नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

तेरे सिवा कुछ भी नहीं

सोचा नहीं अच्छा बुरा, देखा सुना कुछ भी नहीं

मांगा ख़ुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं 

सोचा तुझे, देखा तुझे, चाहा तुझे पूजा तुझे 

मेरी वफ़ा मेरी ख़ता, तेरी ख़ता कुछ भी नहीं 

जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर

भेजा वही काग़ज़ उसे, हमने लिखा कुछ भी नहीं 

इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक

आँखों से की बातें बहुत, मुँह से कहा कुछ भी नहीं 

दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा

जब आग पर काग़ज़ रखा, बाकी बचा कुछ भी नहीं 

अहसास की ख़ुशबू कहाँ, आवाज़ के जुगनू कहाँ

ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं

रविवार, 14 दिसंबर 2014

आधुनिक बाल साहित्य-दशा एवं दिशा

बच्चों को साहित्य की आवश्यकता भले ही महसूस न हो परन्तु हमें यह आभास होता है कि उपयोगी बहुउद्देशीय बाल साहित्य की आवश्यकता आज भी उतनी है जितनी कि मरीज को डॉक्टर की। यह भी सच है कि बाल्यकाल सुखद अनुभूति और कल्पनाओं का सुनहरा संसार है फिर भी साहित्य की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए यदि आप बच्चों को साहित्य देना ही चाहते हैं तो वह इस प्रकार का होना चाहिए जिससे हर दृष्टि से बच्चों का समुचित विकास हो सके। आधुनिक बाल जगत पूरी तरह विज्ञान की गिरफ्त में है। इलेक्ट्रानिक क्षेत्र की चुनौतियां और बच्चों की तीव्र होती बुद्धि तथा नई-नई जिज्ञासा के बीच सामंजस्य स्थापित करना संभव नहीं, बड़ा जटिल काम है। आज इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर खड़ा बालक अपनी उम्र से आगे की कल्पना आसानी से कर लेता है भारत की अनूठी संस्कृति की गरिमा कायम रखते हुए बाल साहित्य ने अपने रंग-ढंग बदले हैं। समय के हिसाब से रूप परिवर्तन जरूरी है। बाल साहित्य में नैतिक शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, देश-प्रेम, विचार-विमर्श, मर्यादा और आगे बढऩे की प्रबल इच्छा भी समाहित रहे तो निश्चित ही बच्चों को एक नई दिशा मिलेगी। वर्तमान समय में बच्चों की दशा बहुत अच्छी तो नहीं किन्तु संतोषप्रद है। महापुरुषों का आदर्श हमारे समक्ष है। महान बनने के लिए जन्म से ही बच्चों को ऐसे संस्कार देने चाहिए जो भविष्य में उनके जीवन को सार्थक बना सके। किताबी ज्ञान से सिर्फ जानकारी मिल सकती है पर दिल और दिमाग में परिवर्तन लाने की क्षमता तो केवल सत साहित्य में ही मौजूद रहती है। बाल साहित्य की दशा एवं दिशा पर केन्द्रित यह विषय बड़ा जटिल है किन्तु गम्भीरता से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि आज भी बच्चों को अच्छे साहित्य की जरूरत है। प्रत्येक माता पिता अपने बच्चों के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास का ध्यान तो रखते हैं पर उनके बौद्धिक विकास का ध्यान साहित्यकारों को रखना पड़ता है। बच्चे हृदय से कोमल और मन से सच्चे होते हैं तभी तो सभी को अच्छे लगते हैं इन्हें अच्छे से अच्छा बनाये रखना हमारा प्रथम मुख्य कर्तव्य है। बच्चों के लिए श्रेष्ठ साहित्य सृजन आसान नहीं, अपितु काफी परिश्रम के पश्चात ही अच्छे परिणाम सामने आते हैं। बच्चों को सहज ही बहकाया नहीं जा सकता, क्योंकि उनकी जिज्ञासाएं अनन्त हैं। इन्हें संतुष्ट करना हंसी खेल नहीं जबकि इन्हें पता भी नहीं कि क्या गलत और क्या सही है। बचपन जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। यह उतना ही नाजुक होता है जितना कि एक कोमल फूल। ऐसे वक्त उसकी सुरक्षा और देखभाल का दायित्व अनिवार्य रूप से सभी का बराबर है। इस दायित्व को मिल-जुलकर निभाना ज्यादा अच्छा होगा यही सोचकर सदी का अंतिम दशक गहमागहमी भरा बीता। सभी साहित्यकारों ने बच्चों के लिए बहुत कुछ लिखा परन्तु बच्चों ने कितना पढ़ा यह बताना मुश्किल है। इन दिनों तमाम दैनिक, साप्ताहिक पत्र तथा विभिन्न पत्रिकाओं ने बच्चों द्वारा लिखी स्वरचित रचनाओं को प्रकाशित करने का मन बना लिया है तभी तो बच्चों का पृष्ठ अलग से प्रकाशित हो रहा है। वैसे भी बच्चे कई दृष्टियों से हमसे अच्छे हैं। बच्चों में न तो राग-द्वेष होता है न कोई छल-कपट। बिना किसी भेदभाव के वे सभी को समान रूप से देखते हैं इसीलिए तो वे प्रत्येक को प्रिय लगते हैं। हालांकि आज का बालक अणु युग, कम्प्यूटर युग का बालक है और वह इससे अधिक जीवन की कठिनाइयां संसार की जानकारियां, जन्म से ही देख रहा है इसलिए हमसे ज्यादा समझदार है। इन्हें बिना तर्क-वितर्क समझाने का प्रयास व्यर्थ है। सच पूछा जाए तो बाल साहित्य की भाषा गूढ़ नहीं, बल्कि सीधी सरल जो सहज समझ में आ सके ऐसी होनी चाहिए। शब्दावली भी ऐसी हो जो बच्चों को स्वयं अर्थ प्रदान करती चले। यथार्थ अर्थ द्वारा ही बच्चे समर्थ बन सकते हैं। हमारी लेखनी तब तक सार्थक नहीं कहलाएगी जब तक प्रत्येक बच्चा पढ़कर आनंद विभोर न हो जाए। वैसे तो बाल साहित्य का विपुल भण्डार भरा पड़ा है परन्तु विडम्बना यह है कि बच्चों में पढऩे की अपेक्षा टी.वी. देखने की रुचि अधिक है। शिक्षाप्रद प्रेरणादायी छोटी-छोटी कहानियां भी यदि बच्चे ध्यानपूर्वक पढ़ लें तो निश्चित ही जीवन में सुधार और बदलाव आ जाएगा। साहित्य से समाज का निर्माण तो हो सकता है मगर बच्चों का उत्थान कोरे ज्ञान से संभव नहीं। इन्हें स्नेह सम्पन्न, सारगर्भित, रोचक साहित्य की जरूरत है। जिस प्रकार महादेवी वर्मा, कविवर रवीन्द्र, निराला, पंत, हरिऔध, मैथलीशरण गुप्त, जयप्रकाश भारती, बालकृष्ण रेड्डी, कमलेश्वर आदि ने भी बच्चों के लिए उद्बोधक, प्रेरक और ज्ञानवर्धक साहित्य लिखा। वर्तमान समय में बच्चों की पसंद को ध्यान में रखते हुए अनेकों बालोपयोगी पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। पिछली शताब्दी को बाल साहित्य के स्वरूप, स्थिति और संभावनाओं की दृष्टि से देखा जाए तो आरंभ के पांच दशक एवं पांच और दर्शक के अलग-अलग स्वभाव चरित्र देखने को मिलते हैं। अव्वल तो आरंभ का साहित्यिक परिवेश दशक बाद बाल साहित्य का रूप बदला। बाल साहित्य लेखन में क्रांति और नई दिशा का श्रेय पत्रिका 'शिशुÓ (1914) एवं 'बालसखाÓ (1917) को जाता है। बच्चों की अभिरुचि और उनकी बाल सुलभ चंचलताओं को ध्यान में रखकर कई कविताएं, कहानियां, नाटक आदि लिखे गये जो काफी चर्चित रहे। इसके पश्चात् 'बालकÓ तथा 'किशोरÓ पत्रिका का प्रकाशन क्रमश: पंडित रामलोचन शरण एवं रामदीन मिश्र ने किया। सन् 1947 के बाद लोककथाओं एवं बोधकथाओं की इसी धारा में 'पंचतंत्रÓ का पुन: प्रकाशन हुआ पर बालसखा का प्रकाशन बंद हो गया। कुछ हिन्दी की व्यवसायिक पत्रिकाओं ने बाल साहित्य के लिए पृथक पृष्ठ सुरक्षित रखे जिनमें 'धर्मयुगÓ और 'हिन्दुस्तानÓ प्रमुख हैं। 1954 में नर्मदाप्रसाद खरे की पुस्तक 'नवीन बाल नाटक मालाÓ के दो भाग प्रकाशित हुए। 1958 में केशवचन्द्र वर्मा का एकांकी संकलन 'बच्चों की कचहरीÓ प्रकाशित हुई। इसी समय 'किशोर भारतीÓ पत्रिका भी छप रही थी। पराग, चंदा मामा जैसी पत्रिका के साथ ही नेहरूजी की प्रेरणा से भारत सरकार ने 'बालभारतीÓ का प्रकाशन शुरु किया। बाल साहित्य को दिशा देती कई पत्र-पत्रिकाओं ने इसके पूर्व कई उतार-चढ़ाव देखे। इनमें बालक, बालहंस, नंदन, चंपक, देवपुत्र, बालवाटिका, बच्चों का देश, संदर्भ, स्नेह बाल पत्रिका ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। 'चकमकÓ जैसी पत्रिका ने बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण जाग्रत करने और उनका मंतव्य जानने के उद्देश्य से अद्वितीय पत्रिका के रूप में स्वयं को स्थापित किया। 'विज्ञान प्रगतिÓ जैसी पत्रिका के बाल विज्ञान अंक छपे। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बाल साहित्य के प्रति साहित्यकारों का रुझान तो है। चित्रकारों का विशेष योगदान पत्रिकाओं को आकर्षक बनाने में बराबर मिल रहा है। इन सबके बावजूद भी प्रचार-प्रसार का सीधा असर बच्चों पर पड़ता है। बच्चों के हित में टी.वी. पर प्रेरणादायी सीरियल व फिल्में दिखानी चाहिए केवल कार्टूनिस्ट या मनोरंजक प्रस्तुति बच्चों के भविष्य को नहीं संवार सकती। शिक्षा के आधुनिक स्वरूप में बाल साहित्य कहीं लुप्त न हो जाए इसका भी ख्याल रखना है। आजकल मनुष्य की ऐसी मनोवृत्ति बन चुकी है कि वह बच्चों को जल्दी व्यस्त देखना चाहता है। उनकी बुद्धि में सारी दुनिया की जानकारी भर देना चाहते हैं। मानो सारा संसार बच्चों में समा जाये। बच्चों के नटखट स्वभाव और स्वच्छंद कल्पनाओं की बातें मुखरित होंगी सिर्फ आपके सहयोग से। बच्चों को हर प्रकार से सुयोग्य बनाने का प्रयत्न तो करना ही होगा क्योंकि बच्चों के विकास पर देश का विकास निर्भर है। हर हाल में बाल साहित्य की उपयोगिता और सृजन को हमेशा कायम रखना है वरना लोग हंसेंगे कि हिन्दुस्तान और हिन्दी में उच्च कोटि के बाल साहित्य की कमी है। बाल मजदूरी, बाल-विवाह, शिक्षा का अभाव ये ऐसे विषय हैं जो आज भी हमें बच्चों के प्रति सोचने पर मजबूर कर देते हैं। गरीब बच्चों की दशा सचमुच बड़ी दयनीय है। आवारा, लावारिस बच्चों का भविष्य बाल सुधार गृह में सुरक्षित रह पाता है कि नहीं यह तो वक्त ही बताएगा फिलहाल में आधुनिक बाल साहित्य की दशा एवं दिशा पर विचार करना होगा। शिक्षा के साथ-साथ कहीं हम बच्चों पर घर-परिवार व अन्य जवाबदारी का बोझ तो नहीं डाल रहे अन्यथा वे उठने की बजाय और अधिक दब जायेंगे। वर्षों से बाल साहित्य की उपयोगिता और उसके प्रभाव को प्रत्येक ने अपनी-अपनी दृष्टि से देखा और समझा किन्तु आज इसका महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। पालकों की यही इच्छा रहती कि हमारे बच्चे ज्यादा से ज्यादा पढ़े-लिखे और सीखे। इसके लिए उच्च कोटि का बाल साहित्य सदैव उपलब्ध रहना भी जरूरी है। प्रेरणादायी बालोपयोगी साहित्य की श्रृंखला में महामहिम राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की कृति तेजस्वी मन, मायाराम पतंग की कृति व्यवहार में निखार, सदाचार सोपान, चरित्र निर्माण; हरिशंकर कश्यप की पुस्तकें मेरे देश के महान बालक, मेरे देश के ऋषि मुनि, संत महात्मा: रोहिताश्व अस्थाना की चुनी हुई बाल कहानियां, चुने हुए बाल एकांकी, चुने हुए बाल गीत। श्यामसुन्दर शर्मा की विज्ञान माडल, विज्ञान प्रयोग, आओ प्रयोग करें। आषिद सुरती की 365 कहानियां, 365 चुटकुले। दिलीप एम. सालवी की गणित व विज्ञान प्रश्नोत्तरी आदि प्रमुख कृतियां बच्चों के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होगी। समाज रूपी बगिया का सौन्दर्य ये बच्चे ही हैं इसलिए बच्चों के प्रति सदैव सजग रहने की आवश्यकता है। अति आधुनिक परिवेश में जन्मे बालक के प्रति हमारी सहानुभूति बढऩी चाहिए। बाल साहित्य की रूपरेखा तैयार करने हेतु सेमिनार, गोष्ठियां, समीक्षा, संभाषणों का दौर भी चलना चाहिए। परिचर्चा, प्रयोग और प्रकाशन के जरिए यही प्रयास हो कि प्रत्येक बच्चा अच्छे से अच्छा बनें। हमारे सामने यही लक्ष्य होना चाहिए कि जीवन की दृष्टि से हम बालक को इस प्रकार ले चले कि कहीं से वह कुंठित न हो। उसकी प्रतिभा का दोहन न हो। विकास के अवसर प्रदान करना हमारा ही काम है आज आवश्यकता इस बात की है कि यत्र-तत्र बिखरा हुआ बाल साहित्य संग्रहीत होकर विधिवत् बच्चों के हाथों में पहुंचे। भावनाओं के अनुकूल रुचिकर, शिक्षाप्रद, सचित्र बाल साहित्य सौ प्रतिशत बच्चों के विकास में सहायक सिद्ध होगा। माना कि आजकल पुस्तक छपने में काफी व्यय आता है मगर इन्हें पढ़कर पांच बच्चे भी अपने जीवन को सफल कर लेते हैं तो हमारे लिए यही सौभाग्य की बात है। बाल साहित्य में नई प्रवृत्त्यिां, नई चुनौतियां, नई स्थितियां भी शामिल कर लें तो कोई हर्ज नहीं किन्तु सारगर्भित होनी चाहिए। व्यर्थ बातों से भरी कोई बड़ी पुस्तक की तुलना में समर्थ, सार्थक, पथ प्रदर्शक लघु पत्रिका भी अति उत्तम है। संसार के समस्त रसों का संचय कर अच्छा साहित्य प्रदान करना बच्चों के लिए जन्मघुट्टी के समान लाभदायक है। बाल सािहत्य की वर्तमान स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। बच्चों के विकास हेतु उठाये गये कारगर ठोस कदम निश्चित ही एक नई दिशा को अंकित करेंगे जिससे बाल साहित्य की दशा जरूर सुधरेगी। 
रामचरण यादव, बैतूल (म.प्र.)

गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

माधवराव सप्रे




माधवराव सप्रे का जन्म 19 जून 1871 दमोह के पथरिया ग्राम में हुआ था(निधन  23 अप्रैल 1926) 
बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मेट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से उत्तीर्ण किया। १८९९ में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी ए करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रुप में शासकीय नौकरी मिली लेकिन सप्रे जी ने भी देश भक्ति प्रदर्शित करते हए अँग्रेज़ों की शासकीय नौकरी की परवाह न की। सन १९०० में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नही था तब इन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से छत्तीसगढ़ मित्रनामक मासिक पत्रिका निकाली। हालांकि यह पत्रिका सिर्फ़ तीन साल ही चल पाई। सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहाँ हिंदी केसरी के रुप में छापना प्रारंभ किया तथा साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की।


भाषा : हिंदी  
विधाएँ : कहानी, निबंध, समीक्षा, वैचारिकी, अनुवाद, संपादन   
मुख्य कृतियाँ  स्वदेशी आंदोलन और बॉयकाट, यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें, हमारे सामाजिक ह्रास के कुछ कारणों का विचार, माधवराव सप्रे की कहानियाँ (संपादन : देवी प्रसाद वर्मा) 
अनुवाद : हिंदी दासबोध (समर्थ रामदास की मराठी में लिखी गई प्रसिद्ध), गीता रहस्य (बाल गंगाधर तिलक), महाभारत मीमांसा (महाभारत के उपसंहार : चिंतामणी विनायक वैद्य द्वारा मराठी में लिखी गई प्रसिद्ध पुस्तक) 
संपादन : हिंदी केसरी (साप्ताहिक समाचार पत्र), छत्तीसगढ़ मित्र (मासिक पत्रिका)  
 


उन्होंने कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई।  सप्रे जी की कहानी "एक टोकरी मिट्टी" (जिसे बहुधा लोग टोकनी भर मिट्टीभी कहते हैं) को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है। सप्रे जी ने लेखन के साथ-साथ विख्यात संत समर्थ रामदास के मराठी दासबोध व महाभारत की मीमांसा, दत्त भार्गव, श्री राम चरित्र, एकनाथ चरित्र और आत्म विद्या जैसे मराठी ग्रंथों, पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी बखूबी किया। 
१९२४ में हिंदी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन में सभापति रहे सप्रे जी ने १९२१ में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और साथ ही रायपुर में ही पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। यह दोनो विद्यालय आज भी चल रहे हैं।  माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने ११ सितम्बर १९२६ के कर्मवीर में लिखा था − "पिछले पच्चीस वर्षों तक पं॰ माधवराव सप्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।
 



राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नायक, प्रखर चिंतक, मनीषी संपादक, स्वतंत्राता संग्राम सेनानी और सार्वजनिक कार्यों के लिये समर्पित कार्यकर्ताओं की श्रृंखला तैयार करने वाले प्रेरक-मार्गदर्शक-गुरु कर्मयोगी पं. माधवराव सप्रे का कृतित्व और अवदान कालजयी है।
 पं. माधवराव सप्रे ने छत्तीसगढ़ मित्र (1900), हिन्दी ग्रंथ माला (1906) और हिन्दी केसरी (1907) का सम्पादन प्रकाशन कर हिन्दी पत्राकारिता और साहित्य को नये संस्कार प्रदान किए।
 नागरी प्रचारिणी सभा काशी की विशाल शब्दकोश योजना के अन्तर्गत आर्थिक शब्दावली के निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य सप्रे जी ने किया। मराठी की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कृतियों में से ' दासबोध ', ' गीतारहस्य ' और ' महाभारत  मीमांसा ' के प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद सप्रेजी ने किये। कर्मवीर का प्रकाशन उन्हीं ने कराया और उसके सम्पादक के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी जैसा तेजस्वी सम्पादक हिन्दी संसार को दिया। 
 1924 के देहरादून हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता पं.माधवराव सप्रे ने की। उनका एक अत्यंत महत्वपूर्ण अवदान स्वतंत्राता संग्राम, हिन्दी की सेवा और सामाजिक कार्यों के लिए सैकड़ों समर्पित कार्यकर्त्ताओं की श्रृंखला तैयार करना है। 19 जून 1984 को राष्ट्र की बौद्धिक धरोहर को संजोने और भावी पीढ़ियों की अमानत के रूप में संरक्षित करने के लिये जब एक अनूठे संग्रहालय की स्थापना का विचार फलीभूत हुआ तब सप्रे जी के कृतित्व के प्रति आदर और कृतज्ञता अभिव्यक्त करने के लिये संस्थान को ' माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय ' नाम दिया गया।



एक टोकरी-भर मिट्टी 

  किसी श्रीमान् जमींदार के महल के पास एक गरीब अनाथ विधवा की झोंपड़ी थी। जमींदार साहब को अपने महल का हाता उस झोंपड़ी तक बढा़ने की इच्‍छा हुई, विधवा से बहुतेरा कहा कि अपनी झोंपड़ी हटा ले, पर वह तो कई जमाने से वहीं बसी थी; उसका प्रिय पति और इकलौता पुत्र भी उसी झोंपड़ी में मर गया था। पतोहू भी एक पाँच बरस की कन्‍या को छोड़कर चल बसी थी। अब यही उसकी पोती इस वृद्धाकाल में एकमात्र आधार थी। जब उसे अपनी पूर्वस्थिति की याद आ जाती तो मारे दु:ख के फूट-फूट रोने लगती थी। और जबसे उसने अपने श्रीमान् पड़ोसी की इच्‍छा का हाल सुना, तब से वह मृतप्राय हो गई थी। उस झोंपड़ी में उसका मन लग गया था कि बिना मरे वहाँ से वह निकलना नहीं चाहती थी। श्रीमान् के सब प्रयत्‍न निष्‍फल हुए, तब वे अपनी जमींदारी चाल चलने लगे। बाल की खाल निकालने वाले वकीलों की थैली गरम कर उन्‍होंने अदालत से झोंपड़ी पर अपना कब्‍जा करा लिया और विधवा को वहाँ से निकाल दिया। बिचारी अनाथ तो थी ही, पास-पड़ोस में कहीं जाकर रहने लगी।  एक दिन श्रीमान् उस झोंपड़ी के आसपास टहल रहे थे और लोगों को काम बतला रहे थे कि वह विधवा हाथ में एक टोकरी लेकर वहाँ पहुँची। श्रीमान् ने उसको देखते ही अपने नौकरों से कहा कि उसे यहाँ से हटा दो। पर वह गिड़गिड़ाकर बोली, ''महाराज, अब तो यह झोंपड़ी तुम्‍हारी ही हो गई है। मैं उसे लेने नहीं आई हूँ। महाराज क्षमा करें तो एक विनती है।'' जमींदार साहब के सिर हिलाने पर उसने कहा, ''जब से यह झोंपड़ी छूटी है, तब से मेरी पोती ने खाना-पीना छोड़ दिया है। मैंने बहुत-कुछ समझाया पर वह एक नहीं मानती। यही कहा करती है कि अपने घर चल। वहीं रोटी खाऊँगी। अब मैंने यह सोचा कि इस झोंपड़ी में से एक टोकरी-भर मिट्टी लेकर उसी का चूल्‍हा बनाकर रोटी पकाऊँगी। इससे भरोसा है कि वह रोटी खाने लगेगी। महाराज कृपा करके आज्ञा दीजिए तो इस टोकरी में मिट्टी ले आऊँ!'' श्रीमान् ने आज्ञा दे दी।  विधवा झोंपड़ी के भीतर गई। वहाँ जाते ही उसे पुरानी बातों का स्‍मरण हुआ और उसकी आँखों से आँसू की धारा बहने लगी। अपने आंतरिक दु:ख को किसी तरह सँभालकर उसने अपनी टोकरी मिट्टी से भर ली और हाथ से उठाकर बाहर ले आई। फिर हाथ जोड़कर श्रीमान् से प्रार्थना करने लगी, ''महाराज, कृपा करके इस टोकरी को जरा हाथ लगाइए जिससे कि मैं उसे अपने सिर पर धर लूँ।'' जमींदार साहब पहले तो बहुत नाराज हुए। पर जब वह बार-बार हाथ जोड़ने लगी और पैरों पर गिरने लगी तो उनके मन में कुछ दया आ गई। किसी नौकर से न कहकर आप ही स्‍वयं टोकरी उठाने आगे बढ़े। ज्‍योंही टोकरी को हाथ लगाकर ऊपर उठाने लगे त्‍योंही देखा कि यह काम उनकी शक्ति के बाहर है। फिर तो उन्‍होंने अपनी सब ताकत लगाकर टोकरी को उठाना चाहा, पर जिस स्‍थान पर टोकरी रखी थी, वहाँ से वह एक हाथ भी ऊँची न हुई। वह लज्जित होकर कहने लगे, ''नहीं, यह टोकरी हमसे न उठाई जाएगी।''  यह सुनकर विधवा ने कहा, ''महाराज, नाराज न हों, आपसे एक टोकरी-भर मिट्टी नहीं उठाई जाती और इस झोंपड़ी में तो हजारों टोकरियाँ मिट्टी पड़़ी है। उसका भार आप जन्‍म-भर क्‍योंकर उठा सकेंगे? आप ही इस बात पर विचार कीजिए।"  जमींदार साहब धन-मद से गर्वित हो अपना कर्तव्‍य भूल गए थे पर विधवा के उपर्युक्‍त वचन सुनते ही उनकी आँखें खुल गयीं। कृतकर्म का पश्‍चाताप कर उन्‍होंने विधवा से क्षमा माँगी और उसकी झोंपड़ी वापिस दे दी।  (1900)

 एक संस्मरण (ललित सुरजन)
 यह सन् 1965 की बात है। रायपुर के दुर्गा महाविद्यालय ने प्रदेश के पांच मूर्धन्य साहित्यकारों का सम्मान करने का निर्णय लिया, वे थे- मुकुटधर पाण्डेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, मावलीप्रसाद श्रीवास्तव, बलदेव प्रसाद मिश्र एवं सुंदरलाल त्रिपाठी। इसी अवसर पर छत्तीसगढ़ के साहित्य एवं संंस्कृति पर केन्द्रित एक स्मारिका ''व्यंजना'  शीर्षक से प्रकाशित करने का निर्णय भी लिया गया। महाविद्यालय में एक वर्ष पूर्व ही एम.ए. की पढ़ाई शुरू हुई थी। मैं अंतिम वर्ष का विद्यार्थी था। साथ ही हिन्दी साहित्य परिषद का अध्यक्ष भी। मेरे अध्यापकों ने मुझ पर विश्वास रखते हुए स्मारिका के छात्र संपादक का दायित्व भी मुझे सौंप दिया था। उस समय मैंने अपने सहपाठियों से साहित्य-संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर लेख लिखवाए, और स्वयं भी एक-दो लेख लिखे। इस निजी संस्मरण के बाद मैं आज के विषय पर आता हूं।  मैंने स्वयं व्यंजना में छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता पर निबंध लिखने का निश्चय किया था। इस सिलसिले में जब सामग्री जुटाना प्रारंभ किया तो बहुत से अन्य तथ्यों के अलावा यह भी मालूम पड़ा कि छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का श्रीगणेश नई सदी की दहलीज पर याने सन् 1900 में माधवराव सप्रे ने प्रदेश के एक छोटे से ग्राम पेण्ड्रारोड से ''छत्तीसगढ़ मित्र" नामक मासिक पत्रिका निकालकर किया था। मेरी पीढ़ी को सामान्यत: सप्रेजी के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं थी। इतना अवश्य हम जानते थे कि एक अंग्रेज अफसर के नाम पर रखे गए लॉरी स्कूल का नाम नगरपालिका ने बदलकर माधवराव सप्रे शाला कर दिया था। मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा 1950 में प्रकाशित गोविन्दराव हार्डिकर द्वारा लिखित व सप्रेजी की जीवनी घर की लाइब्रेरी में थी, लेकिन उसकी ओर मेरा ध्यान पहले नहीं गया था।  इस तरह सप्रेजी को मैंने सबसे पहले छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के अग्रपुरुष के रूप में जाना।  गो कि उनकी रचनाओं से मैं बहुत ज्यादा वाकिफ नहीं हो सका था फिर भी उनके प्रति एक आदर का भाव तो मन में विकसित हो ही चुका था। आज भी छत्तीसगढ़ सप्रेजी को प्रदेश में पत्रकारिता के जनक के रूप में ही मुख्य तौर पर जानता है और उनके इस योगदान के प्रति उचित ही गर्व करता है। यह बात अलग है कि जब नया राज्य बना तो प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने उन्हें एक पितृपुरुष के रूप में स्मरण किया, किन्तु जब एक दर्जन से ज्यादा पुरस्कार स्थापित किए तो उनमें से सप्रेजी का नाम नदारद था। उनके पश्चात भाजपा सरकार आई और पत्रकारिता एवं जनसंचार वि.वि. की स्थापना होने लगी तो उसका नामकरण माधवराव सप्रे के नाम पर न कर कुशाभाऊ ठाकरे के नाम पर किया गया। यह देखकर नागार्जुन की पंक्ति बरबस याद आती है- शासन के सत्य कुछ और हैं, जनता के कुछ और।  खैर! इस लंबे अंतराल में माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है। सप्रेजी का नाम राष्ट्रव्यापी चर्चा में उस समय एकाएक उभर कर आया जब ''टोकरी भर मिट्टी का" पुनप्र्रकाशन सारिका में इस दावे के साथ हुआ कि यह हिन्दी की पहली कहानी है। यह कहानी एक पुरानी लोककथा पर आधारित थी एवं उसका प्रथम प्रकाशन अप्रैल 1901 में ही छत्तीसगढ़ मित्र में हुआ था। रायपुर के चर्चित साहित्यकार देवीप्रसाद वर्मा (बच्चू जांजगीरी) ने इसका पुनप्र्रकाशन करवाया था और तब एक तरह से सारिका के संपादक कमलेश्वर व बच्चू भाई दोनों को हिन्दी की पहली कहानी की खोज करने का श्रेय संयुक्त रूप से मिला। इस स्थापना से मेरी प्रारंभ से असहमति रही है। एक लोककथा जो सप्रेजी के समय में भी प्रचलित रही होगी, को लिपिबद्ध कर देने मात्र से क्या उसे मौलिक रचना माना जा सकता है? ऐसा कोई श्रेय स्वयं सप्रेजी ने भी नहीं लिया।  बहरहाल सप्रेजी के लेखन से मैंने कुछ बेहतर परिचय प्राप्त किया सन् 1979 में जब मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन से एक पुस्तक माला के अंतर्गत ''माधवराव सप्रे के निबंध" शीर्षक पुस्तक प्रकाशित हुई। यह पहल सम्मेलन के अध्यक्ष मेरे स्व. पिता मायाराम सुरजन की थी। इस पुस्तक का संपादन बच्चू जांजगीरी ने किया। यद्यपि सप्रेजी ने अपने जीवनकाल में सैकड़ों निबंध लिखे, लेकिन बच्चू भाई ने अलग-अलग विषयों से चयन कर चौदह लेखों का संकलन तैयार किया ताकि उससे सप्रेजी के विस्तृत विचार संसार की एक झलक पाठकों को मिल सके। मुझे इस पुस्तक में छठवें क्रम पर प्रकाशित ''हड़ताल" शीर्षक लेख ने तुरंत ही प्रभावित किया। यह निबंध प्रथमत: 1907 में प्रकाशित हुआ था और मेरे लिए यह विस्मयजनक था कि सौ वर्ष पूर्व इस विषय पर कोई लेख लिखा जा सकता था ! इसमें हड़ताल के बारे में सप्रेजी ने जो विचार व्यक्त किए उनसे यह अनुमान भी हुआ कि वे अपने समय से आगे एक उदारवादी दृष्टिकोण रखते थे, मुझे इस बात ने और भी आकर्षित किया।  
 
 इस निबंध के कुछ अंश यहां प्रस्तुत हैं -  
 ''जब किसी देश में सम्पत्ति थोड़े-से पूंजी वालों के हाथ में आ जाती है और अन्य लोगों को मजदूरी से अपना निर्वाह करना पड़ता है तब पूंजी वाले अपने व्यापार का सब नफा स्वयं आप ही ले लेते हैं और जिन लोगों के परिश्रम से यह सम्पत्ति उत्पन्न की जाती है, उनको वे पेट भर खाने को नहीं देते। ऐसी दशा में श्रम करने वाले मजदूरों को हड़ताल करनी पड़ती है।"  ''मनुष्य का स्वभाव ही ऐसा है कि वह अपने नफे का हिस्सा किसी दूसरे को देना नहीं चाहता। जो पूंजी वाले अपनी पूंजी लगाकर, बड़े-बड़े व्यवसाय करते हैं, वे यही चाहते हैं कि सब नफा अपने ही हाथों में बना रहे, जिन मजदूरों के श्रम से व्यवसाय किया जाता है, उनको उस नफे का कुछ भी हिस्सा न मिले। इसी को अर्थशास्त्र में 'पूंजी और श्रम का हित-विरोध' कहते हैं।"  ''यदि मजदूर अपने श्रम को कारखाने वालों के मुंहमांगे दाम पर न बेचे तो क्या वे दोषी या अपराधी हो सकते हैं? कदापि नहीं। नीति-दृष्टि से वे किसी प्रकार दोषी नहीं कहे जा सकते। अत: जब एक श्रम करने वाले मजदूर अधिक तनख्वाह पाने, या अपनी तनख्वाह की दर घटने न देने, या अपने अन्य दुखों को दूर करने के लिए एकत्र होकर हड़ताल करते हैं, तब (जब तक वे औरों की स्वाधीनता को भंग न करें, तब तक) उन्हें किसी तरह दोषी समझना न चाहिए।"    

जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है माधवराव सप्रे पर इस बीच बहुत काम हुआ है। उनके पौत्र भौतिकीविज्ञानी डॉ. अशोक सप्रे ने रायपुर में पंडित माधवराव सप्रे साहित्य शोध केन्द्र की स्थापना की। यहां से छत्तीसगढ़ मित्र के पुराने अंक तो दुबारा छपे ही, नए कलेवर में पत्र का पुनप्र्रकाशन भी प्रारंभ हुआ। सप्रेजी की कृतियों का पुनर्मुद्रण भी अपनी गति से यहां से हो रहा है। यही नहीं, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार वि.वि. में भी माधवराव सप्रे शोधपीठ स्थापित कर दी गई है। इस पीठ की अपनी महत्वाकांक्षी योजनाएं हैं। लेकिन इन सारी गतिविधियों का अवलोकन करते हुए मेरी यह धारणा बन रही है कि हमने एक ओर तो सप्रेजी को छत्तीसगढ़ तक सीमित करके रख दिया है और दूसरे यह कि उनकी कृतियों की जैसी सम्यक् विवेचना होना चाहिए उसका अभाव बना हुआ है।  ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखने पर ज्ञान होता है कि सप्रेजी ने अपने रचनात्मक जीवन का एक बहुत छोटा हिस्सा छत्तीसगढ़ में व्यतीत किया। छत्तीसगढ़ मित्र को वे कोई तीन साल ही चला सके। इसके बाद उन्होंने नागपुर और जबलपुर में लंबा समय बिताया। यह दु:खद तथ्य है कि इन नगरों में सप्रेजी के योगदान को चिरस्थायी बनाने के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं हुए। जब सप्रेजी छत्तीसगढ़ मित्र निकाल रहे थे उसी समय 1902  में नागरी प्रचारिणी सभा ने हिन्दी विज्ञान कोश प्रकाशन करने का निर्णय लिया था। पांच खण्डों के इस ग्रंथ में सप्रेजी को अर्थशास्त्र खंड संपादित करने का दायित्व सौंपा गया था। उनके साथी संपादकों में महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू श्याम सुंदर दास जैसे विद्वान भी थे। इससे सप्रेजी की बौद्धिक क्षमता का अनुमान किया जा सकता है।  माधवराव सप्रे 1903 के आसपास नागपुर चले गए थे। यहां उन्होंने 1905 में हिन्दी ग्रंथ प्रकाशक मंडली की स्थापना में सहयोग दिया तथा ''हिन्दी ग्रंथमाला" शीर्षक से पुस्तकों की श्रंखला प्रकाशित करने की योजना बनाई। इस ग्रंथमाला के अंतर्गत ही महावीर प्रसाद द्विवेदी के शिक्षा विषयक वे निबंध क्रमश: प्रकाशित हुए जो उन्होंने अंग्रेजी से रूपांतरित किए थे। इसके पश्चात 1907 में उन्होंने ''हिन्दी केसरी" का प्रकाशन प्रारंभ किया। कहने की आवश्यकता नहीं कि माधवराव सप्रे लोकमान्य तिलक से बहुत अधिक प्रभावित थे। वह दौर ही तिलक महाराज का था। वे कांग्रेस के सबसे बड़े नेता और स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी नायक थे।   

हिन्दी केसरी के प्रकाशन का उद्देश्य ''केसरी" में मूलरूप में प्रकाशित मराठी सामग्री को हिन्दीजनों के सामने लाना था। यह अपने आप में ऐसा महत्तर कार्य था जिसकी उपयोगिता स्वयंसिद्ध थी। यह संभवत: लोकमान्य के क्रांतिकारी व्यक्तित्व का ही असर रहा होगा कि 1906 में सप्रेजी ने ''स्वदेशी आंदोलन और बायकाट" शीर्षक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसे अंगे्रज सरकार ने तीन साल बाद जब्त कर लिया।  माधवराव सप्रे के व्यक्तित्व का अनुशीलन करने से ऐसे संकेत मिलते हैं कि वे नई-नई योजनाएं बनाने में तो प्रवीण थे, लेकिन योजना प्रारंभ करने के बाद उसे आगे संभालना उनके लिए टेढ़ी खीर थी। जो हाल छत्तीसगढ़ मित्र का हुआ वही हिन्दी ग्रंथमाला का और हिन्दी केसरी का भी। वे कोई भी योजना प्रारंभ करने के लिए साधन तो जुटा लेते थे, लेकिन काम चलते रहने के लिए क्या प्रबंध हो इस बारे में उनकी असफलता ही देखने मिलती है। वे जब नागपुर में थे तभी उन्हें राजद्रोह के अपराध में जेल यात्रा भी करनी पड़ी, लेकिन तीन महीने बाद ही वे माफीनामा दे जेल से बाहर आ गए। इसमें भी हमें लगता है कि सप्रेजी किसी भी कार्य में प्रारंभिक उत्साह दर्शाने के बाद बहुत जल्दी विरक्त या विचलित होने लगते थे। वे जब एक के बाद एक उपरोक्त रचनात्मक गतिविधियों में व्यस्त थे, तभी उन्होंने वीर शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास रचित ''दास बोध" की हिन्दी टीका भी प्रकाशित की। इसके कुछ वर्ष बाद वे जबलपुर चले आए। जबलपुर में उन्होंने हिन्दी के दो महत्वपूर्ण पत्र स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1920 की जनवरी में सिमरिया वाली रानी की कोठी से कर्मवीर का प्रकाशन हुआ। (प्रसंगवश मेरे शैशव का कुछ समय इस स्थान पर बीता)। माखनलाल चतुर्वेदी इसके प्रधान संपादक बनाए गए व लक्ष्मण सिंह चौहान उपसंपादक। यद्यपि प्रेरणा पुरुष सप्रेजी ही थे। यह वह पत्र है जिसमें तपस्वी सुंदरलाल जैसी विभूति ने भी काम किया। इसी वर्ष अप्रैल में ''श्री शारदा" का शुभारंभ हुआ। इन दोनों पत्रों को प्रकाशित करने में जबलपुर के कांग्रेसजन व अन्य उदारमना व्यक्तियों ने भरपूर सहयोग दिया। ''श्री शारदा" में मुख्यरूप से सेठ गोविंददास का योगदान था। कर्मवीर में छत्तीसगढ़ के जांजगीर के कुलदीप सहाय भी सहायक संपादक थे। उनके योगदान का भी समुचित मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ है। इस परिदृश्य में सप्रेजी हमारे सामने एक कल्पनाशील वास्तुकार के रूप में सामने आते हैं।  यह तो हमने देखा कि सप्रेजी ने अपने जीवनकाल में बहुत सारे विषयों पर लिखा, लेकिन आज उसका शोधपरक विश्लेषण एवं पुनर्मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। सप्रेजी के समय देश का जो राजनैतिक, सामाजिक वातावरण था उसका भी ध्यान इस हेतु रखना होगा। सप्रेजी के समकालीन महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि की लेखनी की दिशा क्या थी इसका भी संज्ञान लिया जाना मैं आवश्यक समझता हूं। सप्रेजी के निबंधों में ऐसे अनेक विचार व्यक्त किए गए हैं जिन्हें वर्तमान की कसौटियों पर स्वीकार करने में हमें हिचक होती है। वे भारत का उल्लेख अनेक स्थानों पर आर्यभूमि के रूप में करते हैं। क्या यह विचार उनके मन में लोकमान्य की पुस्तक ''द आर्कटिक होम ऑफ वेदाज़" से मिला? वे हिन्दी और उर्दू को बिल्कुल अलग-अलग भाषा मानते हैं तथा धर्म से भी उसे जोड़ते हैं। उनके लेख में वर्ण व्यवस्था का समर्थन भी पढऩे मिलता है। एक बात हमें समझ आती है कि सप्रेजी का महात्मा गांधी के साथ नैकट्य स्थापित नहीं हुआ अन्यथा शायद उनके विचारों को हम एक नई दिशा में विकसित होते देख पाते। यूं दावा तो किया गया है कि महात्मा गांधी ने ''हिंद स्वराज" लिखने की प्रेरणा सप्रेजी के लेख ''स्वदेशी आंदोलन और बायकॉट" से प्राप्त की, किंतु हम इसे भक्ति भाव से उपजा कल्पना-कुसुम ही मानते हैं।  (रायपुर में 8 सितंबर 2014 को माधवराव सप्रे पर आयोजित विचार गोष्ठी में प्रस्तुत आलेख का परिवद्र्धित रूप) 
   
साभार- विकिपीडिआ व अन्य स्रोत