विज्ञान कथा क्या है?
विज्ञान कथा लेखक आइजक आसिमोव ने अपनी पुस्तक ´आरिमोस ऑन साइंस फिक्शन` में विज्ञान कथा की परिभाषा करते हुए लिखा है, ´विज्ञान कथा साहित्य की वह विधा है, जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी में सम्भावित परिवर्तनों के प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्ति देती है।` आसिमोव ने हर राजनेता, व्यवसायी और नागरिक को ´विज्ञान कथा की दृष्टि` से सोचने की सलाह दी है।
विज्ञान लेखक डा. शिवगोपाल मिश्र, विज्ञान मासिक के विज्ञान कथा विशेषांक (नवम्बर 1984-जनवरी १९८५) में लिखते हैं, ´विज्ञान कथा इतना व्यापक शब्द है कि उसमें उपन्यास कथा कहानी दोनों का समावेश हो सकता है। विज्ञान गल्प तो साइंस फिक्शन का पर्याय हो सकता है, किन्तु जब हम विज्ञान कथा का प्रयोग करते हैं, तो उसमें छोटी कहानी बड़ी कहानी, गल्प, उपन्यास सभी आते हैं। आज विज्ञान लेखन में कहानी का प्रयोग एक तो वस्तुत: कथा के लिए होता है तथा दूसरा धातु की कहानी, आविष्कारों की कहानी, आदि के लिए होता है। नि:संदेह यहां पर कहानी का प्रयोग धातु, आविष्कार, आदि के विषय में जानकारी प्रस्तुत करने के लिए है, कथा तत्वों से युक्त कहानी के लिए नहीं`।
विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में छोटी कहानियों केलिए आमतौर पर कथा तथा लम्बी कहानी के लिए उपन्यास का प्रयोग किया जाता है। नॉवेल के लिए उपन्यास का प्रयोग बंगला में 1858 से होने लगा था, सम्भवत: वहीं से इसे हिन्दी में लिया गया। प्रेमचन्द युग (1918) से पहले हिन्दी में दो तरहह के उपन्यास लिखे जाते थे, एक तो सामाजिक जागरण और दूसरे, तिलिस्म, रहस्य, रोमांच, साहस और मनोरंजन सम्बंधी होते थे। समझा जाता है कि तिलिस्म उपन्यासों से ही हिन्दी में वैज्ञानिक उपन्यासों की विधा का जन्म हुआ।
हिन्दी में प्रमुख विज्ञान कथाएं और उपन्यास
हिन्दी विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में विज्ञान कथा एक प्रभावशाली तथा रोचक विधा है, लेकिन आज भी वह उतनी विकसित नहीं हो पाई है, जितनी कि आज बीसवीं शताब्दी के अंतिम एक दशक तक हो जानी चाहिए थी। वस्तुत: यदि माना जाए तो 1888 में ही हिन्दी वैज्ञानिक उपन्यासों की शुरूआत हो गई थी, जब देवकी नन्दन खत्री ने ´चन्द्रकांता` लिखा था। इसके बाद उन्होंने तिलिस्म विषयक चंद्रकांता संतति, 24 भाग (1896, नरेन्द्र मोहिनी (1892), वीरेन्द्र वीर (1895), कुसुम कुमारी (1899), काजर की कोठरी (1902), अनूठी बेगम (1905) तथा भूतनाथ (अधूरा 1906), आदि लिखे।
तत्पश्चात् हरेकृष्ण जौहर ने भी तिलिस्मी लेखन में अपना नाम जोड़ा। किशोरी लाल गोस्वामी का तिलिस्मी शीशमहल (1905) इसी परम्परा का उपन्यास है। आगे देवकीनन्दन खत्री के पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने वैज्ञानिक आविष्कारों के आधार पर रहस्य की सृष्टि करते हुए प्रतिशोध (1925), लालपंजा (1925), रक्त मंडल (1926), आदि उपन्यास लिखे। उनके अन्य वैज्ञानिक उपन्यास हैं- सुफेद शैतान, सुवर्ण रेखा, स्वर्गपरी, सागर सम्राट, साकेत, काला चोर, बलिदान, कलंक कालिमा, संसार चक्र, माया तथा आकृति विज्ञान। इन सभी में विज्ञान सम्बंधी विभिन्न बातों का रोचक समावेश मिलता है।
आधुनिक विज्ञान उपन्यास की शुरूआत 1953 से हुई जब डा. सम्पूर्णानन्द ने ´पृथ्वी से सप्तिर्ष मण्डल` नामक लघु उपन्यास लिखा। उन्होंने लिखा है, ´हिन्दी में वैज्ञानिक कहानी लिखने का चलन अभी नहीं है और हिन्दी वांड़मय में यह बड़ी कमी है`। 1956 में एक बड़ा वैज्ञानिक उपन्यास, डा. ओम प्रकाश शर्मा ने प्रस्तुत किया, नाम था मंगल यात्रा। समीक्षकों ने लिखा है कि नि:संदेह यह हिन्दी में पहला वैज्ञानिक उपन्यास है, जो विदेशी लेखकों की टक्करी का है। उन्होंने जीवन और मानव, पांच यमदूत और समय के स्वामी, आदि उपन्यास लिखे हैं। यहां आचार्य चतुरसेन का उपन्यास ´खग्रास` तथा राहुल सांकृत्यायन का उपन्यास विस्मृति के गर्भ में उल्लेखनीय हैं। आरम्भ में विज्ञान कथा लेखन में जगपति चतुर्वेदी का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
सरस्वती के जुलाई 1900 अंक में केवल प्रसाद सिंह की विज्ञान कथा ´चन्द्र लोक की यात्रा` तथा 1908 के एक अंक में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की कहानी ´आश्चर्यजनक घंटी` प्रकाशित होने का उल्लेख है। विशाल भारत में श्रीराम शर्मा और बनारसीदास चतुर्वेदी की विज्ञान कथाएं प्रकाशित हुइ। 1918 में शिव सहाय चतुर्वेदी ने जूल्स वर्न की फाइव वीक्स इन ए बैलून का ´बैलून विहार` नामक अनुवाद किया। 1991 में जूल्स वर्न की ए जर्नी टु द इंटीरियन ऑव अर्थ का हिन्दी रूपांतर भूगर्भ की सैर छपा। 1930 के आसपास सरस्वती और विशाल भारत में डा. नवल बिहारी मिश्र, डा. ब्रजमोहन गुप्त और यमुनादत्त वैष्णव ´अशोक` की विथान कथाएं प्रकाशित हुइ।
सन् 1949 में अशोक जी ने विशाल भारत में आंख प्रतिरोपण पर चक्षुदान उपन्यास धारावाहिक लिखा। 1947 में उनका संग्रह अस्थिपिंजर छपा, जिसमें वैज्ञानिक की पत्नी, दो रेखाएं तथा अस्थिपिंजर नामक तीन कथाएं शामिल थीं। उनका दूसरा संग्रह है अप्सरा का सम्मोहन। इसमें वैज्ञिनिक का निमंत्रण, अप्सरा का सम्मोहन, न्यूटनिया का यात्री, अपना प्रतिरूप, आदि कहानियां हैं। उनके वैज्ञानिक उपन्यास हैं- अन्न का आविष्कार (1956), अपराधी वैज्ञानिक (1968), हिम सुन्दरी (1971)।
हिन्दी विज्ञान कथाओं में चिकित्सक डा. नवल बिहारी मिश्र का विशेष योगदान रहा। उन्होंने सरस्वती और विशाल भारत में विज्ञान कथा लिखीं। 1960 के दशक में उन्होंने विज्ञान लोक तथा विज्ञान जगत में नियमित कथाएं लिखीं। उनका उपन्यास अपराध का पुरस्कार 1962-63 में विज्ञान जगत में धारावाहिक प्रकाशित हुआ। उनके प्रमुख कथा संग्रह हैं- अधूरा आविष्कार, आकाश का राक्षस, हत्या का उद्देश्य (1970)। उनकी प्रमुख कहानियां हैं- शुक्र ग्रह ही यात्रा, पाताल लोक की यात्रा, उड़ती मोटरों का रहस्य, सितारों के आगे और भी है जहां, अदृश्य शत्रु, आदि।
सन् 1950 में विष्णु दत्त शर्मा ने प्रतिध्वनि तथा आकर्षण, आदि कथाएं लिखीं। रमेश वर्मा ने अंतरिक्ष स्पर्श (1963), सिंदूरी ग्रह की यात्रा, अंतरिक्ष के कीड़े (1969) लिखीं। 1976 में कैलाश शाह का कथा संग्रह मृत्युजयी प्रकाशित हुआ। इसमें 9 कहानियां हैं- पूर्वजों की खोज, मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया, मशीनों का मसीहा, असफल विश्वामित्र, आदि। उन्होंने दानवों का देश, अंतरिक्ष के पास, मकड़ी का जाल उपन्यास भी लिखे और हिन्दी विज्ञान लेखन में अपना उल्लेखनीय स्थान बनाया।
डा. रमेश दत्त शर्मा ने उच्च स्तरीय कथाएं लिखी हैं। प्रमुख हैं- प्रयोगशाला में उगते प्राण (ज्ञानोदया 1967), हरा मानव (1981), हंसोड़ जीन (विज्ञान प्रगति, 1984), आदि। पिछले दिनों उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान, मनीला (फीजी) में रहकर, धान के बारे में रोचक जानकारी देने वाली एक यथार्थपरक विज्ञान कथा लिखी है, नाम है- धान की कहानी। जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है। प्रेमानंद चंदोला की विज्ञान कथाएं, चीखती टप-टप और खामोश आहट में संग्रहीत हैं। उनकी कहानियां वनस्पति मानव और घर का जासूस विज्ञान प्रगति में तथा सच्चाई का पेंडुलम, विज्ञान में छपीं। राजेश्वर गंगवार ने शीशियों में बंद दिमाग, केसर ग्रह, साढ़े सैंतीस वर्ष, सप्तबाहु आदि कथाएं लिखीं।
श्री देवेन्द्र मेवाड़ी की वैज्ञानिक उपन्यासिका 1979 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी। उन्होंने क्रायोबायलोजी पर ´भविष्य` नामक कथा लिखी। उनकी अन्य कहानियां हैं- गुड बाय मिस्टर खन्ना (1985) तथा एक और युद्ध। अरविन्द मिश्र की कहानियां, गुरु दक्षिणा (अमृत प्रभात, 1985), मिस रोबिनो, एक और क्रौंच वध (धर्मयुग 1989), देहदान (जनसत्ता, अगस्त 1989) छपीं। चांद का मुन्ना (आनन्द प्रकाश जैन), हरे जीवों के चंगुल में (राममूर्ति), काल भैरव का कोप (मनोहर लाल वर्मा), रोबो मेरा दोस्त (शुकदेव प्रसाद), आदि कथाएं भी उल्लेखनीय हैं। लेखक ने भी ज्ञान का तबादला (वैज्ञानिक, जुलाई-सितम्बर 1986), वैज्ञानिक पत्नी की मुसीबत (जिज्ञासा, जुलाई-दिसम्बर 1988), डाल-डाल : पात-पात, रोबोटों की दुनियां, प्रदूषण महात्म्य (वैज्ञानिक, जनवरी-मार्च 1982), वरदान (विज्ञान, नवम्बर 84-85), आदि विज्ञान कथाएं लिखीं।
समयानुसार अनेक विज्ञान कथाओं और उपन्यासों के हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए। प्रमुख कहानी पत्रिका सारिका ने सितम्बर 1985 अंक में अनेक हिन्दी कथाओं के साथ ही अरुण साधु लिखित ´विस्फोटक` (मराठी) और मोहन संजीवन लिखित ´मैं मरना चाहता हूं (तमिल) के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किए थे। रासेल कासेन के उपन्यास द साइलेंट स्प्रिंग का प्रेमानन्द चंदोला द्वारा किया गया अनुवाद, नवनीत में छपा। गुणाकार मुले ने आसिमोव का ´शिशु का रोबोट` तथा विक्टोर कोमारोव का ´दूसरी धरती` तथा रमेश दत्त शर्मा ने गोर विडाल के ´क्षुद्रग्रह` उपन्यासों का हिन्दी रूपांतर किया।
बंगला से सत्यजित राय की 13 विज्ञान कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया गया है। समीर गांगुली का बाल वैज्ञानिक उपन्यास जेड जुइंग की डायरी मेला पत्रिका में, समरजित कर की कहानी एक यंत्र की खातिर (धर्मयुग 1984), डा. जयंत विष्णु नार्लीकर की अक्स, धूमकेतु (धर्मयुग), अरुण साधु की एक आदमी के उड़ने की कहानी (धर्मयुग 1988) में प्रकाशित हुइ। डा. बाल फोंडके की कहानियां, तख्ती टूट गई और अनोखा खून पराग में तथा अन्य कहानियां विज्ञान प्रगति में छपी हैं। दिलीप साल्वी की अंग्रेजी कहानियों के हिन्दी अनुवाद भी पराग मं रोबोट चालाक होते जा रहे हैं, रोबोट डींगमार होते हैं, नामक शीर्षकों के साथ प्रकाशित हुई हैं। प्रख्यात विज्ञान कथाकार डा. जयंतु विष्णु नार्लीकर की बहुत ही रोचक और रोमांचक विज्ञान कथा अंतरिक्षमें विस्फोट धारावाहिक रूप से धर्मयुग में प्रकाशित हुई।
क्रमश: हिन्दी विज्ञान कथा व उपन्यास लेखन में छुटपुट स्वैच्छिक प्रयास होते रहे। फलस्वरूप प्रो. दिवाकर के उड़न तश्तरी, नक्षत्रों का युद्ध, अंतरिक्ष के पार, आदिऋ डा. हरिकृष्ण देवसरे का लावेनी, सत्येन्द्र शरद का प्रोफेसर सारंग, आदि उपन्यास सामने आए। कुछ विदेशी उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद भी किया गया।
इसके बाद ऐसा नहीं हुआ कि विज्ञान कथाओं की बाढ़ आ गई हो, उसी पूर्वगति से यह सिलसिला जारी रहा। अनेक सामान्य पत्रिकाओं ने भी विज्ञान कथाएं निकालनी शुरू कीं। कुछ पत्रिकाओं ने विज्ञान कथा विशेषांक भी निकाले, इनमें प्रमुख हैं, नन्दन (1969), पराग (दिसम्बर 1975), विज्ञान प्रगति (जनवरी 1978), धर्मयुग (6 अप्रैल 1980), मेला (25 फरवरी 1981), विज्ञान (नवम्बर 84-जनवरी 1985)। बाल पत्रिका सुमन सौरभ ने फरवरी 1993 में आविष्कार कथा विशेषांक निकाला। माना जाता है कि वस्तुत: भारत में प्राचीन काल में विज्ञान का ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा था, लेकिन अनेक संस्कृतियों में उतार चढ़ाव और सामाजिक उथल पुथल के कारण उसके कुछ अवशेष ही रह गए। पुराणों, उपनिषदों, आदि ग्रंथों में विज्ञान के ऐसे पहलुओं पर कथाएं उपलब्ध हैं, जिनको आज आधुनिक विज्ञान का समर्थन प्राप्त है। इन ग्रंथों में वैज्ञानिक चमत्कारों का तो वर्णन है, पर चमत्कार की तकनीकों के बारे में वे प्राय: मौन हैं। शायद इसीलिए इन गं्रथों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता सीधे स्वीकार नहीं की जा सकी।
इनमें इन्द्र के वज्र, शिव के पाशुपत, विष्णु के नारायणशास्त्र, ब्रह्मा के ब्रह्मास्त्र, आदि विनाशकारी अस्त्रों का वर्णन है। ब्रह्मास्त्र के बारे में महाभारत में जो वर्णन किया गया है वह परमाणु अस्त्रों से काफी समानता रखता है। ब्रह्मास्त्र के बारे में लिखा है, ´इसे चलाने पर हजारों सूर्यों की भांति बिजलियां चमकने लगती थीं, इसके प्रभाव से धूल भरी आंधियां चलती थीं, और यह धूल लम्बे समय तक छाई रहती थी, ब्रह्मास्त्र गिरने वाले स्थान पर अनेक वर्षों तक खेती नहीं होती थी।` एक अन्य कथा में भगवान शंकर के पुत्र गणेश का सिर कट जाने के बाद उनके शरीर में नवजात हाथी का सिर प्रत्यारोपित का वर्णन है। कौरवों के जन्म की कथा भी विचित्र है, ये 100 पुत्र माता गंधारी के गर्भ से भ्रूण निकाल कर उसे विभक्त करके 100 अलग अलग घड़ों में विकसित किए जाने का वर्णन है, जिसे आज परखनली शिशु तकनीक ने सम्भव कर दिया है। इसी प्रकार रक्तबीज से पूर्ण शरीर बनने की कहानी की तुलना क्योलिंग से की जा सकती है।
प्राचीन भारतीय साहित्य इस तरह के आधुनिक विज्ञान से काफी कुछ समान्ता रखने वाले प्रकरणों से भरा पड़ा है। इसीलिए प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक कार्ल सागान ने लिखा है, कि मिथक में विज्ञान ढूंढ़ना हो तो भारत के पुराणों को पढ़ना चाहिए। यह प्राय: निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है कि हिन्दी में आधुनिक विज्ञान कथाएं, पश्चिमी अंग्रेजी विज्ञान कथाओं से प्रभावित रहीं, तथापि भारतीय पुराणों में विर्णत कथाओं का भी हिन्दी विज्ञान कथाओं पर प्रभाव नकारा नहीं जा सकता।
विश्व विज्ञान कथाएं
उन्नीसवीं सदी के आरंभ और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के मध्यकाल में दुनिया भर में अनेक विज्ञान कथाएं लिखीं गइ±, जिन्होंने न केवल भविष्य केविज्ञान को परिलक्षित किया बल्कि समाज के वैज्ञानिक विकास को नियोजित दिशा भी दी। एडगर एलन पो (1809-1849) ने अमेरिका में विज्ञान कथा लेखन की शुरूआत की। जासूसी उपन्यासों के प्रणेता अंग्रेजी लेखक सर आर्थर कानन डायल (1859-1930) के उपन्यासों का प्रभाव आधुनिक विज्ञान कथाओं पर पड़ा। ऐसे प्रमाण मिलते हैं, कि उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल में यूरोपीय देशों में विज्ञान कथाएं चरमोत्कर्ष पर थीं।
सन् 1820 में पश्चिमी देशों में प्रभावी विज्ञान कथा लेखन आरंभ हुआ। आगे 1898 में प्रसि( विज्ञान कथा लेखक एच.जी. वेल्स का विश्व प्रसि( विज्ञान उपन्यास ´द वार ऑव द वल्र्डस` छपा, वेल्स ने ही ´द टाइम मशीन` और ´द इनविजिविल मैन` लिखकर इस क्षेत्र में धूम मचाई। जार्ज आरबेल का प्रख्यात विज्ञान उपन्यास ´1984` सन् 1949 में प्रकाशित हुआ। इसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी रूपांतर हिन्दी पॉकेट बुक्स, दिल्ली ने प्रकाशित किया है, अनुवादक हैं, राधानाथ चतुर्वेदी। जूल्स वर्न (1829-1905) के ´20,000 लीग्स अण्डर सी`, ´जर्नी टू द सेंटर ऑव अर्थ` उपन्यास प्रौद्योगिकी के विकास की सटीक भविष्यवाणी के रूप में प्रसि( हुए। विज्ञान कथाओं में व्यंग्य उपन्यास में आदर्श विश्व समाज की कल्पना की गई है।
जर्मन खगोलविद् केपलर (1571-1630) ने चांद की स्वप्न यात्रा का रोचक वर्णन किया था। वैसे आधुनिक विज्ञान फैंटसी (कल्पना) का जन्म 1705 में डेनियल डेफी के ´द कंसोलिडेटर` के रूप में हुआ। इसमें अंतरिक्ष यात्रा का कथानक लिया गया था। तत्पश्चात् वेल्स के नवआयामी प्रस्तुतीकरण के बाद आर. एल. स्टीवेंसन (1850-1894) के ´द स्टोरी ऑव डा. जेकिल एंड मि. हाइड` की सराहना हुई। 19वीं सदी के आरंभ में कृत्रिम जीवोत्पत्ति के कथानक पर ´फ्रेंकेस्टीन` लिखा गया, लेखिका थीं- मैरी शेली। एल्डूस हक्सले ने 1932 में परखनली शिशु पर उपन्यास लिखा। आणुविक जीव विज्ञान पर डेविड शेरविक के ´वार्न इन हिज ओन इमेज`, ´क्लोनिंग ऑव द मैन` प्रसि( हैं। kaarsen की कृति ´द साइलेंट स्प्रिंग तथा डेविड शील्तजर की ´द प्रोफेसी` प्रदूषण पर लिखी गई हैं।
सांपों के जीवन पर ´द स्नेक` 1978 में जौन गोडी ने लिखी। आधुनिक युग के प्रसि( विज्ञान कथाकार हैं- रे ब्रैडवरी, पाल एण्डरसन, यूरी लीन्स्टर, राबर्ट हीनलेन, जॉन क्रिस्टोफर, आदि। प्रगति प्रकाशन रूप से 1979 में अंग्रेजी में एक विज्ञान कथा संग्रह निकाला है, शीर्षक है ´साइंस फिक्शन- इंग्लिश एंड अमेरिकन जोत हालडमैन, फ्रेड्रिक पोल, श्रीलंका के आर्थर सी क्लार्क, आयर लैंड के हैरी हैरिसन, आदि शामिल हैं, जिन्होंने अधिकतर अंतरिक्ष, समय यात्रा और ऐसी ही विधाओं पर कथाएं लिखीं।
सोवियत रूप में भी विज्ञान कथा लेखन काफी विकसित है। रूसी विज्ञान लेखन में एक समर्पित नाम है- एलेक्जेंडर वेलियेव, जिन्होंने पूरा जीवन इसी कार्य में लगाया। वेलियेव की अंतरिक्ष कथाएं- ´द एयरशिप स्टार केट` एवं ´स्काई गेस्ट` प्रसिद्ध हुइ। 1935 मं उन्होंने आणुविक ऊर्जाघर- ´द मिरैकुलस आई` नामक उपन्यास लिखा। रूरी पत्रिका सोवियत लिट्रेचर ने 1984 में विज्ञान कथा विशेषांक प्रकाशित किया। इसकी प्रमुख कहानियां हैं, द डिज़ायर मशीन ( अकार्दि और स्त्रुगात्स्की), ए टोटल मिस्ट्री (ब्लादीमिर शेफनर) बार्न टु फ्लाई (दमित्री बाइलेंकिन), फ्लावर्स ऑव द अर्थ (मिखाइल पुरबोव), आदि। रूसी से अंग्रेजी अनुवादित विज्ञान कथा संकलनों, ´जनी। एक्रास थ्री वल्र्डस` ´एव्रीथिंग बट लव` ´मॉलीकुलर कैफे`, आदि हैं। येरेमेई पार्नोव का ´बिग बैंग लव` और अनाटोली दुनींनीप्राव का ´क्रेब्स वाक ऑन आइलैंड` प्रकाशित हुए। परमाणु विध्वंस विषय को लेकर रूप में अनेक वैज्ञानिक उपन्यास लिखे गए, जिनकी अमेरिका आलोचकों ने आलोचना की है।
विश्व में विज्ञान कथाओं का काफी भंडार बढ़ता जा रहा है। हिन्दी में भी ऐसे नए नए प्रयोग होते रहने चाहिए। ह्यमगो गन्र्सबैक द्वारा सम्पादित विश्व की प्रथम विज्ञान कथा पत्रिका है ´अमेज़िंग स्टोरीज़।` ह्यूगो गन्र्सबैक विद्युत इंजीनियर थे। उन्होंने 1928 में अमेजिंग स्टोरीज पत्रिका शुरू की थी।
हिन्दी में विज्ञान कथा लेखन
कथा कहानी के जरिये कोई बात आसानी से समझ में आ जाती है और जब बात बच्चों को समझाने की हो तो यह विधा और भी सरल और सहज लगती है। शायद इसीलिए हमारे यहां नीति की बातों को भी कहानी द्वारा समझाने की परम्परा रही है। पंचतंत्र की कथाओं का भी यही उद्देश्य था। इनमें दिए गए उद्धहरण के अनुसार महिलारोप्य नगर के राजा अमरशक्ति के अज्ञानी पुत्रों को समझदार बनाने के लिए श्री विष्णु शर्मा ने संस्कृत साहित्य में अमर पंचतंत्र की कथाएं रचीं। आज विज्ञान के दौर में बच्चों को विज्ञान की बातें आसानी से समझाने के लिए विज्ञान कथाओं का सहारा लिया जाने लगा है। विज्ञान कथाएं समाज में न केवल विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों और भविष्य की तस्वीर उभरने में भी उपयोगी हैं। इसलिए यदि हमें समय के साथ चलना है तो अधुनातन विषयों पर सुबोध और रोचक विज्ञान कथाएं लिखनी होंगीं। रूसी विज्ञान कथा लेखक दिमित्री बाइलेंकिन लिखते हैं, ´इसका महत्व नहीं है कि विज्ञान कथाएं मनोरंजन करती हैं या नहीं, महत्व तो इस बात का है कि वे लोगों को युग की जटिलता से आगाह करा सकती हैं, और उनकी प्रवृत्ति को मोड़ भी सकती हैं, विज्ञान कथाओं का सामाजिक उद्देश्य व्यापक एवं उत्तरदायित्व है, क्योंकि इनमें भविष्य का दर्शन किया जा सकता है।` दरअसल विज्ञान कथाएं विज्ञान के पाठकों के साथ ही विज्ञान न जानने वालों को भी अपनी ओर आकिर्षत करती हैं, इसलिए विज्ञान साहित्य की इस विशा में विज्ञान के प्रचार की अद्वितीय क्षमात निहित है। अत: इसे सीखने सिखाने की तकनीक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
विज्ञान कथा लिखने में प्राय: दो खास कठिनाइयां आती हैं, पहली है पृष्ठभूमि सामान्य कहानी में कथानक में प्रयुक्त शब्दों की पृष्ठभूमि नहीं बनानी पड़ती, जैसे, यदि वह रिवाल्वर लिखता है, तो पाठकों के सामने तत्काल रिवाल्वर का दृश्य घूम जाता है, परंतु विज्ञान कथा में ऐसा नहीं है, विज्ञान कथाकार यदि कथा में पातालवाहन नामक काल्पनिक शब्द का प्रयोग करे तो उसे बताना होगा कि पातालवाहन उनकी कल्पना में क्या है, कैसा बना है तथा काम कैसे करता है, तभी पाठक उस कथा को सही अर्थों में हृदयंगम कर सकेगा, अन्यथा नहीं। दूसरी कठिनाई की ओर संकेत करते हुए ऑसिमोव लिखते हैं कि विज्ञान कथा का अधिकांश भाग तो अपरिचित परिवेश से पाठकों का तादात्म्य स्थापित करने में ही खर्च हो जाता है, जिसके कारण विज्ञान कथा में पात्रों का चारित्रिक विकास प्राय: सम्भव नहीं हो पाता है। हिन्दी विज्ञान कथा लेखन में इस पर ध्यान दिया जाना नि:संदेह महत्वपूर्ण होगा।
विज्ञान कथाएं प्राय: तीन तरह से लिखी जाती हैं: (1) ऐसी कहानियां जिनमें लेखक की कल्पना, वैज्ञानिक प्रगति का सहारा लेकर आगे बढ़ती है, ऐसे वांगमय में विज्ञान के केवल एक दो तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता हैं (2) ऐसी कहानियां जो वैज्ञानिक उपलब्धियों की रोचक गाथा मात्र होती हैं, इनमें कहानी बहाना मात्र होती है, असल उद्देश्य विज्ञान का प्रचार होता है। इनमें लेखक उन्हीं बातों की चर्चा करता है जिनको विज्ञान सम्भव मानने लगता हैं (3) ऐसी विज्ञान कथाओं में प्रौद्योगिक पृष्ठभूमि के कारण सांस्कृतिक मूल्यों में हुए परिवर्तन की झांकी होती है, आज की समस्याओं के हल के साथ ही जीवन के मूल्य और आदर्श बनाए रखने का आग्रह होता है।
विज्ञान कथाओं में सत्य कथाओं और आत्म कथाओं का लगभग अभाव सा है। हिन्दी में कुछ वैज्ञानिक सत्यकथाएं अप्रैल 1980 के धर्मयुग में छपीं हैं। जिनमें से ´वैज्ञानिकों ने सुलझाई पहेली` प्रमुख है। इसमें एक लड़की को लेकर विवाद था, कि उसके असली माता पिता वे हैं, जिनके पास वह थी, या वे जिन्होंने अपनी पुत्री के अपहरण का दावा किया था। इसका समाधान सीरम वैज्ञानिक परीक्षणों से किया गया। हिन्दी में ऐसी सत्य विज्ञान कथाओं को लोग अधिक पसंद करते हैं। भारतीय वैज्ञानिक सालिम अली ने अंग्रेजी में ´द फॉल ऑव ए स्पैरो` नामक अपनी आत्मकथा लिखी है, पर हिन्दी में शायद ही किसी वैज्ञानिक ने आत्मकथा लिखने में पहलें की हों।
विज्ञान शिक्षक श्री शचीन्द्र नाथ चक्रवर्ती अपने विद्यार्थियों को विज्ञान, बोलचाल के रूप में समझाते थे, और गृहकार्य के रूप में प्राय: दर्पण और लेंस के बीच एक संवाद जैसी बातें लिखने को देते थे। स्वाभाविक है बच्चों में इस विधा से विज्ञान पढ़ने का शौक चौगुना हो गया था। इसी प्रकार उन्होंने ´धातुओं की सभा` लिखा, जिसका मंचल इलाहाबाद में किया गया। विज्ञान और लेखन की उर्वरा शक्ति को विकसित करने के लिए इस परम्परा को आगे बढ़ाया जा सकता है।
विज्ञान कथा लिखने के लिए कोई बना बनाया सटीक फार्मूला तो नहीं है, पर यह उतना कठिन भी नहीं है, जितना कि आम लेखक समझ लेते हैं। वस्तुत: हिन्दी विज्ञान कथा लेखन के आवश्यक तत्व हैं, भाषा पर अधिकार, विज्ञान का ज्ञान, सार्थक कल्पना शक्ति, और उसे रोचकतापूर्वक अभिव्यक्त करने की क्षमता। इन सभी तत्वों की मिली जुली रचना का नाम विज्ञान कथा है।
देश में विज्ञान कथा लेखन प्रकाशन के उन्नयन हेतु ´भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति` का गठन फैजाबाद (उ.प्र.) में किया गया है। समिति ने डा. राजीव रंजन उपाध्याय और डा. अरविन्द मिश्र के सम्पादन में देश की विज्ञान कथाओं को समर्पित पहली पत्रिका ´विज्ञान कथा` आरम्भ की है। इसी प्रकार वेल्लोर में ´इंडियन एसोसिएशन फॉर साइंस फिक्शन स्टडीज` की स्थापना की गई है। हाल ही में ´विज्ञान कथा : पहले, अब और आगे` विषय पर प्रथम राष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन राविप्रौसंप द्वारा उक्त संस्थाओं के साथ मिलकर वाराणसी में किया गया। इस अवसर पर एक ´बनारस दस्तावेज` भी जारी किया गया, जो विज्ञान कथाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा। विज्ञान लेखक शुकदेव प्रसाद के सम्पादन में विज्ञान कथाओं के इतिहास और विकास का लेखा जोखा दो खंडों में प्रकाशित किया गया है। इंटरनेट माध्यम का इस्तेमाल करते हुए विज्ञान कथाओं पर ब्लॉग्स और एक ई-ग्रुप भी चलाया जा रहा है, जिसकी पहल विज्ञान कथा लेखक डा. अरविन्द मिश्र ने की है। हाल ही में एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी के सम्पादन में ´कल्किआन` नामक देश की पहली ई-विज्ञान कथा पत्रिका kalkion.com भी हिन्दी और अंग्रेजी में आरम्भ की गयी है। ये सभी गतिविधियां देश में विज्ञान कथा विधा के उन्नयन के अच्छे संकेत प्रतीत होते हैं।
-- डा. मनोज पटैरिया
निदेशक (वैज्ञानिक ´एफ`)
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद्
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, टैक्नॉलोजी भवन, नया महरौली मार्ग, नई दिल्ली-110016
विज्ञान कथा लेखक आइजक आसिमोव ने अपनी पुस्तक ´आरिमोस ऑन साइंस फिक्शन` में विज्ञान कथा की परिभाषा करते हुए लिखा है, ´विज्ञान कथा साहित्य की वह विधा है, जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी में सम्भावित परिवर्तनों के प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्ति देती है।` आसिमोव ने हर राजनेता, व्यवसायी और नागरिक को ´विज्ञान कथा की दृष्टि` से सोचने की सलाह दी है।
विज्ञान लेखक डा. शिवगोपाल मिश्र, विज्ञान मासिक के विज्ञान कथा विशेषांक (नवम्बर 1984-जनवरी १९८५) में लिखते हैं, ´विज्ञान कथा इतना व्यापक शब्द है कि उसमें उपन्यास कथा कहानी दोनों का समावेश हो सकता है। विज्ञान गल्प तो साइंस फिक्शन का पर्याय हो सकता है, किन्तु जब हम विज्ञान कथा का प्रयोग करते हैं, तो उसमें छोटी कहानी बड़ी कहानी, गल्प, उपन्यास सभी आते हैं। आज विज्ञान लेखन में कहानी का प्रयोग एक तो वस्तुत: कथा के लिए होता है तथा दूसरा धातु की कहानी, आविष्कारों की कहानी, आदि के लिए होता है। नि:संदेह यहां पर कहानी का प्रयोग धातु, आविष्कार, आदि के विषय में जानकारी प्रस्तुत करने के लिए है, कथा तत्वों से युक्त कहानी के लिए नहीं`।
विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में छोटी कहानियों केलिए आमतौर पर कथा तथा लम्बी कहानी के लिए उपन्यास का प्रयोग किया जाता है। नॉवेल के लिए उपन्यास का प्रयोग बंगला में 1858 से होने लगा था, सम्भवत: वहीं से इसे हिन्दी में लिया गया। प्रेमचन्द युग (1918) से पहले हिन्दी में दो तरहह के उपन्यास लिखे जाते थे, एक तो सामाजिक जागरण और दूसरे, तिलिस्म, रहस्य, रोमांच, साहस और मनोरंजन सम्बंधी होते थे। समझा जाता है कि तिलिस्म उपन्यासों से ही हिन्दी में वैज्ञानिक उपन्यासों की विधा का जन्म हुआ।
हिन्दी में प्रमुख विज्ञान कथाएं और उपन्यास
हिन्दी विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में विज्ञान कथा एक प्रभावशाली तथा रोचक विधा है, लेकिन आज भी वह उतनी विकसित नहीं हो पाई है, जितनी कि आज बीसवीं शताब्दी के अंतिम एक दशक तक हो जानी चाहिए थी। वस्तुत: यदि माना जाए तो 1888 में ही हिन्दी वैज्ञानिक उपन्यासों की शुरूआत हो गई थी, जब देवकी नन्दन खत्री ने ´चन्द्रकांता` लिखा था। इसके बाद उन्होंने तिलिस्म विषयक चंद्रकांता संतति, 24 भाग (1896, नरेन्द्र मोहिनी (1892), वीरेन्द्र वीर (1895), कुसुम कुमारी (1899), काजर की कोठरी (1902), अनूठी बेगम (1905) तथा भूतनाथ (अधूरा 1906), आदि लिखे।
तत्पश्चात् हरेकृष्ण जौहर ने भी तिलिस्मी लेखन में अपना नाम जोड़ा। किशोरी लाल गोस्वामी का तिलिस्मी शीशमहल (1905) इसी परम्परा का उपन्यास है। आगे देवकीनन्दन खत्री के पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने वैज्ञानिक आविष्कारों के आधार पर रहस्य की सृष्टि करते हुए प्रतिशोध (1925), लालपंजा (1925), रक्त मंडल (1926), आदि उपन्यास लिखे। उनके अन्य वैज्ञानिक उपन्यास हैं- सुफेद शैतान, सुवर्ण रेखा, स्वर्गपरी, सागर सम्राट, साकेत, काला चोर, बलिदान, कलंक कालिमा, संसार चक्र, माया तथा आकृति विज्ञान। इन सभी में विज्ञान सम्बंधी विभिन्न बातों का रोचक समावेश मिलता है।
आधुनिक विज्ञान उपन्यास की शुरूआत 1953 से हुई जब डा. सम्पूर्णानन्द ने ´पृथ्वी से सप्तिर्ष मण्डल` नामक लघु उपन्यास लिखा। उन्होंने लिखा है, ´हिन्दी में वैज्ञानिक कहानी लिखने का चलन अभी नहीं है और हिन्दी वांड़मय में यह बड़ी कमी है`। 1956 में एक बड़ा वैज्ञानिक उपन्यास, डा. ओम प्रकाश शर्मा ने प्रस्तुत किया, नाम था मंगल यात्रा। समीक्षकों ने लिखा है कि नि:संदेह यह हिन्दी में पहला वैज्ञानिक उपन्यास है, जो विदेशी लेखकों की टक्करी का है। उन्होंने जीवन और मानव, पांच यमदूत और समय के स्वामी, आदि उपन्यास लिखे हैं। यहां आचार्य चतुरसेन का उपन्यास ´खग्रास` तथा राहुल सांकृत्यायन का उपन्यास विस्मृति के गर्भ में उल्लेखनीय हैं। आरम्भ में विज्ञान कथा लेखन में जगपति चतुर्वेदी का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
सरस्वती के जुलाई 1900 अंक में केवल प्रसाद सिंह की विज्ञान कथा ´चन्द्र लोक की यात्रा` तथा 1908 के एक अंक में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की कहानी ´आश्चर्यजनक घंटी` प्रकाशित होने का उल्लेख है। विशाल भारत में श्रीराम शर्मा और बनारसीदास चतुर्वेदी की विज्ञान कथाएं प्रकाशित हुइ। 1918 में शिव सहाय चतुर्वेदी ने जूल्स वर्न की फाइव वीक्स इन ए बैलून का ´बैलून विहार` नामक अनुवाद किया। 1991 में जूल्स वर्न की ए जर्नी टु द इंटीरियन ऑव अर्थ का हिन्दी रूपांतर भूगर्भ की सैर छपा। 1930 के आसपास सरस्वती और विशाल भारत में डा. नवल बिहारी मिश्र, डा. ब्रजमोहन गुप्त और यमुनादत्त वैष्णव ´अशोक` की विथान कथाएं प्रकाशित हुइ।
सन् 1949 में अशोक जी ने विशाल भारत में आंख प्रतिरोपण पर चक्षुदान उपन्यास धारावाहिक लिखा। 1947 में उनका संग्रह अस्थिपिंजर छपा, जिसमें वैज्ञानिक की पत्नी, दो रेखाएं तथा अस्थिपिंजर नामक तीन कथाएं शामिल थीं। उनका दूसरा संग्रह है अप्सरा का सम्मोहन। इसमें वैज्ञिनिक का निमंत्रण, अप्सरा का सम्मोहन, न्यूटनिया का यात्री, अपना प्रतिरूप, आदि कहानियां हैं। उनके वैज्ञानिक उपन्यास हैं- अन्न का आविष्कार (1956), अपराधी वैज्ञानिक (1968), हिम सुन्दरी (1971)।
हिन्दी विज्ञान कथाओं में चिकित्सक डा. नवल बिहारी मिश्र का विशेष योगदान रहा। उन्होंने सरस्वती और विशाल भारत में विज्ञान कथा लिखीं। 1960 के दशक में उन्होंने विज्ञान लोक तथा विज्ञान जगत में नियमित कथाएं लिखीं। उनका उपन्यास अपराध का पुरस्कार 1962-63 में विज्ञान जगत में धारावाहिक प्रकाशित हुआ। उनके प्रमुख कथा संग्रह हैं- अधूरा आविष्कार, आकाश का राक्षस, हत्या का उद्देश्य (1970)। उनकी प्रमुख कहानियां हैं- शुक्र ग्रह ही यात्रा, पाताल लोक की यात्रा, उड़ती मोटरों का रहस्य, सितारों के आगे और भी है जहां, अदृश्य शत्रु, आदि।
सन् 1950 में विष्णु दत्त शर्मा ने प्रतिध्वनि तथा आकर्षण, आदि कथाएं लिखीं। रमेश वर्मा ने अंतरिक्ष स्पर्श (1963), सिंदूरी ग्रह की यात्रा, अंतरिक्ष के कीड़े (1969) लिखीं। 1976 में कैलाश शाह का कथा संग्रह मृत्युजयी प्रकाशित हुआ। इसमें 9 कहानियां हैं- पूर्वजों की खोज, मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया, मशीनों का मसीहा, असफल विश्वामित्र, आदि। उन्होंने दानवों का देश, अंतरिक्ष के पास, मकड़ी का जाल उपन्यास भी लिखे और हिन्दी विज्ञान लेखन में अपना उल्लेखनीय स्थान बनाया।
डा. रमेश दत्त शर्मा ने उच्च स्तरीय कथाएं लिखी हैं। प्रमुख हैं- प्रयोगशाला में उगते प्राण (ज्ञानोदया 1967), हरा मानव (1981), हंसोड़ जीन (विज्ञान प्रगति, 1984), आदि। पिछले दिनों उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान, मनीला (फीजी) में रहकर, धान के बारे में रोचक जानकारी देने वाली एक यथार्थपरक विज्ञान कथा लिखी है, नाम है- धान की कहानी। जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है। प्रेमानंद चंदोला की विज्ञान कथाएं, चीखती टप-टप और खामोश आहट में संग्रहीत हैं। उनकी कहानियां वनस्पति मानव और घर का जासूस विज्ञान प्रगति में तथा सच्चाई का पेंडुलम, विज्ञान में छपीं। राजेश्वर गंगवार ने शीशियों में बंद दिमाग, केसर ग्रह, साढ़े सैंतीस वर्ष, सप्तबाहु आदि कथाएं लिखीं।
श्री देवेन्द्र मेवाड़ी की वैज्ञानिक उपन्यासिका 1979 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी। उन्होंने क्रायोबायलोजी पर ´भविष्य` नामक कथा लिखी। उनकी अन्य कहानियां हैं- गुड बाय मिस्टर खन्ना (1985) तथा एक और युद्ध। अरविन्द मिश्र की कहानियां, गुरु दक्षिणा (अमृत प्रभात, 1985), मिस रोबिनो, एक और क्रौंच वध (धर्मयुग 1989), देहदान (जनसत्ता, अगस्त 1989) छपीं। चांद का मुन्ना (आनन्द प्रकाश जैन), हरे जीवों के चंगुल में (राममूर्ति), काल भैरव का कोप (मनोहर लाल वर्मा), रोबो मेरा दोस्त (शुकदेव प्रसाद), आदि कथाएं भी उल्लेखनीय हैं। लेखक ने भी ज्ञान का तबादला (वैज्ञानिक, जुलाई-सितम्बर 1986), वैज्ञानिक पत्नी की मुसीबत (जिज्ञासा, जुलाई-दिसम्बर 1988), डाल-डाल : पात-पात, रोबोटों की दुनियां, प्रदूषण महात्म्य (वैज्ञानिक, जनवरी-मार्च 1982), वरदान (विज्ञान, नवम्बर 84-85), आदि विज्ञान कथाएं लिखीं।
समयानुसार अनेक विज्ञान कथाओं और उपन्यासों के हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए। प्रमुख कहानी पत्रिका सारिका ने सितम्बर 1985 अंक में अनेक हिन्दी कथाओं के साथ ही अरुण साधु लिखित ´विस्फोटक` (मराठी) और मोहन संजीवन लिखित ´मैं मरना चाहता हूं (तमिल) के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किए थे। रासेल कासेन के उपन्यास द साइलेंट स्प्रिंग का प्रेमानन्द चंदोला द्वारा किया गया अनुवाद, नवनीत में छपा। गुणाकार मुले ने आसिमोव का ´शिशु का रोबोट` तथा विक्टोर कोमारोव का ´दूसरी धरती` तथा रमेश दत्त शर्मा ने गोर विडाल के ´क्षुद्रग्रह` उपन्यासों का हिन्दी रूपांतर किया।
बंगला से सत्यजित राय की 13 विज्ञान कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया गया है। समीर गांगुली का बाल वैज्ञानिक उपन्यास जेड जुइंग की डायरी मेला पत्रिका में, समरजित कर की कहानी एक यंत्र की खातिर (धर्मयुग 1984), डा. जयंत विष्णु नार्लीकर की अक्स, धूमकेतु (धर्मयुग), अरुण साधु की एक आदमी के उड़ने की कहानी (धर्मयुग 1988) में प्रकाशित हुइ। डा. बाल फोंडके की कहानियां, तख्ती टूट गई और अनोखा खून पराग में तथा अन्य कहानियां विज्ञान प्रगति में छपी हैं। दिलीप साल्वी की अंग्रेजी कहानियों के हिन्दी अनुवाद भी पराग मं रोबोट चालाक होते जा रहे हैं, रोबोट डींगमार होते हैं, नामक शीर्षकों के साथ प्रकाशित हुई हैं। प्रख्यात विज्ञान कथाकार डा. जयंतु विष्णु नार्लीकर की बहुत ही रोचक और रोमांचक विज्ञान कथा अंतरिक्षमें विस्फोट धारावाहिक रूप से धर्मयुग में प्रकाशित हुई।
क्रमश: हिन्दी विज्ञान कथा व उपन्यास लेखन में छुटपुट स्वैच्छिक प्रयास होते रहे। फलस्वरूप प्रो. दिवाकर के उड़न तश्तरी, नक्षत्रों का युद्ध, अंतरिक्ष के पार, आदिऋ डा. हरिकृष्ण देवसरे का लावेनी, सत्येन्द्र शरद का प्रोफेसर सारंग, आदि उपन्यास सामने आए। कुछ विदेशी उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद भी किया गया।
इसके बाद ऐसा नहीं हुआ कि विज्ञान कथाओं की बाढ़ आ गई हो, उसी पूर्वगति से यह सिलसिला जारी रहा। अनेक सामान्य पत्रिकाओं ने भी विज्ञान कथाएं निकालनी शुरू कीं। कुछ पत्रिकाओं ने विज्ञान कथा विशेषांक भी निकाले, इनमें प्रमुख हैं, नन्दन (1969), पराग (दिसम्बर 1975), विज्ञान प्रगति (जनवरी 1978), धर्मयुग (6 अप्रैल 1980), मेला (25 फरवरी 1981), विज्ञान (नवम्बर 84-जनवरी 1985)। बाल पत्रिका सुमन सौरभ ने फरवरी 1993 में आविष्कार कथा विशेषांक निकाला। माना जाता है कि वस्तुत: भारत में प्राचीन काल में विज्ञान का ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा था, लेकिन अनेक संस्कृतियों में उतार चढ़ाव और सामाजिक उथल पुथल के कारण उसके कुछ अवशेष ही रह गए। पुराणों, उपनिषदों, आदि ग्रंथों में विज्ञान के ऐसे पहलुओं पर कथाएं उपलब्ध हैं, जिनको आज आधुनिक विज्ञान का समर्थन प्राप्त है। इन ग्रंथों में वैज्ञानिक चमत्कारों का तो वर्णन है, पर चमत्कार की तकनीकों के बारे में वे प्राय: मौन हैं। शायद इसीलिए इन गं्रथों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता सीधे स्वीकार नहीं की जा सकी।
इनमें इन्द्र के वज्र, शिव के पाशुपत, विष्णु के नारायणशास्त्र, ब्रह्मा के ब्रह्मास्त्र, आदि विनाशकारी अस्त्रों का वर्णन है। ब्रह्मास्त्र के बारे में महाभारत में जो वर्णन किया गया है वह परमाणु अस्त्रों से काफी समानता रखता है। ब्रह्मास्त्र के बारे में लिखा है, ´इसे चलाने पर हजारों सूर्यों की भांति बिजलियां चमकने लगती थीं, इसके प्रभाव से धूल भरी आंधियां चलती थीं, और यह धूल लम्बे समय तक छाई रहती थी, ब्रह्मास्त्र गिरने वाले स्थान पर अनेक वर्षों तक खेती नहीं होती थी।` एक अन्य कथा में भगवान शंकर के पुत्र गणेश का सिर कट जाने के बाद उनके शरीर में नवजात हाथी का सिर प्रत्यारोपित का वर्णन है। कौरवों के जन्म की कथा भी विचित्र है, ये 100 पुत्र माता गंधारी के गर्भ से भ्रूण निकाल कर उसे विभक्त करके 100 अलग अलग घड़ों में विकसित किए जाने का वर्णन है, जिसे आज परखनली शिशु तकनीक ने सम्भव कर दिया है। इसी प्रकार रक्तबीज से पूर्ण शरीर बनने की कहानी की तुलना क्योलिंग से की जा सकती है।
प्राचीन भारतीय साहित्य इस तरह के आधुनिक विज्ञान से काफी कुछ समान्ता रखने वाले प्रकरणों से भरा पड़ा है। इसीलिए प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक कार्ल सागान ने लिखा है, कि मिथक में विज्ञान ढूंढ़ना हो तो भारत के पुराणों को पढ़ना चाहिए। यह प्राय: निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है कि हिन्दी में आधुनिक विज्ञान कथाएं, पश्चिमी अंग्रेजी विज्ञान कथाओं से प्रभावित रहीं, तथापि भारतीय पुराणों में विर्णत कथाओं का भी हिन्दी विज्ञान कथाओं पर प्रभाव नकारा नहीं जा सकता।
विश्व विज्ञान कथाएं
उन्नीसवीं सदी के आरंभ और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के मध्यकाल में दुनिया भर में अनेक विज्ञान कथाएं लिखीं गइ±, जिन्होंने न केवल भविष्य केविज्ञान को परिलक्षित किया बल्कि समाज के वैज्ञानिक विकास को नियोजित दिशा भी दी। एडगर एलन पो (1809-1849) ने अमेरिका में विज्ञान कथा लेखन की शुरूआत की। जासूसी उपन्यासों के प्रणेता अंग्रेजी लेखक सर आर्थर कानन डायल (1859-1930) के उपन्यासों का प्रभाव आधुनिक विज्ञान कथाओं पर पड़ा। ऐसे प्रमाण मिलते हैं, कि उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल में यूरोपीय देशों में विज्ञान कथाएं चरमोत्कर्ष पर थीं।
सन् 1820 में पश्चिमी देशों में प्रभावी विज्ञान कथा लेखन आरंभ हुआ। आगे 1898 में प्रसि( विज्ञान कथा लेखक एच.जी. वेल्स का विश्व प्रसि( विज्ञान उपन्यास ´द वार ऑव द वल्र्डस` छपा, वेल्स ने ही ´द टाइम मशीन` और ´द इनविजिविल मैन` लिखकर इस क्षेत्र में धूम मचाई। जार्ज आरबेल का प्रख्यात विज्ञान उपन्यास ´1984` सन् 1949 में प्रकाशित हुआ। इसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी रूपांतर हिन्दी पॉकेट बुक्स, दिल्ली ने प्रकाशित किया है, अनुवादक हैं, राधानाथ चतुर्वेदी। जूल्स वर्न (1829-1905) के ´20,000 लीग्स अण्डर सी`, ´जर्नी टू द सेंटर ऑव अर्थ` उपन्यास प्रौद्योगिकी के विकास की सटीक भविष्यवाणी के रूप में प्रसि( हुए। विज्ञान कथाओं में व्यंग्य उपन्यास में आदर्श विश्व समाज की कल्पना की गई है।
जर्मन खगोलविद् केपलर (1571-1630) ने चांद की स्वप्न यात्रा का रोचक वर्णन किया था। वैसे आधुनिक विज्ञान फैंटसी (कल्पना) का जन्म 1705 में डेनियल डेफी के ´द कंसोलिडेटर` के रूप में हुआ। इसमें अंतरिक्ष यात्रा का कथानक लिया गया था। तत्पश्चात् वेल्स के नवआयामी प्रस्तुतीकरण के बाद आर. एल. स्टीवेंसन (1850-1894) के ´द स्टोरी ऑव डा. जेकिल एंड मि. हाइड` की सराहना हुई। 19वीं सदी के आरंभ में कृत्रिम जीवोत्पत्ति के कथानक पर ´फ्रेंकेस्टीन` लिखा गया, लेखिका थीं- मैरी शेली। एल्डूस हक्सले ने 1932 में परखनली शिशु पर उपन्यास लिखा। आणुविक जीव विज्ञान पर डेविड शेरविक के ´वार्न इन हिज ओन इमेज`, ´क्लोनिंग ऑव द मैन` प्रसि( हैं। kaarsen की कृति ´द साइलेंट स्प्रिंग तथा डेविड शील्तजर की ´द प्रोफेसी` प्रदूषण पर लिखी गई हैं।
सांपों के जीवन पर ´द स्नेक` 1978 में जौन गोडी ने लिखी। आधुनिक युग के प्रसि( विज्ञान कथाकार हैं- रे ब्रैडवरी, पाल एण्डरसन, यूरी लीन्स्टर, राबर्ट हीनलेन, जॉन क्रिस्टोफर, आदि। प्रगति प्रकाशन रूप से 1979 में अंग्रेजी में एक विज्ञान कथा संग्रह निकाला है, शीर्षक है ´साइंस फिक्शन- इंग्लिश एंड अमेरिकन जोत हालडमैन, फ्रेड्रिक पोल, श्रीलंका के आर्थर सी क्लार्क, आयर लैंड के हैरी हैरिसन, आदि शामिल हैं, जिन्होंने अधिकतर अंतरिक्ष, समय यात्रा और ऐसी ही विधाओं पर कथाएं लिखीं।
सोवियत रूप में भी विज्ञान कथा लेखन काफी विकसित है। रूसी विज्ञान लेखन में एक समर्पित नाम है- एलेक्जेंडर वेलियेव, जिन्होंने पूरा जीवन इसी कार्य में लगाया। वेलियेव की अंतरिक्ष कथाएं- ´द एयरशिप स्टार केट` एवं ´स्काई गेस्ट` प्रसिद्ध हुइ। 1935 मं उन्होंने आणुविक ऊर्जाघर- ´द मिरैकुलस आई` नामक उपन्यास लिखा। रूरी पत्रिका सोवियत लिट्रेचर ने 1984 में विज्ञान कथा विशेषांक प्रकाशित किया। इसकी प्रमुख कहानियां हैं, द डिज़ायर मशीन ( अकार्दि और स्त्रुगात्स्की), ए टोटल मिस्ट्री (ब्लादीमिर शेफनर) बार्न टु फ्लाई (दमित्री बाइलेंकिन), फ्लावर्स ऑव द अर्थ (मिखाइल पुरबोव), आदि। रूसी से अंग्रेजी अनुवादित विज्ञान कथा संकलनों, ´जनी। एक्रास थ्री वल्र्डस` ´एव्रीथिंग बट लव` ´मॉलीकुलर कैफे`, आदि हैं। येरेमेई पार्नोव का ´बिग बैंग लव` और अनाटोली दुनींनीप्राव का ´क्रेब्स वाक ऑन आइलैंड` प्रकाशित हुए। परमाणु विध्वंस विषय को लेकर रूप में अनेक वैज्ञानिक उपन्यास लिखे गए, जिनकी अमेरिका आलोचकों ने आलोचना की है।
विश्व में विज्ञान कथाओं का काफी भंडार बढ़ता जा रहा है। हिन्दी में भी ऐसे नए नए प्रयोग होते रहने चाहिए। ह्यमगो गन्र्सबैक द्वारा सम्पादित विश्व की प्रथम विज्ञान कथा पत्रिका है ´अमेज़िंग स्टोरीज़।` ह्यूगो गन्र्सबैक विद्युत इंजीनियर थे। उन्होंने 1928 में अमेजिंग स्टोरीज पत्रिका शुरू की थी।
हिन्दी में विज्ञान कथा लेखन
कथा कहानी के जरिये कोई बात आसानी से समझ में आ जाती है और जब बात बच्चों को समझाने की हो तो यह विधा और भी सरल और सहज लगती है। शायद इसीलिए हमारे यहां नीति की बातों को भी कहानी द्वारा समझाने की परम्परा रही है। पंचतंत्र की कथाओं का भी यही उद्देश्य था। इनमें दिए गए उद्धहरण के अनुसार महिलारोप्य नगर के राजा अमरशक्ति के अज्ञानी पुत्रों को समझदार बनाने के लिए श्री विष्णु शर्मा ने संस्कृत साहित्य में अमर पंचतंत्र की कथाएं रचीं। आज विज्ञान के दौर में बच्चों को विज्ञान की बातें आसानी से समझाने के लिए विज्ञान कथाओं का सहारा लिया जाने लगा है। विज्ञान कथाएं समाज में न केवल विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों और भविष्य की तस्वीर उभरने में भी उपयोगी हैं। इसलिए यदि हमें समय के साथ चलना है तो अधुनातन विषयों पर सुबोध और रोचक विज्ञान कथाएं लिखनी होंगीं। रूसी विज्ञान कथा लेखक दिमित्री बाइलेंकिन लिखते हैं, ´इसका महत्व नहीं है कि विज्ञान कथाएं मनोरंजन करती हैं या नहीं, महत्व तो इस बात का है कि वे लोगों को युग की जटिलता से आगाह करा सकती हैं, और उनकी प्रवृत्ति को मोड़ भी सकती हैं, विज्ञान कथाओं का सामाजिक उद्देश्य व्यापक एवं उत्तरदायित्व है, क्योंकि इनमें भविष्य का दर्शन किया जा सकता है।` दरअसल विज्ञान कथाएं विज्ञान के पाठकों के साथ ही विज्ञान न जानने वालों को भी अपनी ओर आकिर्षत करती हैं, इसलिए विज्ञान साहित्य की इस विशा में विज्ञान के प्रचार की अद्वितीय क्षमात निहित है। अत: इसे सीखने सिखाने की तकनीक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
विज्ञान कथा लिखने में प्राय: दो खास कठिनाइयां आती हैं, पहली है पृष्ठभूमि सामान्य कहानी में कथानक में प्रयुक्त शब्दों की पृष्ठभूमि नहीं बनानी पड़ती, जैसे, यदि वह रिवाल्वर लिखता है, तो पाठकों के सामने तत्काल रिवाल्वर का दृश्य घूम जाता है, परंतु विज्ञान कथा में ऐसा नहीं है, विज्ञान कथाकार यदि कथा में पातालवाहन नामक काल्पनिक शब्द का प्रयोग करे तो उसे बताना होगा कि पातालवाहन उनकी कल्पना में क्या है, कैसा बना है तथा काम कैसे करता है, तभी पाठक उस कथा को सही अर्थों में हृदयंगम कर सकेगा, अन्यथा नहीं। दूसरी कठिनाई की ओर संकेत करते हुए ऑसिमोव लिखते हैं कि विज्ञान कथा का अधिकांश भाग तो अपरिचित परिवेश से पाठकों का तादात्म्य स्थापित करने में ही खर्च हो जाता है, जिसके कारण विज्ञान कथा में पात्रों का चारित्रिक विकास प्राय: सम्भव नहीं हो पाता है। हिन्दी विज्ञान कथा लेखन में इस पर ध्यान दिया जाना नि:संदेह महत्वपूर्ण होगा।
विज्ञान कथाएं प्राय: तीन तरह से लिखी जाती हैं: (1) ऐसी कहानियां जिनमें लेखक की कल्पना, वैज्ञानिक प्रगति का सहारा लेकर आगे बढ़ती है, ऐसे वांगमय में विज्ञान के केवल एक दो तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता हैं (2) ऐसी कहानियां जो वैज्ञानिक उपलब्धियों की रोचक गाथा मात्र होती हैं, इनमें कहानी बहाना मात्र होती है, असल उद्देश्य विज्ञान का प्रचार होता है। इनमें लेखक उन्हीं बातों की चर्चा करता है जिनको विज्ञान सम्भव मानने लगता हैं (3) ऐसी विज्ञान कथाओं में प्रौद्योगिक पृष्ठभूमि के कारण सांस्कृतिक मूल्यों में हुए परिवर्तन की झांकी होती है, आज की समस्याओं के हल के साथ ही जीवन के मूल्य और आदर्श बनाए रखने का आग्रह होता है।
विज्ञान कथाओं में सत्य कथाओं और आत्म कथाओं का लगभग अभाव सा है। हिन्दी में कुछ वैज्ञानिक सत्यकथाएं अप्रैल 1980 के धर्मयुग में छपीं हैं। जिनमें से ´वैज्ञानिकों ने सुलझाई पहेली` प्रमुख है। इसमें एक लड़की को लेकर विवाद था, कि उसके असली माता पिता वे हैं, जिनके पास वह थी, या वे जिन्होंने अपनी पुत्री के अपहरण का दावा किया था। इसका समाधान सीरम वैज्ञानिक परीक्षणों से किया गया। हिन्दी में ऐसी सत्य विज्ञान कथाओं को लोग अधिक पसंद करते हैं। भारतीय वैज्ञानिक सालिम अली ने अंग्रेजी में ´द फॉल ऑव ए स्पैरो` नामक अपनी आत्मकथा लिखी है, पर हिन्दी में शायद ही किसी वैज्ञानिक ने आत्मकथा लिखने में पहलें की हों।
विज्ञान शिक्षक श्री शचीन्द्र नाथ चक्रवर्ती अपने विद्यार्थियों को विज्ञान, बोलचाल के रूप में समझाते थे, और गृहकार्य के रूप में प्राय: दर्पण और लेंस के बीच एक संवाद जैसी बातें लिखने को देते थे। स्वाभाविक है बच्चों में इस विधा से विज्ञान पढ़ने का शौक चौगुना हो गया था। इसी प्रकार उन्होंने ´धातुओं की सभा` लिखा, जिसका मंचल इलाहाबाद में किया गया। विज्ञान और लेखन की उर्वरा शक्ति को विकसित करने के लिए इस परम्परा को आगे बढ़ाया जा सकता है।
विज्ञान कथा लिखने के लिए कोई बना बनाया सटीक फार्मूला तो नहीं है, पर यह उतना कठिन भी नहीं है, जितना कि आम लेखक समझ लेते हैं। वस्तुत: हिन्दी विज्ञान कथा लेखन के आवश्यक तत्व हैं, भाषा पर अधिकार, विज्ञान का ज्ञान, सार्थक कल्पना शक्ति, और उसे रोचकतापूर्वक अभिव्यक्त करने की क्षमता। इन सभी तत्वों की मिली जुली रचना का नाम विज्ञान कथा है।
देश में विज्ञान कथा लेखन प्रकाशन के उन्नयन हेतु ´भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति` का गठन फैजाबाद (उ.प्र.) में किया गया है। समिति ने डा. राजीव रंजन उपाध्याय और डा. अरविन्द मिश्र के सम्पादन में देश की विज्ञान कथाओं को समर्पित पहली पत्रिका ´विज्ञान कथा` आरम्भ की है। इसी प्रकार वेल्लोर में ´इंडियन एसोसिएशन फॉर साइंस फिक्शन स्टडीज` की स्थापना की गई है। हाल ही में ´विज्ञान कथा : पहले, अब और आगे` विषय पर प्रथम राष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन राविप्रौसंप द्वारा उक्त संस्थाओं के साथ मिलकर वाराणसी में किया गया। इस अवसर पर एक ´बनारस दस्तावेज` भी जारी किया गया, जो विज्ञान कथाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा। विज्ञान लेखक शुकदेव प्रसाद के सम्पादन में विज्ञान कथाओं के इतिहास और विकास का लेखा जोखा दो खंडों में प्रकाशित किया गया है। इंटरनेट माध्यम का इस्तेमाल करते हुए विज्ञान कथाओं पर ब्लॉग्स और एक ई-ग्रुप भी चलाया जा रहा है, जिसकी पहल विज्ञान कथा लेखक डा. अरविन्द मिश्र ने की है। हाल ही में एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी के सम्पादन में ´कल्किआन` नामक देश की पहली ई-विज्ञान कथा पत्रिका kalkion.com भी हिन्दी और अंग्रेजी में आरम्भ की गयी है। ये सभी गतिविधियां देश में विज्ञान कथा विधा के उन्नयन के अच्छे संकेत प्रतीत होते हैं।
-- डा. मनोज पटैरिया
निदेशक (वैज्ञानिक ´एफ`)
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद्
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, टैक्नॉलोजी भवन, नया महरौली मार्ग, नई दिल्ली-110016
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