उन्हें ख़्याल आया कि पहले जब अभी उनकी नींद रही होती, उन्हें गली में से एक भिखारी बाबा की आवाज़ सुन जाया करती थी-'उठ जाग मुसाफिर भोर हुई। अब रात कहाँ जो सोवत है।' वह उतनी सुरीली नहीं थी, जितनी सुबह उठते ही कानों में पड़नी चाहिए परन्तु इतनी फटी हुई, कर्कश अथवा चिल्लाहट भरी भी नहीं थी, जैसी भिखारी ध्यान खींचने और तरस का पात्र बनने के लिए बना लेते हैं.
बहुत दिनों से उन्होंने इस आवाज़ को नहीं सुना था। कौन जानता है कब उस आवाज़ का दम टूट गया होगा। मर मरा गया होगा कहीं बस से टकराकर, गाड़ी के नीचे आकर या किसी बम विस्फोट में। आजकल हर क़दम पर जूते के नीचे कोई न कोई बम फटने का इन्तज़ार कर रहा होता है। और फिर ऐसे लोगों के मरने की ख़बर न तो आकाशवाणी से प्रसारित होती है, न कोई शोक पुस्तिका पर हस्ताक्षर करने आता है। सर्वधर्म शान्ति पाठ भी नहीं होता। जिन्दा है तब भी आधे मुर्दों में शामिल। मर गए तो मर गए। (सुभद्रा कुमारी चौहान की लोकप्रिय रचनाएँ- सुभद्रा कुमारी चौहान)
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