नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757
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मंगलवार, 5 जनवरी 2021

संगीत वाद्ययंत्र

 

भारत विश्‍व में, सबसे ज्‍यादा प्राचीन और विकसित संगीत तंत्रों में से एक का उतराधिकारी है । हमें इस परम्‍परा की निरंतरता का ज्ञान संगीत के ग्रंथों और प्राचीन काल से लेकर आज तक की मूर्तिकला और चित्रकला में संगीत वाद्यों के अनेक दृष्‍टांत उदाहरणों से मिलता है ।

हमें संगीत-सम्‍बंधी गतिविधि का प्राचीनतम प्रमाण मध्‍यप्रदेश के अनके भागों और भीमबटेका की गुफाओं में बने भित्तिचित्रों से प्राप्‍त होता है, जहां लगभग 10,000 वर्ष पूर्व मानव निवास करता था । इसके काफी समय बाद, हड़प्‍पा सभ्‍यता की खुदाई से भी नृत्‍य तथा संगीत गतिविधियों के प्रमाण मिले हैं ।

संगीत वाद्य, संगीत का वास्‍तविक चित्र प्रस्‍तुत करते हैं । इनका अध्‍ययन संगीत के उदभव की जानकारी देने में सहायक होता है और वाद्य जिस जनसमूह से सम्‍बंधित होते हैं, उसकी संस्‍कृति के कई पहलुओं का भी वर्णन करते हैं । उदाहरण के लिए गज बनाने के लिए बाल, ढोल बनाने के लिए प्रयोग की जाने वाली लकड़ी या चिकनी मिट्टी या फिर वाद्यों में प्रयुक्‍त की जाने वाली जानवरों की खाल यह सभी हमें उस प्रदेश विशेष की वनस्‍पति तथा पशु-वर्ग की विषय में बताते हैं ।

दूसरी से छठी शताब्‍दी ईसवी सन् के संगम साहित्‍य में वाद्य के लिए तमिल शब्‍द ‘कारूवी’ का प्रयोग मिलता है । इसका शाब्दिक अर्थ औजार है, जिसे संगीत में वाद्य के अर्थ में लिया गया है ।

बहुत प्राचीन वाद्य मनुष्‍य के शरीर के विस्‍तार के रूप में देखे जा सकते हैं और जहां तक कि हमें आज छड़ी ओर लोलक मिलते हैं । सूखे फल के बीजों के झुनझुने, औरांव के कनियानी ढांडा या सूखे सरस फल या कमर पर बंधी हुई सीपियों को ध्‍वनि उत्‍पन्‍न करने के लिए आज भी प्रयोग में लाया जाता है ।

हाथ का हस्‍तवीणा के रूप में उल्‍लेख किया गया है, जहां हाथों व उंगलियों को वैदिक गान की स्‍वरलिपि पद्धति को प्रदशर्ति करने तथा ध्‍वनि का मुद्रा-हस्‍तमुद्रा के साथ समन्‍वय करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है ।

200 ईसा पूर्व से 200 ईसवीं सन् के समय में भरतमुनि द्वारा संकलित नाटयशास्‍त्र में संगीत वाद्यों को ध्‍वनि की उत्‍पत्ति के आधार पर चार मुख्‍य वर्गों में विभाजित किया गया है :

1. तत् वाद्य अथवा तार वाद्य – तार वाद्य
2.
सुषिर वाद्य अथवा वायु वाद्य – हवा के वाद्य
3.
अवनद्व वाद्य और चमड़े के वाद्य – ताल वाद्य
4.
घन वाद्य या आघात वाद्य – ठोस वाद्य, जिन्‍हें समस्‍वर स्‍तर में
करने की आवश्‍यकता नहीं होती ।

तत् वाद्य – तारदार वाद्य

तत् वाद्य, वाद्यों का एक ऐसा वर्ग है, जिनमें तार अथवा तन्‍त्री के कम्‍पन से ध्‍वनि उत्‍पन्‍न होती है । यह कम्‍पन तार पर उंगली छेड़ने या फिर तार पर गज चलाने से उत्‍पन्‍न होती हैं । कम्पित होने वाले तार की लम्‍बाई तथा उसको कसे जाने की क्षमता स्‍वर की ऊंचाई (स्‍वरमान) निश्चित करती है और कुछ हद तक ध्‍वनि की अवधि भी सुनिश्चित करती है । तत् वाद्यों को मोटे पर दो भागों में विभाजित किया गया है- तत् वाद्य और वितत् वाद्य । आगे इन्‍हें सारिका (पर्दा) युक्‍त और सारिका विहीन (पर्दा‍हीन) वाद्यों के रूप में पुन: विभाजित किया जाता है ।

हमारे देश में तत् वाद्यों का प्राचीनतम प्रमाण धनुष के आकार की बीन या वीणा है । इसमें रेशे या फिर पशु की अंतडि़यों से बनी भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार की समानांतर तारें होती थीं । इसमें प्रत्‍येक स्‍वर के लिए एक तार होती थी, जिन्‍हें या तो उंगलियों से छेड़ कर या फिर कोना नामक मिज़राब से बजाया जाता था । संगीत के ग्रंथों में तत् (तारयुक्‍त वाद्यों) वाद्यों के लिए सामान्‍य रूप से ‘वीणा’ शब्‍द का प्रयोग किया जाता था और हमें एक-तंत्री, संत-तंत्री वीणा आदि वाद्यों की जानकारी मिलती है । चित्रा में सात तारें होती हैं और विपंची में नौ । चित्रा को उंगलियों द्वारा बजाया जाता था और विपंची का मिज़राब से ।

प्राचीन समय की बहुत-सी-मूर्तियों और भित्तिचित्रों से इनका उल्‍लेख प्राप्‍त होता है । जैसे भारूत और सांची स्‍तूप, अमरावती के नक्‍काशीदार स्‍तम्‍भ आदि । दूसरी शताब्‍दी ईसवीं सन् के प्राचीन तमिल ग्रंथों में याड़ का उल्‍लेख प्राप्‍त होता है । धार्मिक अवसरों और समारोहों में ऐसे वाद्यों को बजाना महत्‍वपूर्ण रहा है । जब पुजारी ओर प्रस्‍तुतकर्ता गाते थे तो उनकी पत्‍नी वाद्यों को बजाती थीं ।

डेलसिमर प्रकार के वाद्य तारयुक्‍त वाद्यों का एक अन्‍य वर्ग है । इसमें एक लकड़ी के बक्‍से पर तार खींच कर रखे जाते हैं । इसका सबसे अच्‍छा उदाहरण है- सौ तारों वाली वीणा अर्थात् सत-तंत्री वीणा । इस वर्ग का निकटतम सहयोगी वाद्य है- संतूर । यह आज भी कश्‍मीर तथा भारत के अन्‍य भागों में बजाया जाता है ।

बाद में तारयुक्‍त वाद्यों के वर्ग में डांड़ युक्‍त वाद्यों के भी एक वर्ग का विकास हुआ । यह राग-संगीत से जुड़े, प्रचलित वाद्यों के लिए उपयुक्‍त था । चाहे वह पर्दे वाले वाद्य हों अथवा पर्दा विहीन वाद्य हों, उंगली से तार छेड़ कर बजाए जाने वाले वाद्य हों, अथवा गज से बजाए जाने वाले- सभी इसी वर्ग में आते हैं । इन वाद्यों का सबसे बड़ा महत्‍व है- स्‍वर की उत्‍पत्ति की समृद्धता और स्‍वर की नरंतरता को बताए रखना । डांड युक्‍त वाद्यों में सभी आवश्‍यक स्‍वर एक ही तार पर, तार की लम्‍बाई को उंगली द्वारा या धातु अथवा लकड़ी के किसी टुकड़े से दबा कर, परिवर्तित करके उत्‍पन्‍न किए जा सकते हैं । स्‍वरों के स्‍वरमान में परिवर्तन के लिए कंपायमान तार की लम्‍बाई का बढ़ना या घटना महत्‍वपूर्ण होता है ।

गज वाले तार वाद्य आमतौर पर गायन के साथ संगत के लिए प्रयुक्‍त किए जाते हैं तथा गीतानुगा के रूप में इनका उल्‍लेख किया जाता है । इन्‍हें दो मुख्‍य वर्गों में बांटा जा सकता है । पहले वर्ग में सारंगी के समान डांड़ को सीधे ऊपर की ओर रखा जाता है और दूसरे वर्ग में तुम्‍बे की कंधे की ओर रखा जाता है तथा ‘डंडी’ या डांड़ को वादक की बांह के पार रखा जाता है । ठीक उसी प्रकार जैसे- रावण हस्‍तवीणा, बनाम तथा वायलिन में ।

कमैचा

कमैचा पश्चित राजस्‍थान के मगनियार समुदाय द्वारा गज की सहायता से बजायी जाने वाली वीणा है । यह संपूर्ण वाद्य लकड़ी के एक ही टुकड़े से बना होता है, गोलाकार लकड़ी का हिस्‍सा गर्दन तथा डांड का रूप लेता है; अनुनादक (तुंबस) चमड़े से मढ़ा होता है और ऊपरी भाग लकड़ी से ढका होता है । इसमें चार मुख्‍य तार होते हैं और कई सहायक तार होते हैं, जो पतले ब्रिज (घुड़च) से होकर गुजरते हैं ।

कमैचा वाद्य उप महाद्वीप को पश्चिम एशिया और अफ्रीका से जोड़ता है और इसे कुछ विद्वान रावन हत्‍ता अथवा रावण हस्‍त वीणा के अपवाद स्‍वरूप प्राचीनतम वाद्य के रूप में स्‍वीकार करते है ।

लम्‍बवत् गजयुक्‍त वाद्यों के प्रकार सामान्‍यत: देश के उत्‍तरी भागों में पाए जाते हैं । इनमें आगे फिर से दो प्रकार होते हैं- सारिका (पर्दा) युक्‍त और सारिकाविहीन (पर्दाविहीन) ।

(क) तारदार वाद्य के विविध हिस्‍से

अनुनादक (तुम्‍बा)-अधिकतर तारदार वाद्यों का तुम्‍बा या तो लकड़ी काबना होता है या फिर विशेष रूप से उगाए गए कहू का ।

इस तुम्‍बे के ऊपर एक लकड़ी की पट्ट होती है, जिसे तबली कहते हैं ।

अनुनादक (तुम्‍बा), उंगली रखने की पट्टिका-डांड से जुड़ा होता है, जिसके ऊपरी अंतिम सिरे पर खूंटियां लगी होती हैं । इनको वाद्य में उपयुक्‍त स्‍वर मिलाने के लिए प्रयोग में लाया जाता है ।

तबली के ऊपर हाथीदांत से बना ब्रिज (घुड़च) होता है । मुख्‍य तार इस ब्रिज या घुड़च के ऊपर से होकर जाते हैं । कुछ वाद्यों में इन मुख्‍य तारों के नीचे कुछ अन्‍य तार होते हैं, जिन्‍हें तरब कहा जाता है । जब इन तारों को छेड़ा जाता है तो यह गूंज पैदा करते हैं ।

कुछ वाद्यों में डांड पर धातु के पर्दे जुड़े होते हैं, जो स्‍थाई रूप से लगे होते हैं या फिर ऊपर-नीचे सरकाए जा सकते हैं । कुछ तार वाद्यों को उंगलियों से छेड़ कर या फिर कोना नामक छोटी मिज़राब की सहायता से बजाया जाता है । जबकि अन्‍य तार वाद्यों को गज की सहायता से बजाया जाता है । (देखें आरेख ए)

(ख) स्‍वरों के स्‍थान

प्रस्‍तुत रेखाचित्र-स्‍वरों के स्‍थान तथा 36 इंच की तार पर सा रे म ग प ध नि सा स्‍वरों को दिखाता है । चित्र में प्रत्‍येक स्‍वर की आंदोलन संख्‍या भी दिखाई गई है । (देखें आरेख बी)

सुषिर वाद्य

सुषिर वाद्यों में एक खोखली नलिका में हवा भर कर (अर्थात फूंक मार कर) ध्‍वनि उत्‍पन्‍न की जाती है । हवा के मार्ग को नियंत्रित करके स्‍वर की ऊंचाई सुनिश्चित की जाती है और वाद्य में बने छेदों को उंगलियों की सहायता से खोलकर और बाद करके क्रमश: राग को बजाया जाता है । इस सभी वाद्यों में सबसे सर (साधारण) वाद्य है-बांसुरी । आम तौर पर बांसुरियां बांस अथवा लकड़ी से बनी होती हैं और भारतीय संगीतकार संगीतात्‍मक तथा स्‍वर-सम्‍बंधी विशेषताओं के कारण लकड़ी तथा बांस की बांसुरी को पसंद करते हैं । हालांकि यहां लाल चंदन की लकड़ी, काली लकड़ी, बेंत, हाथी दांत, पीतल, कांसे, चांदी और सोने की बनी बांसुरियों के भी उल्‍लेख प्राप्‍त होते हैं ।

बांस से बनी बांसुरियों का व्‍यास साधारणत: करीब 1.9 से.मी. होता है पर चौड़े व्‍यास वाली बांसुरियां भी आमतौर पर उपयोग में लाई जाती हैं । 13वीं शताब्‍दी में शारंगदेव द्वारा लिखित संगीत सम्‍बंधी ग्रंथ ‘संगीत रत्‍नाकर’ में हमें 18 प्रकार की बांसुरियों का उल्‍लेख मिलता है । बांसुरी के यह विविध प्रकार फूंक मारने वाले छेद और पहली उंगली रखने वाले छेद के बची की दूरी पर आधारित हैं (आरेख देखें)

सिन्‍धु सभ्‍यता की खुदाई में मुत्तिका शिल्‍प (मिट्टी) की बनी पक्षी के आकार की सीटियां और मुहरें प्राप्‍त हुई हैं, जो हवा और ताल वाद्यों को प्रदर्शित करती हैं । बांस, लकड़ी तथा पशु की खाल आदि से बनाए गए संगीत वाद्य कितने भी समय तक रखे रहें, वे नष्‍ट हो जाते हैं । यही कारण है कि लकड़ी या बांस की बनी बांसुरियां समय के आघात को नहीं सह पाईं । इसी कारणवश हमें पिछली सभ्‍यताओं की किसी खुदाई में ये वाद्य प्राप्‍त नहीं होते ।

यहां वेदों में ‘वेनू’ नामक वाद्य का उल्‍लेख प्राप्‍त होता है, जिसे राजाओं का गुणगान तथा मंत्रोच्‍चारण में संगत करने के लिए बजाया जाता था । वेदों में ‘नांदी’ नामक बांसुरी के एक प्रकार का भी उल्‍लेख प्राप्‍त होता है । बांसुरी के विविध नाम हैं, जैसे उत्‍तर भारत में वेणु, वामसी, बांसुरी, मुरली आदि और दक्षिण भारत में पिल्‍लनकरोवी और कोलालू ।

ध्‍वनि की उत्‍पत्ति के आधार पर मोटे तौर पर सुषिर अथवा वायु वाद्यों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है-

बांसुरियां और
कम्पिका युक्‍त वाद्य

बांसुरी

इकहरी बांसुरी अथवा दोहरी बांसुरियां केवल एक खोखली नलिका के साथ, स्‍वर की ऊँचाई को नियंत्रित करने के लिए अंगुली रखने के छिद्रों सहित होती हैं । ऐसी बांसुरियां देश के बहुत से भागों में प्रचलित हैं । लम्‍बी, सपाट, बड़े व्‍यास वाली बांसुरियों को निचले (मंद्र) सप्‍तक के आलाप जैसे धीमी गति के स्‍वर-समूहों को बजाने के लिए प्रयुक्‍त किया जाता है । छोटी और कम लम्‍बाई वाली बांसुरियों को, जिन्‍हें कभी-कभी लम्‍बवत् (उर्ध्‍वाधर) पकड़ा जाता है, द्रुत गति के स्‍वर-समूह अर्थात् तान तथा ध्‍वनि के ऊंचे स्‍वरमान को बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है । दोहरी बांसुरियां अक्‍सर आदिवासी तथा ग्रामीण क्षेत्र के संगीतकारों द्वारा बजाई जाती हैं और ये मंच-प्रदर्शन में बहुत कम दिखाई देती हैं । ये बांसुरियां चोंचदार बांसुरियों से मिलती-जुलती होती हैं, जिनके एक सिरे पर संकरा छिद्र होता है । हमें इस प्रकार के वाद्यों का उल्‍लेख प्रथम शताब्‍दी के सांची के स्‍तूप के शिल्‍प में प्राप्‍त होता है, जिसमें एक संगीतकार को दोहरी बांसुरी बजाते हुए दिखाया गया हे ।

कम्पिका वाद्य

कम्पिका या सरकंडा युक्‍त वाद्य जैसे शहनाई, नादस्‍वरम् आदि वाद्यों में वाद्य की खोखली नलिका के भीतर एक अथवा दो कम्पिका को डाला जाता है, जो हवा के भर जाने पर कम्पित होती हैं । इस प्रकार के वाद्यों में कम्पिकाओं को नलिका के भीतर डालने से पहले एक साथ, एक अंतराल में बांधा जाता है । नलिका शंकु के आकार की होती है । यह हवा भरने वाले सिरे की तरफ से संकरी होती है और धीरे-धीरे दूसरे सिरे पर खुली होती जाती है तथा एक धातु की घंटी का आकार ले लेती है, ताकि ध्‍वनि की प्रबलता को बढ़ाया जा सके । वाद्य के मुख से एक अतिरिक्‍त कम्पिकाओं का समूह और कम्पिकाओं को साफ करने तथा व्‍यवस्थित रखने के लिए हाथीदांत अथवा चांदी की एक सुई लटकाई जाती है ।

शहनाई

शहनाई एक कम्पिका युक्‍त बांध है । इसमें नलिका के ऊपर सात छिद्र होते हैं । इन छिद्रों को अंगुलियों से बंद करने और खोलने पर राग बजाया जा सकता है । इस वाद्य को ‘मंगल वाद्य’ के नाम से जाना जाता है और अक्‍सर इसे उत्‍तर भारत में विवाह, मंदिर उत्‍सवों आदि के मंगलवार अवसर पर बजाया जाता है । ऐसा माना जाता है कि शहनाई भारत में पश्चिम एंशिया से आई । कुछ अन्‍य विद्वान भी हैं, जो यह मानते हैं कि यह वाद्य चीन से आया है । इस समय यह वाद्य कार्यक्रमों में बजाया जाने वाला प्रसिद्ध वाद्य है । वाद्य ही आवाज़ सुरीली होती है और यह राग संगीत को बजाने के लिए उपयुक्‍त है । इस शताब्‍दी के सन् पचास के दशक के पूर्व भाग में इस वाद्य को प्रसिद्ध बनाने का श्रेय उस्‍ताद बिस्मिल्‍लाह खान को जाता है । आज के जाने-माने शहनाई वादकों में पंडित अनंत लाल और पंडित दया शंकर का नाम प्रमुख है ।

अवनद्ध वाद्य

वाद्यों के वर्ग, अवनद्ध वाद्यों (ताल वाद्य) में पशु की खाल पर आघात करके ध्‍वनि को उत्‍पन्‍न किया जाता है, जो मिट्टी, धातु के बर्तन या फिर लकड़ी के ढोल या ढांचे के ऊपर खींच कर लगायी जाती है । हमें ऐसे वाद्यों के प्राचीनतम उल्‍लेख वेदों में मिलते हैं । वेदों में भूमि दुंदुभि का उल्‍लेख है । यह भूमि पर खुदा हुआ एक खोखला गढ़ा होता था, जिसे बैल या भैंस की खाल से खींच कर ढका जाता था । इस गढ़े के खाल ढके हिस्‍से पर आघात करने के लिए पशु की पूंछ को प्रयोग में लाया जाता था और इस प्रकार से ध्‍वनि की उत्‍पत्ति की जाती थी ।

ढोलों को उनके आकार, ढांचे तथा बजाने के लिए उनको रखे जाने के ढंग व स्थिति के आधार पर विविध वर्गों में बांटा जा सकता है । ढोलों को मुख्‍यत: अर्ध्‍वक, अंकया, आलिंग्‍य और डमय (ढालों का परिवार) इन चार वर्गों में बांटा जाता है । (आरेख देखें)

उर्ध्‍वक

उर्ध्‍वक ढालों को वादक के समक्ष लम्‍बवत् रखा जाता है और इन पर डंडियों या फिर उंगलियों से आघात करने पर ध्‍वनिं उत्‍पन्‍न होती है । इनमें मुख्‍य हैं-तबले की जोड़ी और चेंडा ।

तबला

तबले की जोड़ी दो लम्‍बवत् ऊर्ध्‍वक ढोलों का एक समूह है । इसके दायें हिस्‍से को तबला कहा जाता है और बांये हिस्‍से को बांया अथवा ‘डग्‍गा’ कहते हैं । तबला लकड़ी का बना होता है । इस लकड़ी के ऊपरी हिस्‍से को पशु की खाल से ढका जाता है और चमड़े की पट्टियों की सहायता से जोड़ा जाता है । चर्म पट्टियों तथा लकड़ी के ढांचे के बीच आयताकार (चौकोर) लकड़ी के खाल के हिस्‍से के बीच में स्‍याही को मिश्रण लगाया जाता है । तबले को हथौड़ी से ऊपरी हिस्‍से के किनारों को ठोंक कर उपयुक्‍त स्‍वर को मिलाया जा सकता है । बांया हिस्‍सा मिट्टी अथवा धातु का बना होता है । इसका ऊपरी हिस्‍सा पशु की खाल से ढंका जाता है और उस पर भी स्‍याही का मिश्रण लगाया जाता है । कुछ संगीतकार इस हिस्‍से को सही स्‍वर में नहीं मिलाते ।

तबले की जोड़ी को हिन्‍दुस्‍तानी संगीत के कंठ तथा वाद्य-संगीत और उत्‍तर भारत की कई नृत्‍य शैलियों के साथ संगत प्रदान करने के लिए प्रयुक्‍त किया जाता है । तबले पर हिन्‍दुस्‍तानी संगीत के कठिन ताल भी बहुत प्रवीणता के साथ बजाए जाते हैं । वर्तमान समय के कुछ प्रमुख तबला वादक हैं-उस्‍ताद अल्‍ला रक्‍खा खां और उनके सुपुत्र ज़ाकिर हुसैन, शफात अहमद और सामता प्रसाद ।

तबला
तबले की जोड़ी दो लम्‍बवत् ऊर्ध्‍वक ढोलों का एक समूह है । इसके दायें हिस्‍से को तबला कहा जाता है और बांये हिस्‍से को बांया अथवा ‘डग्‍गा’ कहते हैं । तबला लकड़ी का बना होता है । इस लकड़ी के ऊपरी हिस्‍से को पशु की खाल से ढका जाता है और चमड़े की पट्टियों की सहायता से जोड़ा जाता है । चर्म पट्टियों तथा लकड़ी के ढांचे के बीच आयताकार (चौकोर) लकड़ी के खाल के हिस्‍से के बीच में स्‍याही को मिश्रण लगाया जाता है । तबले को हथौड़ी से ऊपरी हिस्‍से के किनारों को ठोंक कर उपयुक्‍त स्‍वर को मिलाया जा सकता है । बांया हिस्‍सा मिट्टी अथवा धातु का बना होता है । इसका ऊपरी हिस्‍सा पशु की खाल से ढंका जाता है और उस पर भी स्‍याही का मिश्रण लगाया जाता है । कुछ संगीतकार इस हिस्‍से को सही स्‍वर में नहीं मिलाते ।

तबले की जोड़ी को हिन्‍दुस्‍तानी संगीत के कंठ तथा वाद्य-संगीत और उत्‍तर भारत की कई नृत्‍य शैलियों के साथ संगत प्रदान करने के लिए प्रयुक्‍त किया जाता है । तबले पर हिन्‍दुस्‍तानी संगीत के कठिन ताल भी बहुत प्रवीणता के साथ बजाए जाते हैं । वर्तमान समय के कुछ प्रमुख तबला वादक हैं-उस्‍ताद अल्‍ला रक्‍खा खां और उनके सुपुत्र ज़ाकिर हुसैन, शफात अहमद और सामता प्रसाद ।

आलिंग्‍य
तीसरा वर्ग आलिंग्‍य ढोल हैं । इन ढोलों में पशु की खाल को लकड़ी के एक गोल खांचे पर लगा दिया जाता है और गले या इसे एक हाथ से शरीर के निकट करके पकड़ा जाता है, जबकि दूसरे हाथ को ताल देने के लिए प्रयुक्‍त किया जाता है । इस वर्ग में डफ, डफली आदि आते हैं, जो बहुत प्रचलित वाद्य है ।

डमरू
डमरू ढोलों का एक अन्‍य प्रमुख वर्ग है । इस वर्ग में हिमाचल प्रदेश के छोटे ‘हुडुका’ से लेकर दक्षिणी प्रदेश का विशाल वाद्य ‘तिमिल’ तक आते हैं । पहले वाद्य को हाथ से आघात देकर बजाया जाता है, जबकि दूसरे को कंधे से लटका कर डंडियों और उंगलियों से बजाया जाता है । इस प्रकार के वाद्यों को रेतघड़ी वर्ग के ढोलों के नाम से भी जाना जाता है क्‍योंकि इनका आकार रेतघड़ी से मिलता-जुलता प्रतीत होता है ।

घन वाद्य
मनुष्‍य द्वारा अविष्‍कृत सबसे प्राचीन वाद्यों को घन वाद्य कहा जाता है । एक बार जब यह वाद्य बन जाते हैं तो फिर इन्‍हें बजाने के समय कभी भी विशेष सुर में मिलाने की आवश्‍यकता नहीं होती । प्राचीन काल में यह वाद्य मानव शरीर के विस्‍तार जैसे डंडियों, तालों तथा छडि़यों आदि के रूप में सामने आए और ये दैनिक जीवन में प्रयोग में लाई जाने वाली वस्‍तुओं, जैसे पात्र (बर्तन), कड़ाही, झांझ, तालम् आदि के साथ बहुत गहरे जुड़े हुए थे । मूलत: यह वस्‍तुएं लय प्रदान करती है और लोक तथा आदिवासी अंचल के संगीत तथा नृत्‍य के साथ संगत प्रदान करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्‍त हैं ।

झांझ वादक, कोणार्क, उड़ीसा
उड़ीसा के कोर्णाक स्थित सूर्य मंदिर में हम एक 8 फीट ऊंचा शिल्‍प देख सकते हैं, जिसमें एक स्‍त्री को झांझ बजाते हुए प्रदर्शित किया गया है ।

 

साभार- संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार

समाज की बात Samaj Ki Baat

कृष्णधर शर्मा Krishnadhar  Sharma

 

सोमवार, 4 जनवरी 2021

क्षेत्रीय संगीत

 

देश के विभिन्‍न क्षेत्रों से सांस्‍कृतिक परम्‍पराएं भारत के प्रादेशिक क्षेत्रीय संगीत की समृद्ध विविधता को परिलक्षित करती हैं । प्रत्‍येक क्षेत्र की अपनी विशेष शैली है ।

जनजातीय और लोक संगीत उस तरीके से नहीं सिखाया जाता है जिस तरीके से भारतीय शास्‍त्रीय संगीत सिखाया जाता है । प्रशिक्षण की कोई औपचारिक अवधि नहीं है। छात्र अपना पूरा जीवन संगीत सीखने में अर्पित करने में समर्थ होते हैं । ग्रामीण जीवन का अर्थशास्‍त्र इस प्रकार की बात के लिए अनुमति नहीं देता । संगीत अभ्‍यासकर्ताओं को शिकार करने, कृषि अथवा अपने चुने हुए किसी भी प्रकार का जीविका उपार्जन कार्य करने की इजाजत है।

गावों में संगीत बाल्‍यावस्‍था से ही सीखा जाता है और इसे अनेक सार्वजनिक कार्यकलापों में समाहित किया जाता है जिससे ग्रामवासियों को अभ्‍यास करने और अपनी दक्षताओं को बढ़ाने में सहायता मिलती है ।
संगीत जीवन के अनेक पहलुओं से बना एक संघटक है, जैसे विवाह, सगाई एवं जन्‍मोत्‍सव आदि अवसरों के लिए अनेक गीत हैं । पौधरोपण और फसल कटाई पर भी बहुत से गीत हैं । इन कार्यकलापों में ग्रामवासी अपनी आशाओं और आंकाक्षाओं के गीत गाते हैं ।

संगीत वाद्य प्राय: शास्‍त्रीय संगीत में पाए जाने वाले वाद्यों से भिन्‍न हैं। यद्यपि तबला जैसे वाद्य यंत्र कभी-कभी अपरिष्‍कृत ढोल, जैसे डफ, ढोलक अथवा नाल से अधिक पसंद किए जाते हैं । सितार और सरोद, जो शास्‍त्रीय संगीत में अत्‍यंत सामान्‍य हैं, लोक संगीत में उनका अभाव होता है । प्राय: ऐसे वाद्य यंत्र जैसे कि एकतार, दोतार, रंबाब और सन्‍तूर, किसी के पास भी हो सकते हैं । उन्‍हें प्राय: इन्‍हीं नामों से नहीं पुकारा जाता है, किन्‍तु उन्‍हें उनकी स्‍थानीय बोली के अनुसार नाम दिया जा सकता है । ऐसे भी वाद्य हैं जिनका प्रयोग केवल विशेष क्षेत्रों में विशेष लोक शैलियों में किया जाता है । ये वाद्य असंख्‍य हैं ।

शास्‍त्रीय संगीत वाद्य कलाकारों द्वारा तैयार किए जाते हैं जिनका कार्य केवल संगीत वाद्य निर्मित करना है । इसके विपरीत लोक वाद्यों को सामान्‍यत: खुद संगीतकारों द्वारा विनिर्मित किया जाता है ।

सामान्‍यत: यह देखा जाता है कि लोक वाद्य यंत्र आसानी से उपलब्‍ध सामग्री से ही बनाये जाते हैं । कुछ सांगीतिक बाद्य यत्रों को बनाने में आसानी से उपलब्‍ध चर्म, बॉंस, नारियल खोल और बर्तनों आदि का प्रयोग भी किया जाता है।

रसिया गीत, उत्तर प्रदेश
बृज जो भगवान कृष्‍ण की आदिकाल से ही मनोहरी लीलाओं की पवित्र भूमि है, रसिया गीत गायन की समृद्ध परम्‍परा के लिए प्रसिद्ध है । यह किसी विशेष त्‍योहार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लोगों के दैनिक जीवन और दिन-प्रतिदिन के कामकाज में भी रचा-बसा हैं । ‘रसिया’ शब्‍द रास (भावावेश) शब्‍द से लिया गया है क्‍योंकि रसिया का अर्थ रास अथवा भावावेश से है । यह गायक के व्‍यक्तित्‍व और साथ ही गीत की प्रकृति को परिलक्षित करता है ।

पंखिड़ा, राजस्थान
यह गीत खेतों में काम करते समय राजस्‍थान के काश्‍तकारों द्वारा गाया जाता है। काश्‍तकार ‘अलगोजा’और ‘मंजीरा’ बजाकर गाते और बात करते हैं । ‘पंखिड़ा’ शब्‍द का शाब्दिक अर्थ ‘प्रेम’ है ।

लोटिया, राजस्थान
लोटिया’ त्‍योहार के दौरान चैत्र मास में गाया जाता है । स्त्रियॉं, तालाबों और कुओं से पानी से भरे ‘लोटे (पानी भरने का एक बर्तन) और कलश (पूजा के दौरान पानी भरने के लिए शुभ समझा जाने वाला एक बर्तन) लाती हैं । वे उन्‍हें फूलों से सजाती हैं और घर आती हैं ।

पंडवानी, छत्‍तीसगढ
पंडवानी में, महाभारत से एक या दो घटनाओं को चुन कर कथा के रूप में निष्‍पादित किया जाता है । मुख्‍य गायक पूरे निष्‍पादन के दौरान सतत रूप से बैठा रहता है और सशक्‍त गायन व सांकेतिक भंगिभाओं के साथ एक के बाद एक सभी चरित्रों की भाव-भंगिमाओं का अभिनय करता है ।

शकुनाखार, मंगलगीत, कुमाऊँ
हिमालय की पहाडियों में शुभ अवसरों पर असंख्‍य गीत गाए जाते हैं । शकुनाखर, शिशु स्‍नान, बाल जन्‍म, छठी (बच्‍चे के जन्‍म से छठे दिन किया जाने वाला एक संस्‍कार), गणेश पूजा आदि के धार्मिक समारोहों के दौरान गाया जाता है ।ये गीत केवल महिलाओं द्वारा बिना किसी वाद्य यंत्र के गाए जाते हैं ।
प्रत्‍येक शुभ अवसर पर शकुनाखर में अच्‍छे स्‍वास्‍थ्‍य और लम्‍बे जीवन की प्रार्थना की जाती है ।

बारहमास, कुमायुँ
कुमाऊँ के इस आंचलिक संगीत में वर्ष के बारह महीनों का वर्णन प्रत्‍येक माह की विशेषताओं के साथ किया जाता है । एक गीत में घुघुती चिडिया चैत मास की शुरुआत का संकेत देती है । एक लड़की अपनी ससुराल में चिडिया से न बोलने के लिए कहती है क्‍योंकि वह अपनी मॉं (आईजा) की याद से दु:खी है और दुख महसूस कर रही है ।

मन्डोक, गोवा
गोवाई प्रादेशिक संगीत, भारतीय उपमहाद्वीप के पारम्पजरिक संगीत का भण्डार है । ‘मन्डों’ गोवाई संगीत की परिशुद्ध रचना एक धीमी लय है और पुर्तगाली शासन के दौरन प्रेम, दुख और गोवा में सामजिक अन्यायय और राजनीतिक विरोध से संबंधित एक छंद बद्ध संरचना है ।

आल्हान, उत्तर प्रदेश
बुन्‍देलखण्‍ड की एक विशिष्‍ट गाथा, शैली आल्‍हा में देखने को मिलती है जिसमें आल्‍हा और ऊदल, दो बहादुर भाइयों के साहसिक कारनामों का उल्‍लेख किया जाता है, जिन्‍होंने महोबा के राजा परमल की सेवा की थी । यह न केवल बुन्‍देलखण्‍ड का एक सर्वाधिक लोकप्रिय संगीत है बल्कि देश में अन्‍यत्र भी लोकप्रिय है ।

आल्‍हा, सामन्‍ती बहादुरी की गाथाओं से भरा है, जो सामान्‍य आदमी को प्रभावित करता है । इसमें समाज में उस समय में विद्यमान नैतिकता, बहादुरी और कुलीनता के उच्‍च सिद्धान्‍तों पर प्रकाश डाला गया है ।

होरी, उत्तर प्रदेश
होरी का इतिहास, इसका विकास और परम्प रा काफी प्राचीन है । यह ‘राधा-कृष्णल’ के प्रेम प्रसंगों पर आधारित है । होरी गायन मूलत: केवल होली त्यो हार के साथ जुडा है । बसन्तर ऋतु के दौरान भारत में होरी के गीत गाने और होली मनाने की परम्पारा प्राचीनकाल से जारी है………..’बृज में हरि होरी मचाई’……………..।
सोहर, उत्‍तर प्रदेश

सामजिक समारोह समय-समय पर, भिन्‍न-भिन्‍न संस्‍कृतियों को परस्‍पर जोडने का एक महत्‍त्‍वपूर्ण कारक हैं । उत्‍तर भारत में परिवार में पुत्र जन्‍मोत्‍सव में ‘सोहर’ गायन की एक उत्‍साही परम्‍परा है । इसने मुस्लिम संस्‍कृति को प्रभावित किया है तथा उत्‍तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में रहने वाले मुस्लिम परिवार ‘सोहर गीत’ गाकर पैसा भी कमाते हैं । ‘सोहर गीत’ नि:संदेह दो संस्‍कृतियों को मिलाने वाले गीत हैं ।

छकरी, कश्‍मीर

छकरी एक समूह गीत है जो कश्‍मीर के लोक संगीत की एक सर्वाधिक लोकप्रिय शैली है। यह नूत (मिट्टी का बर्तन), रबाब, सांरगी आरैर तुम्‍बाकनरी (ऊँची गर्दन वाला मिट्टी का एक बर्तन), के साथ गाया जाता है ।

लमन, हिमाचल प्रदेश

लमन’में बालिकाओं का एक समूह, एक छन्‍द गाता है और लड़कों का एक समूह गीत के जरिए उत्‍तर देता है । यह घन्‍टों तक चलता है । यह रुचिकर इसलिए है कि इसमें लड़कियां पहाड़ की चोटी पर गाते हुए शायद ही दूसरी चोटी पर गाने वाले लड़कों का मुख देखती हैं । बीच में पहाड़ होता है जहाँ प्रेम गीत गूँजता है । इनमें से अधिकांश गीत विशेष रूप से कुल्‍लू घाटी में गाए जाते हैं ।

कजरी, उत्‍तर प्रदेश

कजरी, वर्षा ऋतु के दौरान उत्‍तर प्रदेश और निकटवर्ती क्षेत्र में महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला एक लोक गीत है । भाद्र के द्वितीय पक्ष में तीसरे दिन महिलाएं, एक अर्ध-गोलाकार में नृत्‍य करते हुए पूरी रात गाती हैं ।

कव्‍वाली

मूलत: कव्‍वालियॉं ईश्‍वर की प्रशंसा में गाई जाती थीं । भारत में कव्‍वाली का आगमन तेरहवीं शताब्‍दी के आस-पास फारस से हुआ है और सूफियों ने अपने संदेश का प्रसार करने के लिए अपनी सेवाऍं प्रदान कीं । अमीर खुसरो (1254-1325), एक सूफी संत तथा एक प्रवर्तक ने, कव्‍वाली के विकास में योगदान किया । यह संरचना के एक स्‍वरूप की बजाए गायन की एक विधि है । कव्‍वाली एकल और सामूहिक विधियों का एक मोहक एवं परस्‍पर बदलता उपयोग है ।

टप्‍पा, पंजाब

टप्‍पा, पंजाब क्षेत्र में ऊँटों पर सवारी कर विचरने वालों द्वारा प्रेरित अर्ध-शस्‍त्रीय कठंगीत का स्‍वरूप है । टप्‍पा, पंजाबी और प्रश्‍तो भाषा में रागों में गाया जाता है जिसका सामान्‍यत: उपयोग अर्ध-शास्‍त्रीय स्‍वरूप के लिए किया जाता है । लयबद्ध और द्रुतगीत स्‍वर के साथ तेजी से ऊपर उठना इसकी विशेषता है ।

पोवाडा, महाराष्‍ट्र

पोवाडा, महाराष्‍ट्र की एक पारम्‍परिक लोक कला शैली है । पोवाडा शब्‍द का अर्थ,’ शानदार शब्‍दों में एक कहानी का वृतान्‍त है । वृतान्‍त सदैव किसी वीर अथवा घटना अथवा स्‍थान की प्रशंसा में सुनाया जाता है । मुख्‍य वृतान्‍तकर्ता को शाहीर के नाम से जाना जाता है जो लय बनाए रखने के लिए डफ बजाता है । गीत तीव्र होता है और मुख्‍य गायक द्वारा नियंत्रित होता है जिसका समर्थन मंडली के अन्‍य सदस्‍यों द्वारा किया जाता है ।

प्राचीनतम उल्‍लेखनीय पोवाडा अग्निदास द्वारा रचित अफज़ल खानचा वध (अफज़ल खाँ का वध ) (1659) था, जिसने अफज़ल खाँ के साथ शिवाजी के संघर्ष का वर्णन किया था।

तीज गीत, राजस्‍थान

तीज, राजस्‍थान की महिलाओं की बडी भागीदारी के साथ मनाई जाती है । सह श्रावण मास के नए चन्‍द्र अथवा अमावस्‍या के बाद तीसरे दिन मनाई जाती है । त्‍योहार के दौरान गाए जाने वाले गीतों का विषय शिव और पार्वती का मिलन, मानसून की मनमोहक छठा, हरियाला मौसम, मयूर नृत्‍य आदि के इर्द-गिर्द होता है।

बुर्राकथा, आन्‍ध्र प्रदेश

बुर्राकथा, गाथा रूप में एक उच्‍च कोटि की नाटक शैली है । इसमें मुख्‍य कलाकार द्वारा गाथा वर्णन के दौरान बोतल आकार का एक ड्रम (तम्‍बूरा) बजाया जाता है । गाथा गायक, मंच नायक की तरह अत्‍यंत बनी बनाई आकर्षक पोशाक पहनता है ।

भाखा, जम्‍मू और काश्‍मीर

लोक संगीत की भाखा शैली जम्‍मू क्षेत्र में लोकप्रिय है । भाखा का गायन ग्रामवासियों द्वारा फसल काटने के समय किया जाता है । इसे सर्वाधिक मोहक और सुरीला क्षेत्रीय संगीत समझा जाता है । यह, हारमोनियम जैसे वाद्यों के साथ गाया जाता है।

भूता गीत, केरल

भूता गीत का आधार अन्‍धविश्‍वास से जुडा है । केरल के कुछ समुदाय भूत- प्रेत को भगाने के लिए भूता रिवाज अपनाते हैं । इस रिवाज के साथ श्रमसाघ्‍य नृत्‍य का आयोजन किया जाता है तथा इसकी प्रकृति बडी तीव्र और भयानक होती है ।

दसकठिया, ओडिशा

दसकठिया ओडिशा में प्रचलित गाथा गायन की एक शैली है । दसकठिया शब्‍द ‘काठी’ अथवा ‘राम ताली’ नामक एक काष्‍ठ से बने संगीत वाद्य से लिया गया नाम है, जिसका उपयोग प्रस्‍तुतीकरण के दौरान किया जाता है । प्रस्‍तुतीकरण एक प्रकार की पूजा है तथा भक्‍त ‘दास’ की ओर से भेंट है।

बि‍हू गीत, असम

बि‍हू गीत अपनी साहित्यिक विषयवस्‍तु और सांगीतिक विधि दोनों ही दृष्टि से असम की अति विशिष्‍ट शैली के लोक गीत हैं । बि‍हू गीत एक खुशहाल नव वर्ष के लिए शुभकामनाओं का प्रतीक हैं तथा नृत्‍य के साथ-साथ सुख-समृद्धि हेतु एक प्राचीन उपासना की परम्‍परा जुडी है। बि‍हू गायन का समय ही एक ऐसा अवसर है जब विवाह योग्‍य युवा पुरुष और महिलाएं अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करते हैं और अपने सा‍थी का चुनाव भी करते हैं ।उनकी खुशी गीतों में परिलक्षित होती है ।

साना लामोक, मणिपुर

मणिपुर की पहाडियां और घाटि‍यां दोनों ही संगीत और नृत्‍य की शौकीन हैं । साना लामोक ‘माईबा(पुजारी)’ द्वारा राज्‍याभिषेक समारोह के दौरान गाया जाता है । यह बादशाह का स्‍वागत करने के लिए भी गाया जाता है ।इसे पाखंगबा, प्रधान देवता, की आत्‍मा को जाग्रत करने के लिए गाया जाता है । ऐसा विश्‍वास है कि यह गीत जादुई शाक्तियों से प्रभावी है ।

लाई हाराओबा त्‍योहार के गीत, मणिपुर

लाई हाराओबा शब्‍द का अर्थ देवी और देवताओं का त्‍योहार है । इसे उमंग-लाई (वनदेवता) के लिए गाया जाता है । औगरी हेंगेन, सृजन का गीत और हेईजिंग हिराओ, एक आनुष्‍ठानिक गीत, लाई हाराओबा त्‍योहार के अन्तिम दिवस पर गाया जाता है ।

साईकुती ज़ई (साईकुती के गीत), मिजोरम

मिजो लोगों को पारम्‍परिक रूप से, एक ‘गायक जनजाति’के रूप में जाना जाता है । मिजोरम के क्षेत्रीय लोक गीत मिजो लोगों की एक समृद्ध परम्‍परा है । साईकुती मिजोरम की एक कवयित्री द्वारा रचित गीत हैं जिन्‍हें योद्धाओं, बहादुर शिकारियों तथा महान योद्धा और शिकारी आदि बनने के इच्‍छुक युवा व्‍यक्तियों की प्रशंसा में गाया जाता है ।

चाई हिआ (चाई नृत्‍य के गीत) , मिजोरम

मिजो रिवाज के अनुसार चपचर कट त्‍योहार के दौरान न केवल गायन बल्कि नृत्‍य भी पूरे त्‍योहार के दौरान जारी रहना चाहिए । गायन और नृत्‍य के लिए विशेष अवसर को ‘चाई तथा गीतों को ‘चाई हिया’ (चाई गीत) के नाम से जाना जाता है ।

बसन्‍ती/बसन्‍त गीत, गढवाल

बसन्‍त ऋतु का स्‍वागत गढवाल में एक अनूठे ढंग से किया जाता है । धरती भॉति-भॉति के रंगीन फूलों से सजी होती है । बसन्‍त पचंमी के अवसर पर फर्श पर चावल के आटे
से रंगोली बनाई जाती हैं और सुन्‍दर बनाने हेतु गाय के गोबर के साथ हरे जई के बन्‍डलों का इस्‍तेमाल किया जाता है । पेड़ों पर झूले बांधे जाते हैं और लोक गीत गाए जाते हैं ।

घसियारी गीत, गढवाल
पहाडों में युवा महिलाओं को अपने पशुओं के लिए घास लाने के लिए दूर-दूर वनों में जाना पडता है । वे वन में समूहों में नाचती और गाती हुए जाती हैं । मनोरंजन के साथ-साथ घसियारी गीत में श्रम के महत्त्‍व पर बल दिया जाता है ।

सुकर के बियाह, भोजपुरी गीत
भोजपुरी गीतों में सामान्‍य लोगों के जीवन का वर्णन किया जाता है । इसमें मन की सरल एवं सहज अन्‍दरूनी भावनाओं को व्‍यक्‍त किया जाता है । ग्रामीण लोकगीतों में प्रकृति, ग्रहों और नक्षत्रों की अपनी ही व्‍याख्‍याएं हैं । शुक्र और वृहस्‍पति‍ की कहानी अब भी गाई जाती है – किस प्रकार शुक्र विवाह के आभूषण भूल जाता है और उन्‍हें लेने के लिए वापस आता‍ है जहां वह अपनी माता को चावल का पानी पीता देखता है जो एक गरीब आदमी का खाना है। अपनी माता से इसके बारे में पूछने पर उसकी माता जवाब देती है कि वह नहीं जानती कि क्‍या शुक्र की ऐसी पत्‍नी होगी जो उसे चावल का पानी भी देगी अथवा नहीं । शुक्र अविवाहित रहने का निर्णय लेता है ।

विल्‍लु पत्‍तु ‘धनुष गीत’, तमिलनाडु
विल्‍लु पत्‍तु तमिलनाडु का एक लोकप्रिय लोक संगीत है । प्रमुख गायक मुख्‍य निष्‍पादनकर्ता की भी भूमिका निभाता है । वह प्रमुख वाद्य बजाता है जो धनुष के आकार का होता है । गीत सैद्धान्तिक विषयों पर आधारित होते हैं और अच्‍छाई की बुराई पर विजय पर बल दिया जाता है ।

अम्‍मानईवारी, तमिलनाडु
अम्‍मानईवारी, चोला बादशाह की प्रशंसा में गाए जाने वाले गीत हैं । अम्‍मानाई एक लकड़ी की गेंद है तथा महिलाएं गेंद खेलते समय उपयुक्‍त गीत गाती हैं । अम्‍मानाई का यह खेल अभी भी तमिलनाडु में खेला जाता है ।

भारत के प्रादेशिक संगीत संदर्भित पुस्‍तकें/वेबसाइड

  • राजस्‍थान का लोक संगीत, शन्‍नो खुराना,
  • सीसीआरटी द्वारा प्रकाशित भारतीय संगीत पर गाइड बुक,

– ‘कीवर्ड्स ऐण्‍ड कॉन्‍सेप्‍ट्स ऑव् हिन्‍दुस्‍तानी क्‍लासिकल म्‍युजि‍क, अशोक दा रानाडे फोक सॉंग्‍ंस ऑफ गोवा, आर्यन बुक इन्‍टरनेशनल

  • हिन्‍दुस्‍तानी संगीत में होली गान, नीता माथुर कुमाऊँनी लोकगीत तथा संगीत शास्‍त्रीय परिवेश, डा. ज्‍योति तिवारी
  • डब्‍ल्‍यू डब्‍ल्‍यू डब्‍ल्‍यू महाराष्‍ट्र टूरिज्‍म.नेट म्‍युजिक कल्‍चर ऑव् नार्थ ईस्‍ट इण्डिया, डॉं प्रभा शर्मा
  • पौड़ी गढवाल के लोक संगीत का विश्‍लेषणात्‍मक अध्‍ययन/ डा. शिखा ममगाई, डा. सुधा सहगल

भोजपुरी क्षेत्र के विवाह गीत, चन्‍द्रमणि सिंह

म्‍युजिक थ्रू दि एजिस्, प्रेमलता वी.

 

साभार- संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार

समाज की बात Samaj Ki Baat

कृष्णधर शर्मा Krishnadhar  Sharma