आदिम धर्मों पर विश्वास रखने वालों पर बेइंतहा जुल्म किए, उनका नरसंहार किया।  कैथरीन निक्सी की ‘द डार्केनिंग एज’ सहित कई किताबों में इसका दुखद वर्णन है। 

हालांकि यह बात भी पुरजोर तरीके से कही जानी चाहिए कि सभी ईसाइयों या मुसलमानों ने पैगन लोगों पर अत्याचार नहीं किए। कुछ समूह थे, जिन्होंने मार-काट की। इनमें सबसे आगे थे यूरोप के ईसाई और तुर्किक मुसलमान। यह हिंसक विस्तारवादी रुझान अफ्रीकी ईसाइयों और इंडोनेशिया के मुसलमानों में नदारद था। लेकिन यह भी है कि यूरोप और तुर्की के अभी के लोगों का उनके पूर्वजों के कृत्य से कोई लेना-देना नहीं है।  इतिहास की यह बात हम भारतीयों के लिए क्यों अहम है? इसलिए कि हम उन कुछ ‘सनातन संस्कृतियों’ में से हैं, जिनका अस्तित्व खत्म नहीं हुआ। 

कांस्य युग के पहले की एकमात्र सभ्यता हमारी है, जो निरंतर चली आ रही है। चीन भी ‘पैगन कल्चर’ है लेकिन वह कांस्य युग के पहले की सभ्यता नहीं है। जो कुछ दूसरे आदिम धर्मों पर विश्वास करने वालों पर गुजरी, उसे हमने भी सहा। 1000 ईसवी से लगातार हमले हुए। पहले तुर्कों के कई कबीलों के हमले, फिर यूरोप के साम्राज्यवादियों के। उन विदेशी हमलावरों ने हजारों मंदिर ध्वस्त किए और वहीं पर मस्जिदें या चर्च बनाए गए, कभी-कभी तो गिराए गए मंदिर के अवशेषों से ही। 

सीताराम गोयल ने अपनी किताब ‘हिंदू टेंपल्स: व्हाट हैपेंड टु देम’ में ऐसे कई उदाहरण दर्ज किए हैं। दसियों विश्वविद्यालयों को जलाकर राख कर दिया गया। कई सदियों में करोड़ों लोगों को कत्ल किया गया।  हमारे साथ जो हुआ वह कोई अलग बात नहीं थी। दुनिया में लगभग हर प्राचीन संस्कृति के साथ ऐसा ही हुआ। लेकिन खास बात यह है कि हमने अपना अस्तित्व बनाए रखा। कैसे और क्यों? इसका एक प्रमुख कारण यह है कि हमारे पूर्वजों ने आत्मसमर्पण नहीं किया। मुझे याद आ रही है बैरन मैकाले की एक शानदार पंक्ति। वही मैकाले जिनका नाम सुनकर भारत में कुछ लोग नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। उन्होंने लिखा था, ‘अपने पूर्वजों की अस्थियों और अपने देवताओं के मंदिरों के लिए मर-मिटने से बेहतर और क्या तरीका हो सकता है जान देने का!’ हमारे पूर्वजों ने यही किया। पुनर्निर्माण का जिम्मा हमारा है लेकिन हमें याद रखना होगा कि पुनर्निर्माण करते हुए हमें अपने पूर्वजों का या उनकी जीवन शैली का अपमान नहीं करना है।  

सनातन, शाश्वत, एकजुट हमें धर्म का पालन करना होगा। जो हमारी सभ्यता के साथ हुआ, वह हमें सच-सच कहना होगा, लेकिन बिना नफरत के। हमें समझना होगा कि आधुनिक दौर के पहले के यूरोपीय लोगों, तुर्कों और दूसरे विदेशी हमलावरों ने जो किया, उससे आज के भारतीय मुसलमानों और ईसाइयों का कोई लेना-देना नहीं है। हमें एकजुट होकर, एक-दूसरे के प्रति प्रेम और सम्मान की भावना के साथ अपने मंदिरों और विहारों को दोबारा बनाना होगा। उनको हमें केवल पूजास्थलों के रूप में नहीं, बल्कि ज्ञान और सामाजिक समरसता के केंद्र के रूप में विकसित करना चाहिए, जैसे वे प्राचीन काल में थे।

 यह पुनर्निर्माण एक पूरी सभ्यता से जुड़ी जिम्मेदारी है। अपने पूर्वजों और आने वाली पीढ़ियों के प्रति यह दायित्व हमें निभाना है। ये दुनिया को हमारा संदेश है कि हम नष्ट नहीं होंगे, हम सनतान हैं, हम शाश्वत हैं और सबसे अहम बात यह कि हम एकजुट हैं। हम सभी 130 करोड़ लोग। जय श्रीराम। जय मां भारती।  अमीश त्रिपाठी (साभार- NBT)

प्रवासी श्रमिकों को वापस भेजिए

 मूल राज्यों को नेट आधारित रोजगार उत्पन्न करने के लिए प्रयास करने चाहिए। जैसे हर जिले में विदेशी भाषाओं को पढ़ाने की संस्था बनाई जा सकती है जिसके आधार पर हमारे युवा एक विदेशी भाषा से दूसरी विदेशी भाषा में अनुवाद करके अपनी जीविका चला सकें। जैसे दरभंगा का युवक जर्मन से जापानी में ट्रांसलेशन कर सके। इन कदमों को उठाने से वापस आये श्रमिकों को अपने मूल राज्य में समाहित करके भी लाभ अर्जित किया जा सकता है।

 वर्तमान में श्रमिकों का पलायन एक देश से दूसरे देश को और एक राज्य से दूसरे राज्य को भारी संख्या में हो रहा है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र को श्रम का पलायन दो कारणों से होता है। पहला कारण भौगोलिक है। जैसे बिहार में कृषि बहुत आराम से हो जाती थी इसलिए वहां के लोगों ने औद्योगीकरण के लिए विशेष प्रयास नहीं किया। दूसरी तरफ पंजाब में भाखड़ा बांध के कारण सिंचाई का विस्तार हुआ और वहां श्रम की मांग बढ़ी। इस प्रकार बिहार के आरामदेह भूगोल और भाखड़ा के सिंचाई के भूगोल के कारण बिहार से पंजाब को श्रम का पलायन हुआ। 

पलायन का दूसरा कारण शासन की गुणवत्ता है। आज उत्तर प्रदेश के श्रमिक सूरत को पलायन कर रहे हैं और उत्तर प्रदेश के उद्यमी भी सूरत को पलायन कर रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश का उद्यमी उत्तर प्रदेश के श्रमिक को सूरत में रोजगार दे रहा है। वहीं उत्तर प्रदेश का उद्यमी उत्तर प्रदेश में उसी श्रमिक को रोजगार देने को स्वीकार नहीं करता है। आज के युग में माल की ढुलाई आसान है  इसलिए कपड़े जैसे उद्योग को उतनी ही आसानी से सूरत में चलाया जा सकता है जितना कि उत्तर प्रदेश में। किसी समय उत्तर प्रदेश में टांडा और बनारस में विशाल कपड़ा उद्योग था।

 लेकिन उत्तर प्रदेश के ये कपड़ा उद्यमी आज टांडा में उद्योग चलाने के स्थान पर सूरत को स्वयं पलायन कर रहे हैं। कारण यह कि गुजरात की तुलना में उत्तर प्रदेश में शासन की गुणवत्ता न्यून है। यहां पर अधिकारियों का रुख उद्यमी से अधिकाधिक वसूलने का होता है। नेताओं और दबंगों द्वारा वसूली की जाती है। यहां उद्योग को आगे बढ़ाने में व्यवधान आते हैं इसलिए उत्तर प्रदेश का उद्यमी उत्तर प्रदेश से पलायन कर रहा है। 

कोविड ने बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के तमाम श्रमिकों को मेजबान राज्यों से अपने मूल राज्य को वापस आने के लिए मजबूर कर दिया है। इनके लिए  हमारे सामने दो विकल्प हैं। एक यह कि हम इन श्रमिकों को पुन: उन मेजबान राज्यों में भेजने की व्यवस्था करें जहां ये पहले कार्यरत थे। दूसरा यह कि हम इनके लिए मनरेगा, खाद्य सब्सिडी, बेरोजगारी भत्ता इत्यादि जन कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करें जिससे ये अपने मूल राज्य में ही अपना जीवनयापन कर सकें। 

मूल राज्य में इनको समाहित करने से तीन समस्या पैदा होती है। पहली समस्या यह कि ये प्रवासी श्रमिक सूरत में कपड़ा बुनाई के लूम को चलाने एवं मरम्मत इत्यादि को करने अथवा हीरों को तराशने की दक्षता हासिल कर चुके हैं। वे वहां 1000-1500 रुपये तक दैनिक वेतन पाते थे। और इससे भी ज्यादा वे देश की आय में जोड़ते थे मान लें 2500 रुपए। जब हम इन्हें वापस अपने गांव ले आते हैं तो यहां पर मनरेगा के अंतर्गत इन्हें मिट्टी उठाने का कार्य करना होगा जिस कार्य का देश की आय में योगदान कुल 300 रुपया प्रतिदिन और इन्हें वेतन मात्र 200 रुपये प्रति दिन मिलेगा। इसलिए इनको घरेलू राज्य में समाहित करने से देश के आर्थिक विकास का ह्रास होगा। 

जो व्यक्ति देश की आय में एक दिन में 2500 रुपये जोड़ सकता था वह अब केवल 300 रुपये ही जोड़ेगा। अपने मूल राज्य में श्रमिक को समाहित करने में दूसरी समस्या यह है कि कृषि में श्रम को समाहित करने की सीमा है। आज विकसित देशों में कुल जनसंख्या का 1 फीसदी से भी कम कृषि के क्षेत्र में कार्यरत है। अपने देश में स्वतंत्रता के समय लगभग 50 प्रतिशत जनता कृषि पर आधारित थी जो आज घट कर 18 प्रतिशत हो गई है। 

आर्थिक विकास के साथ कृषि का महत्व घटता जाता है। ऐसे में इन वापस आये श्रमिकों को कृषि में समाहित करना इन्हें उस क्षेत्र में प्रवेश कराना होगा जहां पहले ही आय न्यून है जैसे इन्हें गड्ढे में धकेला जा रहा हो। इनके प्रवेश करने से कृषि में श्रम की उपलब्धि बढ़ेगी, कृषि श्रमिक के वेतन घटेंगे, इन वापस आये श्रमिकों कि आय और घटेगी। तीसरी समस्या यह है कि मूल राज्यों को इन्हें मनरेगा इत्यादि में रोजगार देने के लिए सरकारी खर्च बढ़ाने होंगे। ये राज्य जो रकम सड़क अथवा अस्पताल बनाने के लिए उपयोग कर सकते थे उसका उपयोग ये इन श्रमिकों को जीवनयापन करने के लिए देने में करेंगे। चौथा बड़ा नुकसान यह है कि मेजबान देश में श्रमिक की उपलब्धता कम हो जाने के कारण वहां मशीनों का उपयोग बढ़ेगा। जैसे पंजाब में हार्वेस्टर का और सूरत में आटोमेटिक मशीनों का उपयोग बढ़ेगा और इन राज्यों में श्रम की मांग स्थायी रूप से कम हो जाएगी। 

गुजरात और पंजाब में श्रम की मांग कम होने का अर्थ होगा कि सम्पूर्ण देश में श्रम की मांग कम होगी और श्रम का अस्तित्व कमजोर होगा। इन तमाम कारणों से सरकार को चाहिए कि वापस आये श्रमिकों को शीघ्रातिशीघ्र उनके मेजबान राज्यों में पहुंचाने की जुगत करे। इस दिशा में सरकार को निम्न कदमों पर विचार करना चाहिए। पहला यह कि कानून बनाकर सभी प्रवासी श्रमिकों को आश्वासन देना चाहिए कि यदि कभी दुबारा लॉकडाउन जैसी परिस्थिति बनी तो उन्हें मेजबान देश में न्यूनतम जीविका उपलब्ध करा दी जाएगी। 

दूसरा कार्य यह कि वापस आये श्रमिकों को मूल राज्य में ही उच्च कोटि के रोजगार उत्पन्न कराने के प्रयास करने होंगे। इसके लिए सुशासन पर ध्यान देना होगा कि उत्तर प्रदेश का  उद्यमी उत्तर प्रदेश में ही उद्योग लगाये और यहीं श्रमिकों के लिए रोजगार बनाये। तीसरा यह कि उच्च कीमत के कृषि उत्पाद जैसे गुलाब अथवा ग्लाइडोलस के फूलों के उत्पादन के लिए मिशन बनाना चाहिए। हर डिवीजन में एक संस्था को मिशन मोड पर कार्य देना चाहिए कि उस क्षेत्र के लिए उपयोगी कीमती कृषि उत्पादों को बढ़ाये जिससे कि कृषि में ही इन लोगों को उच्च वेतन मिल सके। 

और यह कि मूल राज्यों को नेट आधारित रोजगार उत्पन्न करने के लिए प्रयास करने चाहिए। जैसे हर जिले में विदेशी भाषाओं को पढ़ाने की संस्था बनाई जा सकती है जिसके आधार पर हमारे युवा एक विदेशी भाषा से दूसरी विदेशी भाषा में अनुवाद करके अपनी जीविका चला सकें। जैसे दरभंगा का युवक जर्मन से जापानी में ट्रांसलेशन कर सके। इन कदमों को उठाने से वापस आये श्रमिकों को अपने मूल राज्य में समाहित करके भी लाभ अर्जित किया जा सकता है।

डॉ. भरत झुनझुनवाला (साभार- देशबंधु)

शनिवार, 15 अगस्त 2020

कुत्तों का रोना

कुत्तों को आज फिर खाना नसीब नहीं हुआ
रात से ही शुरू हुई बारिश देर शाम तक चली
बारिश जरा थमी तो लोग अंगड़ाई लेते हुए
जकड़न मिटाने अपने-अपने घरों से निकले
मगर बारिश ने उन्हें उससे भी कम वक्त दिया
जितना वक्त कर्फ्यू में मिल पाता है लोगों को
जरूरी सामानों की खरीददारी करने के लिए
भुनभुनाते हुए लोग फिर अपने घरों में घुस गए
कुत्तों को जो आशा मिली थी खाना मिलने की
बारिश शुरू होते ही ख़त्म सी हो गई
सुबह के भूखे कुत्तों से जब बर्दाश्त नहीं हुआ
तो फूट पड़ी उनकी रुलाई रोने लगे एक सुर में
घर की महिलाओं ने कहा अपने घर के पुरुषों से
कुत्तों का रोना बड़ा अपशकुन माना जाता है
जाओ उन्हें भगाओ अपने घर के सामने से जरा
पुरुषों ने भी उठाई अपनी छतरी और निकले बाहर
खदेड़ दिए गए कुत्ते अपने घरों के सामने से
भूख से रोते कुत्ते जहाँ भी गए वहीँ से भगाए गए
सब डर रहे थे कुत्तों के रोने से अपशकुन से
किसी को भी गलती से यह ख्याल नहीं आया
कि यह रोते हुए कुत्ते कहीं भूख से तो नहीं रो रहे...

                 (कृष्ण धर शर्मा, 14.08.2020)

ऐ जिंदगी जाने दे मुझे अनजानी राहों में

जिंदगी की बेतरह, बेवजह
भागम-भाग से थककर
जब उसने, मौत को
अपने गले लगाना चाहा
जिंदगी हर बार उसका
रास्ता रोककर खड़ी हो गई
तुम मुझे अपनी कैद से
आजाद क्यों नहीं होने देती!
जब-जब उसने पूछा सवाल
जिंदगी ने दिया उसे हरबार
वही रटा-रटाया जवाब
इससे पहले कि मौत को
तू अपने गले से लगा
अरे! जाने से पहले मेरा
कर्ज तो चुकाता जा...

              (कृष्ण धर शर्मा, 11.08.2020)

प्रकृति की गोद में

पहाड़ों पर उतरे हैं बादल
पूछने या बताने!
एक-दूसरे का हाल-चाल
या शायद दोनों ही!
मैं भी तो आखिर भाग ही आया
घबराकर कांक्रीट के जंगलों से
प्रकृति की गोद में
नया ठिकाना है अब मेरा
पेड़ों, पहाड़ों और बादलों के बीच
जहाँ पर महसूस कर पाता हूँ
मैं खुद को और जीवन को भी

             (कृष्ण धर शर्मा, 12.08.2015)

व्यवस्था के खिलाफ

मारा जायेगा हर वह आदमी
जो उठाएगा सवाल
तुम्हारी इस भेदभावपूर्ण
व्यवस्था के खिलाफ
दबा दी जाएगी हर वह आवाज
जो उठेगी तुम्हारे खिलाफ
काट दी जाएगी हर वह नस
जिसमें बहेगा लहू तुम्हारी
अतिवादी सोच के खिलाफ
बंद कर दिए जायेंगे हर वह रास्ते
जो जाते हों मानवता के मंदिर की ओर
मजबूर कर दिया जायेगा सबको
आपस में नफ़रत करने पर
एक-दूसरे को मारने-काटने पर
फिर सबकुछ वैसा ही होने लगेगा
जैसा कि तुम कल्पना करते थे
मगर क्या तुम जी पाओगे चैन से!
जबकि न होगा तुम्हारा कोई विरोधी
अगर तुम गड्ढे में भी गिरने वाले होगे
तो कोई भी नहीं करेगा तुम्हें सचेत
क्योंकि सब तो तुमसे डरे हुए ही होंगे!

      (कृष्ण धर शर्मा, 19.01.2020)

अवांछित

तुम बनाओ अच्छे-अच्छे मकान
बड़ी-बड़ी साफ़-सुथरी कालोनियां
उनमें बनें ख़ूबसूरत बाग़-बागीचे
जिसमें सुबह की सैर पर आ सकें
संभ्रांत और आभिजात्य लोग
मगर यह भी ध्यान रखना कि,
उन कालोनियों, बाग़-बागीचों में
घुसने न पायें गंदे कपडे पहने हुए
भूखे-नंगे और फटेहाल गरीब लोग
नहीं तो तुम्हारी आभिजात्यता को
पहुँच सकती है चोट, हो सकती है आहत
तुम बनाओ अच्छी-अच्छी चमचमाती
और बेहद ही साफ-सुथरी मखमली सड़कें
जिस पर चल सको तुम और तुम्हारे जैसे
सभ्य, संभ्रांत और आभिजात्य लोग
हाँ मगर यह भी ध्यान रखना कि,
उसमें घुसने न पायें कोई भी ठेलेवाले
फेरीवाले, सब्जीवाले या रिक्शेवाले
नहीं तो पड़ सकती है बाधा, रूकावट
तुम्हारे बनाये नियमों, कानूनों में
तुम्हें हो सकती है एलर्जी
ऐसे लोगों को देखकर
जो हैं तुम्हारी बनाई हुई
व्यवस्था में अनचाहे अवांछित

       (कृष्ण धर शर्मा, 04.01.2020)

दिवाली की छुट्टी

इस दिवाली घर नहीं आ पाउँगा
छुट्टी नहीं मिल पाई है माँ!
मालिक का भी दोष नहीं है माँ
क्या करें! काम ही बहुत सारा है
इतनी सारी जिम्मेदारी है मेरे सिर
मैंने आने की बहुत कोशिश की माँ
मगर क्या करूँ! नौकरी तो करनी है न
त्योहारों में गाड़ी में रिजर्वेशन भी
कहाँ मिल पाता है माँ
आपको तो पता है मेरी मजबूरी
फिर यहाँ मेरा भी तो परिवार है न
त्योहार में मेरे घर जाने से
बच्चे भी तो दुखी होंगे न!
मुझे तो बहुत कुछ देखना पड़ता है माँ
मोबाइल फोन को कान में लगाये
बेटे की मजबूरियों को सुनती हुई माँ
सोचने लगती है कि बेटा तो
सचमुच ही घर आना चाहता था
मगर नौकरी की दुश्वारियों के चलते
अपने ही घर नहीं आ पा रहा है
भोली माँ यह बिलकुल नहीं समझ पाती
कि दिवाली में भला कौन काम करता है
या किसे छुट्टी नहीं मिल पाती है
खैर! अब तो माँ ने भी बिना बच्चों के
दिवाली और होली मनाना सीख लिया है...

          (कृष्ण धर शर्मा, 29.10.2019)

कागजी रावण

हर वर्ष जलाते हो रावण
पर ख़त्म नहीं कर कर पाते हो
अपनी असफलताओं पर भी
तुम क्यों इतना इतराते हो
थक चुके हो जला-जलाकर
तुम बाहर के रावण को
कभी झांककर देखो तुम
अपने भीतर के रावण को
इस रावण को मरोगे तो
तभी मरेगा असली रावण
वरना तुम्हारी कई पीढियां
जलाती रहेंगी कागजी रावण

      (कृष्ण धर शर्मा, 08.10.2019)

पुरखों की विरासत

पेड़ों को काटते या कटवाते हुए
क्या सचमुच नहीं कांपते
तुम्हारे हाथ या हृदय!
क्या पाषाण हो चुकी हैं
तुम्हारी संवेदनाएं व् सोच
क्या तुम्हें नहीं दीखता
तुम्हारे बाद आनेवाली
पीढ़ी का भयावह भविष्य
जिसमें सांस लेना तक होगा मुश्किल
जिस तरह से अपने पूर्वजों के
लगाये हुए पेड़-पौधों से
तुम पाते हो फल-फूल, और
सुस्ताते हो उनकी शीतल छाँव में
सोचकर देखो कि तुम
क्या देकर जाओगे
अपने बच्चों को विरासत में

    (कृष्ण धर शर्मा, 06.10.2019)

सर्वे भवन्तु सुखिनः

क्यों मांगते हो भगवान् से
कुछ भी सिर्फ अपने लिए ही
क्या तुम्हारी ही समस्याएं
दुःख, पीड़ा सबसे अधिक हैं
क्या तुम्हें नहीं लगता कि
भगवान् से मांगा जाये
सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयः
क्यों भूल जाते हो कि
सर्वे में तुम भी आते हो

        (कृष्ण धर शर्मा, 06.10.2019)

आदमी क्या करेगा!

 खेतों में जुताई-बुवाई-कटाई-मिंजाई
धान कुटाई, दाल-दलहन और पिसाई
यह सब काम मशीनें करेंगी
तो फिर आदमी क्या करेगा!
गड्ढा खुदाई, तालाब खुदाई, मेड बनवाई
घर बनाने का काम मशीनें करेंगी
तो फिर आदमी क्या करेगा!
आटा गूंधने के लिए आटा मेकर
रोटी बनाने के लिए रोटी मेकर
तो फिर आदमी क्या करेगा!
फैक्टरी में काम करने के लिए
मजदूर की जगह दैत्याकार मशीनें
कठिन काम करने के लिए रोबोट
तो फिर आदमी क्या करेगा!
समय बिताने के लिए टीवी मोबाइल
बच्चा पैदा करने के लिए
टेस्टट्यूब बेबी सेंटर
तो फिर आदमी क्या करेगा!
फिर आदमी आन्दोलन करेगा...

      (कृष्ण धर शर्मा, 11.6.2019)

नदी और जीवन

नदी है तो पानी है
पानी है तो जीवन की कहानी है
नदी है तो मानवता है
मानवता है तो सभ्यता है
जीवन, मानवता, सभ्यता, 
बचे रहें यह तीनों ही 
इसके लिए सबसे जरूरी है
नदी का बचना

        (कृष्ण धर शर्मा, 20.6.2019)

धरती माँ

धरती माँ ओ धरती माँ
तुम हो कितनी अच्छी माँ 
बिन मांगे ही सबकुछ देती
तुम हो कितनी सच्ची माँ
भेदभाव तुम ना कर पाती
सब बच्चों की प्यारी माँ
अच्छे-बुरे सभी को सेती
तुम हो सबसे न्यारी माँ

                (कृष्ण धर शर्मा, 23.03.2019)

स्त्री ही ऐसी हो सकती

स्त्री में तुमने क्या देखा
उसकी सुंदरता के सिवा
क्या देख सके वह कोमल मन
जिससे निकले है यह जीवन
क्या देख सके उसकी मेहनत
जिससे सजे है तुम्हारा तन-मन
तैरते ही रहे तुम सतहों में
गहराई में तुम न उतर सके
फिर पाओगे कैसे मोती
कैसे संवरेगा तुम्हारा मधुबन
भोर भये से रात गए तक
लडती झंझावातों से
काम में अपने मगन ही रहती
हारती कहाँ आघातों से
फिर भी तुम न पहचान सके
तो इसमें उसकी क्या गलती
दो जून की रोटी खाकर वह
वेतन बिन ही खटती रहती
तुम्हें खिलाये पूरा भोजन
जूठन खाकर भी खुश रहती
पुरुष नहीं हो सकता ऐसा
स्त्री ही ऐसी हो सकती 

            (कृष्णधर शर्मा 9.3.2019)

पुरुष का अधिकार

पुरुष को नहीं है अधिकार, नैतिक रूप से
सबके सामने रोने का
वैसे भी,घर में दादी, नानी, माँ, बुआ सहित
तमाम बड़े बुजुर्गों का कहना यही रहा है
कि, पुरुषों का रोना अपशकुन होता है
या, पुरुष भी कभी रोते हैं भला!
इन सब बातों का यह कत्तई मतलब नहीं है
कि, उसके पास आंसुओं की कमी है
या वह कम भावुक है बनिस्बत स्त्री के
इकठ्ठा होते-होते भर चुका होता है
उसके भी आंसुओं का बांध, मगर
वह जानता है कि उसके रोने से
टूट सकती हैं कई सारी उम्मीदें
धराशायी हो सकते हैं सपनों के महल
फिर वह नहीं कर पाता है साहस
उन सपनों को तोड़ पाने का
जिन्हें देखने में लगी हैं कई जोड़ी आँखें
और कितनी ही रातें
वह नहीं व्यक्त कर पाता
कभी-कभी अपनी थकान भी
क्योंकि दिनभर काम की
जद्दोजहद के बाद भी, उससे
रहती हैं कई अपेक्षाएं और आशायें
बहुत ही मुश्किल लगता है उसे
उन्हें नजरअंदाज कर पाना
फिर, वह बिखेरता अपने चेहरे पर
एक बनावटी और सजावटी मुस्कान
ताकि, उसकी थकावट देखकर
थक न जायें कितनी ही उम्मीदें

            (कृष्णधर शर्मा 9.3.2019)

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

लेबनान संकट

 महामारी और आर्थिक संकट से जूझ रहे मध्यपूर्वी देश लेबनान में मंगलवार को हुए धमाकों ने भारी तबाही मचाई है। राजधानी बेरूत के पोर्ट इलाके में एक वेयर हाउस में रखे 2750 टन अमोनियम नाइट्रेट के कारण कई छोटे-बड़े धमाके हुए, जिसने एक खूबसूरत शहर को मलबे और राख के ढेर में बदल कर रख दिया है। बताया जा रहा है कि इतनी बड़ी मात्रा में यह खतरनाक रसायन असुरक्षित तरीके से रखा हुआ था। 2013 में एक माल्दोवियन कार्गो शिप इस रसायन को लेकर जा रहा था, लेकिन तकनीकी खराबी आने के कारण इसे बेरूत में ही उतार दिया गया और उसके बाद से यह वेयरहाउस में रखा हुआ था। 

अमोनियम नाइट्रेट अमूमन खेती के लिए उर्वरक में नाइट्रोजन के स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसे ईंधन वाले तेल के साथ मिलाकर विस्फोटक भी तैयार किया जाता है, जिसका इस्तेमाल खनन और निर्माण उद्योगों में होता है। चरमपंथियों ने कई बार इसका इस्तेमाल बम बनाने में भी किया है। 

जानकारों का कहना है कि अमोनियम नाइट्रेट को अगर ठीक से स्टोर किया जाए, तो ये सुरक्षित रहता है। लेकिन अगर बड़ी मात्रा में ये पदार्थ लंबे समय पर ऐसे ही जमीन पर पड़ा रहा, तो धीरे-धीरे खराब होने लगता है। बेरूत के वेयरहाउस में रखे इस रसायन के बारे में भी यही कहा जा रहा है कि या तो इसका निपटारा किया जाना चाहिए था या फिर इसे बेच देना चाहिए था। 

लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार ने और संबंधित अधिकारियों ने इस ओर लापरवाही दिखाई और बेरूत को इतनी बड़ी औद्योगिक दुर्घटना का शिकार होना पड़ा। ये धमाके कितने शक्तिशाली थे, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि 2 सौ किमी दूर साइप्रस में इसकी आवाज सुनी गई। धमाके के बाद जिस तरह की शॉकवेव उठी, उससे नौ किलोमीटर दूर बेरूत अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के पैसेंजर टर्मिनल में शीशे टूट गए। इस हादसे में कम से कम 135 लोगों की मौत हो चुकी है और 5 हजार के करीब घायल हुए हैं। 

अस्पताल मरीजों और पीड़ितों से भर गए हैं। 3 लाख से अधिक लोगों के बेघर होने की आशंका है और 10-15 अरब डालर का नुकसान हो चुका है।  जहां धमाके हुए, वहां पास में ही सरकारी अनाज के गोदाम भी थे, जो अब पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। इन गोदामों में रखा करीब 15 हजार टन अनाज राख हो चुका है और अब लेबनान के पास केवल एक महीने की खाद्य सामग्री है। 

इसका मतलब आने वाले समय में भयंकर खाद्य संकट देखने मिल सकता है। लेबनान अपनी जरूरत का अधिकतर अनाज आयात करता है, लेकिन पहले से आर्थिक संकट झेल रहे देश के पास और अनाज आयात करने के लिए पैसे नहीं हैं। 

कुछ लोगों की लापरवाही लाखों लोगों के जीवन के लिए भयावह संकट साबित हुई है। हालांकि लेबनान के राष्ट्रपति मिशेल आउन और प्रधानमंत्री हसन दियाब ने मामले की कड़ी जांच करने और दोषियों को सजा देने की बात कही है, लेकिन इतिहास के अनुभव यही बताते हैं कि इस तरह के हादसों के जिम्मेदार लोग किसी किसी तरह बच निकलते हैं और जनता अपने घावों के साथ कराहती रह जाती है। बीते वक्त में चेर्नोबिल से लेकर भोपाल गैस कांड तक कई भयावह औद्योगिक दुर्घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें इंसाफ मिलने की उम्मीद समय बीतने के साथ कम होती जाती है। 

वैसे इस तरह की दुर्घटनाओं में जहां ताकतवर लोगों का स्वार्थी चरित्र उजागर हो जाता है, वहीं आम जनता की उदारता की ताकत भी दिखने लगती है। बेरूत में धमाकों के बाद सरकारी राहत और मदद की प्रतीक्षा करने की जगह बहुत से युवा स्वयंसेवी बनकर सड़कों पर उतर गए। दास्ताने और मास्क पहने ये युवा मलबा हटाने, सफाई करने से लेकर घायलों की तीमारदारी में लग गए। 

कई लोगों ने भोजन-पानी और दवा का इंतजाम किया। बहुत से लोगों ने अपने घरों में बेघरों को पनाह दी। कई व्यापारियों ने मरम्मत के काम को मुफ्त कर देने का प्रस्ताव रखा। ये तमाम लोग सरकार के ढीले-ढाले रवैये से नाराज हैं और अपने देशवासियों की मदद खुद करना चाहते हैं। बहुत से देश भी इस मुसीबत की घड़ी में लेबनान की मदद के लिए आगे आए हैं। 

जर्मनी ने खोज और बचाव विशेषज्ञ भेजे, मेडिकल सहायता का प्रस्ताव रखा है साथ ही रेडक्रास को 10 लाख यूरो की मदद की है। फ्रांस ने राहत और चिकित्सा सामग्री भेजी और इसके साथ राष्ट्रपति इमैनुअल मैक्रों खुद लेबनान पहुंच गए। ऐसा करने वाले वे पहले विदेशी नेता बन गए। आस्ट्रेलिया, इराक, मिस्र, जोर्डन और अमेरिका जैसे तमाम देशों ने भी मदद की पेशकश की है। 

इस मानवीय संकट के वक्त मदद और सहानुभूति दवा की तरह साबित होते हैं। वैसे लेबनान के जख्मों को भरने में काफी वक्त लगेगा, यह बात भारत के लोग भी समझ सकते हैं, जो खुद भोपाल गैस कांड का पीड़ित है। उस घटना के लगभग 3 दशक बाद भी पूरी तरह उबरा नहीं जा सका है। इस तरह की घटनाओं के वक्त जांच और एहतियात जैसे शब्द काफी जोर देकर इस्तेमाल किए जाते हैं, लेकिन वक्त बीतने के साथ फिर लापरवाही का सिलसिला शुरु हो जाता है। 

भारत में ही भोपाल की घटना के बाद औद्योगिक दुर्घटनाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सका। लेबनान की घटना से दुनिया को एक चेतावनी और मिल गई है, पर क्या सरकारें इसे सुनने को तैयार हैं।


(साभार- देशबंधु)