नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

बुधवार, 14 अगस्त 2024

नेक बैंड और ईयर बड के अधिक उपयोग से सुनने की क्षमता हो रही कम

अगर आप मोबाइल नेक बैंड या ईयर बड का अधिक उपयोग करते हैं, तो यह खबर आपके लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। ईएनटी विशेषज्ञ डॉ. राकेश वर्मा ने दावा किया है कि इन उपकरणों के अत्यधिक इस्तेमाल से कानों को नुकसान पहुंच सकता है, जिससे सुनने की क्षमता कम हो सकती है और यहां तक कि बहरेपन की समस्या भी हो सकती है 

अगर आप मोबाइल नेक बैंड या ईयर बड का अधिक उपयोग करते हैं, तो यह खबर आपके लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। ईएनटी विशेषज्ञ डॉ. राकेश वर्मा ने दावा किया है कि इन उपकरणों के अत्यधिक इस्तेमाल से कानों को नुकसान पहुंच सकता है, जिससे सुनने की क्षमता कम हो सकती है और यहां तक कि बहरेपन की समस्या भी हो सकती है।  

डॉ. वर्मा ने बताया कि आजकल के युवा मोबाइल नेक बैंड और ईयर बड का बहुत अधिक उपयोग कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनकी सुनने की शक्ति कमजोर हो रही है। इसके साथ ही, कान में दर्द और संक्रमण की शिकायतें भी बढ़ रही हैं। उन्होंने चेताया कि ईयरफोन, हेडफोन, और ईयर बड्स का लंबे समय तक इस्तेमाल करना कान के लिए हानिकारक हो सकता है, और इससे कानों में गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।

  डॉ. वर्मा ने कहा, "130 डेसिबल से ऊपर की आवाज कान में दर्द पैदा कर सकती है, और ज्यादा बेस वाले इयरफोन का वाइब्रेशन कान के पर्दे पर जोरदार प्रभाव डालता है, जिससे कानों को नुकसान पहुंचता है।"  

उन्होंने जोर देकर कहा कि इन उपकरणों का उपयोग बहुत कम और सावधानीपूर्वक करना चाहिए।  कानों की देखभाल के लिए इयरफोन और ईयर बड का सुरक्षित उपयोग करना महत्वपूर्ण है। ध्वनि के स्तर को नियंत्रित करना और सुरक्षित सुनने की आदतें विकसित करना आवश्यक है। 

संक्रमण से बचने के लिए साफ-सफाई का ध्यान रखना भी जरूरी है। समाज में इस समस्या के प्रति जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, ताकि युवाओं में इसके दुष्प्रभावों के बारे में जानकारी बढ़े। इसके अलावा, इन उपकरणों के विकल्प के रूप में हेडफोन और स्पीकर का उपयोग भी किया जा सकता है, जो कानों के लिए कम हानिकारक होते हैं। 

इसके अलावा, उन्होंने यह भी सलाह दी कि कभी भी किसी और के इयरफोन का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे संक्रमण फैलने का खतरा रहता है। उन्होंने कहा कि इयरफोन और इयरबड्स का उपयोग कम करें और अपने कानों की सुरक्षा का ध्यान रखें, ताकि भविष्य में सुनने की समस्याओं से बचा जा सके।

 डॉ. राकेश वर्मा

(साभार- देशबंधु)

Samaj Ki Baat समाज की बात 

Krishnadhar Sharma कृष्णधर शर्मा 

रविवार, 14 जुलाई 2024

काम की खबर: स्पायवेयर से मोबाइल में लगी रही सेंध, डाटा चोरी से बचना है... तुरंत ऑटो डाउनलोड करें बंद

 APK File: ऐसे कई मामले हैं, जिनमें लोगों ने न तो कोई कॉल उठाया, न एसएमएस आया और अचानक मोबाइल हैक हुआ, खाते से रुपये निकल गए। यह एपीके फाइल के जरिये स्पायवेयर अटैक है। इसमें एपीके फाइल के जरिये हैकर मोबाइल में सेंध लगा रहे हैं।

ग्वालियर का कारोबारी विनोद अग्रवाल। न मोबाइल पर एसएमएस आया, न ओटीपी आया। अचानक मोबाइल बंद हो गया, खाते से धड़ाधड़ ट्रांजेक्शन हुआ और करीब 87 हजार रुपये निकल गए। नगर निगम के उपायुक्त डॉ.प्रदीप श्रीवास्तव, एक एसएमएस के जरिये आई फाइल डाउनलोड करते ही आधा घंटे तक मोबाइल हैक रहा और खाते से 47 हजार रुपये निकल गए। यह तो सिर्फ दो उदाहरण हैं।

लगातार हो रही इस तरह की घटनाओं के बाद जब नईदुनिया ने साइबर एक्सपर्ट से बात की तो सामने आया कि ऐसी वारदातों के पीछे सबसे बड़े जिम्मेदार खुद लोगों की चूक है या यह भी कहा जा सकता है कि लोगों को जानकारी ही नहीं है। उनका डाटा उनकी ही छोटी सी चूक से चोरी हो रहा है। उनके मोबाइल की हर गतिविधि पर निगाह रखी जा रही है।

क्या है एपीके फाइल?

 एंड्रायड ऑपरेटिंग सिस्टम पर काम करती है। एपीके यानि एंड्रायड पैकेज किट फाइल। यह सिर्फ एंड्रायड ऑपरेटिंग सिस्टम पर काम करती है। एपीके फाइल एक तरह का स्पायवेयर है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा है, स्पाय यानि निगरानी रखना।  सारी जानकारी हैकर तक पहुंच जाती है स्पायवेयर ऐसा टूल है, जिससे मोबाइल, लैपटाप या अन्य डिवाइस के डाटा और यूजर्स के डाटा से लेकर हर गतिविधि पर बिना अनुमति निगाह रखी जाती है। गैलरी, डॉक्यूमेंटस, कांटेक्ट, एसएमएस बिना अनुमति थर्ड पाट्री को भेज दिए जाते हैं। इसमें लोकेशन, इमेल से लेकर अन्य जानकारी तक हैकर तक पहुंच जाती हैं।  मीडिया आटोडाउनलोड से मोबाइल में प्रवेश करती है एपीके फाइल कई बार लोग ऐसी फाइल को क्लिक भी नहीं करते और यह फाइल डिवाइस में पहुंचकर डाटा चोरी कर लेती हैं। इसकी वजह होती है वाट्स एप व अन्य मैसेंजर का आटो डाउनलोड फीचर्स। जिसमें लोग मीडिया, डाक्यूमेंट, आडियो, वीडियो को आटो डाउनलोड मोड पर रखते हैं। यही सबसे बड़ी गलती है। अगर एपीके फाइल मोबाइल में डाउनलोड नहीं हुई तब तक स्पायवेयर काम नहीं करेगा। फाइल डाउनलोड होते ही मोबाइल का एक्सेस हासिल हो जाता है और मोबाइल हैक कर ठगी होती है।

 यह रखें सावधानी अगर आप वॉट्सएप या कोई अन्य मैसेंजर चलाते हैं तो आटो डाउनलोड मोड पर न रखें। अनजान फाइल डाउनलोड न करें। रिवार्ड पाइंट रिडीम करने का झांसा देकर सबसे ज्यादा ऐसी फाइल डाउनलोड करा दी जाती हैं। फाइल साइज में बहुत ही कम केबी की होती हैं, इसलिए क्लिक करते ही डाउनलोड हो जाती हैं। अगर आप मोबाइल में एंटी वायरस रखते हैं तो यह तुरंत हार्मफुल फाइल को पकड़कर आपको अलर्ट देगा।

साइबर एक्सपर्ट चातक वाजपेयी ने बताया कि एपीके फाइल एक तरह का स्पायवेयर है। यह स्पायवेयर के जरिये डाटा पर निगाह रखता है और डाटा चोरी कर थर्ड पार्टी को भेज देता है। ऑटो डाउनलोड मोड पर मोबाइल न रखें और कोई भी अंजान फाइल, लिंक पर क्लिक ही न करें। उन्होंने कहा, 'एंटी वायरस मोबाइल या अन्य डिवाइस में रखें। एंटी वायरस भी मुफ्त वाला नहीं, क्योंकि यह खुद वायरस होते हैं।'


साभार- नई दुनिया 

Samaj Ki Baat समाज की बात 

Krishnadhar Sharma कृष्णधर शर्मा 



बुधवार, 20 दिसंबर 2023

युवाओं के सामाजिक सरोकार

 आजकल के नौजवानों का क्या? उन्हें तो मोटी सेलरी वाली अच्छी नौकरी मिल जाए, रोज-रोज होटल का खाना, ब्रैंडेड कपडे, महंगा मोबाइल, टैब-शैब, महंगी कार, बिना मतलब वाली कानफाडू म्यूजिक, डांस, पार्टी-शार्टी.. बस! जिंदगी का कुल मतलब उनके लिए यहीं तक सीमित रह गया है। देश-दुनिया में क्या हो रहा है और उसमें उनका क्या फर्ज बनता है, इससे तो उनका कोई मतलब ही नहीं है..  दो-तीन साल पहले तक अधिकतर बुजुर्गो की युवाओं के बारे में यही राय थी। वे मानते थे कि आज का युवा न तो अपने रीति-रिवाज और परंपराओं की कोई समझ रखता है, न इतिहास और अपने महानायकों को जानता है और न आसपास के परिवेश से ही उसका कोई मतलब है। लेकिन, इधर यह सोच बदली है। आज अगर कोई बुजुर्ग ऐसा कुछ कहे तो उसके हमउम्र साथी ही उसे टोकते हैं.

ऐसा नहीं है भाई! आज के बच्चे हमारी पीढी से बहुत तेज हैं। वे समाज में लगातार सक्रिय केवल दिखते ही नहीं हैं, लेकिन खयाल हर बात का रखते हैं। देश और समाज से लेकर इतिहास-भूगोल और अर्थव्यवस्था तक सब उनकी चिंता के विषय हैं। कभी फेसबुक-ट्विटर पर देखा है, कैसे कमेंट्स होते हैं आज की व्यवस्था पर इन लोगों के। कुछ तो एकदम नौजवान लडके-लडकियां ऐसी बातें करते हैं, जो हमें दंग कर देती हैं। ऐसे कमेंट्स बिना चिंता किए नहीं निकलते। लेकिन, एक बात हमेशा ध्यान रखने की है। वह यह कि उनका समय हमारे समय से बहुत कठिन है। उनकी मुश्किलों पर गौर करें तो आपकी सारी शिकायतें दूर हो जाएंगी.

इसके पहले कि हम नई पीढी के सरोकारों की बात करें, इस बात पर गौर करना जरूरी होगा कि वह किन हालात में जिंदगी जी रही है। अगर आप 80-90 की कस्बाई जीवनशैली की कसौटी पर रख कर आज के युवाओं के सरोकारों का विश्लेषण करना चाहें तो शायद उसके साथ कभी न्याय नहीं हो सकेगा। न तो अब कहीं 10-5 बजे वाली नौकरियां रह गई हैं, न होलसेलर से सामान लेकर ग्राहक को बेच देने तक सीमित व्यापार और न पहले जैसी परंपरागत खेती ही। कडी प्रतिस्पर्धा के इस दौर में सब कुछ बदल चुका है। हर क्षेत्र में हर स्तर पर नए प्रयोगों की भरमार है और बडी मेहनत से निकाले गए प्रयोग भी नए और कारगर साबित हो पाएंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। 

 स्थितियों के आकलन का अगर कोई पैमाना होता और उस पर देखा जा सकता तो शायद यह पाया जाता कि आज के युवा की जिंदगी पहले की तुलना में कई गुना च्यादा कठिन हो गई है। यह सही है कि सुविधाएं बढी हैं, लेकिन जितनी तेजी से सुविधाएं बढी हैं, हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और भविष्य के प्रति असुरक्षा की भावना उससे कहीं च्यादा तेजी से बढी है। इसमें अपने को टिकाए रखने के लिए सिर्फ दिमाग का तेज रहना और कडी मेहनत ही पर्याप्त नहीं, खुद को अपने और दूसरे क्षेत्रों की नवीनतम गतिविधियों से लगातार अपडेट भी रखना पडता है। यह एक ऐसी आवश्यकता है, जिसके लिए आज का युवा लगातार कुछ नया जानने, सीखने और पढने में लगा रहता है। लगातार दिखता अपना लक्ष्य उसे दफ्तर और घर में अंतर नहीं करने देता। इसके अलावा खुद को एकरसता या ऊब से बचाने और तरोताजा बनाए रखने के लिए मनोरंजन की खुराकभी जरूरी ही है। 

 सार्थक हस्तक्षेप का जोश  इन हालात में भी हम विभिन्न सोशल नेटव‌र्क्स से लेकर ब्लॉग और आंदोलनों तक में युवाओं की सक्रिय हिस्सेदारी देखते हैं। यह सही है कि वे महत्वाकांक्षी हैं और जिंदगी से हमेशा कुछ अधिक चाहते रहते हैं और यह कोई अपराध नहीं है। ऐसी कोई पीढी नहीं हुई है, जिसने अपने जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश न की हो। यही वे भी कर रहे हैं। लेकिन, इसी क्रम में वे अपना सारा कामकाज छोडकर उन सामाजिक आंदोलनों में हिस्सेदारी भी निभाते हैं, जिनसे उनका और देश का सीधा जुडाव है। किसी की मदद से भी वे पीछे नहीं हटते हैं। शर्त यह है कि उसका औचित्य उनकी समझ में आए। हवा-हवाई नारों और झूठमूठ के वादों में वे विश्वास नहीं करते। आज का युवा जिस चीज से सबसे च्यादा परेशान है, वह सरकारी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार है। इसके लिए वह एक स्थायी समाधान चाहता है। काले धन को बाहर लाने या जन लोकपाल की मांग को लेकर हुए आंदोलनों में न केवल दिल्ली, बल्कि देश भर के युवाओं ने अपने निजी नुकसान की शर्त पर भी हिस्सेदारी की। ठीक ऐसी ही बेताबी निर्भया के साथ हुई दरिंदगी के समय भी देखी गई।

  काले धन और जन लोकपाल वाले मसले तो सामाजिक-राजनीतिक संगठनों की ओर से उठाए गए थे, लेकिन निर्भया के मसले पर तो किसी संगठन की ओर से कोई आह्वान तक नहीं किया गया और फिर भी इंडिया गेट के आसपास का पूरा क्षेत्र घेर लिया गया। आसपास के इलाकों में मेट्रो रेल रोक देने और प्रवेश वर्जित कर देने के बाद भी कई दिनों तक धरना चलता रहा। यह विरोध प्रदर्शन करने वाले सारे युवा ही थे। इनमें कॉलेजों के छात्र-छात्राओं से लेकर नए प्रोफेशनल्स तक शामिल थे। वाटर कैनन, आंसू गैस और लाठीचार्ज सब झेलकर भी वे डटे रहे। इन सभी मामलों में लडकियों की शिरकत भी लडकों से कुछ कम नहीं थी। क्या अपने समय के समाज से जुडे होने और उसमें सार्थक हस्तक्षेप की अपनी भूमिका सुनिश्चित करने का इससे बडा कोई और प्रमाण चाहिए?

कर्तव्यों का बोध  ऐसा भी नहीं है कि युवाओं का यह जोश केवल विरोध प्रदर्शन और उनकी चेतना केवल अपने अधिकारों तक ही सीमित है। यह पीढी अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति भी कम जागरूक नहीं है। विभिन्न सामाजिक आयोजनों में आप उसे हर स्तर पर सहयोग करते देख सकते हैं। ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद गरीब ब"ाों को पढाने, युवाओं को रोजगार की तरकीबें सिखाने, सामाजिक-धार्मिक आयोजनों की व्यवस्था बनाने के लिए समय निकालते हैं। वहां भी वे अपनी जिम्मेदारी पूरी लगन के साथ निभाते हैं। पिछले दो बार से चुनावों में हम मतदान का प्रतिशत अप्रत्याशित रूप से बढते देख रहे हैं और साथ ही युवा मतदाताओं की संख्या भी। इस बार लोकसभा चुनावों में जो 10 करोड नए मतदाता जुडे हैं, उनमें 2.31 करोड 18-19 वर्ष आयु वर्ग के हैं और कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियों की कोशिश इन्हें लुभाने की है। निश्चित रूप से यह उनकी क्षमताओं और जागरूकता को देखते हुए ही हो रहा है। पार्टियां यह भी जानती हैं कि यह युवा वोटर जाति-धर्म जैसे आभासी मुद्दों पर आकर्षित होने वाला नहीं है। वह खोखले आदर्शो और आधार विहीन योजनाओं में यकीन नहीं करता। उसे अपने और देश के विकास के लिए ठोस कार्ययोजना चाहिए। शायद यही वजह है कि हर स्तर पर व्यापक बदलाव के संकेत दिखाई दे रहे हैं। 

 अपनी संस्कृति का मोह  जिन युवाओं को हम अपनी संस्कृति से टूटा हुआ समझते हैं, उन्हीं में से कई अपने प्राचीन साहित्य और संस्कृति में नए अर्थ की तलाश में लगे हैं। इनमें से कई तो रोजगार के लिए अपना देश छोडकर अमेरिका, यूरोप और दूसरे देशों में रह रहे हैं। दूसरे देशों में रहते हुए भी अपनी संस्कृति से उनका जुडाव देखना चाहते हैं तो कभी ब्लॉग की दुनिया का रुख करें। आप पाएंगे कि नई पीढी में सॉफ्टवेयर, इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान और अकाउंटेंसी जैसी साहित्येतर विधाओं से जुडे कई लोग अपनी संस्कृति को दुनिया की संस्कृति के सामने रखकर देखने की कोशिश में लगे हैं और ऐसा करते हुए वे किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं। वे न तो अपने को किसी से बेहतर मानते हैं और न ही कमतर। बल्कि इस तरह वे अपनी संस्कृति में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं और इस क्रम में संगीत, नृत्य, साहित्य, पुरातत्व और धर्मशास्त्र सब खंगाल रहे हैं।  

इन चीजों को लेकर उनकी सोच पहले की तरह केवल मिशनरी नहीं, बल्कि प्रोफेशनल है। वे देख रहे हैं कि संस्कृति केवल अपनी पहचान जताने ही नहीं, बल्कि पर्यटन का एक महत्वपूर्ण तत्व भी है और पर्यटन दुनिया के सबसे बडे उद्योगों में से एक है। भारत में इसके लिए प्रचुर संभावनाएं हैं और यह हमारे लिए केवल आय का जरिया ही नहीं बनेगा, विश्व समुदाय में इसे नई प्रतिष्ठा भी दिला सकता है। यह अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति नई पीढी की जागरूकता का प्रमाण है।

हताशा भी कम नहीं  हालांकि उसे तब घोर हताशा होती है, जब वह देखता है कि हमारे यहां बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी है। अपनी संस्कृति की महानता की दुहाई देते न थकने वाले कुछ लोग यत्र नार्यस्तु पूच्यंते रमंते तत्र देवता का हवाला जरूर देते हैं, लेकिन उन्हीं लोगों को दहेज के लिए अपने घर की बहू को जला देने में कोई पछतावा नहीं होता। दहेज या मायके की हैसियत को लेकर उन पर व्यंग्य करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता। वहशीपने का आलम यह है कि अबोध ब"िायां तक सामूहिक दुष्कर्म की शिकार हो जा रही हैं। सिस्टम ऐसा कि जिसमें कहीं किसी बात की सुनवाई हो जाए, यही बहुत है। यह स्थिति उनमें आक्रोश भरती है और उन्हें हताश करती है। बेशक, इन्हीं चीजों को लेकर कभी-कभी वह अराजक होती दिखती है, लेकिन उसका जोर अपने सिस्टम को दुरुस्त करने पर है, न कि उसे बिगाडने या बदले की कार्रवाई पर। 

 वह अपनी हताशा को छिपाने की चालाक कोशिश नहीं करता। अगर उसे उम्मीद की कोई किरण दिखती है और उस पर उसका भरोसा बन पाता है, तो उसे अपनी बाकी व्यस्तताएं छोडकर उसके साथ हो लेने में कोई दिक्कत महसूस नहीं होती और अगर उसे लगता है कि वह इसमें छला गया तो उसे उससे अलग होते भी देर नहीं लगती। व्यक्ति की पहचान के मामले में अपनी गलती स्वीकार करने में उसे कमतरी का एहसास नहीं होता। हाल के आंदोलनों में उसकी शिरकत और फिर मोहभंग इसके बडे उदाहरण हैं। इसकी वजह यही है कि वह किसी प्रयास से सिर्फ विचार के नाम पर नहीं, बल्कि ठोस परिणाम के लिए जुडता है।  

सूचनाक्रांति का असर  पिछले दो दशकों में सूचना तकनीक की दुनिया में जो क्रांति आई है, उसने जीवनशैली ही नहीं, जीवन से आम आदमी की अपेक्षाएं भी बदल दी हैं। अब उसे किसी दूसरे देश की व्यवस्था जानने के लिए ग्रंथालयों की दौड लगाने और किताबों के पन्ने पलटने की जरूरत नहीं होती। एक क्लिक पर दुनिया भर की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं और इतिहास-भूगोल सब उसके सामने होता है। पहले जिन जगहों और तकनीकों को केवल सफेद-काले चित्र देखकर समझना पडता था, अब टीवी पर उनका लाइव शो होता है। किसी कारण से आप उसे न भी देख सकें तो रिकॉर्डिग से लेकर यूटयूब तक कई दूसरे उपाय भी मौजूद हैं। इस क्रांति के चलते सूचनाओं की प्राप्ति ही नहीं, उनकी साझेदारी और अभिव्यक्ति में भी विस्फोट जैसी स्थिति बनी है। मन में जो कुछ चल रहा है, वह दुनिया को बताने के लिए उन्हें बहुत इंतजार करने की जरूरत नहीं होती। वे किसी भी सोशल नेटवर्क पर प्रोफाइल बनाते हैं और अपने सुख-दुख से लेकर विभिन्न मसलों पर विचार तक सब सीधे सबके सामने।

नए भारत की ओर  विभिन्न माध्यमों पर आ रहे उसके विचार यह स्पष्ट करते हैं कि वह पहले की तरह डरा हुआ नहीं है और न संकोची ही। उसने आजाद देश की हवा में सांस ली है और आजादी के मूल्य को वह समझता है। वह इसे बनाए रखना चाहता है और इसीलिए व्यवस्था में सुधार को अनिवार्य मानता है। वह अभिव्यक्ति की आजादी की अहमियत, अर्थ और उसकी सीमाएं भी जानता है। वह संकोच में कुछ भी मान नहीं लेता, तर्क करता है और ठोस सुबूतों के साथ ठोस कार्ययोजना चाहता है। बेहतर होगा कि इस तर्कशीलता को अशिष्टता के रूप में न देखें।  

वह हर चीज को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार ही आंकने की कोशिश करता है। आत्मविश्वास से लबरेज आज के युवा के इस तेवर और नए तरह के उसके संस्कार को समझने के लिए बडों को भी थोडे धैर्य और नई समझ का परिचय देना होगा। अगर उसे सहानुभूतिपूर्वक समझा जाए और उसके लिए उसके स्पेस का सम्मान करते हुए उसे नई दिशा दी जाए तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले दिनों में हम एक नए भारत के नागरिक होंगे, जिसका दुनिया भर में अपना अलग और बेहद सम्मानजनक स्थान होगा।

अमीर देश का युवा  इम्तियाज अली  

20 साल पहले का युवक ज्यादा पाखंडी था। आज के युवकों का सोसायटी से कंसर्न है। वह अपनी बातें खुलकर कहने लगा है। उसे किसी से मॉरल सर्टिफिकेट नहीं चाहिए। यह कहना सही नहीं होगा कि आज के युवक मोटी सेलरी और बडी नौकरी के पीछे भाग रहे हैं। गौर करें तो वे अपने मन की नौकरी करना चाहते हैं और उसके लिए अच्छे पैसे पा रहे हैं। सच कहूं तो आज का युवक अमीर देश का नागरिक है। वह 20 साल पहले के युवकों की गरीब सोच से आगे निकल चुका है। ऊपरी तौर पर उसमें तडप कम है, क्योंकि उसका पेट भरा हुआ है। मुझे लगता है कि आज के युवकों के पास रोल मॉडल की कोई कमी नहीं है। पारंपरिक सोच में हम कुछ नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही रोल मॉडल मानते हैं। आज एक फिल्म स्टार, क्रिकेटर, बैंकर, नॉवेलिस्ट, एनजीओ कार्यकर्ता आदि रोल मॉडल हो सकते हैं। समकालीन युवकों को समझने के लिए हमें अपनी पुरानी सोच बदलनी पडेगी। 

अब इस नजरिये से देखें तो रोल मॉडल के लिए इंदिरा गांधी या अमिताभ बच्चन तक सीमित रहने की जरूरत नहीं है। यह भी जरूरी नहीं है कि भारतीय युवक का रोल मॉडल कोई भारतीय ही हो। मैं अपनी बेटी की बात बताऊं। उसे सुपरवुमन नाम की एक गायिका बहुत पसंद है। वह उसकी फैन है। उसका ऑटोग्राफ लेकर आई है। उसकी इस पसंद पर मैं चौंका, लेकिन आप कोई सवाल नहीं कर सकते। वह एक यूट्यूबर है। अपने गाने बनाती है और यूट्यूब पर डालती है। उसका वास्तविक नाम लीली है। अन्ना आंदोलन हो या निर्भया दुष्कर्म कांड.. ऐसी घटनाओं पर युवकों के सडक पर उतर आने को मैं बहुत सही नहीं मानता। इसे आप उनकी आजादी का प्रदर्शन कह सकते हैं। हो सकता है गुस्सा और विरोध भी हो। कई बार मुझे लगता है कि यह हडबडी में लिया गया फैसला होता है। वे अभियान या आंदोलन को शुरू तो कर देते हैं, लेकिन उसे किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। सडकों पर आ जाना ही निदान या समाधान नहीं है।

कोई रोल मॉडल ही नहीं  सलिल भट्ट, शास्त्रीय संगीतज्ञ 

 आज के युवा की स्थिति दो दशक पहले जैसी नहीं रह गई है। सूचना का जो विस्फोट हुआ है, उसने सब कुछ बदल दिया है। इसने हमें निजी और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर बदला है। कुछ मामलों में वह समाज से कटा है तो कुछ में जुडा भी है। आम तौर पर देखने में ऐसा लगता है कि वह अपने तक ही सिमट कर रह गया है, लेकिन पिछले दो-तीन वर्षो में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिससे समाज से उसके सरोकार बहुत मुखर रूप में सामने आए हैं। इससे जाहिर होता है कि वह समाज से कटा नहीं है। हां, यह जरूर है कि बेमतलब के झंझटों में वह नहीं पडना चाहता। इसकी एक वजह तो यह है कि उसके पास समय का बहुत अभाव है। कठिन प्रतिस्पर्धा के इस दौर में उसे सबसे पहले समाज में अपनी स्थिति सुनिश्चित करनी है, जो दिन-ब-दिन बहुत मुश्किल होती जा रही है। इसी हाल में वह यह भी देख रहा है कि उसके सामने कोई भरोसे लायक रोल मॉडल ही नहीं है। लोग आते तो हैं समाज का भला करने के नाम पर और फिर जुट जाते हैं केवल अपना, अपने परिवार और रिश्तेदारों का भला करने में। ऊपर से वह मनोरंजन के सस्ते साधनों से जकडा हुआ है। यह सही है कि आज सूचना और मनोरंजन के लिए बहुत सारे साधन हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर अपरिपक्व और सतही किस्म के हैं। जो अच्छे और गुणवत्तापूर्ण साधन हैं, उन तक अभी भी कम लोगों की पहुंच है। इसे सर्वसुलभ बनाया जाना चाहिए। हमारे देश की युवा ऊर्जा अपने समग्र रूप में एक सही दिशा पाए, इसके लिए सामूहिक प्रयास होना चाहिए।  

समय का अभाव  सुदीप नागरकर, लेखक  

आज के युवा के पास खुद के लिए ही समय नहीं है। प्रतिस्पर्धा और महंगाई इतनी बढ गई है कि उसके लिए कोई विकल्प ही नहीं बचा। ऐसी स्थिति में वह समाज के लिए समय निकाले कैसे? फिर भी हम यह देखते हैं कि व्यस्तता और आपाधापी के इस दौर में भी वह बडे-बडे आंदोलनों में शामिल होता है। स्वत: स्फूर्त ढंग से बडे आंदोलन खडे कर देता है। जाहिर है, वह सब कुछ करने के लिए तैयार है। बस जरूरत इस बात की है कि कोई बात उसके मन को छुए और नेतृत्व पर उसका भरोसा बने। इसका आप पूरा असर सोशल नेटवर्किग पर देख सकते हैं। मुझे तो लगता है कि अगले लोकसभा चुनाव में भी फेसबुक-ट्विटर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रहने वाली है। लेकिन आज का युवा अगर अपने आसपास के मामलों में रुचि लेता दिखाई नहीं देता तो इसमें कई बार हमारे कानून भी कारण होते हैं। मसलन किसी दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को अस्पताल तक न पहुंचाने में वह संकोच करता है। इसका एक ही कारण है और वह है पुलिस की बेमतलब पूछताछ। 

अगर पुलिस इस सोच से उबर सके तो इन स्तरों पर भी वह सक्रिय दिखाई देगा।  यह संक्रमण का समय है संदीप नाथ, गीतकार भारत को आजाद हुए छह दशक से ज्यादा बीत गए। आज का युवा आजादी के बाद की चौथी पीढी है। इस पीढी ने वह कष्ट नहीं देखा जो हमारे पूर्वजों ने देखा और थोडा हमने भी महसूस किया। हमारा समय भी संक्रमण का समय है। एक सदी छोडकर दूसरी में आए ही हैं। बाजारवाद का जो सरकारीकरण 91 में शुरू हुआ था, वह शुरुआत में बहुत अच्छा लगा। लोगों को ऐसा लगा कि शायद अब योग्यता और क्षमता की कद्र होगी। कुछ दिनों तक ऐसा रहा भी। लेकिन जल्दी ही यह भ्रम टूट गया। इससे उसके भीतर आक्रोश पैदा हुआ। इसके साथ ही एक नए बदलाव के लिए बेचैनी शुरू हो गई। यह सही है कि आज के युवा को अच्छा खाना-पहनना अच्छा लगता है। लेकिन, इसका यह मतलब नहीं कि उसके लिए जीवन का कुल अर्थ यहीं तक सीमित है। वह समाज के सुख-दुख से भी वह उतना ही जुडा है, जितना कि अपनी निजी चाहतों से।

 वह भौतिकवादी भी है और आध्यात्मिक भी। लेकिन पहले की तरह समाज में सिर्फ औपचारिकताएं निभाने के लिए वह समय नहीं निकाल सकता। उसके पास अपने लिए ही समय नहीं है तो वह समाज के लिए कहां से निकाले। लेकिन जहां वास्तविक जरूरत होती है, वहां वह किसी भी कीमत पर हाजिर होता है। अपने बडे नुकसान करके भी। छोटी-छोटी बातों पर लडना उसके लिए संभव नहीं है। आज उसकी कोई प्रासंगिकता भी नहीं है। वह चाहता है सिस्टम में बदलाव लाना और सिस्टम के ख्िालाफ अपनी आवाज बुलंद करने का उसके पास बहुत बडा माध्यम आज उसका वोट है। रही बात कुछ आत्मकेंद्रित और पलायनवादी लोगों की, तो ऐसे लोग किस समय नहीं थे? आजादी के पहले भी कुछ लोग सर और रॉय बनने की होड में लगे रहते थे और कुछ लोग सिर कटाने को बेताब थे। ये दोनों तरह के लोग हमेशा थे और हमेशा रहेंगे।

छिप जाती हैं अच्छाइयां महेश भट्ट  

मैं कुछ उदाहरणों से अपनी बात रखना चाहूंगा। अंतरराष्ट्रीय सम्मान जीतने वाली सारांश में अनुपम खेर ने रिटायर्ड अध्यापक का किरदार निभाया था, जो अपनी पेइंग गेस्ट की सहायता करना कर्तव्य समझता है। सत्ता के मद में डूबे राजनेता से लडाई मोल लेता है। इससे उनके उदास दिल को शांति मिलती है और उन्हें जिंदगी का मकसद मिलता है। फि ल्म डैडी, जिससे मेरी बेटी पूजा ने करियर शुरू किया था, इसमें एक सत्रह वर्षीय युवती की उन मुश्किलों को संवेदनशील तरीके से दिखाया गया था, जो अपने शराबी पिता को संभालने की जिम्मेदारी उठाती है। अनुपम खेर ने इसमें पिता का किरदार निभाया था। फिल्म इतनी असरदार थी कि आज भी ऐसे कई लोग मिल जाते हैं, जिन्होंने फिल्म देखने के बाद शराब से तौबा कर ली। कन्या भ्रूण हत्या पर बनी फिल्म तमन्ना पूजा द्वारा निर्मित पहली फिल्म थी। इसने सामाजिक समस्या पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था। 

 रमजान के महीने में मुंबई के गटर से एक हिजडा नन्ही मासूम बच्ची को उठा कर घर लाता है, उसे पालता है। जिम्मेदारी लेने का यह संदेश मेरी ज्यादातर फिल्मों की जान है। इन सभी फिल्मों को दर्शकों की अच्छी प्रतिक्रिया मिली। मतलब यह कि दर्शक, खासकर आज के युवा उन फिल्मों में उठाए गए विषयों से कोरिलेट करते हैं। एमएनसी में काम करने के साथ-साथ समाज को वापस देने की प्रवृत्ति भी उसमें है। उसे पता है कि सामाजिक जिम्मेदारी निभाना मानव प्रगति की ऊर्जा है। इसे भुलाते ही हम विफल हो जाएंगे और बिखर भी जाएंगे। बल्कि वह तो आक्रामक है। सभी कुरीतियों को जड से उखाड फेंकना चाहता है। यह अलग बात है कि उसकी जश्न मनाने की प्रवृत्ति की ओट में उसकी अच्छाइयां, समझदारी और परिपक्वता छिप जाती है।

आक्रामक हैं युवा  विद्या बालन  

आज के युवा वर्क लाइक ए कुली, लिव लाइक ए किंग में यकीन रखते हैं। वे जीतोड मेहनत कर खुद अपनी, परिवार, समाज और राष्ट्र की तरक्की में अहम भूमिका निभाना चाहते हैं। निर्भया केस हो या अन्ना आंदोलन वे अपनी समझ और होशो हवास में गुनहगारों पर बिना किसी लाग-लपेट के कार्रवाई की मांग करते हैं। वे तकनीकी विवरणों में नहीं जाते। सरल शब्दों में सीधी बात करते हैं और सीधे शब्दों में ठोस कार्रवाई की मांग करते हैं। पर साथ ही जीवन का जश्न मनाने में भी कोई कोताही नहीं बरतना चाहते। वे काम और मौज-मस्ती दोनों ही एक्स्ट्रीम लेवेल पर करते हैं। आज ऐसे ही आक्रामक युवाओं की दरकार हर देश को है, वरना कडी प्रतिस्पर्धा के दौर में वह पीछे छूट जाएगा।

इंटरव्यू : मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज, अमित, दुर्गेश और दिल्ली से इष्ट देव।  

इष्ट देव सांकृत्यायन साभार- जागरण  


समाज की बात Samaj Ki Baat 

कृष्णधर शर्मा Krishnadhar Sharma


रविवार, 12 मार्च 2023

2060 में दुनिया में सबसे ज्यादा होगी भारत की आबादी

 वर्ष 2020 के मध्य तक भारत जनसंख्या के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा ऐसा अनुमान है। वर्ष 2060 में भारत की जनसंख्या 1.65 अरब होने का आकलन भी किया गया है और इस शिखर तक पहुंचने के बाद संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि भारत की जनसंख्या में गिरावट आने लगेगी। 

कई रिपोट्‌र्स 2050 तकभारत की जनसंख्या के स्थिर होने और 2060 के बाद उसमें गिरावट का अनुमान लगा रहा है।  भारत की जनसंख्या वृद्धि दर बीते कुछ दशकों में कम हुई है मगर जितनी अधिक जनसंख्या भारत में है वह अभी भी दुनिया के कई देशों की तुलना में ज्यादा है। 

अनुमान है कि भारत 2050 तक दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा।  जनसंख्या पर नियंत्रण भी पाया जून 2019 में जारी संयुक्त राष्ट्र के 'वर्ल्ड पापुलेशन प्रॉस्पैक्ट्‌स 2019' के अनुसार एक दशक से भी कम समय में भारत चीन को पीछे छोड़ देगा, किंतु जबसे संयुक्त राष्ट्र ने यह जनसंख्या संबंधी अनुमान लगाना शुरू किया है तबसे अब तक 2011 में भारत की जनसंख्या वृद्धि दर सबसे कम रही है। 

2001 से 2011 तक तक भारत की जनसंख्या दर में गिरावट आई है। 1991 से 2001 तक यह 21.5 प्रतिशत रही थी तो 2001 से 2011 तक 17.7 प्रतिशत पर आ गई। भारत के 24 राज्यों औरकेंद्र शासित प्रदेशों ने जनसंख्या नियंत्रण में अच्छा प्रदर्शन किया है और यह इस बूते ही संभव हुआ है कि महिलाओं को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं। इसमें वर्ष 2000 में बनी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की भी अहम भूमिका रही है।

 जनसंख्या वृद्धि दर इस तरह हुई कम

भारत की कुल जनसंख्या वृद्धि दर लगातार कम हुई है। कभी 1971 में एक स्त्री द्वारा औसतन 5.2 बच्चों को जन्म दिया जा रहा था। सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में यह दर लगातार कम हुई है। भारत प्रति स्त्री द्वारा 2.1 की संतोषजनक जन्म दर को अगले पांच वर्षों में प्राप्त कर सकता है। तब करीब-करीब 'यह हम दो हमारे दो' की स्थिति हो जाएगी।  

2100 में देश में आधी आबादी को सहारे की जरूरत होगी संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड पापुलेशन प्रॉस्पेक्ट्‌स के अनुसार वर्ष 1950 में भारत में प्रति 100 व्यक्तियों पर 6.4 बुजुर्ग थे। इस सदी के पूरा होने तक यानी 2100 में भारत में प्रति 100 व्यक्तियों में से 49.9 लोग ऐसे होंगे जो बुजुर्गावस्था में होंगे और उन्हें सहारे की जरूरत होगी। तब जितने लोग कामकाजी होंगे उतनी ही आबादी ऐसी भी होगी जिसे देखभालकी जरूरत होगी।

साभार- नयी दुनिया 

भारतीय लोकाचार के अनुरूप नहीं है समलैंगिक विवाह : केंद्र सरकार

 केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की दलीलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पार्टनर के रूप में एक साथ रहना और समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा यौन संबंध बनाना, जिसे अब अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है, भारतीय परिवार इकाई एक पति, एक पत्नी व उनसे पैदा हुए बच्चों के साथ तुलनीय नहीं है। 

केंद्र ने जोर देकर कहा कि समलैंगिक विवाह सामाजिक नैतिकता और भारतीय लोकाचार के अनुरूप नहीं है।   एक हलफनामे में, केंद्र सरकार ने कहा कि शादी की धारणा ही अनिवार्य रूप से विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के बीच एक संबंध को मानती है। यह परिभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी रूप से विवाह के विचार और अवधारणा में शामिल है और इसे न्यायिक व्याख्या से कमजोर नहीं किया जाना चाहिए। 

हलफनामे में कहा गया है कि विवाह संस्था और परिवार भारत में महत्वपूर्ण सामाजिक संस्थाएं हैं, जो हमारे समाज के सदस्यों को सुरक्षा, समर्थन और सहयोग प्रदान करती हैं और बच्चों के पालन-पोषण और उनके मानसिक और मनोवैज्ञानिक पालन-पोषण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।  केंद्र ने जोर देकर कहा कि याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं।  

हलफनामे में कहा गया है कि सामाजिक नैतिकता के विचार विधायिका की वैधता पर विचार करने के लिए प्रासंगिक हैं और आगे, यह विधायिका के लिए है कि वह भारतीय लोकाचार के आधार पर ऐसी सामाजिक नैतिकता और सार्वजनिक स्वीकृति का न्याय करे और उसे लागू करे।  

केंद्र ने कहा कि एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच विवाह या तो व्यक्तिगत कानूनों या संहिताबद्ध कानूनों के तहत होता है, जैसे कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, ईसाई विवाह अधिनियम, 1872, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 या विशेष विवाह अधिनियम, 1954 या विदेशी विवाह अधिनियम, 1969।  यह प्रस्तुत किया गया है कि भारतीय वैधानिक और व्यक्तिगत कानून शासन में विवाह की विधायी समझ बहुत विशिष्ट है। केवल एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच विवाह, यह कहा।  

इसमें कहा गया है कि विवाह में शामिल होने वाले पक्ष एक ऐसी संस्था का निर्माण करते हैं, जिसका अपना सार्वजनिक महत्व होता है, क्योंकि यह एक सामाजिक संस्था है, जिससे कई अधिकार और दायित्व प्रवाहित होते हैं।  हलफनामे में कहा गया है, शादी के अनुष्ठान/पंजीकरण के लिए घोषणा की मांग करना साधारण कानूनी मान्यता की तुलना में अधिक प्रभावी है। पारिवारिक मुद्दे समान लिंग से संबंधित व्यक्तियों के बीच विवाह की मान्यता और पंजीकरण से परे हैं।  

केंद्र की प्रतिक्रिया हिंदू विवाह अधिनियम, विदेशी विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम और अन्य विवाह कानूनों के कुछ प्रावधानों को इस आधार पर असंवैधानिक बताते हुए चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आई कि वे समान लिंग वाले जोड़ों को विवाह करने से वंचित करते हैं।   केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की दलीलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पार्टनर के रूप में एक साथ रहना और समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा यौन संबंध बनाना, जिसे अब अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है।   

केंद्र ने कहा कि हिंदुओं के बीच, यह एक संस्कार है, एक पुरुष और एक महिला के बीच पारस्परिक कर्तव्यों के प्रदर्शन के लिए एक पवित्र मिलन और मुसलमानों में, यह एक अनुबंध है, लेकिन फिर से केवल एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच ही परिकल्पित किया जाता है। इसलिए, धार्मिक और सामाजिक मानदंडों में गहराई से निहित देश की संपूर्ण विधायी नीति को बदलने के लिए शीर्ष अदालत की रिट के लिए प्रार्थना करने की अनुमति नहीं होगी।  

केंद्र ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी समाज में, पार्टियों का आचरण और उनके परस्पर संबंध हमेशा व्यक्तिगत कानूनों, संहिताबद्ध कानूनों या कुछ मामलों में प्रथागत कानूनों/धार्मिक कानूनों द्वारा शासित और परिचालित होते हैं। किसी भी राष्ट्र का न्यायशास्त्र, चाहे वह संहिताबद्ध कानून के माध्यम से हो या अन्यथा, सामाजिक मूल्यों, विश्वासों, सांस्कृतिक इतिहास और अन्य कारकों के आधार पर विकसित होता है और विवाह, तलाक, गोद लेने, रखरखाव, आदि जैसे व्यक्तिगत संबंधों से संबंधित मुद्दों के मामले में या तो इसमें कहा गया है कि संहिताबद्ध कानून या पर्सनल लॉ क्षेत्र में व्याप्त है।  

यह प्रस्तुत किया गया है कि समान लिंग के व्यक्तियों के विवाह का पंजीकरण भी मौजूदा व्यक्तिगत के साथ-साथ संहिताबद्ध कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करता है।  हलफनामे में कहा गया है कि एक पुरुष और महिला के बीच विवाह के पारंपरिक संबंध से ऊपर कोई भी मान्यता, कानून की भाषा के लिए अपूरणीय हिंसा का कारण बनेगी। 

साभार-देशबंधु.इन    

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

क्या है न्याय व्यवस्था की बीमारी का इलाज!

 इस संदर्भ में अगर भारतीय न्याय व्यवस्था का आकलन करें तो बहुत निराशाजनक दृश्य सामने आता है। इन दिनों लोग यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि कोर्ट के बाहर ही निपटारा कर लो वरना जिंदगी भर पांव घीसते रहोगे। यह बताता है कि भारत में न्याय इतनी देर से मिलता है कि वह अंधेर में बदल जाता है। यही कारण कि चीफ जस्टिस को कहना पड़ा कि 18 हजार जज मिलकर 3 करोड़ मुकदमों का भार नहीं उठा सकते।

 भारतीय न्याय व्यवस्था की स्थिति की पड़ताल उनके इस बयान के संदर्भ में जरूरी हो जाती है।  इस बयान से यह स्पष्ट रूप में समझ आता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था जजों की कमी से जूझ रही है। जजों की संख्या बढ़ाया जाना सरकार की शीर्ष प्राथमिकता होना चाहिए। अमूमन राजनेताओं की इसमें दिलचस्पी कम ही होती है। अदालत की कछुआ चाल उनके लिए अधिक सुविधाजनक होती है। भले ही भ्रष्टाचार के मामले हों या फिर उनके कार्यों को चुनौती देने वाली याचिकाएं। उनकी इच्छा यही नजर आती है कि अदालत में जाने वाले मामले लंबे समय तक लंबित रहें। इसमें वे अपने लिए राहत देखते हैं। सरकार को चाहिए कि वह अदालतों को प्रकरणों के त्वरित निपटारे के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध करवाए।  

भारत के चीफ जस्टिस कहते हैं कि लोगों में इस बात के लिए चेतना लाना जरूरी है कि वे राजनेताओं को समय पर न्याय उपलब्ध कराने के लिए बाध्य करें। अपनी इस भूमिका से तो जनता भी अनजान ही है। लंबे समय से खाली पड़े जजों के पद न्याय को सुलभ कैसे करवा सकते हैं। सैंकडों साल चलने वाले मुकदमों से मुक्ति भी तभी संभव है जबकि पर्याप्त जज हों। फिर यह भी कि ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर सरकार के बजाय अदालत को अपना समय देना पड़ता है।   

दूसरे अर्थों में कहें तो जिस सुशासन की जिम्मेदारी सरकार पर है वह काम अदालत को करना होता है। सड़क पर सम और विषम नंबर वाले वाहनों के चलने का मुद्दा हो या फिर स्कूल में एडमिशन को लेकर गाइडलाइन का पालन। इन सभी मुद्दों पर अदालत का बहुत समय जाता है तो उसके पास आम आदमी के प्रकरणों के लिए समय कम हो जाता है। ये सारे मुद्दे कार्यपालिका की जिम्मेदारी पर ही छोड़ दिए जाने चाहिए। कार्यपालिका को इन मुद्दों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभानी चाहिए।  

ऊपर अपील से बढ़ रहा बोझ  न्यायपालिका को प्रकरणों के निपटारे का समय छह माह या एक वर्ष तय करना चाहिए जैसा दुनिया के अन्य विकसित देश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका में स्पीडी ट्रायल एक्ट 1947 के अनुसार यह सुनिश्चित किया गया है कि सारे प्रकरण एक समयसीमा में हल किए जाएंगे। केवल अपवाद के रूप में सामने वाले प्रकरणों में ही अधिक समय लग सकता है।  

हालांकि सिविल प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में प्रकरण के विभिन्ना चरणों के लिए समय सीमा तय की गई है लेकिन पूरे प्रकरण के निपटारे के लिए लगने वाले अधिकतम समय के बारे में स्पष्टता का अभाव है। यह बचाव पक्ष और अभियोजन पक्ष को केस की सुनवाई को कई मर्तबा आगे बढ़वाने की सुविधा देता है और सालों साल केस अदालत में लटके रहते हैं। प्रकरण के स्थगन की सुविधा को लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और अदालतें मूक दर्शक बनी हैं।  

भारत में बड़ी संख्या में की जाने वाली अपील भी बड़ा मुद्दा है। इसके कारण शीर्ष अदालतों पर बोझ बहुत ज्यादा बढ़ जाता है और वहां प्रकरण इकट्ठा होते जाते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे प्रकरणों पर नजर डालें तो उनमें कई प्रकरण बहुत ही मामूली बातों को लेकर भी हैं। तलाक और कॉलेज में एडमिशन के मामले भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं।  मामूली प्रकरण के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाने की वजह यह है कि संविधान ने सुप्रीम कोर्ट तक जाने की आजादी हर व्यक्ति को दी है। हर व्यक्ति अपने केस की मेरिट देखे बगैर उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है। इसके लिए भी कोई व्यवस्था नहीं है।  

भारत की न्याय व्यवस्था ब्रिटेन और अमेरिका मॉडल पर आधारित है और इसलिए वहां की न्याय प्रणाली को देखा जाना जरूरी है। एक अध्ययन के अनुरूप 2006 से 2011 के बीच भारतीय उच्चतम न्यायालय ने 500 सामान्य मामलों का निपटारा किया और हर महीने यहां 5000 केस नए आ गए। इसके मुकाबले इंग्लैंड की सुप्रीम कोर्ट में 2010 से 2013 के बीच एक दर्जन जज ने मिलकर एक वर्ष में औसतन 70 मामले निपटाए।  इन सुधारों से बन सकती है बात  उच्चतम न्यायालय के एक न्यायधीश के अनुसार निचली अदालतों में आने वाले प्रकरणों को उनकी प्रवृत्ति और स्थिति के अनुरूप अलग-अलग श्रेणियों में बांटा जाना चाहिए और तय किया जाना चाहिए कि किन प्रकरणों में त्वरित निर्णय जरूरी है। जैसे सीनियर सिटीजन और गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति के प्रकरणों में त्वरित सुनवाई की जरूरत होती है। यहां दूसरे मामलों की गंभीरता को कम करना बिल्कुल भी उद्देश्य नहीं है लेकिन व्यक्ति के जीते-जी मामलों का निपटारा जरूरी है।  

भारतीय अदालतों में अभी भी ज्यादातर काम कागज पर होता है जबकि विदेश की अदातलें पेपरलेस हो चुकी हैं। कार्यपालिका ने ई-कोर्ट्स की स्थापना को भी मंजूरी दे दी है लेकिन जिन अदालतों में काम कागज पर हो रहा है उसे सुधारने की जरूरत है। ई-कोर्ट्स में सारी प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और लेटलतीफी से मुक्ति मिलेगी।  निचली अदालतों द्वारा लिखे जाने वाले फैसले बहुत स्पष्ट और संक्षिप्त होने चाहिए ताकि जब मामला ऊपरी अदालत तक पहुंचे तो अपीलीय अदालत बहुत जल्दी से पूरे मामले और उस पर सुनाए गए फैसले के कारणों को समझ सके।  किसी भी प्रकरण में बार-बार तारीख दिए जाने से जल्दी सुलझने वाला मामला लंबे समय तक चलता रहता है। मामले को स्थगित रखना दोषी का पक्ष लेने और न्याय की आस करने वाले के खिलाफ जाता है।  

26/11 या फिर सलमान खान हिट एंड रन केस या इसी तरह के अन्य बड़े मामलों का उच्च अदालत तक पहुंचना तय है तो फिर उनके लिए निचली अदालत का समय क्यों जाया हो। इन प्रकरणों को सीधे ही उच्च अदालत द्वारा क्यों न सुना जाए। बहुत सारे लोग निचली अदालतों के न्याय से ही संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन वह न्याय भी उन्हें मिले तो।  न्यायालयों में जजों की नियुक्ति लंबे समय तक अटकी पड़ी रहती है और इस दिशा में त्वरित सुधार की जरूरत है ताकि जजों के खाली पड़े पदों पर नियुक्ति संभव हो सके। लॉ कॉलेज की स्थिति सुधारना भी आवश्यक।  फिजूल प्रकरणों को लंबे समय तक खींचने के बजाय उन्हें तुरत ही निपटाया जाए। 

बहुत छोटी बातों पर होने वाले विवादों को न्यायालय में स्वीकार किया जाएगा या नहीं इस पर भी स्पष्ट दिशा निर्देश होने चाहिए। खासकर तब जबकि अदालतों पर केस का इतना ज्यादा बोझ है।  टैक्स नीति या पर्यावरण नीति जैसे तकनीकी मुद्दों से जुड़े प्रकरणों में भी अदालत को बहुत वक्त देना पड़ता है जबकि इन मुद्दों को सरकार अपने स्तर पर निपटा सकती है।    

भारत और अमेरिका में यह फर्क  एक अन्य अध्ययन बताता है कि भारतीय उच्चतम न्यायालय अपने समक्ष आने वाली हर पांच में से 1 अपील को स्वीकार कर लेता है इस लिहाज से यह आने वाले मामलों के मुकाबले स्वीकार करने वाले मामलों का 20 प्रतिशत हुआ जबकि अमेरिका में यह दर केवल 1 प्रतिशत है। वहां 100 केस में से केवल 1 केस स्वीकार किया जाता है। इसी भारतीय न्यायधीशों पर काम का बोझ निश्चित रूप से ज्यादा है।  इन सारे कारणों से भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय के लिए लगाई जाने वाली पुकार दबकर रह जाती है। न्याय की आस में गुहार लगाने वालों को लंबे समय इंतजार करना पड़ता है। सिर्फ जज की संख्या बढ़ाए जाने से काम नहीं चलेगा और व्यवस्था के अन्य पक्षों पर भी सुधार की दरकार है। जजों की कमी तो इस पूरी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भर है। 

विदेशों में लंबित प्रकरण इसलिए नहीं  दुनिया के विकसित देशों में अदालतों में प्रकरणों के लंबित रहने की समस्या नहीं है। उदाहरण के लिए अमेरिका के उच्चतम न्यायालय में सिलेक्टिव डॉकेट सिस्टम लागू है। वहां किसी याचिका को स्वीकार करने से पहले सुप्रीम कोर्ट के 9 में से 4 जज का मानना जरूरी है कि याचिका में ऐसे प्रश्न हैं जों संघीय कानून या संविधान की अधिक व्याख्या की मांग करते हैं। इस तरह उसके सामने हर वर्ष जो 7000 याचिकाएं पहुंचती हैं उनमें से केवल 75-80 को ही सुना जाता है।  

जर्मनी जैसे देशों में फेडरल कॉन्स्टीट्यूशनल कोर्ट हर प्रस्तुत याचिका को परखती है। 3 जज की एक पैनल जिसे चेम्बर कहा जाता है प्रकरणों की जांच करती हैं। ऐसी याचिकाएं जो कोई नया मुद्दा नहीं उठाती उन्हें तुरंत खत्म किया जाता है। कोर्ट केवल उन्हीं याचिकाओं को सुनती है जो चेंबर की जांच में खरे उतरते हैं।  अमेरिकी अदालत में एक बार केस डॉकेट में आ जाने के बाद तय समय-सीमा का पालन होता है। सुनवाई की तारीख कोर्ट के कैलेंडर में दर्ज हो जाती हैं। एक बार कैलेंडर में दर्ज हो जाने पर उनमें शायद ही कोई बदलाव होता है। हर केस को दो सप्ताह में सुनवाई के लिए लगाया जाता है और वकीलों को अपने पक्ष में 30 मिनट दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त समय किसी भी वकील को नहीं दिया जाता। इस तरह तुरंत न्याय उपलब्ध कराया जाता है।

अभिषेक कपूर

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

ज़वाहिरी मारा गया, मगर सवाल बाक़ी हैं

जवाहिरी मारा गया, मगर सवाल बाक़ी हैं 

अंग्रेज़ी के लोकप्रिय लेखक जेफ़री आर्चर के उपन्यास 'फॉल्स इंप्रेशन्स' की नायिका 11 सितंबर 2001 की सुबह इंग्लैंड से लौट कर न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की चौरासीवीं या पचासीवीं मंज़िल पर बने अपने दफ़्तर में पहुंचती है। कुछ देर बाद उसे ज़ोर की आवाज़ सुनाई पड़ती है और वह सिहरते हुए देखती है कि एक विमान एक टावर से टकराया है। भागदौड़ और अफरातफ़री के बीच दूसरा विमान भी दूसरे टावर से टकराता है और वह नीचे भागती है। कई घंटे बाद धूल-गर्द, कालिख और गंदगी से सनी वह निकल पाती है। निकल कर एक दोस्त के घर पहुंचती है। वहां टीवी पर फिर वही विमानों के टकराने वाला दृश्य देखती है और उसे उबकाई सी आती है। जो दूसरों के लिए शायद सनसनी या मनोरंजन का मसाला था, वह उस इमारत के ध्वंस से घिरे लोगों के लिए एक पूरी दुनिया का ध्वस्त हो जाना था।

11 सितंबर 2001 की वह सुबह इतिहास की स्मृति से जाने वाली नहीं है जब अलग-अलग विमान बहुत मामूली अंतरालों पर अमेरिका की शक्ति और संपन्नता के सबसे ऊंचे और मज़बूत प्रतीकों से टकराते रहे। दुनिया की सबसे ऊंची इमारतों में एक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर दो टावर बिल्कुल ज़मींदोज़ हो गए और एक विमान पेंटागन के ऊपर भी गिरा। जब ये हमले हो रहे थे, तब जॉर्ज बुश फ्लोरिडा के सारासोटा में एक स्कूल का दौरा कर रहे थे। जब जॉर्ज बुश एम्मा ई बुकर नाम के उस स्कूल की ओर जा रहे थे, तब उन्हें पहला विमान टकराने की ख़बर मिली। जब वे क्लास रूम में बच्चों से बात कर रहे थे, तब दूसरा विमान टकराने की सूचना मिली। इसके बाद भी कई मिनट वे क्लास में रहे, फिर उठ कर उन्होंने फोटो सेशन में हिस्सा लिया और उसके बाद एक ख़ाली कमरे में जाकर उन्होंने हालात का जायज़ा लिया, उपराष्ट्रपति डिक चेनी से बात की।

इस आतंकी हमले को लेकर बनी माइकल मूर की फिल्म 'नाइन इलेवन फॉरेनहाइट' आरोप लगाती है कि अमेरिका पर हुए इस आतंकी हमले का सबसे पहला फ़ायदा जॉर्ज बुश को ही मिला। उनके राष्ट्रपति बने बस सात महीने हुए थे और इन सात महीनों में वे लगातार विरोध प्रदर्शनों से घिरे थे। उन पर चुनाव में घपले का इल्ज़ाम था और प्रदर्शनकारी लगातार दबाव बना रहे थे। लेकिन इस हमले के तत्काल बाद जॉर्ज बुश ने आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध का एलान किया और निष्कंटक राष्ट्रपति बन गए।

इसी फिल्म में एक दावा और है। 11 सितंबर के हमले के बाद जब पूरे अमेरिका में विमानों की उड़ान रुकी हुई थी, तब बस एक विमान उड़ा जिसमें ओसामा बिन लादेन के परिवार को सुरक्षित बाहर निकाला गया।

हो सकता है, ये दावे अतिवादी हों। संभव है, इनके पीछे हर जगह साज़िश खोजने वाली अतिरिक्त सतर्क दृष्टि हो। लेकिन फिलहाल इसको स्थगित करते हैं और कुछ दूसरे संदर्भों की ओर चलते हैं। कैथी स्कॉट क्लार्क और ऐड्रियन लेवी की किताब 'द एक्साइल' के दो प्रसंग उल्लेखनीय हैं। एक प्रसंग के मुताबिक अमेरिकी और पाकिस्तानी सेनाओं ने तोराबोरा की पहाड़ियों में छुपे ओसामा बिन लादेन को लगभग घेर लिया था। माना जा रहा था कि अगली सुबह वह पकड़ा जाएगा। लेकिन जब अगली सुबह अमेरिकी सैनिक जागे तो उन्होंने देखा कि घेराबंदी में लगी पाकिस्तानी सेना पूरी तरह गायब है और ओसामा बिन लादेन निकल चुका है। यह पता चलता है कि 13 दिसंबर 2001 को भारत में संसद भवन पर हमला हुआ है और भारत-पाक सीमा पर बढ़ते तनाव की वजह से सेनाओं को उस मोर्चे पर भेज दिया गया है। 'द एक्साइल' के लेखकों  ने बहुत हल्का संदेह यह भी जताया है- जिसके कोई प्रमाण उनके पास नहीं हैं- कि भारतीय संसद पर हमला ही इसलिए कराया गया कि पाक सेनाओं को तोराबोरा की पहाड़ियों से हटाने का बहाना निकाला जा सके। वे पूछते हैं कि क्या यह संभव था कि जैश के लोग अपने आका आइएसआई को बताए बगैर भारतीय ज़मीन पर इतना बड़ा हमला कर डालें?

इसी किताब में दो और दिलचस्प प्रसंग मिलते हैं जो बताते हैं कि आतंकवाद या कोई भी मसला जांच एजेंसियों के भीतर किस तरह की राजनीति से संचालित होता है। किताब के मुताबिक पहले इस आतंकी हमले की जांच एफबीआई के हाथ थी जिसने साज़िश की कई तहें खोज निकाली थीं। लेकिन सीआइए और एफबीआई में टकराव चला, जांच अंततः सीआइए के हाथ गई और उसने फिर पूरा तरीक़ा बदल दिया जिसमें गुआंतानामो बे सहित कई यातना शिविरों और यातना के नए उपकरणों की भरपूर जगह थी। यही नहीं, अमेरिका के आतंकवाद निरोधी केंद्र ने जो रिपोर्ट तैयार की थी, उसमें बताया गया कि ओसामा बिन लादेन के समर्थक और परिवारवाले ईरान में छुपे हुए हैं। इराक में कुछ सद्दाम विरोधियों का समर्थन उन्हें ज़रूर हासिल है, लेकिन वे ज़्यादा ईरान में रह रहे हैं। जब ये रिपोर्ट सदन में पढ़ी जा रही है तब सीटीसी की डायरेक्टर यह देखकर हैरान रह जाती है कि रिपोर्ट बदल दी गई है। जाहिर है, अमेरिका को ऐसी रिपोर्ट चाहिए थी जिसके आधार पर वह इराक और अफ़गानिस्तान पर हमला कर पाता। इसके अलावा इन सारे तथ्यों को याद करने का मक़सद बस यह बताना है कि आतंकवाद का मसला इतना सीधा सपाट नहीं है। जॉर्ज बुश से लेकर बराक ओबामा और जो बाइडन तक को यह अलग-अलग ढंग से रास आता है। ऐसा नहीं कि अल क़ायदा कोई मासूम संगठन है या अल ज़वाहिरी के मारे जाने पर किसी को दुख मनाना चाहिए। आततायी जब मारे जाते हैं तो कोई दुखी नहीं होता। लेकिन अल क़ायदा, तालिबान या आइएसआइएस जैसे संगठन कहां से खड़े होते हैं, कौन उन्हें ताकत और पोषण देता है? यह इतिहास किसी से छुपा नहीं है। अमेरिका ने अपने हितों के लिए तालिबान को खड़ा किया, आइएस की करतूतों से आंख मूंदी और चुपचाप उन देशों की मदद करता रहा जो आतंकी ताकतों को संरक्षण देते रहे। लोकतंत्र का वास्ता देते हुए उसने वहां की मज़बूत सरकारों को गिराया, वहां की उदार शासन व्यवस्थाओं को ध्वस्त किया और अंततः उन्हें ऐसी अराजकता में धकेल दिया जिसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा कट्टरपंथी समूहों और संगठनों को मिला।

2001 में जब अमेरिका ने आतंक के ख़िलाफ युद्ध का एलान किया तो जिन देशों ने सबसे पहले साथ देने की पेशकश की, उनमें भारत भी था, लेकिन अमेरिका ने उस पाकिस्तान से मदद लेना मंज़ूर किया जो आतंकवाद के पोषण में कभी उसका साझीदार रहा। यह लगभग खुला राज रहा कि मुशर्रफ अमेरिका से भी पैसे लेते रहे और आतंकियों के मददगार भी बने रहे। लेकिन अमेरिका यह जानते-बूझते इसे नज़रअंदाज़ करता रहा। बिल्कुल हाल में इमरान खान ने अपनी विदाई के दिनों में भाषण देते हुए पाकिस्तान को बदनाम और बरबाद करने वाले इस अमेरिकी रुख़ पर अफ़सोस जताया था, लेकिन पाकिस्तान की अपनी भूमिका पर वे खामोश रहे।

इन सारी बातों का भारत के लिए क्या मतलब है? भारत में 2008 के मुंबई हमले को 9/11 की तर्ज पर 26/11 बताने वाले भूल जाते हैं कि जिस सितंबर को अमेरिका पर हमला हुआ था उसी दिसंबर को भारतीय संसद को भी निशाने पर लिया गया। उस हमले का लाभ भी तत्कालीन यूपीए सरकार को मिला जो तब कैश फॉर वोट सहित कई आरोपों में घिरी सरकार अचानक सारी बहसों से मुक्त हो गई। 2019 से पहले पुलवामा के आतंकी हमले का लाभ भी मोदी सरकार को मिला, यह बात सब मानते हैं।

लेकिन तो क्या करें? क्या आतंकवाद से नहीं लड़ें? इस पर चुप रहें? दरअसल यह समझने की ज़रूरत है कि आतंकवाद बहुत गंभीर परिघटना है, सिर्फ़ अपने हिंसक नतीजों की वजह से नहीं, बल्कि अपने निर्माण की प्रक्रिया से भी। कई बार आतंकी संगठन ख़त्म हो जाते हैं, लेकिन आतंकवाद बचा रहता है। उसकी परिणतियां भी बची रहती हैं। उससे लड़ने के लिए कई मोर्चों की रणनीति ज़रूरी होती है। इसमें राज्य तंत्र का- ख़ुफ़िया एजेंसियों का, सुरक्षा बलों का और सरकारों का बहुत अहम योगदान होता है। लेकिन अगर कोई नेता इसे अपने निजी एजेंडा या निजी पराक्रम की तरह प्रस्तुत करता है तो उस पर संदेह करना चाहिए। कोई अगर कहता है कि वह आतंकवाद का ख़ात्मा करने के लिए आया है तो मानना चाहिए कि दरअसल वह अपने देश के ज़रूरी मुद्दों से ध्यान भटकाना चाहता है, अपने विरोधियों को ठिकाने लगाना चाहता है और बस अपने फ़ायदे की राजनीति करना चाहता है। इसका ख़तरा यह भी होता है कि वह एजेंसियों का दुरुपयोग शुरू करता है और इस क्रम में उन्हें कम पेशेवर बना कर छोड़ देता है। यह हमने अमेरिका में होता देखा है और इससे हमें हर जगह सावधान रहना चाहिए।

लेकिन जॉर्ज बुश जैसे शासकों का अंततः क्या होता है? इस सवाल का जवाब 14 दिसंबर 2008 को मुंतज़िर अल जैदी नाम के एक इराकी पत्रकार ने दिया था। प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने अपने जूते फेंककर बुश को मारना चाहा। बुश बच गए, लेकिन मीडिया पर जूता बार-बार उछलता रहा। अमेरिकी टावरों पर विमानों के टकराने का दृश्य जितनी बार चला होगा, सात साल बाद बुश पर उछले जूते का दृश्य टीवी पर उससे कम नहीं चला होगा। विमानों के टकराने का दृश्य दुहराया जाता देख जेफरी आर्चर की नायिका को उबकाई सी आई थी, लेकिन बुश के जूते वाले दृश्य का क्या हुआ। हिंदी की प्रतिष्ठित लेखिका अलका सरावगी ने अपने एक कॉलम में लिखा था- वे बार-बार यह दृश्य देखती हैं, इस उम्मीद में कि वह जूता कभी तो बुश को लग ही जाएगा।

(साभार-प्रियदर्शन)

रविवार, 24 अप्रैल 2022

'फन एंड लर्न' के कांसेप्ट पर आधारित शिक्षा प्रणाली है 'जौली फोनिक’, जानिये इसके बारे में विस्‍तार से

 प्री स्कूल स्तर पर छोटे बच्चों को पढ़ाने के लिए पूरी दुनिया में 'फन एंड लर्न' के कांसेप्ट पर आधारित शिक्षा प्रणाली 'जौली फोनिक' लोकप्रिय हो रही है। 

इंदौर स्थित यू.सी.किंडीज स्कूल 'जौली फोनिक' विशेषज्ञ स्कूल है। इस स्कूल की सेवाएं पिछले 2 साल से इंदौर शहर के गोपुर कॉलोनी पर भी उपलब्ध हो रही है। 

क्या है 'जौली फोनिक' ?

गोपुर कॉलोनी स्थित की डायरेक्टर मीता बाफना के अनुसार 'जौली फोनिक' को एक प्रकार से ऐसी शिक्षा पद्धति कहा जा सकता है जिसमें 2 साल से 7 साल के बच्चों को फ्लैश कार्ड, साउंड और बॉडी एक्शन के माध्यम से बोलना एवं पढऩा सिखाया है। उदाहरण के तौर पर टीचर जब 'बी' अल्फाबेट दिखाती है तो साथ में उसका साउंड 'ब' भी एक्शन के साथ बताती है, इससे बच्चे बहुत सारे शब्द पढऩा एवं बोलना खेल-खेल में सीख जाते हैं। '

जौली फोनिक' विशेषज्ञ स्कूल है 

'यू.सी.किंडीज' इंदौर स्थित 'यू.सी.किंडीज' स्कूल जौली फोनिक' विशेषज्ञ स्कूल है। यूसी किंडीज यूसी इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन का एक हिस्सा है। यह 5 देशों - भारत, मिस्त्र, चीन, मलेशिया और ईरान में वैश्विक उपस्थिति के साथ एक अंतराष्ट्रीय प्रीस्कूल है। 'यू.सी.किंडीज' स्कूल की सेवाएं पिछले 2 साल से इंदौर शहर की गोपुर कॉलोनी पर भी उपलब्ध हो रही है। गोपुर कॉलोनी वाली 'यू.सी.किंडीज' की खासियत गोपुर कॉलोनी वाली 'यू.सी.किंडीज' की खासियत की बात करें तो पाएंगे कि यहां बच्चों को सामान्य एबीसीडी की शिक्षा देने की बजाय बच्चों को जौली फोनिक के माध्यम से अक्षर ज्ञान दिया जाता है। यहां आर्ट और साइंस को विशेष तरीके से रूबरू करवाया जाता है जिससे बच्चे प्रैक्टिकल लर्निंग करते हैं। यहां बच्चों के मानसिक और शारीरिक सुरक्षा का विशेष ध्यान दिया जाता है। यहां बच्चों को कोरोना महामारी से बचाने के लिए सभी सुरक्षात्मक उपाय किए गए हैं। सभी शिक्षकों ने अपना कोविड वैक्सीनेशन करवा लिया है। इस स्कूल की डायरेक्टर मीता बाफना सुनिश्चित करती हैं कि बच्चों को सुरक्षात्मक माहौल के साथ बिना किसी मानसिक तनाव के आनंदमयी तरीके से अक्षर ज्ञान दिया जाए। 

नवोदित शेखावत  

साभार- नई दुनिया 

समाज की बात samaj ki baat

आत्महत्या नहीं है अवसाद व समस्याओं का हल, जीवन शैली में बदलाव करने से मिलेगा हल

 छात्रों द्वारा किसानों द्वारा प्रसिद्ध सितारों व उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों की आत्महत्या की खबरें हमें इस विषय पर सोचने को मजबूर करती हैं।   

हाल के दिनों में कोविड-19 के कारण उपजी भयावह परिस्थितियों जैसे बेरोजगारी गरीबी अकेलापन घरों से बेघर होना आदि समस्याओं ने खुदकुशी की प्रवृत्तियों में इजाफा किया है। एनसीआरबी द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में बेहद चिंताजनक आंकड़े सामने आए हैं। यह दुनिया में होने वाली मौतों का दसवां सबसे बड़ा कारण है हमारे देश में ही हर साल एक लाख से अधिक लोग आत्महत्या करते हैं।   

छात्रों द्वारा किसानों द्वारा प्रसिद्ध सितारों व उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों द्वारा की गई आत्महत्या की खबरें हमें इस विषय पर सोचने को मजबूर कर देती हैं। आजकल की बढ़ती चकाचौंध की दुनिया हमें अकेलेपन का शिकार बना रही है। यही अकेलापन धीरे-धीरे अवसाद में तब्दील होकर आत्महत्या जैसे दुष्परिणाम ला रहा है। आत्महत्या के कई कारण हो सकते हैं जैसे तनावपूर्ण जीवनशैली मानसिक रोग घरेलू समस्याएं आदि।   हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति लोगों में जागरूकता की कमी है व सरकार का भी इस ओर कोई रुझान नहीं है। 

कई बार कुछ सामाजिक कारणों से भी व्यक्ति ऐसा कदम उठाता है जैसे क्लास में प्रथम ना आना, किसी प्रतिष्ठित पद की परीक्षा को पास न कर पाना, नौकरी ना मिल पाना आदि इस समस्या से निपटने के लिए हमें इसके मूल कारण जानकर उनका समाधान ढूंढना चाहिए।  

 हमें शारीरिक व मानसिक स्तर पर कुछ आदतों व जीवनशैली में बदलाव करने की भी आवश्यकता है, जैसे-व्यायाम ध्यान योग खेलकूद आदि करना पौष्टिक आहार लेना समय पर सोना व उठना। नशीले पदार्थों के सेवन से बचना हमेशा सकारात्मक रहना सोशल मीडिया का उपयोग एक सीमा तक करना आदि। टेक्नोलॉजी की इस दुनिया में हम अपने परिवार, दोस्तों व प्रकृति सभी से दूर होते जा रहे हैं। हमें समय निकालकर इनके साथ वक्त बिताना चाहिए अपनी बातों व परेशानियों को साझा करना चाहिए। जरूरत पड़ने पर हमें मनोचिकित्सक की सलाह लेने से भी संकोच नहीं करना चाहिए तभी इस समस्या का समाधान किया जा सकता है।  

अंकिता श्रीवास्तव  

साभार- नई दुनिया 

samaj ki baat समाज की बात 

रविवार, 21 नवंबर 2021

तीर-धनुष थामे संघर्ष की अग्नि में कूदे और बिरसा से भगवान बने

 छोटा नागपुर का क्षेत्र आदिवासियों का एक सघन क्षेत्र है। इसी क्षेत्र के एक किसान परिवार में बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। आदिवासी जीवन स्वच्छंद और छल-छद्म से रहित था। इनके जीवन का आधार थे- जंगल, जमीन, जल और जंतु। परंतु शोषण की अमानवीय प्रतिक्रिया ने आदिवासी समुदाय की सामाजिक व्यवस्था को जर्जर कर दिया था। इस कठिन समय में इस धरती पर बिरसा मुंडा का आविर्भाव हुआ। शोषण से मुक्ति के लिए उन्होंने उलगुलान का आंदोलन चलाया, जो क्रमश: सामाजिक क्रांति का द्योतक बन गया। इस शोषण प्रक्रिया के प्रमुख अत्याचारी 'दिकु" थे जो बाहर से आकर इस क्षेत्र की वन और धरती संपदा को हड़प लेना चाहते थे। ब्रिटिश शासन इनके साथ था।  

दिकु धीरे-धीरे जमींदार, ठेकेदार और जागीरदार बन गए। इस समय न्याय की आशा पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। आदिवासियों के लिए समस्याएं बढ़ती चली जा रही थीं। बिरसा मुंडा ने इन ज्वलंत समस्याओं को समझा और 25 वर्ष का एक युवा मात्र तीर-धनुष थामे संघर्ष की अग्नि में कूद पड़ा। बिरसा के हृदय में यह अग्नि इतनी प्रज्ज्वलित थी कि देखते ही देखते वह मुंडा समुदाय का हृदय-सम्राट बन गया। 

बिरसा मुंडा केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे। उन्होंने अपने समाज को नए विचार दिए, अपनी एक उन्ननतशील विचारधारा दी तथा धार्मिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए लोगों को मार्ग बताए। अपने इस बहुआयामी व्यक्तित्व के कारण ही आदिवासी समाज ने उन्हें 'भगवान" की संज्ञा दी। आज भी वे बीर बिरसा, धरती आबा (धरती पिता) और बिरसा भगवान के नाम से याद किए जाते हैं। बिरसा ने जो धार्मिक मत स्थापित किया, बिरसैत धर्म उसे आज भी कई लोग अंगीकार किए हुए हैं। 

यह धर्म सर्वसमावेशी है और उन्नतत विचारों से पुष्ट है। बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन आदिवासियों के शोषण और उनकी अस्मिता पर प्रहार के विरोध में किया जाने वाला विद्रोह था। इस विद्रोह में बिरसा मुंडा कई धरातलों पर युद्धरत हुए। उन्होंने आदिवासियों के परंपरागत सामाजिक ढांचे में पैदा दरारों को भरने का प्रयत्न, दिकुओं द्वारा किए जा रहे अवैध कब्जे का विरोध और लोलुप ठेकेदारों और जमींदारों के अत्याचारों का विरोध किया। बिरसा मुंडा अपने लोगों को अत्याचारों से छुटकारा दिलाने के लिए बलिदानी रूप धर कर सामने आए। अपनी धार्मिक अस्मिता को अखंडित रखने के लिए उन्होंने धर्म उपदेशक का भी रूप धारण किया। बिरसा मुंडा में कबीर पंथियों का अस्तित्व था। स्वासी जाति के कुछ सदस्य वैष्णव धर्म का अनुसरण करते थे। 

बिरसा ईसाई धर्म से भी कुछ समय तक संबद्ध रहे। मिशनरी भी गए। एक बार जब वे बंदगांव पहुंचे तो उनका संपर्क आनंदपाण नामक व्यक्ति से हुआ जो वैष्णव धर्म के अनुयायी थे। बिरसा को उनसे पौराणिक गाथाओं का ज्ञान मिला। इस अवधि में बिरसा शाकाहारी बन गए थे। उनमें आध्यात्मिक शक्ति आ गई थी। इस शक्ति से वे लोगों के रोग दूर करने लगे। लोग उनके पास आने लगे और उन्हें भगवान कहा जाने लगा। 1895 तक आते-आते बिरसा धार्मिक आंदोलन के प्रतीक बन चुके थे। 

धार्मिक प्रवर्तक के रूप में उन्होंने आदिवासी समुदाय को अंधविश्वासों से मुक्ति दिलवाई। इसी समय नया जंगल कानून आ गया। बिरसा का आंदोलन पहले अहिंसक था लेकिन उपदेशक और समाजसेवी के रूप में उनकी लोकप्रियता को देखकर शोषक विचलित हो गए। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। अंग्रेजों ने दमन करने की ठान ली। बिरसैत कहलाने वाले बिरसा के अनुयायियों को यातनाएं दी जाने लगीं। बिरसा मुंडा जंगलों में छिपे रहने लगे। बिरसा के ही कुछ अनुयायियों ने बिरसा पर घोषित 500 रुपये के इनाम के लोभ में बिरसा को कैद करा दिया। 30 मई, 1900 को बिरसा ने जेल में भोजन नहीं किया। वे अस्वस्थ हो गए थे। नौ जून 1900 को क्रांति के इस महानायक की मृत्यु हो गई। 

स्वतंत्रता के बाद पुनर्जागरण के इस अग्रदूत को भारत सरकार ने उचित सम्मान प्रदान किया। 28 अगस्त, 1998 को भारत के संसद भवन परिसर में तत्कालीन राष्ट्रपति ने बिरसा मुंडा की मूर्ति का अनावरण किया और उन्हें असाधारण लोकनायक की संज्ञा दी और एक साधारण युवा से भगवान बन गए। 

प्रो. प्रकाश मणि त्रिपाठी

साभार- नई दुनिया 

samaj ki baat समाज की बात 

सोमवार, 27 सितंबर 2021

पान मसाला, पैसा और अमिताभ बच्चन की सामाजिक जिम्मेदारी

 एक बहुत सीधा तर्क है कि एक व्यवसाय जो कुछ लोगों के लिए अच्छा है, क्या अकेला यही पर्याप्त कारण है कि उस वजह से बच्चन उसका समर्थन करेंगे। इस तरह तो बच्चन अपना अनुबंध बचाने के लिए वस्तुत: गुटका किंग और पान मसाला सेठों की ही बात कह रहे हैं। यह कुछ इस तरह बताया जा रहा है कि उनके कैंसरजनक उत्पादों पर किसी भी तरह के प्रतिबंध से कारखानों में नौकरियां घट जायेंगी, ऊपर और नीचे तक आपूर्ति और वितरण श्रृंखला ध्वस्त हो जायेगी।  

न्यूयॉर्क टाइम्स' पत्रिका में 13 सितंबर,1970 को नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन ने लिखा था- 'कारोबार की सामाजिक जिम्मेदारी अपने मुनाफे को बढ़ाना है।' यह सबसे अधिक उद्धृत किए जाने वाले उद्धरणों में से एक है। तब से दुनिया बहुत आगे बढ़ गई है और फ्रीडमैन के इस विचार को कई विद्वानों, सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं और नेताओं ने सिरे से खारिज कर दिया है।

 व्यापार में आज कोई भी यह कहने के लिए खड़ा नहीं होगा कि उसका लक्ष्य सिर्फ अधिकतम लाभ कमाना है। लेकिन अमिताभ बच्चन ने ठीक यही कहा है, सिर्फ शब्दों में थोड़ा फेरबदल है।   सोशल मीडिया पर एक नाराज प्रश्नकर्ता ने इस मशहूर हिंदी फिल्म स्टार से पूछा कि उन्होंने पान मसाला के रूप में एक अवांछनीय उत्पाद का समर्थन क्यों किया है, बच्चन ने कहा कि उन्हें ऐसा करने के लिए भुगतान किया गया था। बच्चन की खासियत यह है कि वह हमेशा विनम्र, शांत और दोस्ताना होते हैं और इस मामले में भी उन्होंने ठंडे दिमाग से जवाब दिया। वे कहते हैं कि यह (पान मसाला) एक ऐसा व्यवसाय है जो कई लोगों को लाभ पहुंचाता है। वे आगे कहते हैं कि इसलिए मैं अपने व्यवसाय के बारे में भी सोचता हूं, और मुझे इसके लिए पैसा मिलता है और फिल्म उद्योग में काम करने वाले अन्य लोगों को भी ऐसे ही पैसा मिलता है। एक सादा और सरल जवाब- मामला बंद!  यह विवाद और आगे बढ़ता है। उसने बाद में एक और टिप्पणी में बच्चन से पूछा गया कि क्या वह अपनी पोती को इस विज्ञापित ब्रांड की पेशकश करेंगे जिस विज्ञापन और ब्रांड को बढ़ावा देने का खतरनाक प्रभाव पड़ता है? इस सवाल-जवाब के बाद से कुछ ही दिनों में इस मामले में बच्चन की काफी बदनामी हो गई जो इस बात का स्वस्थ संकेत है कि आम नागरिक अपने नायकों के ऐसे कामों को किस नजरिए से देखते हैं।   

एक बहुत सीधा तर्क है कि एक व्यवसाय जो कुछ लोगों के लिए अच्छा है, क्या अकेला यही पर्याप्त कारण है कि उस वजह से बच्चन उसका समर्थन करेंगे। इस तरह तो बच्चन अपना अनुबंध बचाने के लिए वस्तुत: गुटका किंग और पान मसाला सेठों की ही बात कह रहे हैं। यह कुछ इस तरह बताया जा रहा है कि उनके कैंसरजनक उत्पादों पर किसी भी तरह के प्रतिबंध से कारखानों में नौकरियां घट जायेंगी, ऊपर और नीचे तक आपूर्ति और वितरण श्रृंखला ध्वस्त हो जायेगी। दुर्भाग्यवश तंबाकूजन्य उत्पादों को भारत में एक खाद्य उत्पाद के रूप में वर्गीकृत किया गया है। यह चिंता की बात है तथा सरकार को इस मसले से निपटना चाहिए और यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसके जरिए बच्चन अपना बचाव कर सकें।   

मार्केट रिसर्च कंपनी आईएमएआरसी ग्रुप के मुताबिक पान मसाला की सालाना बिक्री 45,000 करोड़ रुपये के आसपास होती है। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि एक पान मसाला  समूह ने एक राजनीतिक दल को 200 करोड़ रुपये चंदा दिया था, जो यह बताता है कि जहर बेचने के कारोबार में कितना मुनाफा होता है और अपनी पहुंच, अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए कितनी राशि खर्च की जा सकती है। सरसरी तौर पर जांच करेंगे तो  पता चलेगा कि कई पान मसाला उत्पादकों पर करोड़ों की आबकारी चोरी के मामले दर्ज किए गए हैं।   यह सब तब हुआ जब विभिन्न माध्यमों ने बताया कि पान मसाला उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की वेबसाइट पर भारत में तंबाकू नियंत्रण पर एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ओरल सबम्यूकस फाइब्रोसिस (ओएसएमएफ), जो मुंह के कैंसर से पहले की स्थिति है, खास तौर पर युवाओं के बीच एक नई महामारी के रूप में उभर रहा है। रिपोर्ट में भारत में युवा लोगों के बीच ओएसएमएफ में नाटकीय वृद्धि का कारण गुटका और पान मसाला चबाने को माना गया है। 

भारत में तंबाकू के सेवन का सबसे बड़ा तरीका तंबाकू चबाना है और जिसमें पान मसाला शामिल है। यहां तक कि अगर पान मसाला के एक विशेष पैकेट में तंबाकू नहीं होता है तो यह सुपारी व अन्य उत्तेजक और टैनिन चबाने की लत को बढ़ाता है। इस आदत में तम्बाकू को शामिल करना कुछ ही समय की बात होती है।  

शोधकर्ताओं, ज्योत्सना चांगरानी और फ्रांसिस्का गैनी ने पाया है कि भारत में मुंह के कैंसर की बीमारी लगभग 30 प्रतिशत सुपारी-तंबाकू, करीब 50 फीसदी सुपारी-तंबाकू चबाने और धूम्रपान के संयुक्त उपयोग के कारण होती है। उन्होंने शोध में पाया कि अभी हाल तक पान  और गुटका में तंबाकू के उपयोग को मुंह के कैंसर के लिए एकमात्र कारण के रूप में जिम्मेदार ठहराया गया था। हालांकि हाल ही में सुपारी को मुंह के कैंसर के लिए स्वतंत्र रूप से जिम्मेदार ठहराया गया है। तंबाकू के साथ सुपारी का सेवन गले और भोजन नलिका के कैंसर का कारण बनता है।  बुरी बात यह है कि कैंसर होने के कारणों में पान मसाला अपेक्षाकृत नया घटक है और यह हाल ही में इस घातक गिरोह में शामिल किया गया है। बमुश्किल तीन दशक पहले यह उत्पाद बाजार में आया था और तब से आक्रामक मार्केटिंग के तौर-तरीकों से इसकी बिक्री में लगातार वृद्धि हुई है। इसका मतलब है कि हम ब्रांडों, संकुल, टिन और अन्य स्टॉक कीपिंग यूनिट्स कोड के मिश्रित विविध घटकों के माध्यम से कैंसर के प्रसार के लिए बाजार में सक्रिय हैं।  भारत के दुनिया के दूसरे सबसे बड़े तंबाकू उपभोक्ता होने की पृष्ठभूमि में अमिताभ बच्चन इस बात का आश्वासन दे सकते हैं कि उन्होंने लोगों के स्नेह, चैरिटी और अपने प्रभावी सेलिब्रिटी स्टेट्स का उपयोग उन नौकरियों से ज्यादा जान लेने के लिए किया है जो उन्होंने कथित तौर पर बचाई हैं। इस मुद्दे की वजह से यह मामला इतना बढ़ गया है।  

 एक बड़ी समस्या उस वक्त होती है जब बच्चन प्रभावी ढंग से कहते हैं कि यह एक वैध व्यवसाय है और वे इसे बढ़ावा देने और उसका प्रचार कर अपना पैसा बनाने के हकदार हैं। यह तर्क इस धारणा के विपरीत है कि कोई भी चीज जो कानूनी तौर पर सही है, वह नैतिकता की जरूरतों को पूरा करता है। एक बहुत अधिक अमीर और सुप्रसिद्ध व्यक्ति की आम नागरिकों के प्रति अंसवेदनशीलता नागरिकों के बढ़ते क्रोध का कारण बना है। यह अन्य फिल्मी सितारों के समाज के लिए किए कुछ शानदार कामों को अनदेखा करने वाली हरकत है; और फिर इससे यह संदेश भी जाता है कि पैसा बनाना एक अधिकार है- चाहे उसकी कोई भी कीमत देनी पड़े।  

एक आखिरी समस्या फिल्म 'दीवार' में बच्चन के मशहूर डायलॉग के समान है, जब वह अपने अलग रह रहे भाई और पुलिस अधिकारी से पूछते हैं- 'मेरे पास संपत्ति है, बैंक में पैसा, बंगला है, कार है... तुम्हारे पास क्या है?' फिल्म में उनके भाई का जवाब (मेरे पास मां है) अमर हो गया है। लाखों लोग इसे आज भी याद करते हैं। यह बच्चन ही हैं जो अपनी पंक्तियों को भूल गए।  परदे का यह स्टार वास्तविक जीवन में भी नायक बन सकता है अगर वह इस विज्ञापन से हट जाए और कहे कि पान मसाला मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है और उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य और अधिकारों की रक्षा के लिए बॉलीवुड के भीतर एक आंदोलन चलाये। बच्चन ऐसा कर सकते हैं। सवाल यह है कि क्या वे ऐसा करेंगे?

लेखक-जगदीश रत्तनाणी  

समाज की बात Samaj Ki Baat कृष्णधर शर्मा

रविवार, 29 अगस्त 2021

रिश्तों में अब

रिश्तों में अब वह पहले सी गर्माहट कहाँ

अपनों से मिलने की वह छटपटाहट कहाँ

दरवाजों पर नजरें गड़ाये राह तकती बूढ़ी आँखें

अब अपनों के लौटकर आने की वह आहट कहाँ

त्योहारों के बहाने जब घर लौट आते थे परदेशी

अब गाँव देहातों में वह रौनक कहाँ

जगमगाते थे घर जब अपनों की रोशनी से

महकती थी गलियाँ पकवानों की खुशबू से

पकवान तो अब भी बनते ही होंगे शायद

अकेले बैठकर खाने में वह लज्जत कहाँ

व्यस्तता इतनी है कि एक घर में रहकर भी

दूसरे का हाल क्या है यह जानने की फुर्सत कहाँ

मरता भी है कोई गर तो मरे अपनी गरज से

क्यूँ मरा वह जानकर हम करेंगे भी क्या

इतनी बेहयाई तो जानवरों में भी न थी

हम क्योंकर इंसान हुए भला.....

                (कृष्णधर शर्मा 28.8.2021)

#samaj ki baat #समाज की बात #कृष्णधर शर्मा 

 


गुरुवार, 22 जुलाई 2021

कच्चे खपरैल वाले घरों में

 

कच्चे खपरैल वाले घरों में

रहती थी इतनी जगह

कि छुप सकें तेज बारिश में

गाय, बैलों के साथ-साथ

कुत्ते, बिल्ली, चूहे जैसे

और भी जीव, जंतु

जो नहीं कर सकते अपनी

व्यवस्था स्वयं के लिए

रहती थी इतनी जगह

घर के एक कोने में

कि रुक सके और बना सके

अपने हाथ से अपना भोजन

भिक्षा मांगने वाला गरीब ब्राह्मण

रहती थी इतनी कि

आ जाएं 5-10 मेहमान भी अगर

एक साथ, तो भी नहीं पड़ती थी

माथे पर कोई शिकन

उलटे बढ़ जाता था उत्साह

उन्हें खिलने-पिलाने का

उनकी आवभगत करने का

मगर टीवी और मोबाइल के

इस आधुनिक दौर में

नहीं बची है वह जगह

न घर में और न लोगों के दिलों में

नहीं बचा है वह उत्साह

न वह अपनापन

जो अपने लोगों के लिए होता था

न जाने किसकी नजर लगी है

कि रहना चाहते हैं सब अकेले ही

एक ही घर में अजनबी जैसे...

                 (कृष्णधर शर्मा 20.7.2021)

किसी के मर जाने से

 

रोजी-रोटी कमाने या

किसी जरूरी काम से

घर से निकलकर सड़क पर

चलते हुए अचानक से

किसी तेज रफ़्तार वाहन से

किसी के टकराकर

दुर्घटना में मर जाने से

नहीं रूकती है सड़क

और नहीं रुकते हैं ज्यादा देर तक

सड़क पर चलने वाले भी

मगर रुक जाती हैं कई जिंदगियां

मरने वाले के घर में

जो चलती थीं

मरनेवाले के चलते रहने से

           (कृष्णधर शर्मा 18.7.2021)

शुक्रवार, 25 जून 2021

ये हैं भारत के वो 5 मशहूर चोर बाजार, जहां कम से कम में खरीद सकते हैं कपड़ों से लेकर इलेक्ट्रानिक का सामान

 

आपने कभी चोर बाजार से कोई अपना जरूरी सामान कम से कम दाम में खरीदा है? अगर नहीं, तो ये रहे भारत के 5 ऐसे मशहूर चोर बाजार जहां आप फर्नीचर, कपड़ों से लेकर गाड़ी के पार्ट्स तक खरीद सकते हैं।



भारत में ऐसे बहुत से लोग हैं, जिन्हें कम से कम दाम में चीजों को खरीदना बहुत पसंद होता है। ऐसे लोगों को अगर आप बोल दें, कि इस मार्किट में आज 50 परसेंट ऑफ मिल रहा है या सेल लगी है, तो वहां कुछ ही घंटों में आप इतनी भीड़ देख लेंगे, जहां पैर रखने की जगह नहीं होती। बहुत से लोग तो ऐसे होते हैं, जो ऑनलाइन में भी डिस्काउंट और सेल तलाश रहे होते हैं। लेकिन क्या आप ये बात जानते हैं? कि भारत में ऐसे कई चोर बाजार हैं, जहां आप चीजों को बहुत ही सस्ते दाम में खरीद सकते हैं। इन बाजारों में आप फर्नीचर, कपड़े, इलेक्ट्रानिक सामान से कार के पार्ट्स भी सस्ते दाम में खरीद सकते हैं। तो चलिए हम आपको उन बाजारों के बारे में बताते हैं -

मटन स्ट्रीट, मुंबई - Mutton Street, Mumbai 


मुंबई में एक मशहूर मटन स्ट्रीट नाम से एक चोर बाजार है, जो कि लगभग 150 साल से यही पर है। पहले इस बाजार का नाम शोर बाजार था, लेकिन ऐसा कहा जाता है कि ब्रिटिश लोग इस शब्द को सही ढंग से नहीं बोल पाते थे, वो शोर बाजार को चोर बाजर कहते थे। यहां आप विंटेज मूवी पोस्टर्स से लेकर एंटीक फर्नीचर, सेकेंड हैंड कपड़े, लग्जरी ब्रांड के प्रोडक्ट्स की फर्स्ट कॉपी बहुत कम दाम में खरीद सकते हैं। अगर आपका कोई सामान चोरी हुआ है, तो आप यहां आकर अपने सामान को ढूंढ सकते हैं, क्योंकि कई बार लोगों को अपना खोया हुआ सामान यहां मिल 
जाता है।

चिकपेट मार्केट, बेंगलुरु - Chickpet Market, Bengaluru


चिकपेट मार्किट भी बेंगलुरु के सबसे लोकप्रिय चोर बाजार में आती है। चिकपेट एक ऐसा बाजार है, जहां आप कई तरह के आकर्षक सामान खरीद सकते हैं। यहां आपको कई सिल्क की साड़ियां देखने को मिल जाएंगी। इसके अलावा आप यहां बहुत कम दाम में कपड़े और आर्टिफिशियल गहने भी खरीद सकते हैं। अगर आप जिम का सामान खरीदने के लिए कोई सस्ती दूकान खरीद रहे हैं, तो आप यहां जा सकते हैं।

चांदनी चौक, पुरानी दिल्ली - Chandni Chowk, Old Delhi 



दिल्ली के चांदनी चौक बाजार को कौन नहीं जानता, देश के साथ-साथ यहां कई विदेशी लोग भी खरीदारी करने आते हैं। दिल्ली के इस बाजार में सबसे ज्यादा हलचल देखने को मिलती है। ये बाजार सबसे अधिक कपड़े और हार्डवेयर के लिए जाना जाता है। इस मार्किट में कई पुरानी दुकाने हैं, जिनसे आप बहुत ही कम दाम में सामान खरीद सकते हैं। यहां पर मिलने वाला सामान या तो सेकेंड हैंड होता है या फिर थोड़ा डिफेक्टिव होता है। आप बड़े ब्रांड से लेकर छोट-छोट ब्रांड के प्रोडक्ट्स यहां देख सकते हैं। चांदनी चौक के पास दरियागंज बाजार भी है, जहां से आप बहुत ही कम दाम में किताबें खरीद सकते हैं।

सोती गंज मेरठ - Soti Ganj, Meerut


सोती गंज भारत के प्रसिद्ध बाजारों में शामिल है। जो लोग वाहन प्रेमी हैं, उनके लिए ये मार्किट एकदम बेस्ट है। इस मार्किट में आप गाड़ी के सामान जैसे ईंधन टैंक और बहुत सी चीजें सबसे कम दाम में खरीद सकते हैं। सोती गंज, मेरठ में मौजूद है, जहां सस्ते में ऑटोमोबाइल पार्ट्स बेचे जाते हैं। आपको बता दें, दिल्ली/एनसीआर या उत्तरी शहरों से जो भी गाड़ी का सामान या कार चोरी होता है, उसे यही बेचा जाता है। इस बाजार में आप मारुति 800 से लेकर रोल्स रॉयस जैसे महंगी गाड़ियों के सामान तक खरीद सकते हैं।

पुदुपेट मार्केट, चेन्नई - Pudupet Market, Chennai




पुदुपेट मार्केट चेन्नई का एक मशहूर मार्किट है, जो दक्षिण के ऑटोमोबाइल प्रेमियों के लिए फेमस है। इस बाजार में आप स्पेयर ऑटो पार्ट्स से लेकर असेंबल और कस्टमाइज्ड कारों तक हर तरह के ऑटोमोबाइल पार्ट्स देख सकते हैं। ये बाजार बिल्कुल वैसा ही होता है, जैसा आप बॉलीवुड की फिल्मों में देखते हैं, जिनकी स्टोरी माफिया और तस्करी के आसपास घूमती हैं।

आलेख साभार- नवभारत टाइम्स (फोटो साभार : TOI)
समाज की बात Samaj Ki Baat KD Sharma कृष्णधर शर्मा 




सौर ऊर्जा एवं पम्प स्टोरेज से बनाइए साफ बिजली

 हम सौर ऊर्जा के साथ स्वतंत्र पम्प स्टोरेज परियोजनाएं लगाएं तो हम छह रुपये में रात की बिजली उपलब्ध करा सकते हैं जो कि थर्मल बिजली के मूल्य के बराबर होगा। इसके अतिरिक्त जब कभी-कभी अकस्मात ग्रिड पर लोड कम-ज्यादा होता है उस समय भी पम्प स्टोरेज परियोजनाओं से बिजली को बनाकर या बंद करके ग्रिड की स्थिरता को संभाला जा सकता है।

आज सम्पूर्ण विश्व बाढ़, तूफान, सूखा और कोविड जैसी समस्याओं से ग्रसित है। ये समस्याएँ कहीं न कहीं मनुष्य द्वारा पर्यावरण में अत्यधिक दखल करने के कारण उत्पन्न हुई दिखती है। इस दखल का एक प्रमुख कारण बिजली का उत्पादन है। थर्मल पावर को बनाने के लिए बड़े क्षेत्रों में जंगलों को काट कर कोयले का खनन किया जा रहा है। इससे वनस्पति और पशु प्रभावित हो रहे हैं। जलविद्युत के उत्पादन के लिए नदियों को अवरोधित किया जा रहा है और मछलियों की जीविका दूभर हो रही है। लेकिन मनुष्य को बिजली की आवश्यकता भी है। अक्सर किसी देश के नागरिकों के जीवन स्तर को प्रति व्यक्ति बिजली की खपत से आंका जाता है। अतएव ऐसा रास्ता निकालना है कि हम बिजली का उत्पादन कर सकें और पर्यावरण के दुष्प्रभावों को भी सीमित कर सकें।  अपने देश में बिजली उत्पादन के तीन प्रमुख स्रोत हैं। पहला है-थर्मल यानी कोयले से निर्मित बिजली। इसमें प्रमुख समस्या यह है कि अपने देश में कोयला सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। हमें दूसरे देशों से कोयला भारी मात्र में आयात करना पड़ रहा है। यदि कोयला आयात करके हम अपने जंगलों को बचा भी लें तो आस्ट्रेलिया जैसे निर्यातक देशों में जंगलों के कटने और कोयले के खनन से जो पर्यावरणीय दुष्प्रभाव होंगे वे हमें भी प्रभावित करेंगे ही। कोयले को जलाने में कार्बन का उत्सर्जन भारी मात्रा में होता है जिसके कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है और तूफान, सूखा एवं बाढ़ जैसी आपदाएं उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही हैं। बिजली उत्पादन का दूसरा स्रोत जल विद्युत अथवा हाइड्रोपावर है। इस विधि को एक साफ-सुथरी तकनीक कहा जाता है चूंकि इससे कार्बन उत्सर्जन कम होता है।  थर्मल पावर में एक यूनिट बिजली बनाने में लगभग 900 ग्राम कार्बन का उत्सर्जन होता है जबकि जलविद्युत परियोजनाओं को स्थापित करने में जो सीमेंट और लोहा आदि का उपयोग होता है उसको बनाने में लगभग 300 ग्राम कार्बन प्रति यूनिट का उत्सर्जन होता है। जलविद्युत में कार्बन उत्सर्जन में शुद्ध कमी 600 ग्राम प्रति यूनिट आती है जो कि महत्वपूर्ण है। लेकिन जलविद्युत बनाने में दूसरे तमाम पर्यावरणीय दुष्प्रभाव पड़ते हैं। जैसे सुरंग को बनाने में विस्फोट किये जाते हैं जिससे जलस्रोत सूखते हैं और भूस्खलन होता है। बराज बनाने से मछलियों का आवागमन बाधित होता और जलीय जैव विविधिता नष्ट होती है। बड़े बांधों में सेडीमेंट जमा हो जाता है और सेडीमेंट के न पहुंचने के कारण गंगासागर जैसे हमारे तटीय क्षेत्र समुद्र की गोद में समाने की दिशा में हैं। पानी को टर्बाइन में मथे जाने से उसकी गुणवत्ता में कमी आती है। इस प्रकार थर्मल और हाइड्रो दोनों ही स्रोतों की पर्यावरणीय समस्या है।

सौर ऊर्जा को आगे बढ़ाने से इन दोनों के बीच रास्ता निकल सकता है। भारत सरकार ने इस दिशा में सराहनीय कदम उठाए हैं। अपने देश में सौर ऊर्जा का उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है। विशेष यह कि सौर ऊर्जा से उत्पादित बिजली का दाम लगभग तीन रुपये प्रति यूनिट आता है जबकि थर्मल बिजली का छह रुपये और जलविद्युत का आठ रुपये प्रति यूनिट। इसलिए सौर ऊर्जा हमारे लिए हर तरह से उपयुक्त है। यह सस्ती भी है और इसके पर्यावरणीय दुष्प्रभाव भी तुलना में कम हैं। लेकिन सौर ऊर्जा में समस्या यह है कि यह केवल दिन के समय में बनती है। रात में और बरसात के समय बादलों के आने जाने के कारण इसका उत्पादन अनिश्चित रहता है। ऐसे में हम सौर ऊर्जा से अपनी सुबह, शाम और रात की बिजली की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाते हैं।  इसका उत्तम उपाय है कि 'स्टैंड अलोन' यानि कि 'स्वतंत्र' पम्प स्टोरेज विद्युत परियोजनायें बनाई जाएं। इन परियोजनायों में दो बड़े बनाये जाते हैं। एक तालाब ऊंचाई पर और दूसरा नीचे बनाया जाता है। दिन के समय जब सौर ऊर्जा उपलब्ध होती है तब नीचे के तालाब से पानी को ऊपर के तालाब में पम्प करके रख लिया जाता है। इसके बाद सायंकाल और रात में जब बिजली की जरूरत होती है तब ऊपर से पानी को छोड़ कर बिजली बनाते हुए नीचे के तालाब में लाया जाता है। अगले दिन उस पानी को पुन: ऊपर पंप कर दिया जाता है। वही पानी बार-बार ऊपर-नीचे होता रहता है। इस प्रकार दिन की सौर ऊर्जा को सुबह, शाम और रात की बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है।  विद्यमान जलविद्युत परियोजनाओं को ही पम्प स्टोरेज में ही तब्दील किया जा सकता है। जैसे टिहरी बांध के नीचे कोटेश्वरर जलविद्युत परियोजनाओं को पम्प स्टोरेज में परिवर्तित कर दिया गया है। दिन के समय इस परियोजना से पानी को नीचे से ऊपर टिहरी झील में वापस डाला जाता है और रात के समय उसी टिहरी झील से पानी को निकाल कर पुन: बिजली बनाई जाती है। विद्यमान जलविद्युत परियोजनाओं को पम्प स्टोरेज में परिवर्तित करके दिन की बिजली को रात की बिजली में बदलने का खर्च मात्र 40 पैसे प्रति यूनिट आता है। इसलिए तीन रुपये की सौर ऊर्जा को हम 40 पैसे के अतिरिक्त खर्च से सुबह शाम की बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं। लेकिन इसमें समस्या यह है कि टिहरी और कोटेश्वर जल विद्युत परियोजनाओं से जो पर्यावरणीय दुष्प्रभाव होते हैं वे तो होते ही रहते हैं। कुएं से निकले और खाई में गिरे। सौर ऊर्जा को बनाया लेकिन उसे रात की बिजली बनाने में पुन: नदियों को नष्ट किया।

इस समस्या का उत्तम विकल्प यह है कि हम स्वतंत्र पम्प स्टोरेज परियोजना बनाएं जैसा ऊपर बताया गया है। इन परियोजना को नदी के पाट से अलग बनाया जा सकता है। किसी भी पहाड़ के ऊपर और नीचे उपयुक्त स्थान देख कर दो तालाब बनाये जा सकते हैं। ऐसा करने से नदी के बहाव में व्यवधान पैदा नहीं होगा। ऐसी स्वतंत्र पम्प स्टोरेज परियोजना से दिन की बिजली को रात की बिजली में परिवर्तित करने में मेरे अनुमान से तीन रुपये प्रति यूनिट का खर्चा आएगा। अत: यदि हम सौर ऊर्जा के साथ स्वतंत्र पम्प स्टोरेज परियोजनाएं लगाएं तो हम छह रुपये में रात की बिजली उपलब्ध करा सकते हैं जो कि थर्मल बिजली के मूल्य के बराबर होगा। इसके अतिरिक्त जब कभी-कभी अकस्मात ग्रिड पर लोड कम-ज्यादा होता है उस समय भी पम्प स्टोरेज परियोजनाओं से बिजली को बनाकर या बंद करके ग्रिड की स्थिरता को संभाला जा सकता है। इसलिए हमें थर्मल और जल विद्युत के मोह को त्यागकर सौर एवं स्वतंत्र पम्प स्टोरेज के युगल को अपनाना चाहिये। जंगल और नदियां देश की धरोहर और प्रकृति एवं पर्यावरण की संवाहक हैं। इन्हें बचाते हुए बिजली के अन्य विकल्पों को अपनाना चाहिए।

भरत झुनझुनवाला  (साभार- देशबंधु)

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