नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 31 अगस्त 2011

मुहावरे (उ,ऊ)

उगल देना : रहस्य/भेद प्रकट कर देना।
पुलिस का डंडा पड़ते ही उसने सारा भेद उगल दिया।
उठते-बैठते : हर समय, सरलता से।
उठते-बैठते मैं चार-छ: रुपये पैदा कर लेता हूँ।
उड़ती चिड़िया पकड़ना : रहस्य की बात तत्काल जानना।
मैं उड़ती चिड़िया पहचानूं, उस चींटी की क्या हस्ती है? मुझे से ही भेद छिपाती है, देखो तो कैसी मस्ती है।
उड़न-छू हो जाना : चला जाना, गायब हो जाना।
एक दिन जो भी हाथ लगा वही लेकर वह उड़न-छू हो गई।
उधेड़बुन में रहना : फिक्र में रहना, चिन्ता करना।
खाँ साहेब सदैव इसी उधेड़बुन में रहते थे कि इस शैतान को कैसे पंजे में लाऊँ।
उम्र ढलना : यौवनावस्था का उतार।
उम्र ढलने के साथ बहुत से व्यक्ति गंभीर होने लगते हैं।
उलटी-सीधी सुनाना : खरी खोटी सुनाना, डांटना-फटकारना।
लो, तुमने अब अकारण मुझे उलटी-सीधी सुनाना आरम्भ कर दिया है।
उलटे छुरे से मूड़ना : किसी को उल्लू बनाकर उससे धन ऐंठना या अपना काम निकालना।
प्रयागराज में अगर मुंडन कराना है तो संगम तक जाने की जरूरत नहीं है, स्टेशन पर ही पंडे और मुस्तण्डे पुलिस वाले गरीब गाँव वालों को उलटे उस्तरे से मूंड देते हैं।
उलटे पाँव लौटना : तुरन्त बिना ठहरे हुए लौट जाना।
टीटू की अम्मा की बात सुनकर उसका मन हुआ था कि उलटे पैरों लौट जाए।
उल्लू का पट्ठा : निपट मूर्ख।
क्या उपयोगिता है बच्चो की? बुढ़ापे का सहारा? अंधे की लकड़ी? कौन बाप ऐसा उल्लू का पट्ठा है जो यह समझकर अपने बच्चे को प्यार करता है?
उंगली उठना : निन्दा होना, बदनामी होना।
आपको कोई ऐसा आचरण नहीं करना चाहिए जिससे असहाय अबला की ओर उंगली उठे।
उंगली पकड़कर पौंहचा पकड़ना : थोड़ा-सा सहारा पाकर विशेष की प्राप्ति के लिए प्रयास करना।
उंगलियों पर गिने जा सकना : संख्या में बहुत कम होना।
अब उनके नामलेवा उंगलियों पर गिने जा सकते हैं।
उंगलियों पर नचाना : इच्छानुसार काम कराना।
मैं इन दोनों को उंगलियों पर नचाऊंगा।
ऊँच-नीच समझाना : भलाई-बुराई, लाभ-हानि समझाना।
गज़नवी ने बहुत ऊँच-नीच सुझाया, लेकिन सलीम पर कोई असर नहीं हुआ।
ऊँट के मुँह में जीरा : अधिक आवश्यकता वाले के लिए थोड़ा सामान।
एक लड्डू का तो मुझे कुछ पता ही नहीं चला। अच्छा लगने की वजह से वह बिल्कुल वैसे ही लगा जैसे ऊँच के मुँह में जीरा।
ऊपर की आमदनी : इधर-उधर से फटकारी हुई नाजायज रकम।
उन्होंने परिश्रम करके कोई 250 रुपए ऊपर से कमाये थे।
ऊपरी मन से कुछ कहना : केवल दिखावे के लिए कुछ कहना। सच्चे हृदय से न कहना।
महेन्द्र कुमार ने ऊपरी मन से कहा- आपके आने की जरूरत नहीं है, मैं स्वयं भेज दूँगा।
ऊलजलूल बकना : अंट-शंट बोलना, बातें करना।
मनोहर, तुम सठिया गए हो, तभी तो ऐसी ऊल-जलूल बातें करते हो।

स्वर्ग का सुख

एक ग्रामीण ने महात्मा जी से प्रश्न किया कि "महाराज! स्वर्ग का सुख किसे मिलता है?".
महात्मा जी ने पास में ही खेल रहे एक बालक को देखकर कहा "इसे".
यह सुन कर ग्रामीण ने कहा "मैं आपका कहने का मतलब नहीं समझा प्रभु!.
तब महात्माजी बोले "जो बच्चे की तरह भोला और निश्छल है, वही स्वर्ग का सुख पाने योग्य है.

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

मुहावरे (इ,ई)

इज्जत बेचना : पैसा लेकर अपनी इज्जत लुटाना।
आप क्या समझते हैं कि मजदूर इस तरह अपनी इज्जत बेचते फिरते हैं?
ईंट का जवाब पत्थर से देना : दुष्ट के साथ दुष्टता का कठोर के साथ कठोरता का व्यवहार करना।
ईंट का जवाब पत्थर से देना अहिंसा सिद्धान्त के विरुद्ध है।
ईंट से ईंट बज जाना : सर्वनाश हो जाना।
आग लगे ऐसी कमाई में! आग लगे ऐसे लालच में! इन लोगों की ईंट से ईंट बज जाए।
ईद का चाँद होना : बहुत कम दिखाई देना, बहुत अरसे बाद दिखाई देना।
आप तो ईद के चाँद हो गए।
ईमान बेचना : झूठा व्यवहार करना, बेईमानी करना।
दुनिया में अनेक आदमी एक-एक कौड़ी के लिए ईमान बेचते हैं।

सोमवार, 29 अगस्त 2011

हिंदी कहावतें


अन्धों में काना राजा : मूर्ख मण्डली में थोड़ा पढ़ा-लिखा भी विद्वान् और ज्ञानी माना जाता है.

अक्ल बड़ी या भैंस : शारीरिक बल से बुद्धि बड़ी है.

अपनी-अपनी ढपली अपना-अपना राग : सबका अलग-अलग रंग-ढंग होना.

अपनी करना पार उतरनी : अपने ही कर्मों का फल मिलता है.

अब पछताये होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत : समय बीत जाने पर पछताने का क्या लाभ.

आँख का अन्धा नाम नैनसुख : नाम अच्छा पर काम कुछ नहीं.

आगे कुआँ पीछे खाई : सब ओर विपत्ति.

आ बैल मुझे मार : जान-बूझकर आपत्ति मोल लेना।

आम खाने हैं या पेड़ गिनने : काम की बात करनी चाहिए, व्यर्थ की बातों से कोई लाभ नहीं.

अँधेरे घर का उजाला : घर का अकेला, लाड़ला और सुन्दर पुत्र.

ओखली में सिर दिया तो मूसली से क्या डर : जब कठिन काम के लिए कमर कस ली तो कठिनाइयों से क्या डरना.

अपना उल्लू सीधा करना : अपना स्वार्थ सिद्ध करना.

उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे : अपराधी अपने अपराध को स्वीकार करता नहीं, उल्टा पूछे वाले को धमकाता है.

ऊँची दुकान फीका पकवान : सज-धज बहुत, चीज खराब.

एक पंथ दो काज : आम के आम गुठलियों के दाम. एक कार्य से बहुत से कार्य सिद्ध होना.

एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है : एक बुरा व्यक्ति सारे कुटुम्ब, समाज या साथियों को बुरा बनाता है.

काठ की हांडी एक बार ही चढ़ती है : छल-कपट से एक बार तो काम बन जाता है, पर सदा नहीं.

आस पराई जो तके जीवित ही मर जाए : जो दूसरों पर निर्भर रहता है वह जीवित रहते हुए भी मृतप्राय होता है.
भगवान ने मनुष्य को हाथ-पांव दिए हैं जिससे वह अपना काम स्वयं कर ले। जो व्यक्ति दूसरे पर निर्भर रहता है उसका कहीं आदर नहीं होता. सच कहा है- 'आस पराई... जाए.'

आए की खुशी न गए का गम : हर हालत में संतोष होना.
वह बहुत सन्तोषी आदमी है. लाभ और हानि दोनों होने पर वह प्रसन्न रहता है. उसके ही जैसे लोगों के लिए कहा जाता है कि 'आये की खुशी... गम.'

इतनी सी जान गज भर की जबान : जब कोई लड़का या छोटा आदमी बहुत बढ़-चढ़ कर बातें करता है.
बच्चे को लम्बी-चौड़ी बातें करते देखकर हम सबको बड़ा आश्चर्य हुआ. रमेश ने कहा- 'इतनी सी जान... जबान.'

इधर के रहे न उधर के रहे : दोनों तरफ से जाना, दो बातों में से किसी में भी सफल न होना.
निर्मल ने गृहस्थ आश्रम छोड़कर संन्यास ले लिया, पर वह भी उससे नहीं निभा. उसे एक स्त्री से प्रेम हो गया. इस प्रकार वह न इधर का रहा न उधर का.

इधर कुआँ, उधर खाई : दो विपत्तियों के बीच में.
बुराई है आज बोलने में, न बोलने में भी है बुराई. खड़ा हूँ ऐसी विकट जगह पर, इधर कुआँ है, उधर है खाई.

इधर न उधर यह बला किधर : जब कोई न मरे न उसे आराम हो, तब कहते हैं. बेचारा साल भर से चारपाई पर पड़ा हुआ है. कोई दवा उसे लाभ नहीं पहुँचाती. सेवा करते-करते घर वाले ऊब गए हैं. उसका तो वही हाल है कि इधर न उधर... किधर.

इन तिलों में तेल नहीं निकलता : ऐसे कंजूसों से कुछ प्राप्ति नहीं होती.
तुम यहाँ व्यर्थ आए हो. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि यह तुम्हें कुछ न देंगे. इन तिलों... निकलता.

इब्तदाये इश्क है रोता है क्या आगे-आगे देखिए होता है क्या :
अभी तो कार्य का आरंभ है, इसे ही देखकर घबरा गए, आगे देखो क्या होता है.

इस हाथ दे, उस हाथ ले : दान से बहुत पुण्य और लाभ होता है.
जो मनुष्य दीन-दुखियों को दान देता है, वह सदैव सम्पन्न रहता है, उसे कभी किसी वस्तु का अभाव नहीं होता. इसीलिए कहा गया है कि इस हाथ दे, उस हाथ ले.

ईंट की लेनी पत्थर की देनी : कठोर बदला चुकाना, मुँह तोड़ जवाब देना.
आज के जमाने में सीधा होना भी एक अभिशाप है. सीधे आदमी को लोग अनेक विशेषणों से विभूषित करते हैं, जैसे भोंदू, घोंघा बसन्त आदि, किन्तु जो व्यक्ति ईंट की लेनी पत्थर की देनी कहावत चरितार्थ करता है उससे लोग डरते रहते हैं.

ईश्वर की माया, कहीं धूप कहीं छाया : भगवान की माया विचित्र है. संसार में कोई सुखी है तो कोई दु:खी, कोई धनी है तो कोई निर्धन. ईश्वर की माया समझ में नहीं आती. संसार में कोई सुन्दर है तो कोई कुरुप, कोई स्वस्थ है तो कोई रुग्ण, कोई करोड़पति है तो कोई अकिंचन. इसीलिए कहा गया है कि ईश्वर की माया... छाया

उत्तम को उत्तम मिले, मिले नीच को नीच : जो आदमी जैसा होता है उसको वैसा ही साथी भी मिल जाता है.
पर भाई, ऐसा रूप तो न आँखों देखा न कानों सुना. यह तो राजकन्या के योग्य ही है. इसमें उसने अनुचित क्या किया, क्योंकि जैसी सुन्दर वह है ऐसा ही यह भी है.

उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी भीख निदान :
खेती सबसे श्रेष्ठ व्यवसाय है, व्यापार मध्यम है, नौकरी करना निकृष्ट है और भीख माँगना सबसे बुरा है. यह बुद्धिमानों का महानुभूत सिद्धांत है कि 'उत्तम खेती...निदान' पर आज कल कृषिजीवी लोग ही अधिक दरिद्री पाए जाते हैं.

उतर गई लोई तो क्या करेगा कोई : जब इज्जत ही नहीं है तो डर किसका?
जब लोगों ने मुझे बिरादरी से खारिज कर ही दिया है तो अब मैं खुले आम अंग्रेजी होटल में खाना खाऊँगा.

उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे : अपना अपराध स्वीकार न करके पूछने वाले को डाँटना, फटकारना या दोषी ठहराना.
आज एक ग्राहक ने मेज पर से किताब उठा ली. उससे पूछा तो लगा शरीफ बनने और धौंस जमाने कि तुम मुझे चोरी लगाते हो.

उल्टे बाँस बरेली को : बरेली में बाँस बहुत पैदा होता है. इसी से उसको बाँस बरेली कहते हैं.
यहाँ से बाँस दूसरी जगह को भेजा जाता है. दूसरे स्थानों से वहाँ बाँस भेजना मूर्खता है. इसलिए इस कहावत का अर्थ है कि स्थिति के विपरीत काम करना, जहाँ जिस वस्तु की आवश्यकता न हो उसे वहाँ ले जाना।

उसी की जूती उसी का सर : किसी को उसी की युक्ति से बेवकूफ बनाना.
दो-एक बार धोखा खा के धोखेबाजों की हिकमतें सीख लो और कुछ अपनी ओर से जोड़कर 'उसी की जूती उसी का सिर' कर दिखाओ.

ऊँची दुकान फीका पकवान : जिसका नाम तो बहुत हो पर गुण कम हों.
नाम ही नाम है, गुण तो ऐसे-वैसे ही हैं. बस ऊँची दुकान फीका पकवान समझ लो.

ऊँट घोड़े बहे जाए गधा कहे कितना पानी :
जब किसी काम को शक्तिशाली लोग न कर सकें और कोई कमजोर आदमी उसे करना चाहे तब ऐसा कहते हैं.

ऊँच बिलैया ले गई, हाँ जी, हाँ जी कहना : जब कोई बड़ा आदमी कोई असम्भव बात भी कहे और दूसरा उसकी हामी भरे.

ऊधो का लेना न माधो का देना : जो अपने काम से काम रखता है, किसी के झगड़े में नहीं पड़ता उसके विषय में उक्ति.

एक अनार सौ बीमार : एक चीज के बहुत चाहने वाले.
जितने लोग हैं उनके उतनी तरह के काम हैं और एक बेचारी गाँधी टोपी है जिसे सबको पार लगाना है.

एक और एक ग्यारह होते हैं : मेल में बड़ी शक्ति होती है.
यदि तुम दोनों भाई मिलकर काम करोगे तो कोई तुम्हारा सामना न कर सकेगा.

एक कहो न दस सुनो : यदि हम किसी को भला-बुरा न कहेंगे तो दूसरे भी हमें कुछ न कहेंगे.

एक चुप हजार को हरावे : जो मनुष्य चुप अर्थात शान्त रहता है उससे हजार बोलने वाले हार मान लेते हैं.

एक तवे की रोटी क्या पतली क्या मोटी : एक कुटुम्ब के मनुष्यों में या एक पदार्थ के कभी भागों में बहुत कम अन्तर होता है.

एक तो करेला (कडुवा) दूसरे नीम चढ़ा : कटु या कुटिल स्वभाव वाले मनुष्य कुसंगति में पड़कर और बिगड़ जाते हैं.

एक ही थैले के चट्टे-बट्टे : एक ही प्रकार के लोग.
लो और सुनो, सब एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं।

एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है : यदि किसी घर या समूह में एक व्यक्ति दुष्चरित्र होता है तो सारा घर या समूह बुरा या बदनाम हो जाता है।

एक लख पूत सवा लख नाती, ता रावण घर दिया न बाती : किसी अत्यंत ऐश्वर्यशाली व्यक्ति के पूर्ण विनाश हो जाने पर इस लोकोक्ति का प्रयोग किया जाता है।

ऐरा गैरा नत्थू खैरा : मामूली आदमी.
कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा महल के अंदर नहीं जा सकता था।

ऐसे बूढ़े बैल को कौन बाँध भुस देय : बूढ़े और बेकार मनुष्य को कोई भोजन और वस्त्र नहीं देता.
कमाते-धमाते तो कुछ हैं नहीं, केवल खाने और बच्चों को डांटने-फटकारने से मतलब है...ऐसे बूढ़े...

ओछे की प्रीति, बालू की भीति : बालू की दीवार की भाँति ओछे लोगों का प्रेम अस्थायी होता है।

ओखली में सिर दिया तो मूसलों का क्य डर : कष्ट सहने पर उतारू होने पर कष्ट का डर नहीं रहता.
बेचारी मिसेज बेदी ओखली में सिर रख चुकी थी। तब मूसलों से डर कर भी क्या कर लेतीं?

औंधी खोपड़ी उल्टा मत : मूर्ख का विचार उल्टा ही होता है।

औसर चूकी डोमनी, गावे ताल बेताल : जो मनुष्य अवसर से चूक जाता है, उसका काम बिगड़ जाता है और केवल पश्चाताप उसके हाथ आता है।

कपड़े फटे गरीबी आई : फटे कपड़े देखने से मालूम होता है कि यह मनुष्य गरीब है।

कभी नाव गाड़ी पर, कभी गाड़ी नाव पर : समय पर एक-दूसरे की सहायता की आवश्यकता पड़ती है।

कर ले सो काम, भज ले सो राम : जो कुछ करना हो उसे शीघ्र कर लेना चाहिए, उसमें आलस्य नहीं करना चाहिए।

करनी खास की, बात लाख की : जब कोई निकम्मा आदमी बढ़-चढ़कर बातें करता है।

ओस चाटे से प्यास नहीं बुझती : किसी को इतनी थोड़ी चीज़ मिलना कि उसकी तृप्ति न हो।

और बात खोटी सही दाल रोटी : संसार की सब चीज़ों में भोजन ही मुख्य है।

कंगाली में आटा गीला : मुसीबत पर मुसीबत आना.
पहले परीक्षा में फेल हुआ, फिर नौकरी छूटी और घर जाते समय रेल में संदूक रह गया। इस बार मेरे साथ बड़ी बुरी बीती, कंगाली में आटा गीला हो गया।

कभी घी घना, कभी मुट्ठी चना : जो मिल जाए उसी पर संतुष्ट रहना चाहिए।

कमजोर की जोरू सबकी सरहज गरीब की जोरू सबकी भाभी: कमजोर आदमी को कोई गौरव नहीं प्रदान करना, सब उसकी स्त्री से हँसी-मजाक करते हैं।

करे कारिन्दा नाम बरियार का, लड़े सिपाही नाम सरदार का : छोटे लोग काम करते हैं परन्तु नाम उनके सरदार का होता है।

करनी न करतूत, लड़ने को मजबूत : जो व्यक्ति काम तो कुछ न करे पर लड़ने-झगड़ने में तेज हो।

खग जाने खग ही की भाषा : जो मनुष्य जिस स्थान या समाज में रहता है उसको उसी जगह या समाज के लोगों की बात समझ में आती है.

खर को गंग न्हवाइए तऊ न छोड़े छार : चाहे कितनी ही चेष्टा की जाय पर नीच की प्रकृति नहीं सुधरती.

खरादी का काठ काटे ही से कटता है : काम करने ही से समाप्त होता है या ऋण देने से ही चुकता है.

खरी मजूरी चोखा काम : नगद और अच्छी मजदूरी देने से काम अच्छा होता है.

खल की दवा पीठ की पूजा : दुष्ट लोग पीटने से ही ठीक रहते हैं.

खलक का हलक किसने बंद किया है : संसार के लोगों का मुँह कौन बंद कर सकता है?

खाइए मनभाता, पहनिए जगभाता : अपने को अच्छा लगे वह खाना खाना चाहिए और जो दूसरों को अच्छा लगे वह कपड़ा पहनना चाहिए.

खाल ओढ़ाए सिंह की, स्यार सिंह नहीं होय : केवल रूप बदलने से गुण नहीं बदलता.

खाली दिमाग शैतान का घर : जो मनुष्य बेकार होता है उसे तरह-तरह की खुराफातें सूझती हैं.

खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे : लज्जित होकर बहुत क्रोध करना.

खुदा गंजे को नाखून न दे : अनधिकारी को कोई अधिकार नहीं मिलना चाहिए.

खूंटे के बल बछड़ा कूदे : किसी अन्य व्यक्ति, मालिक या मित्र के बल पर शेखी बघारना.

खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो : जब एक प्रकृति या रुचि के दो मनुष्य मिल जाते हैं तब उनका समय बड़े आनंद से व्यतीत होता है.

खूब मिलाई जोड़ी, एक अंधा एक कोढ़ी : दो मूर्खों का साथ, एक ही प्रकार के दो मनुष्यों का साथ.

खेत खाय गदहा मारा जाय जोलहा : जब अपराध एक व्यक्ति करे और दंड दूसरा पावे.

खेती खसम सेती : खेती या व्यापार में लाभ तभी होता है जब मालिक स्वयं उसकी देखरेख करे.

खेल खतम, पैसा हजम : सुखपूर्वक काम समाप्त हो जाने पर ऐसा कहते हैं.

खेल खिलाड़ी का, पैसा मदारी का : काम कर्मचारी करते हैं और नाम अफसर का होता है.

खोदा पहाड़ निकली चुहिया : बहुत परिश्रम करने पर थोड़ा लाभ होना.

खौरही कुतिया मखमली झूल : जब कोई कुरूप मनुष्य बहुत शौक-श्रृंगार करता है या सुन्दर वेश-भूषा धारण करता है, तब इस कहावत का प्रयोग होता है.

गंजी कबूतरी और महल में डेरा : किसी अयोग्य व्यक्ति के उच्च पद प्राप्त करने पर ऐसा कहते हैं.

गंजी यार किसके, दम लगाए खिसके : स्वार्थी मनुष्य किसी के साथ नहीं होते, अपना मतलब सिद्ध होते ही वे चल देते हैं.

गगरी दाना सूत उताना : ओछा आदमी थोड़ा धन पाकर इतराने लगता है.

गढ़े कुम्हार भरे संसार : कुम्हार घड़ा बनाते हैं, सब लोग उससे पानी भरते हैं। एक आदमी की कृति से अनेक लोग लाभ उठाते हैं.

गधा मरे कुम्हार का, धोबिन सती होय : जब कोई आदमी किसी ऐसे काम में पड़ता है जिससे उसका कोई संबंध नहीं तब ऐसा कहा जाता है.

गधे के खिलाये न पुण्य न पाप : कृतघ्न के साथ नेकी करना व्यर्थ है.

गये थे रोजा छुड़ाने नमाज़ गले पड़ी : यदि कोई व्यक्ति कोई छोटा कष्ट दूर करने की चेष्टा करता है और उससे बड़े कष्ट में फंस जाता है तब कहते हैं.

गरीब की लुगाई, सबकी भौजाई : गरीब और सीधे आदमी को लोग प्राय: दबाया करते हैं.

कंगाली में गीला आटा : धन की कमी के समय जब पास से कुछ और चला जाता है.

गवाह चुस्त मुद्दई सुस्त : जिसका काम हो वह अधिक परवाह न करे, किन्तु दूसरा आदमी अत्यधिक तत्परता दिखावे.

गाँठ में जमा रहे तो खातिर जमा : जिसके पास धन रहता है वह निश्चिंत रहता है.

गाँव के जोगी जोगना आन गाँव के सिद्ध : अपनी जन्मभूमि में किसी विद्वान या वीर की उतनी प्रतिष्ठा नहीं होती जितनी दूसरे स्थानों में होती है.

गाय गुण बछड़ा, पिता गुण घोड़, बहुत नहीं तो थोड़ै थोड़ : बच्चों पर माता-पिता का प्रभाव थोड़ा-बहुत अवश्य पड़ता है.

गाल बजाए हूँ करैं गौरीकन्त निहाल : जो व्यक्ति उदार होते हैं वे सहज में ही प्रसन्न हो जाते हैं.

गीदड़ की शामत आए तो गाँव की तरफ भागे : जब विपत्ति आने को होती है तब मनुष्य की बुद्धि विपरीत हो जाती है.

गुड़ खाय गुलगुले से परहेज : कोई बड़ी बुराई करना और छोटी से बचना.
गुड़ न दे तो गुड़ की-सी बात तो करे : किसी को चाहे कुछ न दे, पर उससे मीठी बात तो करे.

गुड़ होगा तो मक्खियाँ भी आएँगी : यदि पास में धन होगा तो साथी या खाने वाले भी पास आएँगे.

गुरु गुड़ ही रहा चेला शक्कर हो गया : जब शिष्य गुरु से बढ़ जाता है तब ऐसा कहते हैं.

गुरु से कपट मित्र से चोरी या हो निर्धन या हो कोढ़ी : गुरु से कपट नहीं करना चाहिए और मित्र से चोरी नहीं करना चाहिए, जो मनुष्य ऐसा करता है उसकी बड़ी दुर्गति होती है.

गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है : अपराधियों के साथ निरपराध व्यक्ति भी दण्ड पाते हैं.

गैर का सिर कद्दू बराबर : दूसरे की विपत्ति को कोई नहीं समझता.

गों निकली, आँख बदली : स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर लोगों की आँख बदल जाती हैं, कृतघ्न मनुष्यों के विषय में ऐसा कहा जाता है.

बगल में छोरा शहर में ढिंढोरा : पास में रहने पर भी किसी वस्तु या व्यक्ति का दूर-दूर ढूँढ़ा जाना.

गौरी रूठेगी अपना सोहाग लेगी, भाग तो न लेगी : जब कोई आदमी किसी नौकर को छुड़ा देने की धमकी देता है तब नौकर अपनी स्वाधीनता प्रकट करने के लिए ऐसा कहता है.

ग्वालिन अपने दही को खट्टा नहीं कहती : कोई भी व्यक्ति अपनी चीज को बुरी नहीं कहता.

घड़ीभर की बेशरमी और दिनभर का आराम : संकोच करने की अपेक्षा साफ-साफ कहना अच्छा होता है.

घड़ी में तोला घड़ी में माशा : जो जरा-सी बात पर खुश और जरा-सी बात पर नाराज हो जाय ऐसे अस्थिर चित्त व्यक्ति के कहा जाता है.

घर आई लक्ष्मी को लात नहीं मारते : मिलते हुए धन या वृत्ति का त्याग नहीं करना चाहिए.

घर आए कुत्ते को भी नहीं निकालते : अपने घर आने पर कोई बुरे आदमी को भी नहीं दुतकारता.

घर आए नाग न पूजिए, बामी पूजन जाय : किसी निकटस्थ तपस्वी सन्त की पूजा न करके किसी साधारण साधु का आदर-सत्कार करना.

घर कर सत्तर बला सिर कर : ब्याह करने और घर बनबाने में बहुत-से झंझटों का सामना करना पड़ता है.

घर का भेदी लंका ढाये : आपसी फूट से सर्वनाश हो जाता है.

घर की मुर्गी दाल बराबर : घर की वस्तु या व्यक्ति का उचित आदर नहीं होता.

घर घर मटियारे चूल्हे : सब लोगों में कुछ न कुछ बुराइयाँ होती हैं, सब लोगों को कुछ न कुछ कष्ट होता है.

घर में नहीं दाने, बुढ़िया चली भुनाने : झूठे दिखावे पर उक्ति.

घायल की गति घायल जाने : दुखी व्यक्ति की हालत दुखी ही जानता है.

घी खाया बाप ने सूंघो मेरा हाथ : दूसरों की कीर्ति पर डींग मारने वालों पर उक्ति.

घोड़ा घास से यारी करे तो खाय क्या : मेहनताना या किसी चीज का दाम मांगने में संकोच नहीं करना चाहिए

चक्की में कौर डालोगे तो चून पाओगे : पहले कुछ रुपया पैसा खर्च करोगे या पहले कुछ खिलाओगे तभी काम हो सकेगा.

चट मँगनी पट ब्याह : शीघ्रतापूर्वक मंगनी और ब्याह कर देना, जल्दी से अपना काम पूरा कर देने पर उक्ति.

चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाय : बहुत अधिक कंजूसी करने पर उचित.

चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरी रात : थोड़े दिनों के लिए सुख तथा आमोद-प्रमोद और फिर दु:ख.

चाह है तो राह भी : जब किसी काम के करने की इच्छा होती है तो उसकी युक्ति भी निकल आती है.

चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता : बेशर्म आदमी पर किसी बात का असर नहीं होता.

चिकने मुँह सब चूमते हैं : सभी लोग बड़े और धनी आदमियों की हाँ में हाँ मिलाते हैं.

चित भी मेरी, पट भी मेरी : हर तरह से अपना लाभ चाहने पर उक्ति.

चिराग तले अँधेरा : जहाँ पर विशेष विचार, न्याय या योग्यता आदि की आशा हो वहाँ पर यदि कुविचार, अन्याय या अयोग्यता पाई जाए.

बेवकूफ मर गए औलाद छोड़ गए : जब कोई बहुत मूर्खता का काम करता है तब उसके लिए ऐसा कहते हैं.

चूल्हे में जाय : नष्ट हो जाय। उपेक्षा और तिरस्कारसूचक शाप जिसका प्रयोग स्त्रियाँ करती हैं.

चोर उचक्का चौधरी, कुटनी भई प्रधान : जब नीच और दुष्ट मनुष्यों के हाथ में अधिकार होता है.

चोर की दाढ़ी में तिनका : यदि किसी मनुष्य में कोई बुराई हो और कोई उसके सामने उस बुराई की निंदा करे, तो वह यह समझेगा कि मेरी ही बुराई कर रहा है, वास्तविक अपराधी जरा-जरा-सी बात पर अपने ऊपर संदेह करके दूसरों से उसका प्रतिवाद करता है.

चोर-चोर मौसेरे भाई : एक व्यवसाय या स्वभाव वालों में जल्द मेल-जोल हो जाता है.

चोरी और सीनाजोरी : अपराध करना और जबरदस्ती दिखाना, अपराधी का अपने को निरपराध सिद्ध करना और अपराध को दूसरे के सिर मढ़ना.

चौबे गए छब्बे होने दुबे रह गए : यदि लाभ के लिए कोई काम किया जाय परन्तु उल्टे उसमें हानि हो.

छूछा कोई न पूछा : गरीब आदमी का आदर-सत्कार कोई नहीं करता.

छोटा मुँह बड़ी बात : छोटे मनुष्य का लम्बी-चौड़ी बातें करना.

जंगल में मोर नाचा किसने देखा : जब कोई ऐसे स्थान में अपना गुण दिखावे जहाँ कोई उसका समझने वाला न हो.

जने-जने से मत कहो, कार भेद की बात : अपने रोजगार और भेद की बात हर एक व्यक्ति से नहीं कहनी चाहिए.

जब आया देही का अन्त, जैसा गदहा वैसा सन्त : सज्जन और दुर्जन सभी को मरना पड़ता है.

जब ओखली में सिर दिया तो मूसलों का क्या डर : जब कष्ट सहने के लिए तैयार हुआ हूँ तब चाहे जितने कष्ट आवें, उनसे क्या डरना.

जब तक जीना तब तक सीना : जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक उसे कुछ न कुछ करना ही पड़ता है.

जबरा मारे और रोने न दे : जो मनुष्य जबरदस्त होता है उसके अत्याचार को चुपचाप सहना होता है.

जर, जोरू, ज़मीन जोर की, नहीं और की : धन, स्त्री और ज़मीन बलवान् मनुष्य के पास होती है, निर्बल के पास नहीं.

जल की मछली जल ही में भली : जो जहाँ का होता है उसे वहीं अच्छा लगता है.

थोथा चना बाजे घना : दिखावा बहुत करना परन्तु सार न होना.

दूर के ढोल सुहावने : किसी वस्तु से जब तक परिचय न हो तब तक ही अच्छी लगती है.

नदी में रहकर मगरमच्छ से बैर : अपने को आश्रय देने वाले से ही शत्रुता करना.

बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया : रुपये वाला ही ऊँचा समझा जाता है.

भेड़ जहाँ जायेगी, वहीं मुँडेगी : सीधे-सादे व्यक्ति को सब लोग बिना हिचक ठगते हैं.

रस्सी जल गई पर बल नहीं गया : बरबाद हो गया, पर घमंड अभी तक नहीं गया.

अपने बेरों को कोई खट्टा नहीं बताता : अपनी वस्तु को कोई बुरी नहीं बताता.

अपने मुँह मियाँ मिट्ठू : अपने मुँह अपनी प्रशंसा करना.

अन्त भले का भला : अच्छे आदमी की अन्त में भलाई होती है.

अन्धे के हाथ बटेर : अयोग्य व्यक्ति को कोई अच्छी वस्तु मिल जाना.
जिसकी बंदरी वही नचावे और नचावे तो काटन धावे : जिसकी जो
काम होता है वही उसे कर सकता है.
जिसकी बिल्ली उसी से म्याऊँ करे : जब किसी के द्वारा पाला हुआ
व्यक्ति उसी से गुर्राता है।
जिसकी लाठी उसकी भैंस : शक्ति अनधिकारी को भी अधिकारी बना
देती है, शक्तिशाली की ही विजय होती है.
जिसके पास नहीं पैसा, वह भलामानस कैसा : जिसके पास धन होता
है उसको लोग भलामानस समझते हैं, निर्धन को लोग
भलामानस नहीं समझते.
जिसके राम धनी, उसे कौन कमी : जो भगवान के भरोसे रहता है,
उसे किसी चीज की कमी नहीं होती.
जिसके हाथ डोई (करछी) उसका सब कोई : सब लोग धनवान का
साथ देते हैं और उसकी खुशामद करते हैं.
जिसे पिया चाहे वही सुहागिन : जिस पर मालिक की कृपा होती है
उसी की उन्नति होती है और उसी का सम्मान होता है.
जी कहो जी कहलाओ : यदि तुम दूसरों का आदर करोगे, तो लोग
तुम्हारा भी आदर करेंगे.
जीभ और थैली को बंद ही रखना अच्छा है : कम बोलने और कम
खर्च करने से बड़ा लाभ होता है.
जीभ भी जली और स्वाद भी न पाया : यदि किसी को बहुत थोड़ी-सी
चीज खाने को दी जाये.
जीये न मानें पितृ और मुए करें श्राद्ध : कुपात्र पुत्रों के लिए कहते हैं
जो अपने पिता के जीवित रहने पर उनकी सेवा-सुश्रुषा नहीं
करते, पर मर जाने पर श्राद्ध करते हैं.
जी ही से जहान है : यदि जीवन है तो सब कुछ है. इसलिए सब तरह
से प्राण-रक्षा की चेष्टा करनी चाहिए.
जुत-जुत मरें बैलवा, बैठे खाय तुरंग : जब कोई कठिन परिश्रम करे और उसका आनंद दूसरा उठावे तब कहते हैं, जैसे गरीब
आदमी परिश्रम करते हैं और पूँजीपति उससे लाभ उठाते हैं.
जूँ के डर से गुदड़ी नहीं फेंकी जाती : साधारण कष्ट या हानि के डर से कोई व्यक्ति काम नहीं छोड़ देता.
जेठ के भरोसे पेट : जब कोई मनुष्य बहुत निर्धन होता है और उसकी स्त्री का पालन-पोषण उसका बड़ा भाई (स्त्री का जेठ) करता है तब कहते हैं.
जेते जग में मनुज हैं तेते अहैं विचार : संसार में मनुष्यों की प्रकृति-प्रवृत्ति तथा अभिरुचि भिन्न-भिन्न हुआ करती है.
जैसा ऊँट लम्बा, वैसा गधा खवास : जब एक ही प्रकार के दो मूर्खों का साथ हो जाता है.
जैसा कन भर वैसा मन भर : थोड़ी-सी चीज की जाँच करने से पता चला जाता है कि राशि कैसी है.
जैसा काछ काछे वैसा नाच नाचे : जैसा वेश हो उसी के अनुकूल काम करना चाहिए.
जैसा तेरा ताना-बाना वैसी मेरी भरनी : जैसा व्यवहार तुम मेरे साथ करोगे, वैसा ही मैं तुम्हारे साथ करूँगा.
जैसा देश वैसा वेश : जहाँ रहना हो वहीं की रीतियों के अनुसार आचरण करना चाहिए.
जैसा मुँह वैसा तमाचा : जैसा आदमी होता है वैसा ही उसके साथ व्यवहार किया जाता है.
जैसी औढ़ी कामली वैसा ओढ़ा खेश : जैसा समय आ पड़े उसी के अनुसार अपना रहन-सहन बना लेना चाहिए.
जैसी चले बयार, तब तैसी दीजे ओट : समय और परिस्थिति के अनुसार काम करना चाहिए.
जैसी तेरी तोमरी वैसे मेरे गीत : जैसी कोई मजदूरी देगा, वैसा ही उसका काम होगा.
जैसे कन्ता घर रहे वैसे रहे विदेश : निकम्मे आदमी के घर रहने से न तो कोई लाभ होता है और न बाहर रहने से कोई हानि होती है.
जैसे को तैसा मिले, मिले डोम को डोम,
दाता को दाता मिले, मिले सूम को सूम :
जो व्यक्ति जैसा होता है उसे जीवन में वैसे ही लोगों से पाला पड़ता है.
जैसे बाबा आप लबार, वैसा उनका कुल परिवार : जैसे बाबास्वयं झूठे हैं वैसे ही उनके परिवार वाले भी हैं.
जैसे को तैसा मिले, मिले नीच में नीच,
पानी में पानी मिले, मिले कीच में कीच
जो जैसा होता है उसका मेल वैसों से ही होता है.
जो अति आतप व्याकुल होई, तरु छाया सुख जाने सोई : जिस व्यक्ति पर जितनी अधिक विपत्ति पड़ी रहती है उतना ही अधिक वह सुख का आनंद पाता है.
जो करे लिखने में गलती, उसकी थैली होगी हल्की : रोकड़ लिखने में गलती करने से सम्पत्ति का नाश हो जाता है.
जो गंवार पिंगल पढ़ै, तीन वस्तु से हीन,
बोली, चाली, बैठकी, लीन विधाता छीन :
चाहे गंवार पढ़-लिख ले तिस पर भी उसमें तीन गुणों का अभाव पाया जाता है. बातचीत करना, चाल-ढाल और बैठकबाजी.
जो गुड़ खाय वही कान छिदावे : जो आनंद लेता हो वही परिश्रम भी करे और कष्ट भी उठावे.
जो गुड़ देने से मरे उसे विषय क्यों दिया जाए : जो मीठी-मीठी बातों या सुखद प्रलोभनों से नष्ट हो जाय उससे लड़ाई-झगड़ा नहीं करना चाहिए.
जो टट्टू जीते संग्राम, तो क्यों खरचैं तुरकी दाम : यदि छोटे आदमियों से काम चल जाता तो बड़े लोगों को कौन पूछता.
जो दूसरों के लिए गड्ढ़ा खोदता है उसके लिए कुआँ तैयार रहता है : जो दूसरे लोगों को हानि पहुँचाता है उसकी हानि अपने आप हो जाती है.
जो धन दीखे जात, आधा दीजे बाँट : यदि वस्तु के नष्ट हो जाने की आशंका हो तो उसका कुछ भाग खर्च करके शेष भाग बचा लेना चाहिए.
जो धावे सो पावे, जो सोवे सो खोवे : जो परिश्रम करता है उसे लाभ होता है, आलसी को केवल हानि ही हानि होती है.
जो पूत दरबारी भए, देव पितर सबसे गए : जो लोग दरबारी या परदेसी होते हैं उनका धर्म नष्ट हो जाता है और वे संसार के कर्तव्यों का भी समुचित पालन नहीं कर सकते.
जो बोले सो कुंडा खोले : यदि कोई मनुष्य कोई काम करने का उपाय बतावे और उसी को वह काम करने का भार सौपाजाये.
जो सुख छज्जू के चौबारे में, सो न बलख बुखारे में : जो सुखअपने घर में मिलता है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं मिल सकता.
जोगी काके मीत, कलंदर किसके भाई : जोगी किसी के मित्र नहीं होते और फकीर किसी के भाई नहीं होते, क्योंकि वे नित्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते हैं.
जोगी जुगत जानी नहीं, कपड़े रंगे तो क्या हुआ : गैरिक वस्त्र पहनने से ही कोई जोगी नहीं हो जाता.
जोगी जोगी लड़ पड़े, खप्पड़ का नुकसान : बड़ों की लड़ाई मेंगरीबों की हानि होती है.
जोरू चिकनी मियाँ मजूर : पति-पत्नी के रूप में विषमता हो, पत्नी तो सुन्दर हो परन्तु पति निर्धन और कुरूप हो.
जोरू टटोले गठरी, माँ टटोले अंतड़ी : स्त्री धन चाहती है औरमाता अपने पुत्र का स्वास्थ्य चाहती है. स्त्री यह देखना चाहती है कि मेरे पति ने कितना रुपया कमाया. माता यह देखती है कि मेरा पुत्र भूखा तो नहीं है.
जोरू न जांता, अल्लाह मियां से नाता : जो संसार में अकेला हो, जिसके कोई न हो.
ज्यों-ज्यों भीजै कामरी, त्यों-त्यों भारी होय : जितना ही अधिक ऋण लिया जाएगा उतना ही बोझ बढ़ता जाएगा.
ज्यों-ज्यों मुर्गी मोटी हो, त्यों-त्यों दुम सिकुड़े : ज्यों-ज्यों आमदनी बढ़े, त्यों-त्यों कंजूसी करे.
ज्यों नकटे को आरसी, होत दिखाए क्रोध : जब कोई व्यक्तिकिसी दोषी पुरुष के दोष को बतलाता है तो उसे बहुत बुरा लगता है।
झगड़े की तीन जड़, जन, जमीन, जर : स्त्री, पृथ्वी और धन इन्हीं तीनों के कारण संसार में लड़ाई-झगड़े हुआ करते हैं.
झट मँगनी पट ब्याह : किसी काम के जल्दी से हो जाने पर उक्ति.
झटपट की धानी, आधा तेल आधा पानी : जल्दी का काम अच्छा नहीं होता.
झड़बेरी के जंगल में बिल्ली शेर : छोटी जगह में छोटे आदमी बड़े समझे जाते हैं.
झूठ के पांव नहीं होते : झूठा आदमी बहस में नहीं ठहरता, उसे हार माननी होती है.
झूठ बोलने में सरफ़ा क्या : झूठ बोलने में कुछ खर्च नहीं होता.
झूठे को घर तक पहुँचाना चाहिए : झूठे से तब तक तर्क-वितर्क करना चाहिए जब तक वह सच न कह दे.
टंटा विष की बेल है : झगड़ा करने से बहुत हानि होती है.
टका कर्ता, टका हर्ता, टका मोक्ष विधायकाः
टका सर्वत्र पूज्यन्ते,बिन टका टकटकायते :
संसार में सभी कर्म धन से होते हैं,बिना धन के कोई काम नहीं होता.
टका हो जिसके हाथ में, वह है बड़ा जात में : धनी लोगों का आदर- सत्कार सब जगह होता है.
टट्टू को कोड़ा और ताजी को इशारा : मूर्ख को दंड देने की आवश्यकता पड़ती है और बुद्धिमानों के लिए इशारा काफी होता है.
टाट का लंगोटा नवाब से यारी : निर्धन व्यक्ति का धनी-मानी व्यक्तियों के साथ मित्रता करने का प्रयास.
टुकड़ा खाए दिल बहलाए, कपड़े फाटे घर को आए : ऐसा काम करना जिसमें केवल भरपेट भोजन मिले, कोई लाभ न हो.
टेर-टेर के रोवे, अपनी लाज खोवे : जो अपनी हानि की बात सबसे कहा करता है उसकी साख जाती रहती है.
ठग मारे अनजान, बनिया मारे जान : ठग अनजान आदमियों को ठगता है, परन्तु बनिया जान-पहचान वालों को ठगता है.
ठुक-ठुक सोनार की, एक चोट लोहार की : जब कोई निर्बल मनुष्य किसी बलवान्‌ व्यक्ति से बार-बार छेड़खानी करता है.
ठुमकी गैया सदा कलोर : नाटी गाय सदा बछिया ही जान पड़ती है. नाटा आदमी सदा लड़का ही जान पड़ता है.
ठेस लगे बुद्धि बढ़े : हानि सहकर मनुष्य बुद्धिमान होता है.
डरें लोमड़ी से नाम शेर खाँ : नाम के विपरीत गुण होने पर.
डायन को भी दामाद प्यारा : दुष्ट स्त्र्िायाँ भी दामाद को प्यार करती हैं.
डूबते को तिनके का सहारा : विपत्त्िा में पड़े हुए मनुष्यों को थोड़ा सहारा भी काफी होता है.
डेढ़ पाव आटा पुल पर रसोई : थोड़ी पूँजी पर झूठा दिखावा करना.
डोली न कहार, बीबी हुई हैं तैयार : जब कोई बिना बुलाए कहीं जाने को तैयार हो.
ढाक के वही तीन पात : सदा से समान रूप से निर्धन रहने पर उक्त, परिणाम कुछ नहीं, बात वहीं की वहीं.
ढाक तले की फूहड़, महुए तले की सुघड़ : जिसके पास धन नहीं होता वह गुणहीन और धनी व्यक्ति गुणवान्‌ माना जाता है.
ढेले ऊपर चील जो बोलै, गली-गली में पानी डोलै : यदि चील ढेले पर बैठकर बोले तो समझना चाहिए कि बहुत अधिक वर्षा होगी.

हिन्दीसेवी संस्थाएँ

1. अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति, वर्जिनिया (सं.रा.अ.)
2. अक्षरम
3. अखिल भारतीय हिंदी संस्था संघ, नई दिल्ली
4. अखिल भारतीय अनुवाद परिषद, अहमदाबाद
5. अखिल भारतीय भाषा साहित्य सम्मेलन, भोपाल एवं पटना
6. अखिल भारतीय साहित्य कला मंच, मुरादाबाद
7. अपनी भाषा, कोलकाता
8. अरुणाचल नागरी संस्थान, ईटानगर
9. असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गुवाहाटी
10. आन्ध्र प्रदेश हिंदी प्रचार, हैदराबाद
11. आरा नागरी प्रचारिणी सभा, आर (बिहार)
12. उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
13. उत्तर प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, लखनऊ
14. ओड़िशा राष्ट्रभाषा परिषद, पुरी
15. कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति, बंगलुरू
16. कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति, बंगलुरू
17. कहानी लेखन महाविद्यालय, अंबाला
18. कादंबरी, जबलपुर
19. काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी
20. केन्द्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान, नई दिल्ली
21. केन्द्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली
22. केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, नई दिल्ली
23. केन्द्रीय सचिवालय हिंदी परिषद, नई दिल्ली
24. केन्द्रीय हिंदी समिति
25. केन्द्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
26. केरल हिंदी प्रचार सभा, तिरूवनंतपुरम
27. केरल हिंदी साहित्य अकादमी, तिरूवनंतपुरम
28. क्षेत्रीय कार्यान्वयन कार्यालय, राजभाषा विभाग
29. गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद
30. घनश्यामदास सराफ ट्रस्ट, मुंबई
31. छत्तीसगढ़ प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, रायपुर
32. जैमिनी अकादमी, पानीपत
33. तमिलनाड़ हिदी अकादमी, चेन्नई
34. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई
35. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धाड़वाड़
36. नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति, राजभाषा विभाग
37. नव उन्नयन, नई दिल्ली
38. नागरी लिपि परिषद्, नई दिल्ली
39. पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ, बिलासपुर
40. परिमल, इलाहाबाद
41. पुरुषोत्तमपुर हिंदी प्रचार सभा, गंजाम, उड़ीसा
42. बंगीय हिन्दी परिषद, कोलकाता
43. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना
44. बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन, पटना
45. भारतीय अनुवाद परिषद्, नई दिल्ली
46. भारतीय हिंदी परिषद, प्रयाग
47. भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
48. भारतीय भाषा संस्थान, मैसूर
49. भारतीय भाषा प्रतिष्ठापन राष्ट्रीय परिषद, मुंबई
50. मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, भोपाल
51. मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन, ग्वालियर
52. मध्य भारत हिन्‍दी साहित्य समिति, इंदौर
53. मणिपुर हिंदी परिषद, इंफाल
54. महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
55. महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे
56. माधवराव सप्रे संग्रहालय, भोपाल
57. मारिशस हिंदी संस्थान, मारिशस
58. मुंबई हिंदी विद्यापीठ, मुंबई
59. मुंबई प्रांतीय राष्ट्रभाषा प्रचार सभा, मुंबई
60. मैसूर हिंदी प्रचार परिषद, बंगलुरू
61. मोकामा अंचल तुलसी साहित्य परिषद्, मोकामा
62. राजभाषा संघर्ष समिति, दिल्ली
63. राजभाषा विभाग
64. राजभाषा कार्यान्वयन समिति
65. राजभाषा आयोग
66. राजभाषा विधायी आयोग एवं राजभाषा खंड
67. राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
68. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा
69. राष्ट्रीय हिंदी परिषद, मेरठ
70. राष्ट्रभाषा महासंघ, मुंबई
71. राष्ट्रीय अनुवाद मिशन
72. राष्ट्रीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, तिरूवनंतपुरम
73. विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर
74. विजय वर्मा मेमोरियल ट्रस्ट, मुंबई
75. विदर्भ हिंदी साहित्य सम्मेलन, नागपुर
76. विद्या विभाग, कांकरौली, मेवाड़
77. विश्व हिंदी सम्मेलन
78. विश्व हिंदी सचिवालय, मारिशस
79. विश्वेश्वरानंद वैदिक शोध संस्थान, होश्यारपुर
80. वीरेन्द्र केशव साहित्य परिषद, टीकमगढ़
81. वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, नई दिल्ली
82. संसदीय राजभाषा समिति, नई दिल्ली
83. साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
84. साहित्य अकादमी, भोपाल
85. साहित्यमंडल, श्रीनाथद्वारा
86. सौराष्ट्र हिंदी प्रचार समिति, राजकोट
87. हिंदी प्रचारिणी सभा, मारिशस
88. हिंदी शिक्षण योजना, राजभाषा विभाग
89. हिंदी सोसाइटी, सिंगापुर
90. हिंदी परिषद, नीदरलैंड
91. हिंदी शिक्षा समिति, उड़ीसा, कटक
92. हिंदी शिक्षा समिति, जहीराबाद
93. हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
94. हिंदी प्रचार-प्रसार संस्थान, जयपुर
95. हिंदी सेवी महासंघ, इंदौर
96. हिंदी सलाहकार समिति
97. हिंदी संगठन, मारिशस
98. हिंदी अकादमी, दिल्ली
99. हिंदी प्रचारक संघ, तमिलनाडु
100. हिंदी विद्यापीठ, देवघर
101. हिन्दुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद
102. हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई
103. हिंदी विज्ञान साहित्य परिषद, भाभा परमाणु अ.केन्द्र, मुंबई
104.श्री मध्यभारत हिन्दी साहित्य समिति, इंदौर

हिन्दी के बारे में महापुरुषों के वचन

*इस विशाल प्रदेश के हर भाग में शिक्षित-अशिक्षित, नागरिक और ग्रामीण सभी हिंदी को समझते हैं। - राहुल सांकृत्यायन।
*हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
राष्ट्रभाषा के बिना आजादी बेकार है। - अवनींद्रकुमार विद्यालंकार।
हिंदी का काम देश का काम है, समूचे राष्ट्रनिर्माण का प्रश्न है। - बाबूराम सक्सेना।
समस्त भारतीय भाषाओं के लिए यदि कोई एक लिपि आवश्यक हो तो वह देवनागरी ही हो सकती है। - (जस्टिस) कृष्णस्वामी अय्यर।

हिंदी का पौधा दक्षिणवालों ने त्याग से सींचा है। - शंकरराव कप्पीकेरी।

अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों ने जिस देशभाषा का स्वागत किया वह ब्रजभाषा थी, न कि उर्दू। -रामचंद्र शुक्ल।

राष्ट्रभाषा हिंदी का किसी क्षेत्रीय भाषा से कोई संघर्ष नहीं है। - अनंत गोपाल शेवड़े।

दक्षिण की हिंदी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है। - के.सी. सारंगमठ।

हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। - वी. कृष्णस्वामी अय्यर।

राष्ट्रीय एकता की कड़ी हिंदी ही जोड़ सकती है। - बालकृष्ण शर्मा नवीन

विदेशी भाषा का किसी स्वतंत्र राष्ट्र के राजकाज और शिक्षा की भाषा होना सांस्कृतिक दासता है। - वाल्टर चेनिंग।

हिंदी को तुरंत शिक्षा का माध्यम बनाइये। - बेरिस कल्यएव।

अंग्रेजी सर पर ढोना डूब मरने के बराबर है। - सम्पूर्णानंद।

एखन जतोगुलि भाषा भारते प्रचलित आछे ताहार मध्ये भाषा सर्वत्रइ प्रचलित। - केशवचंद्र सेन।

देश को एक सूत्र में बाँधे रखने के लिए एक भाषा की आवश्यकता है। - सेठ गोविंददास।

इस विशाल प्रदेश के हर भाग में शिक्षित-अशिक्षित, नागरिक और ग्रामीण सभी हिंदी को समझते हैं। - राहुल सांकृत्यायन।

समस्त आर्यावर्त या ठेठ हिंदुस्तान की राष्ट्र तथा शिष्ट भाषा हिंदी या हिंदुस्तानी है। -सर जार्ज ग्रियर्सन।

मुस्लिम शासन में हिंदी फारसी के साथ-साथ चलती रही पर कंपनी सरकार ने एक ओर फारसी पर हाथ साफ किया तो दूसरी ओर हिंदी पर। - चंद्रबली पांडेय।

भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।

जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।

प्रत्येक नगर प्रत्येक मोहल्ले में और प्रत्येक गाँव में एक पुस्तकालय होने की आवश्यकता है। - (राजा) कीर्त्यानंद सिंह।

अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

यह कैसे संभव हो सकता है कि अंग्रेजी भाषा समस्त भारत की मातृभाषा के समान हो जाये? - चंद्रशेखर मिश्र।

साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।

जो साहित्य केवल स्वप्नलोक की ओर ले जाये, वास्तविक जीवन को उपकृत करने में असमर्थ हो, वह नितांत महत्वहीन है। - (डॉ.) काशीप्रसाद जायसवाल।

भारतीय एकता के लक्ष्य का साधन हिंदी भाषा का प्रचार है। - टी. माधवराव।

हिंदी हिंद की, हिंदियों की भाषा है। - र. रा. दिवाकर।

यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।

उर्दू जबान ब्रजभाषा से निकली है। - मुहम्मद हुसैन आजाद

समाज और राष्ट्र की भावनाओं को परिमार्जित करने वाला साहित्य ही सच्चा साहित्य है। - जनार्दनप्रसाद झा द्विज

मजहब को यह मौका न मिलना चाहिए कि वह हमारे साहित्यिक, सामाजिक, सभी क्षेत्रों में टाँग अड़ाए। - राहुल सांकृत्यायन।

शिक्षा के प्रसार के लिए नागरी लिपि का सर्वत्र प्रचार आवश्यक है। - शिवप्रसाद सितारेहिंद।

हमारी हिंदी भाषा का साहित्य किसी भी दूसरी भारतीय भाषा से किसी अंश से कम नहीं है। - (रायबहादुर) रामरणविजय सिंह।

वही भाषा जीवित और जाग्रत रह सकती है जो जनता का ठीक-ठीक प्रतिनिधित्व कर सके। - पीर मुहम्मद मूनिस।

भारतेंदु और द्विवेदी ने हिंदी की जड़ पाताल तक पहँुचा दी है; उसे उखाड़ने का जो दुस्साहस करेगा वह निश्चय ही भूकंपध्वस्त होगा। - शिवपूजन सहाय।

चक्कवै दिली के अथक्क अकबर सोऊ, नरहर पालकी को आपने कँधा करै। - बेनी कवि।

यह निर्विवाद है कि हिंदुओं को उर्दू भाषा से कभी द्वेष नहीं रहा। - ब्रजनंदन दास।

देहात का विरला ही कोई मुसलमान प्रचलित उर्दू भाषा के दस प्रतिशत शब्दों को समझ पाता है। - साँवलिया बिहारीलाल वर्मा।

हिंदी भाषा अपनी अनेक धाराओं के साथ प्रशस्त क्षेत्र में प्रखर गति से प्रकाशित हो रही है। - छविनाथ पांडेय।

देवनागरी ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से अत्यंत वैज्ञानिक लिपि है। - रविशंकर शुक्ल।

हमारी नागरी दुनिया की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि है। - राहुल सांकृत्यायन।

नागरी प्रचार देश उन्नति का द्वार है। - गोपाललाल खत्री।

साहित्य का स्रोत जनता का जीवन है। - गणेशशंकर विद्यार्थी।

अंग्रेजी से भारत की रक्षा नहीं हो सकती। - पं. कृ. पिल्लयार।

उसी दिन मेरा जीवन सफल होगा जिस दिन मैं सारे भारतवासियों के साथ शुद्ध हिंदी में वार्तालाप करूँगा। - शारदाचरण मित्र।

हिंदी के ऊपर आघात पहुँचाना हमारे प्राणधर्म पर आघात पहुँचाना है। - जगन्नाथप्रसाद मिश्र।

हिंदी जाननेवाला व्यक्ति देश के किसी कोने में जाकर अपना काम चला लेता है। - देवव्रत शास्त्री।

हिंदी और नागरी का प्रचार तथा विकास कोई भी रोक नहीं सकता। - गोविन्दवल्लभ पंत।

भारत की सारी प्रांतीय भाषाओं का दर्जा समान है। - रविशंकर शुक्ल।

किसी साहित्य की नकल पर कोई साहित्य तैयार नहीं होता। - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

हार सरोज हिए है लसै मम ऐसी गुनागरी नागरी होय। - ठाकुर त्रिभुवननाथ सिंह।

भाषा ही से हृदयभाव जाना जाता है। शून्य किंतु प्रत्यक्ष हुआ सा दिखलाता है। - माधव शुक्ल।

संस्कृत मां, हिंदी गृहिणी और अंग्रेजी नौकरानी है। - डॉ. फादर कामिल बुल्के।

भाषा विचार की पोशाक है। - डॉ. जानसन।

रामचरित मानस हिंदी साहित्य का कोहनूर है। - यशोदानंदन अखौरी।

साहित्य के हर पथ पर हमारा कारवाँ तेजी से बढ़ता जा रहा है। - रामवृक्ष बेनीपुरी।

कवि संमेलन हिंदी प्रचार के बहुत उपयोगी साधन हैं। - श्रीनारायण चतुर्वेदी।

हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

देवनागरी अक्षरों का कलात्मक सौंदर्य नष्ट करना कहाँ की बुद्धिमानी है? - शिवपूजन सहाय।

जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

कविता कामिनि भाल में हिंदी बिंदी रूप, प्रकट अग्रवन में भई ब्रज के निकट अनूप। - राधाचरण गोस्वामी।

हिंदी समस्त आर्यावर्त की भाषा है। - शारदाचरण मित्र।

हिंदी भारतीय संस्कृति की आत्मा है। - कमलापति त्रिपाठी।

मैं उर्दू को हिंदी की एक शैली मात्र मानता। - मनोरंजन प्रसाद।

हिंदी भाषा को भारतीय जनता तथा संपूर्ण मानवता के लिये बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सँभालना है। - सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।

नागरीप्रचारिणी सभा, काशी की हीरकजयंती के पावन अवसर पर उपस्थित न हो सकने का मुझे बड़ा खेद है। - (प्रो.) तान युन् शान।

राष्ट्रभाषा हिंदी हो जाने पर भी हमारे व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन पर विदेशी भाषा का प्रभुत्व अत्यंत गर्हित बात है। - कमलापति त्रिपाठी।

सभ्य संसार के सारे विषय हमारे साहित्य में आ जाने की ओर हमारी सतत् चेष्टा रहनी चाहिए। - श्रीधर पाठक।

भारतवर्ष के लिए हिंदी भाषा ही सर्वसाधरण की भाषा होने के उपयुक्त है। - शारदाचरण मित्र।

हिंदी भाषा और साहित्य ने तो जन्म से ही अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा है। - धीरेन्द्र वर्मा।

जब हम अपना जीवन, जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दे तब हम किसी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - सेठ गोविंददास।

कविता सुखी और उत्तम मनुष्यों के उत्तम और सुखमय क्षणों का उद्गार है। - शेली।

भाषा की समस्या का समाधान सांप्रदायिक दृष्टि से करना गलत है। - लक्ष्मीनारायण सुधांशु

भारतीय साहित्य और संस्कृति को हिंदी की देन बड़ी महत्त्वपूर्ण है। - सम्पूर्णानन्द।

हिंदी के पुराने साहित्य का पुनरुद्धार प्रत्येक साहित्यिक का पुनीत कर्तव्य है। - पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल।

परमात्मा से प्रार्थना है कि हिंदी का मार्ग निष्कंटक करें। - हरगोविंद सिंह।

अहिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के लोग भी सरलता से टूटी-फूटी हिंदी बोलकर अपना काम चला लेते हैं। - अनंतशयनम् आयंगार।

वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। - मैथिलीशरण गुप्त।

दाहिनी हो पूर्ण करती है अभिलाषा पूज्य हिंदी भाषा हंसवाहिनी का अवतार है। - अज्ञात।

वास्तविक महान् व्यक्ति तीन बातों द्वारा जाना जाता है- योजना में उदारता, उसे पूरा करने में मनुष्यता और सफलता में संयम। - बिस्मार्क।

हिंदुस्तान की भाषा हिंदी है और उसका दृश्यरूप या उसकी लिपि सर्वगुणकारी नागरी ही है। - गोपाललाल खत्री।

कविता मानवता की उच्चतम अनुभूति की अभिव्यक्ति है। - हजारी प्रसाद द्विवेदी।

हिंदी ही के द्वारा अखिल भारत का राष्ट्रनैतिक ऐक्य सुदृढ़ हो सकता है। - भूदेव मुखर्जी।

हिंदी का शिक्षण भारत में अनिवार्य ही होगा। - सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या।

हिंदी, नागरी और राष्ट्रीयता अन्योन्याश्रित है। - नन्ददुलारे वाजपेयी।

अकबर की सभा में सूर के जसुदा बार-बार यह भाखै पद पर बड़ा स्मरणीय विचार हुआ था।- राधाचरण गोस्वामी।
देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।

हिंदी साहित्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष इस चतु:पुरुषार्थ का साधक अतएव जनोपयोगी। - (डॉ.) भगवानदास।

हिंदी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में सभासीन हो सकती है। - मैथिलीशरण गुप्त।

वाणी, सभ्यता और देश की रक्षा करना सच्चा धर्म यज्ञ है। - ठाकुरदत्त शर्मा।

निष्काम कर्म ही सर्वोत्तम कार्य है, जो तृप्ति प्रदाता है और व्यक्ति और समाज की शक्ति बढ़ाता है। - पंडित सुधाकर पांडेय।

अब हिंदी ही माँ भारती हो गई है- वह सबकी आराध्य है, सबकी संपत्ति है। - रविशंकर शुक्ल।

बच्चों को विदेशी लिपि की शिक्षा देना उनको राष्ट्र के सच्चे प्रेम से वंचित करना है। - भवानीदयाल संन्यासी।

यहाँ (दिल्ली) के खुशबयानों ने मताहिद (गिनी चुनी) जबानों से अच्छे अच्छे लफ्ज निकाले और बाजे इबारतों और अल्फाज में तसर्रूफ (परिवर्तन) करके एक नई जवान पैदा की जिसका नाम उर्दू रखा है। - दरियाये लताफत।

भाषा और राष्ट्र में बड़ा घनिष्ट संबंध है। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

अगर उर्दूवालों की नीति हिंदी के बहिष्कार की न होती तो आज लिपि के सिवा दोनों में कोई भेद न पाया जाता। - देशरत्न डॉ. राजेंद्रप्रसाद।

हिंदी भाषा की उन्नति का अर्थ है राष्ट्र और जाति की उन्नति। - रामवृक्ष बेनीपुरी।

बाजारवाली बोली विश्वविद्यालयों में काम नहीं दे सकती। - संपूर्णानंद।

भारतेंदु का साहित्य मातृमंदिर की अर्चना का साहित्य है। - बदरीनाथ शर्मा।

तलवार के बल से न कोई भाषा चलाई जा सकती है न मिटाई। - शिवपूजन सहाय।

अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिये ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही जानता समझता है। - महात्मा गाँधी।

हिंदी को राजभाषा करने के बाद पूरे पंद्रह वर्ष तक अंग्रेजी का प्रयोग करना पीछे कदम हटाना है।- राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन।

भाषा राष्ट्रीय शरीर की आत्मा है। - स्वामी भवानीदयाल संन्यासी।

हिंदी के राष्ट्रभाषा होने से जहाँ हमें हर्षोल्लास है, वहीं हमारा उत्तरदायित्व भी बहुत बढ़ गया है।- मथुरा प्रसाद दीक्षित।

भारतवर्ष में सभी विद्याएँ सम्मिलित परिवार के समान पारस्परिक सद्भाव लेकर रहती आई हैं।- रवींद्रनाथ ठाकुर।

इतिहास को देखते हुए किसी को यह कहने का अधिकारी नहीं कि हिंदी का साहित्य जायसी के पहले का नहीं मिलता। - (डॉ.) काशीप्रसाद जायसवाल।

संप्रति जितनी भाषाएं भारत में प्रचलित हैं उनमें से हिंदी भाषा प्राय: सर्वत्र व्यवहृत होती है। - केशवचंद्र सेन।

हिंदी ने राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहानसारूढ़ होने पर अपने ऊपर एक गौरवमय एवं गुरुतर उत्तरदायित्व लिया है। - गोविंदबल्लभ पंत।

हिंदी जिस दिन राजभाषा स्वीकृत की गई उसी दिन से सारा राजकाज हिंदी में चल सकता था। - सेठ गोविंददास।

हिंदी भाषी प्रदेश की जनता से वोट लेना और उनकी भाषा तथा साहित्य को गालियाँ देना कुछ नेताओं का दैनिक व्यवसाय है। - (डॉ.) रामविलास शर्मा।

जब एक बार यह निश्चय कर लिया गया कि सन् १९६५ से सब काम हिंदी में होगा, तब उसे अवश्य कार्यान्वित करना चाहिए। - सेठ गोविंददास।

साहित्यसेवा और धर्मसाधना पर्यायवायी है। - (म. म.) सत्यनारायण शर्मा।

जिसका मन चाहे वह हिंदी भाषा से हमारा दूर का संबंध बताये, मगर हम बिहारी तो हिंदी को ही अपनी भाषा, मातृभाषा मानते आए हैं। - शिवनंदन सहाय।

उर्दू का ढाँचा हिंदी है, लेकिन सत्तर पचहत्तर फीसदी उधार के शब्दों से उर्दू दाँ तक तंग आ गए हैं। - राहुल सांकृत्यायन।

मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती। भगवान भारतवर्ष में गूँजे हमारी भारती। - मैथिलीशरण गुप्त।

गद्य जीवनसंग्राम की भाषा है। इसमें बहुत कार्य करना है, समय थोड़ा है। - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

अंग्रेजी हमें गूँगा और कूपमंडूक बना रही है। - ब्रजभूषण पांडेय।

लाखों की संख्या में छात्रों की उस पलटन से क्या लाभ जिनमें अंग्रेजी में एक प्रार्थनापत्र लिखने की भी क्षमता नहीं है। - कंक।

मैं राष्ट्र का प्रेम, राष्ट्र के भिन्न-भिन्न लोगों का प्रेम और राष्ट्रभाषा का प्रेम, इसमें कुछ भी फर्क नहीं देखता। - र. रा. दिवाकर।

देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता स्वयं सिद्ध है। - महावीर प्रसाद द्विवेदी।

हिमालय से सतपुड़ा और अंबाला से पूर्णिया तक फैला हुआ प्रदेश हिंदी का प्रकृत प्रांत है। - राहुल सांकृत्यायन।

किसी राष्ट्र की राजभाषा वही भाषा हो सकती है जिसे उसके अधिकाधिक निवासी समझ सके। - (आचार्य) चतुरसेन शास्त्री।

साहित्य के इतिहास में काल विभाजन के लिए तत्कालीन प्रवृत्तियों को ही मानना न्यायसंगत है। - अंबाप्रसाद सुमन।

हिंदी भाषा हमारे लिये किसने बनाया? प्रकृति ने। हमारे लिये हिंदी प्रकृतिसिद्ध है। - पं. गिरिधर शर्मा।

हिंदी भाषा उस समुद्र जलराशि की तरह है जिसमें अनेक नदियाँ मिली हों। - वासुदेवशरण अग्रवाल।

भाषा देश की एकता का प्रधान साधन है। - (आचार्य) चतुरसेन शास्त्री।

क्रांतदर्शी होने के कारण ऋषि दयानंद ने देशोन्नति के लिये हिंदी भाषा को अपनाया था। - विष्णुदेव पौद्दार।

सच्चा राष्ट्रीय साहित्य राष्ट्रभाषा से उत्पन्न होता है। - वाल्टर चेनिंग।

हिंदी के पौधे को हिंदू मुसलमान दोनों ने सींचकर बड़ा किया है। - जहूरबख्श।

किसी लफ्ज के उर्दू न होने से मुराद है कि उर्दू में हुरूफ की कमी बेशी से वह खराद पर नहीं चढ़ा। - सैयद इंशा अल्ला खाँ।

अंग्रेजी का पद चिरस्थायी करना देश के लिये लज्जा की बात है - संपूर्णानंद।

हिंदी राष्ट्रभाषा है, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को, प्रत्येक भारतवासी को इसे सीखना चाहिए। - रविशंकर शुक्ल।

हिंदी प्रांतीय भाषा नहीं बल्कि वह अंत:प्रांतीय राष्ट्रीय भाषा है। - छविनाथ पांडेय।

साहित्य को उच्च अवस्था पर ले जाना ही हमारा परम कर्तव्य है। - पार्वती देवी।

विश्व की कोई भी लिपि अपने वर्तमान रूप में नागरी लिपि के समान नहीं। - चंद्रबली पांडेय।

भाषा की एकता जाति की एकता को कायम रखती है। - राहुल सांकृत्यायन।

जिस राष्ट्र की जो भाषा है उसे हटाकर दूसरे देश की भाषा को सारी जनता पर नहीं थोपा जा सकता - वासुदेवशरण अग्रवाल।

पराधीनता की विजय से स्वाधीनता की पराजय सहस्रगुना अच्छी है। - अज्ञात।

समाज के अभाव में आदमी की आदमियत की कल्पना नहीं की जा सकती। - पं. सुधाकर पांडेय।

तुलसी, कबीर, नानक ने जो लिखा है, उसे मैं पढ़ता हूँ तो कोई मुश्किल नहीं आती। - मौलाना मुहम्मद अली।

भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।

हिंदी भाषी ही एक ऐसी भाषा है जो सभी प्रांतों की भाषा हो सकती है। - पं. कृ. रंगनाथ पिल्लयार।

जब हम हिंदी की चर्चा करते हैं तो वह हिंदी संस्कृति का एक प्रतीक होती है। - शांतानंद नाथ।

भारतीय धर्म की है घोषणा घमंड भरी, हिंदी नहीं जाने उसे हिंदू नहीं जानिए। - नाथूराम शंकर शर्मा।

राजनीति के चिंतापूर्ण आवेग में साहित्य की प्रेरणा शिथिल नहीं होनी चाहिए। - राजकुमार वर्मा।

हिंदी में जो गुण है उनमें से एक यह है कि हिंदी मर्दानी जबान है। - सुनीति कुमार चाटुर्ज्या।

स्पर्धा ही जीवन है, उसमें पीछे रहना जीवन की प्रगति खोना है। - निराला।

कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है। - सुमित्रानंदन पंत।

बिना मातृभाषा की उन्नति के देश का गौरव कदापि वृद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता। - गोविंद शास्त्री दुगवेकर।

उर्दू लिपि की अनुपयोगिता, भ्रामकता और कठोरता प्रमाणित हो चुकी है। - रामरणविजय सिंह।

राष्ट्रभाषा राष्ट्रीयता का मुख्य अंश है। - श्रीमती सौ. चि. रमणम्मा देव।

बानी हिंदी भाषन की महरानी, चंद्र, सूर, तुलसी से जामें भए सुकवि लासानी। - पं. जगन्नाथ चतुर्वेदी।

जय जय राष्ट्रभाषा जननि। जयति जय जय गुण उजागर राष्ट्रमंगलकरनि। - देवी प्रसाद गुप्त।

हिंदी हमारी हिंदू संस्कृति की वाणी ही तो है। - शांतानंद नाथ।

आज का लेखक विचारों और भावों के इतिहास की वह कड़ी है जिसके पीछे शताब्दियों की कड़ियाँ जुड़ी है। - माखनलाल चतुर्वेदी।

विज्ञान के बहुत से अंगों का मूल हमारे पुरातन साहित्य में निहित है। - सूर्यनारायण व्यास।

कोई कौम अपनी जबान के बगैर अच्छी तालीम नहीं हासिल कर सकती। - सैयद अमीर अली मीर

हिंदी और उर्दू में झगड़ने की बात ही नहीं है। - ब्रजनंदन सहाय।

कविता हृदय की मुक्त दशा का शाब्दिक विधान है। - रामचंद्र शुक्ल।

हमारी राष्ट्रभाषा का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीयता का दृढ़ निर्माण है। - चंद्रबली पांडेय।

जिस शिक्षा से स्वाभिमान की वृत्ति जाग्रत नहीं होती वह शिक्षा किसी काम की नहीं। - माधवराव सप्रे।

कालोपयोगी कार्य न कर सकने पर महापुरुष बन सकना संभव नहीं है। - सू. च. धर।

मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।

आज का आविष्कार कल का साहित्य है। - माखनलाल चतुर्वेदी।

भाषा के सवाल में मजहब को दखल देने का कोई हक नहीं। - राहुल सांकृत्यायन।

जब तक संघ शक्ति उत्पन्न न होगी तब तक प्रार्थना में कुछ जान नहीं हो सकती। - माधव राव सप्रे।

हिंदी विश्व की महान भाषा है। - राहुल सांकृत्यायन।

राष्ट्रीय एकता के लिये एक भाषा से कहीं बढ़कर आवश्यक एक लिपि का प्रचार होना है। - ब्रजनंदन सहाय।

जो ज्ञान तुमने संपादित किया है उसे वितरित करते रहो ओर सबको ज्ञानवान बनाकर छोड़ो। - संत रामदास।

पाँच मत उधर और पाँच मत इधर रहने से श्रेष्ठता नहीं आती। - माखनलाल चतुर्वेदी।

मैं मानती हूँ कि हिंदी प्रचार से राष्ट्र का ऐक्य जितना बढ़ सकता है वैसा बहुत कम चीजों से बढ़ सकेगा। - लीलावती मुंशी।

हिंदी उर्दू के नाम को दूर कीजिए एक भाषा बनाइए। सबको इसके लिए तैयार कीजिए। - देवी प्रसाद गुप्त।

साहित्यकार विश्वकर्मा की अपेक्षा कहीं अधिक सामर्थ्यशाली है। - पं. वागीश्वर जी।

हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य को सर्वांगसुंदर बनाना हमारा कर्त्तव्य है। - डॉ. राजेंद्रप्रसाद।

हिंदी साहित्य की नकल पर कोई साहित्य तैयार नहीं होता। - सूर्य कांत त्रिपाठी निराला

भाषा के उत्थान में एक भाषा का होना आवश्यक है। इसलिये हिंदी सबकी साझा भाषा है। - पं. कृ. रंगनाथ पिल्लयार।

यदि स्वदेशाभिमान सीखना है तो मछली से जो स्वदेश (पानी) के लिये तड़प तड़प कर जान दे देती है। - सुभाषचंद्र बसु।

पिछली शताब्दियों में संसार में जो राजनीतिक क्रांतियाँ हुई, प्राय: उनका सूत्रसंचालन उस देश के साहित्यकारों ने किया है। - पं. वागीश्वर जी।

विजयी राष्ट्रवाद अपने आपको दूसरे देशों का शोषण कर जीवित रखना चाहता है। - बी. सी. जोशी।

हिंदी हमारे देश और भाषा की प्रभावशाली विरासत है। - माखनलाल चतुर्वेदी।

यदि लिपि का बखेड़ा हट जाये तो हिंदी उर्दू में कोई विवाद ही न रहे। - बृजनंदन सहाय।

भारत सरस्वती का मुख संस्कृत है। - म. म. रामावतार शर्मा।

साधारण कथा कहानियों तथा बालोपयोगी कविता में संस्कृत के सामासिक शब्द लाने से उनके मूल उद्देश्य की सफलता में बाधा पड़ती है। - रघुवरप्रसाद द्विवेदी।

यदि आप मुझे कुछ देना चाहती हों तो इस पाठशाला की शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा कर दें। - एक फ्रांसीसी बालिका।

निर्मल चरित्र ही मनुष्य का शृंगार है। - पंडित सुधाकर पांडेय।

हिंदुस्तान को छोड़कर दूसरे मध्य देशों में ऐसा कोई अन्य देश नहीं है, जहाँ कोई राष्ट्रभाषा नहीं हो। - सैयद अमीर अली मीर।

इतिहास में जो सत्य है वही अच्छा है और जो असत्य है वही बुरा है। - जयचंद्र विद्यालंकार।

सरलता, बोधगम्यता और शैली की दृष्टि से विश्व की भाषाओं में हिंदी महानतम स्थान रखती है। - अमरनाथ झा।

हिंदी सरल भाषा है। इसे अनायास सीखकर लोग अपना काम निकाल लेते हैं। - जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी।

एक भाषा का प्रचार रहने पर केवल इसी के सहारे, यदि लिपिगत भिन्नता न हो तो, अन्यान्य राष्ट्र गठन के उपकरण आ जाने संभव हो सकते हैं। - अयोध्याप्रसाद वर्मा।

किसी भाषा की उन्नति का पता उसमें प्रकाशित हुई पुस्तकों की संख्या तथा उनके विषय के महत्व से जाना जा सकता है। - गंगाप्रसाद अग्निहोत्री।

जीवन के छोटे से छोटे क्षेत्र में हिंदी अपना दायित्व निभाने में समर्थ है। - पुरुषोत्तमदास टंडन।

बिहार में ऐसा एक भी गाँव नहीं है जहाँ केवल रामायण पढ़ने के लिये दस-बीस मनुष्यों ने हिंदी न सीखी हो। - सकलनारायण पांडेय।

संस्कृत की इशाअत (प्रचार) का एक बड़ा फायदा यह होगा कि हमारी मुल्की जबान (देशभाषा) वसीअ (व्यापक) हो जायगी। - मौलवी महमूद अली।

संसार में देश के नाम से भाषा को नाम दिया जाता है और वही भाषा वहाँ की राष्ट्रभाषा कहलाती है। - ताराचंद्र दूबे।

सर्वसाधारण पर जितना पद्य का प्रभाव पड़ता है उतना गद्य का नहीं। - राजा कृत्यानंद सिंह।

जो गुण साहित्य की जीवनी शक्ति के प्रधान सहायक होते हैं उनमें लेखकों की विचारशीलता प्रधान है। - नरोत्तम व्यास।

भाषा और भाव का परिवर्तन समाज की अवस्था और आचार विचार से अधिक संबंध रखता है। - बदरीनाथ भट्ट।

साहित्य पढ़ने से मुख्य दो बातें तो अवश्य प्राप्त होती हैं, अर्थात् मन की शक्तियों को विकास और ज्ञान पाने की लालसा। - बिहारीलाल चौबे।

देवनागरी और बंगला लिपियों को साथ मिलाकर देखना है। - मन्नन द्विवेदी।

है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी। - मैथिलीशरण गुप्त।

संस्कृत की विरासत हिंदी को तो जन्म से ही मिली है। - राहुल सांकृत्यायन।

कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा, जो निज भाषा-अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा। - हरिऔध।

हिंदी में हम लिखें पढ़ें, हिंदी ही बोलें। - पं. जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी।

जिस वस्तु की उपज अधिक होती है उसमें से बहुत सा भाग फेंक भी दिया जाता है। ग्रंथों के लिये भी ऐसा ही हिसाब है। - गिरजाकुमार घोष।

यह जो है कुरबान खुदा का, हिंदी करे बयान सदा का। - अज्ञात।

क्या संसार में कहीं का भी आप एक दृष्टांत उद्धृत कर सकते हैं जहाँ बालकों की शिक्षा विदेशी भाषाओं द्वारा होती हो। - डॉ. श्यामसुंदर दास।

बँगला वर्णमाला की जाँच से मालूम होता है कि देवनागरी लिपि से निकली है और इसी का सीधा सादा रूप है। - रमेशचंद्र दत्त।

वास्तव में वेश, भाषा आदि के बदलने का परिणाम यह होता है कि आत्मगौरव नष्ट हो जाता है, जिससे देश का जातित्व गुण मिट जाता है। - सैयद अमीर अली मीर

दूसरों की बोली की नकल करना भाषा के बदलने का एक कारण है। - गिरींद्रमोहन मित्र।

समालोचना ही साहित्य मार्ग की सुंदर सड़क है। - म. म. गिरधर शर्मा चतुर्वेदी।

नागरी वर्णमाला के समान सर्वांगपूर्ण और वैज्ञानिक कोई दूसरी वर्णमाला नहीं है। - बाबू राव विष्णु पराड़कर।

अन्य देश की भाषा ने हमारे देश के आचार व्यवहार पर कैसा बुरा प्रभाव डाला है। - अनादिधन वंद्योपाध्याय।

व्याकरण चाहे जितना विशाल बने परंतु भाषा का पूरा-पूरा समाधान उसमें नहीं हो सकता। - अनंतराम त्रिपाठी।

स्वदेशप्रेम, स्वधर्मभक्ति और स्वावलंबन आदि ऐसे गुण हैं जो प्रत्येक मनुष्य में होने चाहिए। - रामजी लाल शर्मा।

गुणवान खानखाना सदृश प्रेमी हो गए रसखान और रसलीन से हिंदी प्रेमी हो गए। - राय देवीप्रसाद।

वैज्ञानिक विचारों के पारिभाषिक शब्दों के लिये, किसी विषय के उच्च भावों के लिये, संस्कृत साहित्य की सहायता लेना कोई शर्म की बात नहीं है। - गणपति जानकीराम दूबे।

हिंदुस्तान के लिये देवनागरी लिपि का ही व्यवहार होना चाहिए, रोमन लिपि का व्यवहार यहाँ हो ही नहीं सकता। - महात्मा गाँधी।

अभिमान सौंदर्य का कटाक्ष है। - अज्ञात।

कवि का हृदय कोमल होता है। - गिरिजाकुमार घोष।

श्री रामायण और महाभारत भारत के ही नहीं वरन् पृथ्वी भर के जैसे अमूल्य महाकाव्य हैं। - शैलजाकुमार घोष।

हिंदी किसी के मिटाने से मिट नहीं सकती। - चंद्रबली पाण्डेय।

भाषा की उन्नति का पता मुद्रणालयों से भी लग सकता है। - गंगाप्रसाद अग्निहोत्री।

पुस्तक की उपयोगिता को चिरस्थायी रखने के लिए उसे भावी संतानों के लिये पथप्रदर्शक बनाने के लिये यह आवश्यक है कि पुस्तक के असली लेखक का नाम उस पर रहे। - सत्यदेव परिव्राजक।

खड़ी बोली का एक रूपांतर उर्दू है। - बदरीनाथ भट्ट।

भारतवर्ष मनुष्य जाति का गुरु है। - विनयकुमार सरकार।

हमारी भारत भारती की शैशवावस्था का रूप ब्राह्मी या देववाणी है, उसकी किशोरावस्था वैदिक भाषा और संस्कृति उसकी यौवनावस्था की संुदर मनोहर छटा है। - बदरीनारायण चौधरी प्रेमधन

हृतंत्री की तान पर नीरव गान गाने से न किसी के प्रति किसी की अनुकम्पा जगती है और न कोई किसी का उपकार करने पर ही उतारू होता है। - रामचंद्र शुक्ल।

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। - भारतेंदू हरिश्चंद्र।

आर्यों की सबसे प्राचीन भाषा हिंदी ही है और इसमें तद्भव शब्द सभी भाषाओं से अधिक है। - वीम्स साहब।

क्यों न वह फिर रास्ते पर ठीक चलने से डिगे , हैं बहुत से रोग जिसके एक ही दिल में लगे। - हरिऔध।

जब तक साहित्य की उन्नति न होगी, तब तक संगीत की उन्नति नहीं हो सकती। - विष्णु दिगंबर।

जो पढ़ा-लिखा नहीं है - जो शिक्षित नहीं है वह किसी भी काम को भली-भाँति नहीं कर सकता। - गोपाललाल खत्री।

राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूँगा है। - महात्मा गाँधी।

जिस प्रकार बंगाल भाषा के द्वारा बंगाल में एकता का पौधा प्रफुल्लित हुआ है उसी प्रकार हिंदी भाषा के साधारण भाषा होने से समस्त भारतवासियों में एकता तरु की कलियाँ अवश्य ही खिलेंगी। - शारदाचरण मित्र।

इतिहास स्वदेशाभिमान सिखाने का साधन है। - महात्मा गांधी।

जो दिखा सके वही दर्शन शास्त्र है नहीं तो वह अंधशास्त्र है। - डॉ. भगवानादास।

विदेशी लोगों का अनुकरण न किया जाय। - भीमसेन शर्मा।

भारतवर्ष के लिये देवनागरी साधारण लिपि हो सकती है और हिंदी भाषा ही सर्वसाधारण की भाषा होने के उपयुक्त है। - शारदाचरण मित्र।

अकबर का शांत राज्य हमारी भाषा का मानो स्वर्णमय युग था। - छोटूलाल मिश्र।

नाटक का जितना ऊँचा दरजा है, उपन्यास उससे सूत भर भी नीचे नहीं है। - गोपालदास गहमरी।

किसी भी बृहत् कोश में साहित्य की सब शाखाओं के शब्द होने चाहिए। - महावीर प्रसाद द्विवेदी।

जो कुछ भी नजर आता है वह जमीन और आसमान की गोद में उतना सुंदर नहीं जितना नजर में है। - निराला

देव, जगदेव, देश जाति की सुखद प्यारी, जग में गुणगरी सुनागरी हमारी है। - चकोर

शिक्षा का मुख्य तात्पर्य मानसिक उन्नति है। - पं. रामनारायण मिश्र।

भारत के एक सिरे से दूसरे सिरे तक हिंदी भाषा कुछ न कुछ सर्वत्र समझी जाती है। - पं. कृ. रंगनाथ पिल्लयार।

जापानियों ने जिस ढंग से विदेशी भाषाएँ सीखकर अपनी मातृभाषा को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया है उसी प्रकार हमें भी मातृभाषा का भक्त होना चाहिए। - श्यामसुंदर दास।

विचारों का परिपक्व होना भी उसी समय संभव होता है, जब शिक्षा का माध्यम प्रकृतिसिद्ध मातृभाषा हो। - पं. गिरधर शर्मा।

विज्ञान को विज्ञान तभी कह सकते हैं जब वह शरीर, मन और आत्मा की भूख मिटाने की पूरी ताकत रखता हो। - महात्मा गांधी।

यह महात्मा गाँधी का प्रताप है, जिनकी मातृभाषा गुजराती है पर हिंदी को राष्ट्रभाषा जानकर जो उसे अपने प्रेम से सींच रहे हैं। - लक्ष्मण नारायण गर्दे।

हिंदी भाषा के लिये मेरा प्रेम सब हिंदी प्रेमी जानते हैं। - महात्मा गांधी।

सब विषयों के गुण-दोष सबकी दृष्टि में झटपट तो नहीं आ जाते। - म. म. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी।

किसी देश में ग्रंथ बनने तक वैदेशिक भाषा में शिक्षा नहीं होती थी। देश भाषाओं में शिक्षा होने के कारण स्वयं ग्रंथ बनते गए हैं। - साहित्याचार्य रामावतार शर्मा।

जो भाषा सामयिक दूसरी भाषाओं से सहायता नहीं लेती वह बहुत काल तक जीवित नहीं रह सकती। - पांडेय रामवतार शर्मा।

नागरीप्रचारिणी सभा के गुण भारी जिन तेरों देवनागरी प्रचार करिदीनो है। - नाथूराम शंकर शर्मा।

जितना और जैसा ज्ञान विद्यार्थियों को उनकी जन्मभाषा में शिक्षा देने से अल्पकाल में हो सकता है; उतना और वैसा पराई भाषा में सुदीर्घ काल में भी होना संभव नहीं है। - घनश्याम सिंह।

विदेशी भाषा में शिक्षा होने के कारण हमारी बुद्धि भी विदेशी हो गई है। - माधवराव सप्रे।

मैं महाराष्ट्री हूँ, परंतु हिंदी के विषय में मुझे उतना ही अभिमान है जितना किसी हिंदी भाषी को हो सकता है। - माधवराव सप्रे।

मनुष्य सदा अपनी मातृभाषा में ही विचार करता है। इसलिये अपनी भाषा सीखने में जो सुगमता होती है दूसरी भाषा में हमको वह सुगमता नहीं हो सकती। - डॉ. मुकुन्दस्वरूप वर्मा।

हिंदी भाषा का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। - महात्मा गांधी।

राष्ट्रीयता का भाषा और साहित्य के साथ बहुत ही घनिष्ट और गहरा संबंध है। - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद।

यदि हम अंग्रेजी दूसरी भाषा के समान पढ़ें तो हमारे ज्ञान की अधिक वृद्धि हो सकती है। - जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी।

स्वतंत्रता की कोख से ही आलोचना का जन्म है। - मोहनलाल महतो वियोगी।

युग के साथ न चल सकने पर महात्माओं का महत्त्व भी म्लान हो उठता है। - सु. च. धर।

हिंदी पर ना मारो ताना, सभा बतावे हिंदी माना। - नूर मुहम्मद।

आप जिस तरह बोलते हैं, बातचीत करते हैं, उसी तरह लिखा भी कीजिए। भाषा बनावटी न होनी चाहिए। - महावीर प्रसाद द्विवेदी।

हिंदी भाषा की उन्नति के बिना हमारी उन्नति असम्भव है। - गिरधर शर्मा।

भाषा ही राष्ट्र का जीवन है। - पुरुषोत्तमदास टंडन।

देह प्राण का ज्यों घनिष्ट संबंध अधिकतर। है तिससे भी अधिक देशभाषा का गुरुतर। - माधव शुक्ल।

जब हम अपना जीवन जननी हिंदी, मातृभाषा हिंदी के लिये समर्पण कर दें तब हम हिंदी के प्रेमी कहे जा सकते हैं। - गोविन्ददास।

नागरी प्रचार देश उन्नति का द्वार है। - गोपाललाल खत्री।

देश तथा जाति का उपकार उसके बालक तभी कर सकते हैं, जब उन्हें उनकी भाषा द्वारा शिक्षा मिली हो। - पं. गिरधर शर्मा।

राष्ट्रभाषा की साधना कोरी भावुकता नहीं है। - जगन्नाथप्रसाद मिश्र।

साहित्य को स्वैर संचा करने की इजाजत न किसी युग में रही होगी न वर्तमान युग में मिल सकती है। - माखनलाल चतुर्वेदी।

अंग्रेजी सीखकर जिन्होंने विशिष्टता प्राप्त की है, सर्वसाधारण के साथ उनके मत का मेल नहीं होता। हमारे देश में सबसे बढ़कर जातिभेद वही है, श्रेणियों में परस्पर अस्पृश्यता इसी का नाम है। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर।

साहित्य की सेवा भगवान का कार्य है, आप काम में लग जाइए आपको भगवान की सहायता प्राप्त होगी और आपके मनोरथ परिपूर्ण होंगे। - चंद्रशेखर मिश्र।

सब से जीवित रचना वह है जिसे पढ़ने से प्रतीत हो कि लेखक ने अंतर से सब कुछ फूल सा प्रस्फुटित किया है। - शरच्चंद।

सिक्ख गुरुओं ने आपातकाल में हिंदी की रक्षा के लिये ही गुरुमुखी रची थी। - संतराम शर्मा।

हिंदी जैसी सरल भाषा दूसरी नहीं है। - मौलाना हसरत मोहानी।

ऐसे आदमी आज भी हमारे देश में मौजूद हैं जो समझते हैं कि शिक्षा को मातृभाषा के आसन पर बिठा देने से उसकी कीमत ही घट जायेगी। - रवीन्द्रनाथ ठाकुर।

लोकोपकारी विषयों को आदर देने वाली नवीन प्रथा का स्थिर हो जाना ही एक बहुत बड़ा उत्साहप्रद कार्य है। - मिश्रबंधु।

हमारे साहित्य को कामधेनु बनाना है। - चंद्रबली पांडेय।

भारत के विभिन्न प्रदेशों के बीच हिंदी प्रचार द्वारा एकता स्थापित करने वाले सच्चे भारत बंधु हैं। - अरविंद।

हृदय की कोई भाषा नहीं है, हृदय-हृदय से बातचीत करता है। - महात्मा गांधी।

मेरा आग्रहपूर्वक कथन है कि अपनी सारी मानसिक शक्ति हिन्दी के अध्ययन में लगावें। - विनोबा भावे।

साहित्यिक इस बात को कभी न भूले कि एक ख्याल ही क्रिया का स्वामी है, उसे बढ़ाने, घटाने या ठुकरा देनेवाला। - माखनलाल चतुर्वेदी।

एशिया के कितने ही राष्ट्र आज यूरोपीय राष्ट्रों के चंगुल से छूट गए हैं पर उनकी आर्थिक दासता आज भी टिकी हुई है। - वी. सी. जोशी।

हिंदी द्वारा सारे भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। - स्वामी दयानंद।

इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रांत भवन में टिक रहना। - जयशंकर प्रसाद।

विद्या अच्छे दिनों में आभूषण है, विपत्ति में सहायक और बुढ़ापे में संचित सामग्री है। - अरस्तु।

अधिक अनुभव, अधिक विपत्ति सहना, और अधिक अध्ययन, ये ही विद्वता के तीन स्तंभ हैं। - डिजरायली।

जैसे-जैसे हमारे देश में राष्ट्रीयता का भाव बढ़ता जायेगा वैसे ही वैसे हिंदी की राष्ट्रीय सत्ता भी बढ़ेगी। - श्रीमती लोकसुन्दरी रामन् ।

शब्दे मारिया मर गया शब्दे छोड़ा राज। जे नर शब्द पिछानिया ताका सरिया काज। - कबीर।

यदि स्वदेशाभिमान सीखना है तो मछली से जो स्वदेश (पानी) के लिये तड़प-तड़पकर जान दे देती है। - सुभाषचन्द्र बसु।

प्रसिद्धि का भीतरी अर्थ यशविस्तार नहीं, विषय पर अच्छी सिद्धि पाना है। - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

सरस्वती से श्रेष्ठ कोई वैद्य नहीं और उसकी साधना से बढ़कर कोई दवा नहीं है। - एक जपानी सूक्ति।

संस्कृत प्राकृत से संबंध विच्छेद कदापि श्रेयस्कर नहीं। - यशेदानंदन अखौरी।

राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिये आवश्यक है। - महात्मा गांधी।

शिक्षा का प्रचार और विद्या की उन्नति इसलिये अपेक्षित है कि जिससे हमारे -स्वत्व का रक्षण हो। - माधवराव सप्रे।

विधान भी स्याही का एक बिन्दु गिराकर भाग्यलिपि पर कालिमा चढ़ा देता है। - जयशंकर प्रसाद।

जीवित भाषा बहती नदी है जिसकी धारा नित्य एक ही मार्ग से प्रवाहित नहीं होती। - बाबूराव विष्णु पराड़कर।

वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। - मैथिलीशरण गुप्त।

हिन्दी उन सभी गुणों से अलंकृत है जिनके बल पर वह विश्व की साहित्यिक भाषाओं की अगली श्रेणी में सभासीन हो सकती है। - मैथिलीशरण गुप्त।

पराधीनता की विजय से स्वाधीनता की पराजय सहस्त्र गुना अच्छी है। - अज्ञात।

कलाकार अपनी प्रवृत्तियों से भी विशाल हैं। उसकी भावराशि अथाह और अचिंत्य है। - मैक्सिम गोर्की।

कला का सत्य जीवन की परिधि में सौन्दर्य के माध्यम द्वारा व्यक्त अखंड सत्य है। - महादेवी वर्मा।

क्षण प्रति-क्षण जो नवीन दिखाई पड़े वही रमणीयता का उत्कृष्ट रूप है। - माघ।

प्रसन्नता न हमारे अंदर है न बाहर वरन् वह हमारा ईश्वर के साथ ऐक्य है। - पास्कल।

हिन्दी भाषा और साहित्य ने तो जन्म से ही अपने पैरों पर खड़ा होना सीखा है। - धीरेन्द्र वर्मा।

साहित्यकार एक दीपक के समान है जो जलकर केवल दूसरों को ही प्रकाश देता है। - अज्ञात।

बिना मातृभाषा की उन्नति के देश का गौरव कदापि वृद्धि को प्राप्त नहीं हो सकता। - गोविन्द शास्त्री दुगवेकर।

विधाता कर्मानुसार संसार का निर्माण करता है किन्तु साहित्यकार इस प्रकार के बंधनों से ऊपर है। - बागीश्वरजी।

श्रद्धा महत्व की आनंदपूर्ण स्वीकृति के साथ-साथ पूज्य बुद्धि का संचार है। - रामचंद्र शुक्ल।

कविता सुखी और उत्तम मनुष्यों के उत्तम और सुखमय क्षणों का उद्गार है। - शेली।

भय ही पराधीनता है, निर्भयता ही स्वराज्य है। - प्रेमचंद।

वास्तविक महान् व्यक्ति तीन बातों द्वारा जाना जाता है-योजना में उदारता, उसे पूरी करने में मनुष्यता और सफलता में संयम। - बिस्मार्क।

रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाले शब्द का नाम काव्य है। - पंडितराज जगन्नाथ।

प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है। - रामचंद्र शुक्ल।

अंग्रेजी को भारतीय भाषा बनाने का यह अभिप्राय है कि हम अपने भारतीय अस्तित्व को बिल्कुल मिटा दें। - पं. कृ. रंगनाथ पिल्लयार।

अंग्रेजी का मुखापेक्षी रहना भारतीयों को किसी प्रकार से शोभा नहीं देता है। - भास्कर गोविन्द धाणेकर।

यह हमारा दुर्भाग्य है कि हमारी शिक्षा विदेशी भाषा में होती है और मातृभाषा में नहीं होती। - माधवराव सप्रे।

भाषा ही राष्ट्र का जीवन है। - पुरुषोत्तमदास टंडन।

कविता मानवता की उच्चतम अनुभूति की अभिव्यक्ति है। - हजारी प्रसाद द्विवेदी।

हिंदी स्वयं अपनी ताकत से बढ़ेगी। - पं. नेहरू।

भाषा विचार की पोशाक है। - डॉ. जोनसन।

हमारी देवनागरी इस देश की ही नहीं समस्त संसार की लिपियों में सबसे अधिक वैज्ञानिक है। - सेठ गोविन्ददास।

अंग्रेजी के माया मोह से हमारा आत्मविश्वास ही नष्ट नहीं हुआ है, बल्कि हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान भी पददलित हुआ है। - लक्ष्मीनारायण सिंह सुधांशु

आइए हम आप एकमत हो कोई ऐसा उपाय करें जिससे राष्ट्रभाषा का प्रचार घर-घर हो जाये और राष्ट्र का कोई भी कोना अछूता न रहे। - चन्द्रबली पांडेय।

जैसे जन्मभूमि जगदम्बा का स्वरूप है वैसे ही मातृभाषा भी जगदम्बा का स्वरूप है। - गोविन्द शास्त्री दुगवेकर।

हिंदी और उर्दू की जड़ एक है, रूपरेखा एक है और दोनों को अगर हम चाहें तो एक बना सकते हैं। - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद।

हिंदी आज साहित्य के विचार से रूढ़ियों से बहुत आगे है। विश्वसाहित्य में ही जानेवाली रचनाएँ उसमें हैं। - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

भारत की रक्षा तभी हो सकती है जब इसके साहित्य, इसकी सभ्यता तथा इसके आदर्शों की रक्षा हो। - पं. कृ. रंगनाथ पिल्लयार।

हिंदी संस्कृत की बेटियों में सबसे अच्छी और शिरोमणि है। - ग्रियर्सन।

मैं नहीं समझता, सात समुन्दर पार की अंग्रेजी का इतना अधिकार यहाँ कैसे हो गया। - महात्मा गांधी।

मेरे लिये हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। - राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन।

संस्कृत को छोड़कर आज भी किसी भी भारतीय भाषा का वाङ्मय विस्तार या मौलिकता में हिन्दी के आगे नहीं जाता। - डॉ. सम्पूर्णानन्द।

उर्दू और हिंदी दोनों को मिला दो। अलग-अलग नाम नहीं होना चाहिए। - मौलाना मुहम्मद अली।

राष्ट्रभाषा के विषय में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि यह राष्ट्र के सब प्रान्तों की समान और स्वाभाविक राष्ट्रभाषा है। - लक्ष्मण नारायण गर्दे।

प्रसन्नता न हमारे अंदर है न बाहर वरन् वह हमारा ईश्वर के साथ ऐक्य है। - पास्कल।

विदेशी भाषा के शब्द, उसके भाव तथा दृष्टांत हमारे हृदय पर वह प्रभाव नहीं डाल सकते जो मातृभाषा के चिरपरिचित तथा हृदयग्राही वाक्य। - मन्नन द्विवेदी।

जातीय भाव हमारी अपनी भाषा की ओर झुकता है। - शारदाचरण मित्र।

हिंदी अपनी भूमि की अधिष्ठात्री है। - राहुल सांकृत्यायन।

सारा शरीर अपना, रोम-रोम अपने, रंग और रक्त अपना, अंग प्रत्यंग अपने, किन्तु जुबान दूसरे की, यह कहाँ की सभ्यता और कहाँ की मनुष्यता है। - रणवीर सिंह जी।

वाणी, सभ्यता और देश की रक्षा करना सच्चा यज्ञ है। - ठाकुरदत्त शर्मा।

हिन्दी व्यापकता में अद्वितीय है। - अम्बिका प्रसाद वाजपेयी।

हमारी राष्ट्रभाषा की पावन गंगा में देशी और विदेशी सभी प्रकार के शब्द मिलजुलकर एक हो जायेंगे। - डॉ. राजेन्द्र प्रसाद।

नागरी की वर्णमाला है विशुद्ध महान, सरल सुन्दर सीखने में सुगम अति सुखदान। - मिश्रबंधु।

साहित्य ही हमारा जीवन है। - डॉ. भगवानदास।

मनुष्य सदा अपनी भातृभाषा में ही विचार करता है। - मुकुन्दस्वरूप वर्मा।

बिना भाषा की जाति नहीं शोभा पाती है। और देश की मार्यादा भी घट जाती है। - माधव शुक्ल।

हिंदी और उर्दू एक ही भाषा के दो रूप हैं और दोनों रूपों में बहुत साहित्य है। - अंबिका प्रसाद वाजपेयी।

हम हिन्दी वालों के हृदय में किसी सम्प्रदाय या किसी भाषा से रंचमात्र भी ईर्ष्या, द्वेष या घृणा नहीं है। - शिवपूजन सहाय।

भारत के विभिन्न प्रदेशों के बीच हिन्दी प्रचार द्वारा एकता स्थापित करने वाले सच्चे भारत बंधु हैं। - अरविंद।

राष्ट्रीय एकता के लिये हमें प्रांतीयता की भावना त्यागकर सभी प्रांतीय भाषाओं के लिए एक लिपि देवनागरी अपना लेनी चाहिये। - शारदाचरण मित्र (जस्टिस)।

समूचे राष्ट्र को एकताबद्ध और दृढ़ करने के लिए हिन्द भाषी जाति की एकता आवश्यक है। - रामविलास शर्मा।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनने के हेतु हुए अनुष्ठान को मैं संस्कृति का राजसूय यज्ञ समझता हूँ। - आचार्य क्षितिमोहन सेन।

हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल है, इसमें कोई संदेह नहीं। - अनंत गोपाल शेवड़े।

अरबी लिपि भारतीय लिपि होने योग्य नहीं। - सैयदअली बिलग्रामी।

हिन्दी को ही राजभाषा का आसन देना चाहिए। - शचींद्रनाथ बख्शी।

अंतरप्रांतीय व्यवहार में हमें हिन्दी का प्रयोग तुरंत शुरू कर देना चाहिए। - र. रा. दिवाकर।

हिन्दी का शासकीय प्रशासकीय क्षेत्रों से प्रचार न किया गया तो भविष्य अंधकारमय हो सकता है। - विनयमोहन शर्मा।

अंग्रेजी इस देश के लिए अभिशाप है, यह हर साल हमारे सामने प्रकट होता है, फिर भी उसे हम पूतना न मानकर चामुण्डमर्दिनी दुर्गा मान रहे हैं। - अवनींद्र कुमार विद्यालंकार।

हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने में प्रांतीय भाषाओं को हानि नहीं वरन् लाभ होगा। - अनंतशयनम् आयंगार।

संस्कृत के अपरिमित कोश से हिन्दी शब्दों की सब कठिनाइयाँ सरलता से हल कर लेगी। - राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन।

(अंग्रेजी ने) हमारी परम्पराएँ छिन्न-भिन्न करके, हमें जंगली बना देने का भरसक प्रयत्न किया। - अमृतलाल नागर।

मातृ-भाषा के प्रति - - भारतेंदु हरिश्चंद्र

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन ।
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय ।

निज भाषा उन्नति बिना, कबहुं न ह्यैहैं सोय
लाख उपाय अनेक यों भले करे किन कोय ।

इक भाषा इक जीव इक मति सब घर के लोग
तबै बनत है सबन सों, मिटत मूढ़ता सोग ।

और एक अति लाभ यह, या में प्रगट लखात
निज भाषा में कीजिए, जो विद्या की बात ।

तेहि सुनि पावै लाभ सब, बात सुनै जो कोय
यह गुन भाषा और महं, कबहूं नाहीं होय ।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार ।

भारत में सब भिन्न अति, ताहीं सों उत्पात
विविध देस मतहू विविध, भाषा विविध लखात ।

सब मिल तासों छांड़ि कै, दूजे और उपाय
उन्नति भाषा की करहु, अहो भ्रातगन आय ।

मुहावरे (अ,आ,अं,अः)

अक्ल का अंधा : मूर्ख, बेवकूफ
जैसा तुम समझतो हो वह अक्ल का अँधा नहीं।
अक्ल चरने जाना : समय पर बुद्धि का काम न करना।
मगरूर लड़की ! तेरी अक्ल कहीं घास चरने तो नहीं गई।
अक्ल ठिकाने लगना : होश ठीक होना।
फिर देखो कैसे चार दिन में सबकी अक्ल ठिकाने लगती है।
अपनी खिचड़ी अलग पकाना : सबसे अलग रहना।
आप लोग किसी के साथ मिलकर काम करना नहीं जानते, अपनी खिचड़ी अलग पकाते हैं।
आग-बबूला होना : गुस्सा होना।
लड़के को नकल करते देखकर गुरुजी आग बबूला हो गए।
आना - कानी करना : न करने के लिए बहाना करना।
मैं उससे जब पुस्तक माँगने लगा तो वह आना-कानी करने लगा।
आँख लगना : सो जाना।
मैं रात को पुस्तक लेकर बैठा था कि आँख लग गई।
आँख का तारा होना/ आँखों का तारा होना: बहुत प्रिय होना
सोहन अपनी माँ की आँखों का तारा है
अंक देना : आलिंगन करना।
प्रेम से वशीभूत वह बहुत देर तक अंक दिये रहा।
अंग - अंग ढीले होना : थका होना।
शाम को घर पहुंचते पहुंचते अंग-अंग ढीले हो चुके होते हैं।
अंग - अंग मुस्काना : रोम रोम से प्रसन्नता छलकना।
लक्ष्य प्राप्ति पर उसके अंग – अंग मुस्काने लगे।
अंग धरना : पहनना/धारण करना।
ऋत के अनुसार वस्त्र अंग धरने चाहिए।
अंग टूटना : शरीर में दर्द होना।
आज मेरा अंग-अंग टूट रहा है।
अंग लगना : हजम हो जाना/काम में आना।
रोज रोज के पकवान उसके अंग लग गये हैं।
अंग लगाना : लिपटना।
दिनों बाद मिले मित्र को उसने अंग लगा लिया।
अंग से अंग चुराना : संकुचित होना।
आज कल बाज़ारों में इतनी भीड़ होती है की चलते समय अंग से अंग चुराने पड़ते है।
अंगार सिर पर रखना : कष्ट सहना।
कर्महीन व्यक्ति के सिर पर अंगार रहते है।
अंगारे उगलना : कठोर बात कहना।
वह बातें क्या कर रहा था, मानो अँगारे उगल रहा था।
अंगारे बरसना : तेज धूप पड़ना।
जयेष्ठ माह में अंगारे बरसते हैं।
अंगारों पर लोटना : ईष्या से जलना।
सौतन को सामने देख वह अंगारों पर लोटने लगी।
अंगुठा चुसना : खुशामद करना / धीन होना।
स्वाभिमानी कभी किसीका अंगुठा नहीं चुसते।
अंचल पसारना : नम्रता से मांगना।
जरूरतमंद हर किसी के आगे अंचल पसारता है।
अंजर पंजर ढीले होना : पुर्जो का बिगड़ जाना/अभिमान नष्ट होना/ अंग अंग ढीले होना।
दस किलोमिटर चलते ही उसके तो अंजर पंजर ढीले हो गए।
अंटी बाज : दगाबाज।
सावधान रहना, वह अंटीबाज है।
अंटी में रखना : छिपाकर रखना।
सत्य कभी अंटी में नहीं रखा रहता।
अंधा बनना : जान-बूझकर किसी बात पर ध्यान न देना।
भाई, तुम्हारी मर्जी है, तुम जान-बूझकर अँधे बन रहे हो।

खांसी के लिए

[१] १०-१५ तुलसी के पत्ते और ८-१० काली मिर्च की चाय बनाकर पीने से खांसी-जुकाम व बुखार ठीक हो जाता है.
[२] मुलहठी,कत्था और बबूल की गोंद प्रत्येक दस ग्राम लेकर कूट-पीसकर कपडे से छान लें. अदरक के रस में २-३ घंटे घोंटकर चने के बराबर की गोलियां बना लें और १-१ गोली चूसते रहें.खांसी में आराम होगा.
[३] मुलहठी,काली मिर्च १ -१ तोला भून कर पीस लें और ढाई तोला पुराने गुड़ में मिला लें.मटर जितनी गोलियां बना लें और पानी के साथ सेवन करें. खांसी जड़ से ठीक हो जायेगी.

जुकाम के लिए

६ ग्राम अदरक के बारीक टुकड़े करें व ७ ग्राम काली मिर्च को कूट लें फिर बीस ग्राम पुराना गुड़ मिलाकर सबको ढाई सौ ग्राम  पानी में औटायें. जब चौथाई पानी रह जाए तो उतार कर छान लें और कुछ ठंडा करके पी जाएँ, २-३ दिन सेवन करने से जुकाम दूर हो जाएगा.

सत्य का आग्रह

काशी में विद्याध्ययन कर रहा एक छात्र एक दिन एक दुकान पर ताला खरीदने गया. एक  ताले की कीमत पूछने पर दुकानदार ने बताया इसकी कीमत दस आने है. लड़के ने देखा यह ताला तो बहुत हल्का है, उसने दुकानदार से कहा 'श्रीमान! सत्य कहूं तो मुझे इस  ताले की कीमत तो तीन आने ही लगती है पर आप कह रहे हैं तो आपकी बात ही सच माननी पड़ेगी'. यह कहकर छात्र ने बेमन से  दस आने दुकानदार को चुकाए और ताला लेकर चल दिया.
         लड़का प्रतिदिन उसी दुकान के सामने से होकर ही घूमने जाता था. एक दिन दुकानदार ने स्वयं   उसके सामने आकर कहा-"बेटा तुम्हारे सत्य के आग्रह के सामने मई झुक गया हूँ". ताला सचमुच ही  तीन आने का था, यह लो अपने बाकी के सात आने, कहकर दुकानदार छात्र को सात आने लौटा कर चल दिया और फिर जीवन में किसी को भी ना ठगने की प्रतिज्ञा कर ली.

सोमवार, 22 अगस्त 2011

दलित साहित्य नया भावबोध नये प्रतिमान

 डॉ. गोवर्धन बंजारा
दलित साहित्य की दृष्टि से अतीत एक स्याह पृष्ठ है, जहां सिर्फ अपमान, घृणा, द्वेष और तिरस्कार है। अतीत के आदर्श उसके लिए खोखले, झूठे एवं छद्मपूर्ण हैं।
दलितेतर, लेखकों की प्रतीतियों से दलित लेखकों की प्रतीतियों का स्वरूप कुछ भिन्न है। उनका परिप्रेक्ष्य भिन्न है। वर्तमान और अतीत से उनका संबंध भिन्न है। क्योंकि तथाकथित सवर्ण समाज ने सदियों से दलितों का आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि अनेक दृष्टियों से शोषण ही किया है- उन्हें दूर ही रखा है। फलत: उनकी अपनी अलग दुनिया बनी। उनका रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, जीवन-शैली, सौंदर्य की अवधारणा भी तथाकथित सवर्ण समाज से भिन्न बनी। उन्हें उनका अपना दु:ख अन्यों से अलग प्रतीत होना स्वाभाविक है। दलित साहित्यकार उन्हीं दु:खदर्द एवं तल्ख अनुभवों को परिवर्तनकामी चेतना के साथ साहित्य में अभिव्यक्त करता है तो उसके साथ उसका पूरा परिवेश-पूरा संसार आता है और यही उसकी प्रामाणिकता, जीवंतता और कलात्मकता का प्रमाण है। सांस्कृतिक विभिन्नताओं के रहते हुए मूल्यांकन के एक-समान प्रतिमान हो ही नहीं सकते। दलित साहित्य के सौंदर्य में काल्पनिक, रोमांटिक, रंगीनियाँ नहीं है बल्कि जीवन के बहुआयामी सच का खुरदरापन है। उसमें निहित नकार, निषेध और विद्रोह के माध्यम से समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का विकास ही उसके सौंदर्य के मानदण्ड हैं।
दलित साहित्य की अपनी निजी विशेषता है। वह दलितों के सदियों के संताप-दु:ख, दारिद्रय, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, अन्याय, अत्याचार का दाहक दस्तावेज है, नारकीय यंत्रणा है और ये यंत्रणाएँ दलितों के जन्म से ही शुरू हो जाती हैं। अन्यायपूर्ण भारतीय समाज व्यवस्था में अनेक दु:ख केवल इस वर्ण में जन्म लेने से ही जुड़ जाते हैं। जिनसे अन्य वर्ण के लोग मुक्त हैं।
दलित साहित्यिक विमर्श के अंतर्गत इसके सौंदर्यशास्त्र अथवा आस्वादन के प्रतिमानों को लेकर दलित एवं दलितेतर विद्वानों में काफी मत-मतांतर रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि एवं शरणकुमार लिम्बाले ने तो इस विषय पर एक-एक पुस्तक भी लिखी है-जिनमें दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र की कतिपय कसौटियों का भी निर्धारण हुआ है। दलित साहित्यिकों के द्वारा इस साहित्य के आस्वादन के लिए अलग सौंदर्यशास्त्र की मांग होती रही है। उनका मानना है कि परम्परावादी सौंदर्यशास्त्रीय मानदंडों-प्रतिमानों के आधार पर दलित साहित्य को नहीं समझा जा सकता है। दलितेतर विद्वानों का मानना है कि दलित वर्ग से आए लेखकों में लिखने की तड़प जागी है, इससे साहित्य के अनुभव-जगत और सोच में श्रीवृध्दि होगी, किन्तु उनकी कमजोरी को भी साहित्य की एक नवीन उपलब्धि मानकर, उसके मूल्यांकन का एक नया आधार खोजा जाए, यह उचित नहीं है। साहित्य में आरक्षण नहीं चल सकता। नितांत भिन्न इन विचारों पर अपनी टिप्पणी (राय) देने से पहले इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वस्तुत: दलित साहित्य के लिए जो अलग सौंदर्यशास्त्र की मांग होती है इसके पीछे क्या कारण हैं?
गौरतलब है कि दलित साहित्यकारों के लिए दलित साहित्य महज एक साहित्यिक आंदोलन मात्र नहीं है, किन्तु अपनी अस्मिता, अपनी पहचान एवं मुक्ति-संघर्ष का साहित्य है। इसीलिए साहित्य-निर्मित एवं मूल्यांकन की प्रक्रिया में वह सामाजिक-बोध और प्रतिबध्दता को महत्व देता है। अब उसे दया, करूणा या सहानुभूति नहीं, अपना अधिकार चाहिए। वह अपनी लड़ाई खुद लड़ना चाहता है और उन बर्बर परंपराओं के तिलस्म को तोड़ना चाहता है, जो सदा से रूढ़ और जर्जर होने पर भी सदैव श्रेष्ठ एवं पूज्यनीय रही है। इसी प्रकार पारंपरिक सौंदर्य-शास्त्र, काव्य-शास्त्र को भी सामंती मूल्यों की अभिव्यक्ति मानकर अपने लिए त्याज्य समझता है। इस संदर्भ में डॉ. शिवकुमार मिश्र का मत ध्यान देने योग्य है ''जिस काव्य-शास्त्र अथवा साहित्य-शास्त्र द्वारा निर्धारित प्रतिमानों से रस लेकर सदियों-सहस्राब्दियों से भारतीय रचनाशीलता विकसित और पल्लवित होती रही है, महान रचनाकारों की विश्व-विख्यात रचनाएं जिसकी कीर्तिपताका फहरा रही हैं, वह काव्य-शास्त्र या साहित्यशास्त्र भी अंतत: उसे कुलीन मानसिकता की देन है, जो हमारे सामाजिक विधान की भी सृष्टा है। इस काव्य-शास्त्र में अभिजनोचित रुचियों, रुझानों, संस्कारों और सौंदर्यबोध का ही तो वर्चस्व है। उच्च कुलोत्पन्न, धीरोदात्त व्यक्ति ही इसमें नायकत्व का अधिकारी कहा गया है। सौंदर्य के प्रतिमानों और भावों का गांभीर्य तथा उावलता भी यहां अभिजनोचित रुचियों के आधार पर तय की गई है। इसी प्रकार प्राचीन साहित्य-परम्परा पर प्रहार करते हुए श्री पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी कहते हैं- ''वर्ण-व्यवस्था के अमानवीय बंधनों ने शताबिद्यों से दलितों के भीतर हीनता भाव को पुख्ता किया है। धर्म और संस्कृति की आड़ में साहित्य ने भी इस भावना की नींव सुदृढ़ की है, जो समाज के अनिवार्य और अंतसंबंधों को खंडित करने में सहायक रहा है।''
वस्तुत: कला अपने आप में स्थिर और अपरिवर्तनशील नहीं बल्कि अस्थिर और परिवर्तनशील हैं। कला का स्वरूप असीमित और व्यापक होने के कारण उसकी एक निश्चित कसौटी पर साहित्य को परखना औचित्यपूर्ण नहीं है। बदलती संस्कृति और समाज के साथ साहित्य भी बदलता है। लेकिन यदि इनके साथ-साथ कला के प्रतिमान नहीं बदलते हैं तो साहित्य और समीक्षा के बीच संतुलित संबंध कैसे संभव है? आस्वाद के भिन्न-भिन्न स्तर एवं भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएं हैं। एक को जो आस्वादपरक लगे, वह दूसरे को भी आस्वादपरक लगे- यह आवश्यक नहीं। जैसे कि पाश्चात्य देशों में जहां सूर्यदर्शन दुर्लभ होता है, वहां धूप आनंद और सुख का प्रतीक मानी जाती है, किन्तु हमारे यहां ऐसा नहीं है। यहां तो धूप को सांसारिक दु:ख ताप एवं कष्ट के रूप में माना गया है। इसी प्रकार यूरोपीय देशों में शारीरिक सुन्दरता के जो मापदण्ड थे वे गोरों को केन्द्रों में रखकर बनाये गये थे। उदाहरणार्थ सुन्दर नाक का पैमाना तीखी और नुकीली नाक है, ऐसा इसलिए था कि गोरों की नाक नुकीली होती है। अत: कवि या कलाकार की कल्पना भी ऐसे नाक वाले स्त्री-पुरुषों को रचती रही। दूसरी ओर प्राय: सभी अश्वेत लोगों की नाक चौड़ी और फैली होती है, तो उनके लिए सुन्दरता के पैमाने में नाक की सुन्दरता के पैमाने क्या होंगे? क्या नुकीली और तीखी नाक की कल्पना बेमानी नहीं होगी। फिर अश्वेतों में तो कोई सुन्दर ही नहीं होगा। अत: सुन्दरता की कसौटी अपनी-अपनी संस्कृति और समाज के वैशिष्टय पर आधारित होनी चाहिए। अत: दलित साहित्य के आस्वादन के प्रतिमान उसी साहित्य में ढूंढ़ने होंगे। परम्परागत कसौटियां इसके साथ न्याय नहीं कर पायेंगी। इसीलिए तो शरणकुमार लिम्बाले अपनी प्रसिध्द पुस्तक दलित साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र लिखते हैं- किसी के लेखन को साहित्य कहना हो तो उस पर हमारे साहित्य की कसौटियां ही लागू होंगी, ऐसी भूमिका लेना सांस्कृतिक तानाशाही का लक्षण है। साहित्य की कसौटियां सभी कालों में स्थिर नहीं रहती बदलते काल के साथ साहित्य भी बदलता है और उसकी समीक्षा में भी बदलाव की सम्भावना होती है। रूढ़ साहित्यिक कसौटी के आधार पर नई साहित्यिक धारा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। युध्दरत आम आदमी की संपादिका रमणिका गुप्ता भी नए सौंदर्य शास्त्र को इन शब्दों में खारिज करती है- ''चूंकि ये अभिजात वर्ग जातीय अहम् और दंभ को अपना संस्कार और गुण मानते हैं, इसलिए कला, शिल्प भाषा-विन्यास, शैली-चमत्कार, मिथक और दुरूहता उनके सौंदर्यशास्त्र की कसौटी हैं जिनकी कोई दिशा नहीं है, केवल लक्ष्य है- आनंदरस, सुख-मदमस्ती-मदहोशी। वस्तु उनके लिए गौण है। अभिव्यंजना की शैली को माँज-माँजकर, पीतल को चमकाकर सोना साबित करने का छल इनके साहित्य का प्रमुख हिस्सा रहा है। वस्तु के नाम पर विषय संदर्भ के नाम पर इनके पास रहे हैं- राजा, जाति, धर्म या फिर युध्द, प्रेम और औरत।''
दलित साहित्य की अपनी निजी विशेषता है। वह दलितों के सदियों के संताप-दु:ख, दारिद्रय, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, अन्याय, अत्याचार का दाहक दस्तावेज है, नारकीय यंत्रणा है और ये यंत्रणाएँ दलितों के जन्म से ही शुरू हो जाती हैं। अन्यायपूर्ण भारतीय समाज व्यवस्था में अनेक दु:ख केवल इस वर्ण में जन्म लेने से ही जुड़ जाते हैं। जिनसे अन्य वर्ण के लोग मुक्त हैं। यही कारण है कि दलित साहित्य समीक्षा की रूढ़ कसौटियों, मानदंडों एवं सौंदर्यशास्त्र संकल्पनाओं को खारिज करते हुए अपने नये प्रतिमान गढ़ता है। Elener Zelliot के शब्दों में-
New anguage, new experiences, new sources, of poetic inspiration, new entrants in to a field previously dominted by high castes-these are all non-controversial accomplishments of Dalit Sahitya. There is however, much controversy. Crittics have asked, can there be Dalit Literature, regardless of subject? Can only Dalit write Dalit Literature? Can educcated ex, untouchables whose life style is now some what middle class be considered dalit? These in the Dalit school would say : Yes there is Dalit literature.”दलित साहित्य की दृष्टि से अतीत एक स्याह पृष्ठ है, जहां सिर्फ अपमान, घृणा, द्वेष और तिरस्कार है। अतीत के आदर्श उसके लिए खोखले, झूठे एवं छद्मपूर्ण हैं। दलितेतर, लेखकों की प्रतीतियों से दलित लेखकों की प्रतीतियों का स्वरूप कुछ भिन्न है। उनका परिप्रेक्ष्य भिन्न है। वर्तमान और अतीत से उनका संबंध भिन्न है। क्योंकि तथाकथित सवर्ण समाज ने सदियों से दलितों का आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि अनेक दृष्टियों से शोषण ही किया है- उन्हें दूर ही रखा है। फलत: उनकी अपनी अलग दुनिया बनी। उनका रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, जीवन-शैली, सौंदर्य की अवधारणा भी तथाकथित सवर्ण समाज से भिन्न बनी। उन्हें उनका अपना दु:ख अन्यों से अलग प्रतीत होना स्वाभाविक है। दलित साहित्यकार उन्हीं दु:खदर्द एवं तल्ख अनुभवों को परिवर्तनकामी चेतना के साथ साहित्य में अभिव्यक्त करता है तो उसके साथ उसका पूरा परिवेश-पूरा संसार आता है और यही उसकी प्रामाणिकता, जीवंतता और कलात्मकता का प्रमाण है। सांस्कृतिक विभिन्नताओं के रहते हुए मूल्यांकन के एक-समान प्रतिमान हो ही नहीं सकते। दलित साहित्य के सौंदर्य में काल्पनिक, रोमांटिक, रंगीनियाँ नहीं है बल्कि जीवन के बहुआयामी सच का खुरदरापन है। उसमें निहित नकार, निषेध और विद्रोह के माध्यम से समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का विकास ही उसके सौंदर्य के मानदण्ड हैं। सदियों से दबा आक्रोश शब्द बम बनकर फूटता है, तब भाषा और कला उसे सीमाबध्द करने में अक्षम हो जाती हैं। सच तो यह है कि दलित रचनाकार न तो लुक-छिपकर या घुमा-फिराकर बात कहने का हिमायती है। न आभिजात्य भाषा प्रयोग का और न ही कलात्मक प्रतीकों का। कल्पना और पाखंड पर आधारित पध्दति और मापदण्ड उसके लिए त्याज्य हैं
''जिंदगी सीने के लिए,
चमड़ा काटता है वह,
किसी की जेब या गला नहीं।''
अर्थात् दलित साहित्यकार अपने जीवनानुभवों को ऐसी भाषा में व्यक्त करता है, जिसमें भटकाव या उलझन नहीं, बल्कि एक सरलता, सहजता एवं स्पष्टता होती है। संप्रेषणीयता दलित साहित्य का एक महत्वपूर्ण आयाम है। जिन यातनाओं-संघर्षों से वह गुजरता है, सामाजिक शोषण की जिन व्यवस्थाओं से उसका सामना है, दलित साहित्य में वह पूरी तल्खी से व्यक्त हुआ है। देखिए कंवल भारती की ये काव्य पंक्तियाँ
''यह बताओ
बलात्कार की शिकार
तुम्हारी माँ की भाषा कैसी होगी?
ठाकुर की हवेली में दम तोड़ती
तुम्हारी बहिन के शब्द
क्या सुन्दर होंगे?''
यहाँ कवि व्यवस्था के नियंताओं पर सीधे प्रहार की मुद्रा में दिखाई देता है। एन. सिंह अपनी प्रसिध्द पुस्तक ''मेरा दलित चिंतन'' में लिखते हैं- दलित साहित्य का शब्द सौंदर्य प्रहार में है, सम्मोहन में नहीं। वह समाज और साहित्य में शताब्दियों से चली आ रही सड़ी-गली परम्पराओं पर बेदर्दी से चोट करता है। वह शोषण और अत्याचार के बीच हताश जीवन जीने वाले दलित को लड़ना सिखाता है, वह सिर पर पत्थर ढोने वाली मजदूर महिला को उसके अधिकारों के विषय में बतलाता है। ...उसके लिए जिस शाब्दिक प्रहार क्षमता की आवश्यकता है, वह उसमें है और यही दलित साहित्य का शिल्प-सौंदर्य है।''
दलित साहित्य में निहित यह आक्रोश नपुंसक नहीं है, बल्कि दमनकारी व्यवस्थातंत्र की नींव हिलाने वाला है और दलित एवं शोषित वर्ग के अधिकारों हेतु संघर्ष की चेतना जगाने वाला है। मौन, दहशत और भय का साम्राज्य देने वाले सामाजिक षड़यंत्र का पता चलते ही दलित साहित्यकारों को शब्द की शक्ति का एहसास हुआ और उसे अपने संघर्ष में कारगर हथियार के रूप में प्रयोग किया। अत: दलित साहित्य में आक्रोश की भूमिका अनिवार्य एवं अपरिहार्य है।
दलित साहित्य में नकार-निषेध विद्रोह-प्रतिकार की एक जबरदस्त अनुगूंज है। इस नकार-निषेध के पीछे स्वस्थ समाज-निर्माण की भावना है, जो समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व एवं न्याय जैसे जीवन-मूल्यों पर आधारित हो। यह नकार और निषेध यहां जाति-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी सोच एवं अन्याय के प्रति है। वह भाग्य और भगवान, हिन्दू धर्मशास्त्रों एवं हिन्दू संस्कृति की पहचान रखने वाले मिथकों, प्रतीकों एवं विचारों को नकारता है। नकार को दलित साहित्य के सौंदर्य का महत्वपूर्ण तत्व बतलाते हुए डॉ. महीपसिंह लिखते हैं- जब तक विषमता, अन्याय शोषण, दास्य आर्थिक तथा सांस्कृतिक भेदभाव और वर्ग कलहों से निर्मित अंतर्विरोध एवं अंतत: संघर्ष जारी रहेगा तब तक दलितों के क्रांतिकारी जीवन से तथा क्रांतिक्षम युगचेतना से निर्मित दलित साहित्य के प्राणतत्व नकार एवं क्रांति इन्हीं तत्वों पर टिके रहने वाले हैं, जिससे साहित्य को अस्मिता, सौंदर्य एवं सामर्थ्य प्राप्त होगा।''
दलित साहित्य के सौंदर्य का एक और महत्वपूर्ण आयाम है- वेदना-व्यथा, यंत्रणा, बैचेनी या विकलता। दलित साहित्य में दलितों की व्यथा-कथा एवं सदियों के संताप की अभिव्यक्ति हुई है। यह व्यथा-कथा दलितों का प्रलाप मात्र नहीं है, बल्कि समतामूलक समाज निर्माण के लिए हमें सोचने विचारने के लिए विवश करती है। यह वेदना-व्यथा मूल्यगर्भा होने से इसकी बैचेनी भी हमें आनंद प्रदान करती है। दलित साहित्य में दलितों की व्यथा-कथा का रोना-धोना ही नहीं है, बल्कि प्रेम, आनंद और सौंदर्य की भी अभिव्यक्ति है। अपनी लहलहाती फसल को देखकर दलित व्यक्ति भी प्रसन्न होता है। दलित दंपति भी परस्पर प्रेम और सौंदर्य से आकर्षित होते हैं, मीठे मजाक और मनुहार करते हैं। पलने में झूलते बालकृष्ण को देखकर माता यशोदा जिस प्रकार स्नेह बरसाती थी, उसी प्रकार दलित स्त्री भी अपने बच्चे को दुलारती है। परंतु सौंदर्य, आनंद और प्रेम यहां जीवन-संघर्षों और कर्म में है।
दलित लेखन अपने बाप-दादाओं और स्वयं अपने जातीय और वर्गीय अपमान तथा नारकीय यंत्रणा के भोक्ता रहे हैं। अपने भोगे हुए तल्ख अनुभवों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति दलित साहित्य में हुई है। दलित साहित्य में मैं की अनुभूति (अपमान, तिरस्कार, वेदना-व्यथा) हम की अनुभूति है। यह दलित साहित्य की अपनी एक अलग पहचान है। स्वानुभूति की भांति परानुभूति भी स्वागतेय है, बशर्ते कि उसमें ईमानदारी हो और यथास्थिति को बदलने की सच्ची छटपटाहट हो।
दलित साहित्य पर फूहड़ता और अनगढ़ता का आरोप लगाया जाता है, परन्तु यह अनगढ़ता ही तो उसकी विशेषता है। उसका सौंदर्य है। गमलों में सजे फूल-पौधों का अपना एक सौंदर्य है। बाग-बगीचों में कटे-छंटे, निश्चित आकार के पेड़-पौधों का अपना एक सौंदर्य है, उसी प्रकार विस्तृत वनस्थली का अपना एक अलग सौंदर्य है और कदाचित गमलों तथा बाग-बगीचे के पेड़-पौधों से अधिक चित्ताकर्षक सौंदर्य। सच तो यह है कि अपनी अनगढ़ता के रहते हुए भी दलित साहित्य ने अपनी संवेदना को पूरी सिद्दत से व्यक्त किया है और यही इसका खरा सौंदर्य है। दलित साहित्य को पृथक सत्ता दिलाने वाली उसकी कुछ पैमाने निर्धारित किए जा सकते हैं, वे हैं- निषेध, नकार, आक्रोश, विद्रोह, अस्मिताबोध, स्वाभिमान, अस्तित्व की निरंतर तलाश, समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय की कामना, सामाजिक उत्थान, आर्थिक भौतिक उत्कर्ष, मानवीय अधिकारों की जांच पड़ताल, सपाटबयानी-संप्रेषणीयता-सहजता, यातना, वेदना और बेचैनी, अनुभूति की प्रामाणिकता आदि-आदि। दलित साहित्य के सौंदर्य-शास्त्र के उपर्युक्त तत्वों का निर्धारण इसके अब-तक के ऐतिहासिक विकासक्रम को दृष्टिपथ में रखकर किया गया है जो अपने आप में अंतिम नहीं है। आने वाले समय में अनेक परिवर्तन और परिवर्धन की आवश्यकता है।
इस प्रकार कला का स्वरूप असीम और व्यापक होने से उसकी निश्चित कसौटी बनाना मुश्किल ही नहीं असंभव है क्योंकि साहित्य या कला के ऐतिहासिक विकासक्रम में समयांतर पर नए-नए भाव-बोध, नई-नई वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित होती रही है। उसी के अनुरूप अभिव्यक्ति के नये-नये औजारों का इस्तेमाल होता रहा है। अत: समय समय पर ये कसौटियां भी बदलती रही हैं। जैसे कि छायावाद अपनी कुछ नवीन कसौटियां ले आया। छायावाद के अस्त होते ही ये कसौटियां फिर बदलीं। परंपरित काव्य शास्त्र की कसौटियां आधुनिक साहित्य पर लागू नहीं की जा सकती। अगर ऐसा नहीं होता तो मुक्तिबोध को नए साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र नामवर सिंह को कविता के नए प्रतिमान जैसी पुस्तकें न लिखनी पड़ती। स्वयं प्रेमचंद जी को भी यह महसूस होने लगा था कि साहित्य को समझने और उसके आस्वादन के लिए नए मानदण्डों की आवश्यकताएं हैं और सुन्दरता की परंपरागत कसौटियां अब ज्यादा कारगर नहीं रह गई हैं। जबकि उस समय दलित साहित्य का उदय भी नहीं हुआ था। तात्पर्य यह कि साहित्य में जब-जब नई चेतना से नया कुछ लिखा गया तब-तब बनी बनाई या पूर्ववर्ती कसौटियां बेमानी सिध्द हुई हैं। दलित साहित्य भी हिन्दी में नवीन चेतना लेकर आया है, जिसमें अत्यंत विशुध्द जीवनानुभव रूपायित हो रहा है।
समीक्षा से सामान्यत: यह अपेक्षा रहती है कि वह साहित्य रूपी लता की पोषिका बने। समीक्षा साहित्य लता के पोषण के अनुकूल तभी बन सकती है, जब समीक्षक कवि की दृष्टि एवं उद्देश्यों को दृष्टिपथ में रखे। अर्थात् जो साहित्य जिस उद्देश्य से रचा गया हो, उसी के आधार पर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। दलित साहित्य का उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना नहीं है। वह कार्य के लिए प्रवृत्त करने वाला साहित्य है। वर्ण और जातिप्रथा के आधार पर फैलाई गई विषमता के विरुध्द उसने संघर्ष की भूमिका अपनाई है। यह संघर्ष ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ है और हिन्दी का सौंदर्य-शास्त्र संस्कृत से प्रभावित है,  अत: ये कसौटियां दलित साहित्य के मूल्यांकन करने के लिए देखना यह चाहिए कि कलाकार में सामाजिक प्रतिबध्दता है या नहीं, उसकी रचना में स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा एवं न्याय आदि जीवनमूल्यों का उत्कर्ष है या नहीं और पाठकों को उन कारणों पर धावा बोलने की सोच शक्ति प्रदान कराती है। या नहीं। शरणकुमार लिम्बाले के शब्दों में कहें तो - जो कलाकृति अधिकाधिक दलित चेतना जागृत करेगी वह कलाकृति श्रेष्ठ है।''
(व्याख्याता, एच.के.आर्ट्स कॉलेज अहमदाबाद, गुजरात)
साभार: भारती दलित साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश, उज्जैन  की मासिक पत्रिका आश्वस्त से [साभार-देशबंधु]