नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 26 अगस्त 2018

देख कबीरा रोया-भगवतीशरण मिश्र

 "मैं कबीर, जाति-पांति का पता नहीं, धर्म-संप्रदाय में आस्था नहीं, जिह्वा पर लगाम नहीं, सीधे को उलटा और उलटे को सीधा कहने का आदी, उलटवांसियों के लिए ख्यात-कुख्यात, आज चला हूं लिखने अपनी आत्मकथा-अपनी राम-कहानी।  आप पूछियेगा यह आत्मकथा है कि भूतगाथा? सच पूछिए तो मैंने कभी लिखा नहीं-अपने जीवनकाल में भी। 'मसि कागद छुओ नहीं' इस मेरी प्रसिद्ध उक्ति से आप भी अनभिज्ञ नहीं। जब पढ़ा ही नहीं तो लिखता क्या? जो स्याही कागज से भी दूर रहा वह क्या खाक पढ़ता व लिखता? ऐसे भी पढाई के प्रति मेरी धारणा से बच्चा-बच्चा परिचित है, भले ही इस उक्ति का बहुतों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया हो- 'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।" (देख कबीरा रोया-भगवतीशरण मिश्र)



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गुरुवार, 16 अगस्त 2018

तमस-भीष्म साहनी

 "मुहल्लों के बीच अब लीकें खिंच गई थीं, हिंदुओं के मुहल्ले में मुसलमान को जाने की अब हिम्मत नहीं थी, और मुसलमानों के मुहल्ले में हिन्दू-सिख अब नहीं आ-जा सकते थे। आँखों में संशय और भय उतर आये थे। गलियों के सिरों पर, और सड़कों के नाकों पर जगह-जगह कुछ लोग हाथों में लाठियाँ और भाले लिये और मुश्कें बाँधे, छिपे बैठे थे। जहाँ कहीं हिन्दू और मुसलमान पड़ोसी एक-दूसरे के पास खड़े थे, बार-बार एक ही वाक्य दोहरा रहे थे : 'बहुत बुरा हुआ, बहुत बुरा हुआ है। इससे आगे वार्तालाप बढ़ ही नहीं पाता था। वातावरण में जड़ता-सी आ गई थी। सभी लोग मन ही मन जानते थे कि यह कांड यहीं पर ख़त्म होनेवाला नहीं है, लेकिन आगे क्या होगा किसी को भी नहीं मालूम नहीं था।" (तमस-भीष्म साहनी)




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