नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 16 जनवरी 2017

चुनाव में धर्म, जाति, और भाषा का दुरुपयोग प्रतिबंधित

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने अपने पद से विदा देने के पूर्व एक अत्यधिक महत्वपूर्ण निर्णय किया। इस निर्णय से धर्मनिरपेक्षता पर आधारित हमारे गणतंत्र की नींव और मजबूत होगी। सर्वोच्च न्यायालय की एक सात सदस्यीय पीठ ने स्पष्ट निर्णय दिया है कि चुनावों में धर्म, जाति और भाषा का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।
वैसे तो हमारे जनप्रतिनिधित्व कानून में पहले से ही इस तरह का प्रावधान था परंतु उस प्रावधान के होते हुए भी अनेक पार्टियां धर्म का उपयोग चुनाव प्रचार में करती थीं। जैसे बाबरी मस्जिद के ध्वंस के पूर्व और ध्वंस के बाद खुलेआम भारतीय जनता पार्टी ने संपूर्ण देश के वातावरण को सांप्रदायिक बना दिया था। चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि ‘मंदिर वहीं बनेगा’ और यह कहने में भी नहीं हिचकिचाए कि ‘राम द्रोही, देश द्रोही’। चुनावी सभाओं में भी ‘जय श्रीराम’ के नारे लगते थे। यहां तक कि एक अवसर पर भारतीय जनता पार्टी के सर्वमान्य नेता लालकृष्ण आडवानी ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था कि केन्द्र की सत्ता में आने का बहुत बड़ा श्रेय राम मंदिर आंदोलन को है।
यद्यपि पिछले लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने विकास का नारा दिया था परंतु मैदानी हकीकत यह थी कि अनेक मुद्दों पर सांप्रदायिक आधार पर प्रचार किया गया। अब चूंकि सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि चुनावों में धर्म, जाति और भाषा का दुरुपयोग एक भ्रष्ट आचरण समझा जाएगा और इसके चलते अब शायद चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार धर्म, जाति और भाषा के आधार पर चुनाव प्रचार करने का साहस नहीं करेगा।
अपना निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि धर्म को सिर्फ व्यक्ति तक सीमित रखना चाहिए और उसका उपयोग किसी भी सार्वजनिक और विशेषकर राजनीति में कतई नहीं करना चाहिए। चूंकि चुनाव में धर्म के उपयोग से अनेक लोग वोट कबाडऩे में सफल हो जाते थे इसलिए पिछले दिनों इस प्रवृत्ति को बहुत बढ़ावा मिला।
आप कल्पना कीजिए कि यदि हमारी न्यायपालिका पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं होती तो शायद उसके लिए इस तरह का निर्णय करना संभव नहीं होता। मोदी सरकार ने आते ही न्यायपालिका पर सरकार का नियंत्रण मजबूत करने के प्रयास प्रारंभ कर दिए थे। इसी प्रयास के चलते राष्ट्रीय न्यायिक आयोग बनाने का प्रस्ताव किया गया था। इस आयोग को सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का अधिकार देना प्रस्तावित था। इस आयोग के छह सदस्य प्रस्तावित किए गए थे इनमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त  दो और न्यायाधीश, केन्द्रीय कानून मंत्री और दो प्रतिष्ठित नागरिक थे। इस आयोग के निर्णय बहुमत के आधार पर होने थे। ये दो प्रतिष्ठित नागरिक कौन होंगे, इसे स्पष्ट नहीं किया गया था। इसी तरह पूर्व में कभी भी किसी भी आयोग का सदस्य मंत्री को नहीं बनाया गया था। स्पष्ट है कि ये तथाकथित प्रतिष्ठित सदस्य सत्ताधारी दल से जुड़े होते। उसके अतिरिक्तविधि मंत्री मिलाकर तीन सदस्य हो जाते और फिर किसी एक न्यायाधीश को अपने पक्ष में करके न्यायपालिका में सारी नियुक्तियां सरकार की मंशा के अनुसार होतीं। परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इस आयोग के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया और इस तरह एक बहुत बड़े खतरे से देश को बचा लिया। उसके बाद भी अभी अन्य तरीकों से न्यायपालिका पर नियंत्रण पाने के प्रयास जारी हैं। जैसे उच्च न्यायालयों में अभी 430 से ज्यादा न्यायाधीशों के पद रिक्त हैं। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने बार-बार इस बात पर जोर दिया कि इन पदों को शीघ्र भरा जाए। परंतु केन्द्रीय सरकार ने इस संबंध में लगभग चुप्पी साध ली है और कॉलेजियम द्वारा प्रस्तावित न्यायाधीशों की नियुक्ति के प्रस्ताव पर अभी तक कुछ नहीं कहा है। इससे उच्च न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या लाखों तक पहुंच गई है।
न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर ने अपने कार्यकाल के दौरान न्यायपालिका की स्वतंत्रता के बारे में अपनी प्रतिबद्धता पूरी तरह से दिखाई। अपने विदाई समारोह में उन्होंने यहां तक कहा कि मेरी कामना है कि हमारे देश की न्यायपालिका स्वतंत्र और निष्पक्ष बनी रहे। उनके इन शब्दों की केन्द्रीय विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सार्वजनिक रूप से आलोचना की। पूर्व में शायद ही कभी सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के विचारों पर इस तरह की आलोचनात्मक टिप्पणी की गई हो।
चुनाव के संबंध में जो निर्णय सर्वोच्च न्यायालय ने दिया है उसे पूरी तरह से लागू करना अत्यधिक कठिन काम होगा। पूर्व में देखा गया है कि न्यायपालिका के अनेक ऐतिहासिक निर्णयों का क्रियान्वयन ईमानदारी ने नहीं हो पाता है। इस तरह के निर्णयों का ईमानदारी से क्रियान्वयन उसी समय संभव होगा जब जनचेतना जागृत की जाए और इस तरह के सभी संगठनों को जिनकी धर्मनिरपेक्षता पर आस्था है इस तरह की जनचेतना उत्पन्न करने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि अभी भी देश में ऐसे लोग हैं जो अत्यधिक आपत्तिजनक बातें सार्वजनिक रूप से कहते हैं। जैसे संघ परिवार और शिवसेना से जुड़े अनेक नेता सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि यदि उनका बस चले तो वे अल्पसंख्यकों के मताधिकार को समाप्त कर दें। इस तरह की भाषा भी हमारे देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को कमजोर करने वाली है। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से इस तरह की बातें करना भी आपत्तिजनक और भ्रष्ट आचरण समझा जाएगा। क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट कर दिया है कि धर्म, जाति और भाषा का उपयोग सार्वजनिक जीवन में नहीं किया जाना चाहिए, वह व्यक्ति तक ही सीमित रहना चाहिए। इसलिए इस बात की आवश्यकता है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को अमलीजामा पहनाने के लिए उन सब लोगों को एकजुट हो जाना चाहिए जो चाहते हैं कि हमारे देश के लोकतंत्र का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप कायम रहे।
यह  सभी को ज्ञात है कि केन्द्र में जिस राजनीतिक दल की सरकार है उसका वैचारिक संबंध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा हमारे देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की है। यदि हिन्दू राष्ट्र बनाने के प्रयासों को शिकस्त देना है तो सारे देश को सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के समर्थन में खड़े हो जाना चाहिए और उसे लागू करवाने में एकजुट होकर प्रयास करना चाहिए।
 एल.एस. हरदेनिया

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