नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 2 फ़रवरी 2025

आदिवासी बच्चों का अनोखा स्कूल

मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में ऐसा आवासीय स्कू ल है, जहां न केवल पलायन करने वाले आदिवासी मजदूरों के बच्चे पढ़ते हैं बल्कि हुनर भी सीखते हैं 

मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में ऐसा आवासीय स्कूल है, जहां न केवल पलायन करने वाले आदिवासी मजदूरों के बच्चे पढ़ते हैं बल्कि हुनर भी सीखते हैं। यहां उनकी पढ़ाई भिलाली, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में होती है। वे यहां खेती-किसानी से लेकर कढ़ाई, बुनाई, बागवानी और मोबाइल पर वीडियो बनाना सीखते हैं। आज के कॉलम में इस अनोखे स्कूल की कहानी सुनाना चाहूंगा, जिससे यह पता चले कि स्थानीय लोग भी स्कूल बना सकते हैं, चला सकते हैं और उनके बच्चों को शिक्षित कर सकते हैं।  

मैं इस स्कूल को देखने और समझने दो बार जा चुका हूं। स्कूल के अतिथि गृह में ठहरा हूं। इस दौरान शिक्षकों, छात्रों और ग्रामीणों से मिला हूं। कई गांवों में गया हूं। मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि यहां का स्कूल बहुत ही अनुशासित, व्यवस्थित और नियमित है। स्कूल के साथ-साथ प्रकृति से जुड़कर पढ़ाने पर जोर दिया जाता है। यहां के अधिकांश शिक्षक स्वयं आदिवासी हैं, और इनमें से एक-दो तो इसी स्कूल से पढ़े हैं।  

पश्चिमी मध्यप्रदेश का अलीराजपुर जिला सबसे कम साक्षरता वाले जिलों में से एक है। यहां के बाशिन्दे भील आदिवासी हैं। यहां की प्रमुख आजीविका खेती है। लेकिन चूंकि असिंचित और पहाड़ी खेती है, इसलिए अधिकांश लोग पलायन करते है। यहां के अधिकांश लोग राजस्थान और गुजरात में मजदूरी के लिए जाते हैं, इसलिए उनके बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाती थी। लेकिन इस आवासीय स्कूल से बच्चों की पढ़ाई हो रही है। 

 इस इलाके में आदिवासियों के हक और सम्मान के लिए खेडुत मजदूर चेतना संगठन सक्रिय रहा है। शुरूआत में इस संगठन ने अनौपचारिक रूप से आदिवासी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। लेकिन बाद में इसके कार्यकर्ता कैमत गवले व गांववासियों ने मिलकर ककराना गांव में आवासीय स्कूल की शुरूआत की। यह वर्ष 2000 की बात है। स्कूल का नाम रानी काजल जीवनशाला है। यह स्कूल, मध्यप्रदेश शिक्षा विभाग में पंजीकृत है और यहां माध्यमिक स्तर की शिक्षा दी जाती है।  

स्कूल के प्राचार्य निंगा सोलंकी बताते हैं कि वर्ष 2008 में हमने कल्पांतर शिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र समिति गठित की, जो स्कूल के संचालन के लिए वित्तीय मदद जुटाती है। हाल ही में महिला जगत लिहाज समिति नामक संस्था ने भी संचालन में सहयोग करना शुरू किया है,जिसकी मदद से नए भवन बने हैं और छात्रावास भी संचालित हो रहा है। स्कूल का सर्व सुविधायुक्त परिसर है, भवन हैं और 2 एकड़ जमीन है, जिसमें हरे-भरे पेड़-पौधों के साथ जैविक खेती भी होती है।  

यह परिसर पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यहां मिट्टी-पानी का संरक्षण हो, यह सुनिश्चित किया जा रहा है। मिट्टी का क्षरण न हो और पानी की एक बूंद भी परिसर से बाहर न जाए, इसलिए परिसर में पेड़-पौधों का रोपण किया गया है। यहां सागौन, महुआ, शीशम, कटहल, बादाम, सीताफल, जाम, नीम, नींबू, अंजन जैसे करीब 2000 पौधे रोपे गए हैं। विद्यार्थी प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व संवर्धन का काम करते हैं। परिसर में सैकड़ों तरह के पक्षियों का बसेरा भी है।  

वे आगे बताते हैं कि आदिवासी बच्चों के लिए आवासीय स्कूल की जरूरत है, क्योंकि उनके परिवार में पढ़ाई-लिखाई का कोई माहौल नहीं है। वे आजाद भारत में पहली पीढ़ी हैं, जो शिक्षित हो रहे हैं। हमने यह महसूस किया कि बच्चों को एक दिन के स्कूल की तुलना में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। इसलिए आवासीय स्कूल का निर्णय लिया गया। दैनिक स्कूलों में कामकाज की समीक्षा से पता चला कि अशिक्षित माता-पिता के बच्चों के प्रभावी शिक्षण के लिए उन्हें नियमित स्कूली घंटों के अलावा भी पढ़ाने की जरूरत है। इन्हें जो शिक्षक पढ़ाते हैं, वे भी उनके बीच के हैं और परिसर में ही रहते हैं।  

इस शाला का नाम आदिवासियों की देवी रानी काजल के नाम पर रखा गया है। जिसके बारे में मान्यता है कि यह देवी महामारी व संकट के समय उनकी रक्षा करती है। स्कूल की फीस का ढांचा ऐसा है कि अभिभावक इसे वहन कर सकें।  प्राचार्य सोलंकी बतलाते हैं कि इस स्कूल का उद्देश्य आदिवासी पहचान और संस्कृति का संरक्षण करना भी है। इसमें दूसरी कक्षा तक भिलाली भाषा में बच्चों को पढ़ाया जाता है। और इसके बाद हिन्दी और अंग्रेजी भी पढ़ाई जाती है। कुछ भीली किताबों का अंग्रेजी और हिन्दी में भी अनुवाद किया गया है।  

वे आगे बताते हैं कि यहां पढ़ाई के साथ हाथ के हुनर व कारीगरी सिखाई जाती है। किसानी, लोहारी, बढ़ईगिरी, सिलाई और बागवानी इसमें प्रमुख हैं। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश शिक्षा मंडल द्वारा आयोजित पांचवी और आठवीं कक्षा की परीक्षाओं में इस विद्यालय के विद्यार्थी जिले में अव्वल आए थे। कुछ अधिकारी और सरकारी नौकरियों में गए हैं। स्कूल के एक शिक्षक हैं, जो पहले इसी स्कूल के विद्यार्थी रह चुके हैं। पहली बार नर्मदा किनारे गांवों की लड़कियां पढ़ रही हैं, और उनमें से एक शिक्षिका भी बन गई हैं।  इसके अलावा, यहां आधुनिक रिकार्डिंग स्टूडियों भी है, जहां आदिवासी संस्कृति पर वीडियो बनाए जाते हैं, इसका भील वॉयस नामक एक यू ट्यूब चैनल भी है, जिसमें कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं।  

स्कूल की शुरूआत में बिना पाठ्यपुस्तकों के ही पढ़ाई होती थी। भिलाली और हिन्दी में बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया जाता था। लेकिन जल्द ही पाठ्यक्रम विकसित किया गया। अब तो मध्यप्रदेश के स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा कौशल आधारित शिक्षा व प्रशिक्षण दिया जाता है।  

हर साल गर्मी की छुट्टियों के दौरान प्राचार्य निंगा सोलंकी और शिक्षिका रायटी बाई ने नई शिक्षण पद्धति अपनाई है। वे पाठ्यक्रम से संबंधित शैक्षणिक वीडियो व आडियो बनाते हैं, जिन्हें बाद में बच्चों के माता-पिता के मोबाइल पर साझा किया जाता है। इससे बच्चे परिसर के बाहर घर में भी उनकी पढ़ाई जारी रखते हैं। महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए फोन कॉल और संदेशों का आदान-प्रदान भी किया जाता है।  

प्राचार्य सोलंकी बतलाते हैं कि आदिवासियों की संस्कृति, बोलियां और जीवनशैली आधुनिक प्रभावों के कारण तेजी से बदल रही है। उनकी पारंपरिक जीवनशैली का अनूठापन लुप्त हो रहा है, इसलिए हमने भीली में यह कार्यक्रम शुरू किया है, जिससे उसका संरक्षण किया जा सके।  

इसके लिए अमेरिका में प्रवासीय भारतीय प्रोफेसर उत्तरन दत्ता ने सहयोग दिया है और उनके मार्गदर्शन में 15-20 बच्चों को मोबाइल वीडियोग्राफी और वीडियो संपादन का प्रशिक्षण दिया गया है। इसके माध्यम से लोकगीत, कहानियां और पारंपरिक उपचार विधियों और जंगलों के खान-पान व महत्व पर आधारित कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं।  

कुल मिलाकर, यह आदिवासी मजदूर बच्चों का आवासीय स्कूल है, जिसमें न केवल पढ़ाई करते हैं, बल्कि गतिविधि आधारित शिक्षा भी हासिल करते हैं। प्रकृति अवलोकन, श्रम आधारित उत्पादन पद्धति से भी सीखते हैं। उनकी भीली-भिलाली भाषा में मौलिक अभिव्यक्ति भी करते हैं। इसके लिए उनका यू ट्यूब चैनल भी है। इस स्कूल के मूल्यों में एक आदिवासी पहचान,संस्कृति व अच्छी परंपराओं का संरक्षण करना भी है।  

इस स्कू ल की खास बात यह भी है कि स्कूली शिक्षक उनके बीच रहते हैं। जिज्ञासा, सवाल व समस्याओं के हल के लिए सहज ही उपलब्ध हैं। वे एक परिवार की तरह रहते हैं। बच्चों को तोतारटंत किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि श्रम के मूल्य साथ समझ विकसित करने की कोशिश की जाती है। इस स्कूल ने श्रम के मूल्य का बोध भी कराया है, जिसका पूरी शिक्षा व्यवस्था में लोप हो गया है। यह पूरी पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।

बाबा मायाराम

साभार -देशबंधु 

samajkibaat Samaj Ki  Baat 

'स्वराज संवाद' की जरूरत

गांवों में ऐसी नीतियां व तकनीकें न आएं जिनसे किसानों की क्षति होती है व वे लूटे जाते हैं, अपितु ऐसी नीतियां आएं जिनसे किसानों का आधार मजबूत हो, खेती-किसानी व पशुपालन जैसी आजीविका अधिक समृद्ध व टिकाऊ बने। गांवों में हरियाली बढ़े, जल-संरक्षण हो, पर्यावरण की रक्षा हो। किसान अपने बीजों की रक्षा करें व महंगी तकनीकों के स्थान पर स्थानीय संसाधनों पर आधारित, पर्यावरण की रक्षा करने वाली सस्ती-से-सस्ती तकनीकों का बेहतर उपयोग कर अधिक व उचित उत्पादन प्राप्त करें।

 हमारे समाज में जो सबसे सार्थक व उपयोगी सोच अनेक दशकों से रही है, उसे निरंतर नई चुनौतियों से जोड़ते रहने व नए स्तर से अधिक उपयोगी बनाए रखने की जरूरत है। इस तरह यह सोच अधिक महत्वपूर्ण व सार्थक रूप से मौजूदा समाज, विशेषकर नई पीढ़ी के सरोकारों से भी जुड़ी रहेगी व उनकी समस्याओं के समाधान में अधिक उपयोगी सिद्ध होगी। 

 इस तरह का एक प्रयास हाल ही में एक राष्ट्रीय स्तर के 'स्वराज संवाद' के रूप में देखा गया जिसका विषय यह था, 'परंपरागत ग्रामीण व आदिवासी ज्ञान का बेहतर उपयोग जलवायु बदलाव के संकट के समाधान के लिए कैसे हो सकता है।' इस संवाद का आयोजन 'राईज क्लाईमेट अलायंस' व 'वागधारा' ने किया था। इस संवाद में टिकाऊ खेती, बीज संरक्षण, जल-संरक्षण, वैकल्पिक ऊर्जा, पंचायती राज व विकेन्द्रीकरण आदि के संदर्भ में बहुत प्रेरणादायक कार्यों व उस पर आधारित आगे के सुझावों को प्रस्तुत किया गया। इससे जलवायु बदलाव का संकट कम भी हो सकता है व ग्रामीण समुदाय उसका सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार भी हो सकते हैं। इस संवाद में यह भी सामने आया कि इन उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए विकेन्द्रीकरण, गांवों में बढ़ती आत्म-निर्भरता और स्वराज की राह अपनाने से बहुत मदद मिलती है। इस राह पर चलते हुए यदि परंपरागत ज्ञान का उपयोग टिकाऊ आजीविका को सुदृढ़ करने, ग्रामीण समुदायों, विशेषकर महिलाओं व आदिवासी समुदायों को सशक्त करने व जलवायु बदलाव के संकट के समाधानों के प्रयास एक साथ किए जाएं, तो यह बहुत रचनात्मक व उपयोगी हो सकता है व इसके बहुत उत्साहवर्धक परिणाम मिल सकते हैं। यह जलवायु बदलाव के समाधान की ऐसी राह होगी जो हमारे अपने ग्रामीण विकास व छोटे किसानों के हितों के अनुकूल है व अनेक अन्य विकासशील देशों को इसमें बहुत रुचि हो सकती है।  

स्वराज का महत्व केवल नीतियों, कार्यक्रमों या योजनाओं के संदर्भ में नहीं है, इसका महत्त्व सांस्कृतिक व वैचारिक संदर्भ में भी है। साम्राज्यवादी विचारधारा बड़ी चालाकी से और बहुत साधन-संपन्न तरीकों का उपयोग करते हुए हमारी सोच पर हावी होना चाहती है। उसका प्रयास है कि केवल साम्राज्यवादी, पूंजीवादी, कारपोरेट, बड़े बिजनेस की सोच ही हावी हो। अत: स्वराज का महत्व सामाजिक, सांस्कृतिक व वैचारिक क्षेत्रों में साम्राज्यवाद के विरोध को आगे बढ़ाने व अपनी आजादी की सोच को सही संदर्भ में रखने से भी जुड़ा है। स्वराज की सोच है कि हमारे साधनों को कोई नहीं लूटेगा, उनका बेहतर-से-बेहतर उपयोग हम अपने लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए करेंगे या पर्यावरण और विभिन्न तरह के जीवन की रक्षा के लिए करेंगे।  

गांवों में ऐसी नीतियां व तकनीकें न आएं जिनसे किसानों की क्षति होती है व वे लूटे जाते हैं, अपितु ऐसी नीतियां आएं जिनसे किसानों का आधार मजबूत हो, खेती-किसानी व पशुपालन जैसी आजीविका अधिक समृद्ध व टिकाऊ बने। गांवों में हरियाली बढ़े, जल-संरक्षण हो, पर्यावरण की रक्षा हो। किसान अपने बीजों की रक्षा करें व महंगी तकनीकों के स्थान पर स्थानीय संसाधनों पर आधारित, पर्यावरण की रक्षा करने वाली सस्ती-से-सस्ती तकनीकों का बेहतर उपयोग कर अधिक व उचित उत्पादन प्राप्त करें।  

गांवों के हितों की रक्षा हो सके, इसके लिए गांवों में स्वशासन मजबूत हो। पंचायत राज में जरूरी सुधार किए जाएं। ग्रामसभा व वार्डसभा को सशक्त किया जाए। पंचायतों व ग्रामसभाओं को समुचित अधिकार व संसाधन मिलें यह जरूरी है, पर साथ में यह भी जरूरी है कि जो गांवों में अभी तक सबसे कमजोर व निर्धन रहे हैं उनके अधिकारों व हितों की रक्षा का विशेष प्रयास हो।  

जिन गांवों में पहले से समानता है, वहां तो विकेंद्रीकरण से लाभ-ही-लाभ हैं क्योंकि ग्रामसभा में सब परिवार समान रूप में भागीदारी कर सकेंगे, पर जहां चंद सामन्ती व धनी तत्त्वों का दबदबा है या कुछ अपराधी छवि के व्यक्ति हावी हैं, उनकी कुचेष्टा यह होगी कि निर्धन व कमजोर परिवारों को ग्रामसभा के स्तर पर भी दबा दिया जाए व अपनी सामंतशाही ही चलाई जाए।  ऐसे में पंचायतों में भी कमजोर वर्ग के हितों की रक्षा के विशेष प्रयास जरूरी हैं। साथ में व्यापक स्तर पर समानता लाने, निर्धन भूमिहीनों को भूमि देने व उनकी बेहतरी के अन्य प्रयासों की विशेष जरूरत है। ऐसा नहीं होगा तो भूमि व अन्य संसाधनों के अभाव में सबसे निर्धन परिवार 'स्वराज' से वंचित ही रहेंगे। 'स्वराज' उन्हें भी मिले इसलिए सबसे गरीब व कमजोर लोगों के हित में व्यापक प्रयास जरूरी है - गांवों में भी और शहरों में भी।  

इस तरह स्वराज के साथ समता की सोच भी अनिवार्य तौर से जुड़ी है। यदि स्वराज के साथ समता को नहीं जोड़ा गया तो देश के सबसे जरूरतमंद लोग 'स्वराज' से वंचित ही रह जाते हैं। आदिवासियों के संदर्भ में स्वराज का विशेष महत्त्व है क्योंकि अब तक वे देश के सबसे उपेक्षित समुदायों में रहे हैं तथा उनके जल, जंगल, जमीन पर बड़ा हमला भी हो रहा है। स्वराज की सोच में आदिवासी अधिकारों की रक्षा का भी अपना विशेष महत्त्व है।  इस तरह एक ओर स्वराज की व्यापक स्तर पर सोच साम्राज्यवाद की अगुवाई वाले भूमंडलीकरण के विरोध से जुड़ी है तो दूसरी ओर यह जमीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण को मजबूत करने व हर स्तर पर समतावादी सोच अपनाने से भी जुड़ी है। 'स्वराज संवाद' में देश के लगभग सभी राज्यों के लगभग 500 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उम्मीद है कि इस माध्यम से नए संदर्भों में भी स्वराज संदेश फैल सकेगा व जलवायु बदलाव के ऐसे समाधानों की सोच अधिक व्यापक बनेगी जो टिकाऊ विकास, किसानी संकट के समाधान व ग्रामीण समुदायों के सशक्तीकरण से भी जुड़े हैं।

भारत डोगरा

साभार-देशबंधु 

samajkibaat  Samaj  Ki  Baat 

कब करें गूगल मैप पर भरोसा

 गूगल मैप की वजह से न जाने कितने लोग हर रोज अपने सही ठिकाने पर पहुंचते हैं। जब रास्ता न पता हो तो यही काम में आता है, लेकिन इस बार गूगल मैप का इस्तेमाल करना तीन लोगों के लिए मौत का कारण बन गया। 

उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के फरीदपुर थाना क्षेत्र में जीपीएस पर सही जानकारी न अपडेट होने की वजह से यह हादसा हुआ। ऐसे में गूगल मैप का इस्तेमाल करते समय कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है। मैप इस्तेमाल करते वक्त सावधान भले ही गूगल मैप ज्यादातर सही जानकारी देता है, लेकिन कई बार इस पर भरोसा करना रिस्की भी साबित हो जाता है। 

कुछ दिन पहले दो दोस्त मैप की वजह से गलत रास्ते पर चले गए। जिसकी वजह से हादसा हो गया।  गूगल मैप से कहीं जा रहे हैं, तो चलने से पहले एक बार चेक कर लें कि मैप पर कोई गलत गतिविधी तो नहीं होती दिख रही। कई बार मैप नदी, अनजान या सुनसान रास्ते दिखाने लगता है और कुछ लोग इन पर चल निकलते हैं, लेकिन ऐसा करना रिस्की हो सकता है। इसलिए ऐसा करने से बचना चाहिए। मैप न समझ आए तो कोशिश करें कि लोकल लोगों की मदद ले ली जाए। इसमें आपके कुछ मिनटों का समय तो खर्च होगा, लेकिन जानकारी सही मिल जाएगी। 

मैप के नए फीचर्स से खुद को अपडेट रखना बहुत जरूरी है, ताकि मुश्किल में फंसने पर इन फीचर्स की मदद ली जा सके। कहीं भी निकलने से पहले मैप को अपडेट करना भी बहुत जरूरी है।

कब करें गूगल मैप पर भरोसा

मैप पर आंख बंद करके भरोसा करना सही नहीं है। आप गूगल मैप की मदद ले सकते हैं, लेकिन उसके भरोसे नहीं रह सकते हैं। अगर आप किसी बड़ी सड़क पर जा रहे हैं, तो यहां मैप सही काम करता है, कमजोर इंटरनेट होने की स्थिति में गूगल मैप आपको परेशानी में डाल सकता है। इसलिए हमेशा दुरुस्त इंटरनेट कनेक्शन रखें। साथ ही मैप को इस्तेमाल करते समय सतर्क रहना बहुत जरूरी है।

कहां होता है रिस्की अक्सर देखा गया है कि मैप ऐसी जगह पर गलत रास्ते दिखाता है, जो ज्यादा आम नहीं होती हैं और नई होती हैं। ऐसी स्थिति में सबसे अच्छा तरीका होता है कि वहां के लोगों से रास्ते के बारे में सही जानकारी ले ली जाए। 

साभार-जागरण 

समाज की बात  Samaj Ki Baat 

samajkibaat Krishnadhar