नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

''हिन्द स्वराज'' : सौ साल बाद

महात्मा गांधी की वैचारिक दृष्टि को प्रस्तुत करने वाली पुस्तक ''हिन्द स्वराज'' के प्रकाशन के सौ साल हो गए हैं। कुछ महीनों से कतिपय स्वयंभू गांधीवादी चिन्तक यह दावा करते दिख रहे हैं कि ''हिन्द स्वराज'' आज भी भारत के लिए शत-प्रतिशत प्रासंगिक है और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आजादी के बाद उसे कार्यान्वित न कर उनकी सैध्दान्तिक विरासत को नकारा है। आइए, देखें कि यह प्रचार कहां तक सही है।
''हिन्द स्वराज'' मूलत: गुजराती में लिखी गई थी। इसका हिन्दी अनुवाद 1921 में आया जिसकी प्रस्तावना में गांधी जी ने लिखा: ''यह पुस्तक मैंने 1909 में लिखी थी। 12 वर्षों के अनुभव के बाद भी मेरे विचार जैसे उस समय थे वैसे ही आज हैं।'' इसके ठीक लगभग एक चौथाई सदी बाद 5 अक्टूबर 1945 को उन्होंने नेहरू को लिखा कि वे पुस्तक में प्रस्तुत मूल विचारो पर अब भी कायम हैं। कहना न होगा कि साम्प्रदायिकता, साध्य एवं साधन दोनों की पवित्रता, आदि मुद्दों पर उनके विचार नही बदले परन्तु आजाद भारत आर्थिक निर्माण का कौन सा मार्ग अपनाए इस प्रश्न पर उनका दृष्टिकोण पहले जैसा लोचहीन नहीं रहा।
जिस समय इस पुस्तक की रचना हुई थी उस समय वे दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थे। मगर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से उनका लगाव बना हुआ था। वे जब भी स्वदेश आते भारतीय नेताओं से मिलकर विचार विमर्श करते थे। एक बार लंदन होकर दक्षिण अफ्रीका जाते हुए उन्होंने ''हिन्द स्वराज'' की रचना संवाद के रूप में की और अपने द्वारा सम्पादित पत्र 'इंडियन ओपनियन' में प्रकाशित किया। काका कालेलकर ने पुस्तक के 1959 के संस्करण में लिखा है ''दक्षिण अफ्रीका के भारतीय लोगों के अधिकारों के लिए सतत् लडते हुए गांधी जी 1909 में लंदन गए थे। वहां कई क्रांतिकारी स्वराज्य प्रेमी भारतीय नवयुवक उन्हें मिले। उनसे गांधी जी की जो बातचीत हुई उसकी का सार गाधंी जी ने एक काल्पनिक संवाद में ग्रथित किया है।''
गांधी जी ने रेखांकित किया कि अंग्रेजी शासन का खात्मा ही भारत का अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। वस्तुत: अंग्रेजों द्वारा कायम की गई व्यवस्था का विकल्प विकसित किया जाए। काका कालेलकर के शब्दों में ''गांधी जी का कहना था कि भारत से केवल अंग्रेजों को उनके राज्य से हटाने से भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज्य नही मिलेगा। हम अंग्रेजों को हटा दें और उन्हीं की सभ्यता और उन्हीं के आदर्श को स्वीकार करें तो हमारा उध्दार नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए। भारत के लिखे पढे चन्द लोग पश्चिम के मोह में फंस गए हैं।''
गांधी जी ने अहिंसा, साम्प्रदायिक एकता, सविनय अवज्ञा द्वारा अन्याय के प्रतिरोधक, अपरिग्रह, हिन्दी, सामाजिक समरसता और साध्य के साथ साधन की पवित्रता पर जोर दिया। वे ऐसी अर्थव्यवस्था चाहते थे जिससे रोजगार के अवसर अधिकतम बढें अौर संवृध्दि का लाभ बहुसंख्य लोगों को मिले और उनका आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवनस्तर ऊंचा उठे।
पुस्तक को लेकर मतवैमिन्य आरंभ से ही रहा। श्री गोपालकृष्ण गोखले उसकी स्थापनाओं से सहमत न थे। काका कालेलकर के अनुसार ''स्व. गोखले जी ने इस किताब के विवेचन को कच्चा कहकर उसे नापसंद किया था और आशा की थी कि भारत लौटने के बाद गांधी जी स्वयं इस किताब को रद्द कर देंगे।''
नेहरू जी और गांधी जी के बीच ''हिन्द स्वराज''को लेकर वर्षों तक बहस के बाद भी कोई सहमति नहीं बन सकी। नेहरू ने जनवरी 1928  में गांधी जी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने रेखांकित किया कि वे उनके प्रति अपार श्रध्दा रखते हैं और मानते हैं कि वे ही ऐसे नेता हैं जो देश को स्वतंत्र करा सकते हैं। इसके बावजूद ''हिन्द स्वराज'' में व्यक्त उनके विचारों से उनकी कोई सहमति नहीं है। गांधी जी ने उत्तर में कहा कि नेहरू को पूरी स्वतंत्रता है कि वे उनसे सहमत या असहमत हों चाहें तो खुला वैचारिक युध्द भी छेड सकते हैं।
वर्ष 1945 में नेहरू ने ''हिन्द स्वराज'' को यथार्थ से परे बतलाया और गांव एवं ग्रामीण जीवन के महिमामंडल पर आपत्ति की। उन्हीं के शब्दों में ''संक्षेप में कहें तो, हमारे सामने सवाल सत्य बनाम असत्य या अहिंसा बनाम हिंसा का नहीं है। यह मानकर चलना चाहिए कि सच्चा सहयोग और शांतिपूर्ण तरीके हमारे लक्ष्य बनें और जो समाज इसमें मददगार हो उसकी स्थापना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। गांव आमतौर से बौध्दिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से पिछडा होता है और इस पिछडे पर्यावरण में कोई प्रगति नहीं हो सकती। संभवत: सर्ंकीणमना व्यक्ति अधिक मिथ्यावादी और हिंसक होंगे।''
खाद्य पदार्थ, कपडा, आवास, शिक्षा और सफाई के मामले में आत्मनिर्भरता देश और हर निवासी के लिए होनी चाहिए और इस लक्ष्य को जल्द से जल्द पाने की कोशिश हो। परिवहन के आधुनिक साधनों तथा अन्य आधुनिक तकनीकी एवं प्रौद्योगिक उपलब्धियों को प्राप्त किए बिना हम आगे नहीं बढ सकते। भारी उद्योगों के बिना हम प्रगति नही कर सकते। देश की परिस्थितियों को देखते हुए भारी एवं हल्के उद्योगों के बीच तालमेल बैठाना जरूरी है। इसके लिए बिजली अपरिहार्य है।
नेहरू मानते थे कि देश की स्वतंत्रता और उसकी सुरक्षा आधुनिक प्रौद्योगिकी पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास के बिना असंभव है। वर्तमान वैश्विक संदर्भ में कोई भी देश वैज्ञानिक अनुसंधान के सुदृढ़ आधार के बिना आगे नहीं बढ़ सकता।
हमारे यहां करोडो लोगों के लिए महलों की व्यवस्था नहीं हो सकती। उन्हें सादे मगर आरामदेह आवास मिलें। शहरों में भी भीड-भाड बढ रही है और दुर्गुण पनप रहे हैं। हमें इसे रोकना होगा। ग्रामीण जीवन को सुविधा सम्पन्न और रोजगार के प्रचुर अवसरों से युक्त करे। जिससे शहरों की ओर पलायन रुके।
नेहरू का दृष्टिकोण ''हिन्द स्वराज'' की तुलना में वर्तमानकाल के लिए अधिक उपयुक्त है। सूचना, संचार और परिवहन के क्षेत्र में हुए परिवर्तनों को देखते हुए हम चाहकर भी शेष विश्व से अलग नहीं रह सकते। हम शेष विश्व में पनपने वाले विचारों, आर्थिक, सामाजिक परिवर्तनों और जीवनशैली में होने वाले बदलावों से चाहे अनचाहे प्रभावित होंगे। हममें उनको अपनाने की ललक बढेग़ी जिसे दबाना असंभव होगा। रेलवे, हवाई यात्रा, इंटरनेट आदि के साथ कुछ दुर्गुण भी पनपते हैं जिनके कारण हम उनका परित्याग नहीं कर सकते बल्कि उनसे बचाव का इंतजाम करते हुए आगे बढ सकते हैं।
पुराने जमाने के ग्रामीण जीवन का कितना भी महिमामंडन क्यों न किया जाए वह प्रगति का वाहक नहीं बन सकता। अगर हम गांधी जी की कल्पना की अर्थव्यवस्था आज बनाते हैं तो उसे अमेद्य बाडे से बाकी दुनिया से अलग रखना होगा जो सर्वथा असंभव है। विदेशी वस्तुओं और विचारों का प्रवेश किसी न किसी तरह होगा और उनके संभावित प्रभावों से बचा नहीं जा सकेगा।
''हिन्द स्वराज'' अपने बहुमूल्य विचारों और उच्च भावनाओं के बावजूद वर्तमान समय में प्रासंगिक नहीं है। ऐसा कहना किसी भी प्रकार से गांधी जी का अनादर नहीं है। उदाहरण के लिए हम गीता को ले सकते हैं जिसमें कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि विजयी होने पर राज्य और मारे जाने पर स्वर्ग मिलेगा। इस प्रकार युद्ध कतई घाटे का सौदा नहीं हो सकता। यह बात तब ठीक थी जब युध्दबंदी की अवधारणा न की। अर्थव्यवस्था की तत्कालीन स्थिति में युध्दबंदी को दास बनाकर काम पर नहीं लगाया जा सकता था। यह तीसरा विकल्प आज मौजूद है। अत: कृष्ण की हम जितनी भी पूजा क्यों न करें, उनका उपर्युक्त कथन न्यायशास्त्र की दृष्टि से हेत्वाभास से ग्रस्त है क्योंकि वह द्विपाश के फंदे में फंसा है।
अंत में उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर कह सकते हैं कि गांधी जी तर्क को काफी अहमियत देते थे। सब खींचतान के बावजूद नेहरू ने गांधी जी से अपनी बात मनवाने में सफलता प्राप्त कर ली। उपलब्ध दस्तावेजों से स्पष्ट है कि अप्रैल 1940 में कभी नेहरू, गांधी जी और अर्थशास्त्री डा. वी.के.आर.वी. राव के बीच स्वतंत्रता के बाद भारत में अर्थव्यवस्था के संभावित स्वरूप को लेकर गहन चर्चा हुई। राजकुमारी अमृत कौर ने पूरी बहस को रिकार्ड किया। उनके अनुसार नेहरू ने स्वतंत्र भारत में औद्योगिक अर्थव्यवस्था की स्थापना का विशेष रूप से समर्थन किया जिसके जरिए उत्पादन बढा कर जनता का जीवन स्तर ऊंचा होगा और देश शक्तिशाली बनेगा। इससे देश की सुरक्षा पुख्ता होगी और स्वतंत्रता बनी रहेगी। नेहरू ने गांधी जी से कहा: मैं कुटीर उद्योगों को उस हद तक आगे ले जाना चाहता हूं जहां तक हम लोग ले जा सकते हैं। परन्तु मैं औद्योगिकी कारण के बिना भारत की कल्पना नहीं कर सकता। ये उद्योग ही कुटीर उद्योगों की सहायता करेंगे। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर आप अपने बड़े़ उद्योगों को दबाकर बैठे रहेंगे तो दूसरे देश आपके ऊपर चढ़ बैठेंगे।
अंतत: गांधी जी ने यह वक्तव्य दिया कि औद्योगिकीकरण को लेकर उनके और नेहरू के बीच कोई मतभेद नही है। उन्हें ''भारत के औद्योगीकरण और बड़े उद्योगों को लेकर कोई समस्या नहीं है। करांची प्रस्ताव का अनुमोदन करता है, जिसे तैयार करने में मेरा भी योगदान था।'' कहना न होगा कि जो नेहरू द्वारा गांधी जी के साथ वैचारिक धोखे की बात कर रहे हैं वे देश की जनता को धोखे में रखना चाहते हैं। साभार-गिरीश मिश्र [देशबंधु]

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