नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 24 मार्च 2025

कब-कब न्याय की कुर्सी पर लगे दाग: भारत में जजों पर भ्रष्टाचार के 5 बड़े मामले, जानिए यहां

जस्टिस यशवंत वर्मा का मामला पिछले हफ्ते तब चर्चा में आया, जब उनके दिल्ली स्थित सरकारी बंगले में आग लग गई। सूत्रों के अनुसार, जस्टिस वर्मा उस समय शहर से बाहर थे, और उनके परिवार ने फायर ब्रिगेड को बुलाया. आग बुझाने के बाद दमकल कर्मियों को एक कमरे में भारी मात्रा में नकदी मिली.

भारत में 75 साल के इतिहास में कई ऐसे मौके आए हैं जब  न्यायपालिका पर  भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं. हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने की घटना ने एक बार फिर इस मुद्दे को सुर्खियों में ला दिया. आग बुझाने के दौरान फायर ब्रिगेड को उनके घर से भारी मात्रा में नकदी मिलने की खबर ने देश भर में हंगामा मचा दिया. इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जस्टिस वर्मा को उनके मूल कोर्ट, इलाहाबाद हाई कोर्ट में ट्रांसफर करने का फैसला लिया, और अब मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने उनके खिलाफ जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति गठन की है. यह पहला मौका नहीं है जब जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं. आइए जानते हैं ऐसे कुछ 5 मामलों के बारे में जिसमें जजों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. 

  • पहला उदाहरण 2009 का है, जब पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के जज जस्टिस निर्मल यादव पर 15 लाख रुपये की रिश्वत लेने का आरोप लगा. इस मामले में एक वकील ने दावा किया कि उसने गलती से रिश्वत की राशि गलत जज के घर भेज दी थी, जिसके बाद यह घोटाला उजागर हुआ.
  • मद्रास हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी.डी. दिनाकरण पर तमिलनाडु में अवैध जमीन अर्जन और संपत्ति संचय के आरोप लगे. उनके खिलाफ 16 शिकायतें दर्ज की गईं, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने उनकी सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति रोक दी. जांच के दबाव में उन्होंने 2011 में इस्तीफा दे दिया था.
  • तीसरा उदाहरण 2017 का है, जब कलकत्ता हाई कोर्ट के जज जस्टिस सी.एस. कर्णन ने सुप्रीम कोर्ट के कई जजों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए. उनके खिलाफ अवमानना का मामला चला, और उन्हें छह महीने की जेल हुई. 
  • चौथा मामला 2018 का है, जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा पर मनमाने ढंग से केस बांटने और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का आरोप लगाया. यह भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में अभूतपूर्व घटना थी. 
  • पांचवां उदाहरण 2021 का है, जब बॉम्बे हाई कोर्ट के एक रिटायर्ड जज पर रिश्वत लेकर फैसले देने के आरोप लगे, हालांकि यह मामला जांच के अभाव में ठंडे बस्ते में चला गया. 

जस्टिस वर्मा केस ने इन पुराने घावों को फिर से कुरेद दिया है. विशेषज्ञों का कहना है कि न्यायपालिका में जवाबदेही की कमी और पारदर्शिता का अभाव इन समस्याओं को बढ़ावा देता है. जजों के खिलाफ महाभियोग ही एकमात्र संवैधानिक उपाय है, लेकिन अब तक इसका सफल इस्तेमाल नहीं हुआ. 

जस्टिस यशवंत वर्मा का मामला पिछले हफ्ते तब चर्चा में आया, जब उनके दिल्ली स्थित सरकारी बंगले में आग लग गई। सूत्रों के अनुसार, जस्टिस वर्मा उस समय शहर से बाहर थे, और उनके परिवार ने फायर ब्रिगेड को बुलाया. आग बुझाने के बाद दमकल कर्मियों को एक कमरे में भारी मात्रा में नकदी मिली.

'अधजली नोटों की गड्डियां मेरी नहीं...'
न्यायाधीश यशवंत वर्मा का कहना है कि जिस कमरे में नोटों की गड्डियां मिलीं, वह उनके मुख्य आवास से अलग है और कई लोग इसका इस्तेमाल करते हैं. दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश देवेंद्र कुमार उपाध्याय को नकदी की कथित बरामदगी पर एक लंबे जवाब में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि 14 मार्च की देर रात होली के दिन दिल्ली में उनके आधिकारिक आवास के स्टाफ क्वार्टर के पास स्थित स्टोर रूम में आग लग गई थी. न्यायाधीश ने लिखा, 'इस कमरे का इस्तेमाल आम तौर पर सभी लोग पुराने फर्नीचर, बोतलें, क्रॉकरी, गद्दे, इस्तेमाल किए गए कालीन, पुराने स्पीकर, बागवानी के उपकरण और सीपीडब्ल्यूडी (केंद्रीय लोक निर्माण विभाग) की सामग्री जैसे सामान रखने के लिए करते थे. यह कमरा खुला है और सामने के गेट के साथ-साथ स्टाफ क्वार्टर के पिछले दरवाजे से भी इसमें प्रवेश किया जा सकता है. यह मुख्य आवास से अलग है और निश्चित रूप से मेरे घर का कमरा नहीं है, जैसा कि बताया जा रहा है.'

साभार- एनडीटीवी

समाज की बात Samaj Ki Baat 

कृष्णधर शर्मा 

 


खेती-बाड़ी से जुड़ी 5 नई तकनीक, जो बदल सकती हैं भारतीय कृषि की दशा

 भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र को सबसे प्रमुख माना जाता है. भारत गेहूं, चावल, दालें, मसालों समेत कई उत्पादों में सबसे बड़ा उत्पादक देश है. हमारे देश के कृषि क्षेत्र में सुधार और ग्रामीण विकास के लिए कई नई पहल की जा रही हैं.कृषि में सुधार लाने में कई क्षेत्रों का अहम योगदान रहता है, लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी की एक महत्वपूर्ण भूमिका है! 

कृषि की नई तकनीक:- 

1 . जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology) 

2 . नैनो विज्ञान (Nanoscience) 

3 भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी (Geospatial Technology) 

4 . बिग डेटा (Big Data) 

5 . ड्रोन्स (Drones) 

जैव प्रौद्योगिकी:- जैव प्रौद्योगिकी (Biotechnology) नई तकनीक नहीं है, लेकिन यह एक आवश्यक जरूरी उपकरण है. यह तकनीक किसानों को उन्नत कृषि पद्धतियों का उपयोग करके कम क्षेत्र पर अधिक भोजन पैदा करने की शक्ति प्रदान करता है, जो पर्यावरण के अनुकूल हैं. इस तकनीक के उपयोग से पौधों और पशु-निर्मित अपशिष्ट का उपयोग किया जाता है, जो खाद्य पदार्थों की पौष्टिक सामग्री में सुधार कर सकती है! 

नैनो विज्ञान:- कृषि क्षेत्र की कुछ तकनीक के तहत रसायनों का व्यापक उपयोग किया जाता है, जिससे पर्यावरण के लिए कम हानि पहुंचती है. नैनो तकनीक (Nano science) इन पदार्थों को अधिक उत्पादक बनाने में मदद करती है. इस तकनीक को छोटे सेंसर और निगरानी उपकरणों के रूप में लागू किया जाता है, जिससे फसल की अच्छी वृद्धि होती है. यह एक उभरती हुई तकनीक है, जो उन समस्याओं को हल निकालती है! 

भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी:- अगर किसान भाई फसल में अपने क्षेत्र में सबसे उपयुक्त उर्वरक और सामग्री का सही अनुपात में प्रयोग करते हैं, तो इससे फसल का उत्पादन अच्छा प्राप्त होता है. बता दें कि हर क्षेत्र में मिट्टी आनुवंशिक रूप से परिवर्तनीय होती है. ऐसे में हर जगह के लिए कोई विशेष उर्वरक काम नहीं करता है!  इसके साथ ही उर्वरक बहुत महंगा है, इसलिए इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए. तो भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी (Eospatial Technology) द्वारा सही उर्वरक और उसके सही अनुपात को निर्धारित किया जाता है. भू-स्थानिक प्रौद्योगिकी तकनीक से बड़े पैमाने पर खेती को प्रभावी ढंग से किया जा सकता है. खेती के आवश्यक कारकों के आधार पर फसल का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है. जैसे कि... pH दरें कीट प्रकोप पोषक तत्व उपलब्धता फसल विशेषताओं मौसम की भविष्यवाणियां। 

बिग डेटा:- मौजूदा समय में बिग डेटा (Big Data) से स्मार्ट खेती की जा सकती है. इसकी मदद से किसानों की निर्णय लेने की क्षमता में सुधार हो सकता हैं. इसका विचार कृषि क्षेत्र में संचार प्रौद्योगिकी के उपयोग पर जोर देना है! बता दें कि भारतीय बाजार में नए डेटा संग्रह उपकरणों को लगातार पेश किया जा रहा है. सार्वभौमिक सेंसर सिस्टम का उपयोग आईओटी के आधार पर विभिन्न स्रोतों से डेटा एकत्र करने में किया जाता है. जैसे, किसानों को नमी परिशुद्धता सेंसर सुनिश्चित करता है कि फसलों को किसी पोषक तत्वों की जरूरत है! 

ड्रोन्स:- भारत कृषि में अग्रणी है, इसलिए इसे ड्रोन को अपनाने की आवश्यकता है. इसका उपयोग कृषि में कई उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. जैसे, इसकी मदद से कई कार्यों की निगरानी की जा सकती है. इसके जरिए किसान कम लागत और समय में फसल की अच्छी और ज्यादा पैदावार प्राप्त कर सकते हैं. किसान भाई उन्नत सेंसर और डिजिटल इमेजिंग क्षमताओं के साथ ड्रोन का उपयोग कर सकते हैं. इसके साथ ही ड्रोन मिट्टी की उच्च गुणवत्ता वाली 3-डी छवियों को कैप्चर करने में सक्षम है. इसके अलावा फसल स्प्रेइंग, फसल निगरानी, रोपण और फंगल संक्रमण के स्वास्थ्य का विश्लेषण करने में ड्रोन का उपयोग किया जा सकता है. इसका उपयोग सिंचाई में भी किया जा सकता है, क्योंकि यह खेतों को ट्रैक कर सकता है! 

साभार :- Agrostar

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कृष्णधर शर्मा 

रविवार, 9 फ़रवरी 2025

व्यापम: ढेर सारी संदिग्ध मौतों वाला भारत का परीक्षा घोटाला

 2013 में भारत के मध्य प्रदेश में भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षा घोटाला यानी व्यवसायिक परीक्षा मंडल (व्यापम) सामने आया. परीक्षा में किसी की जगह दूसरे को बैठाना, नकल कराना और अन्य तरह की धांधलियों की वजह से इस मामले में हज़ारों लोगों को गिरफ़्तार किया गया.  

हालांकि इन घटनाओं में एक चौंकाने वाला मोड़ तब सामने आया जब 2013 में घोटाला के सार्वजनिक होने से कई साल पहले, घोटाले से जुड़े संदिग्धों की एक के बाद एक मौत होने लगी. इन लोगों की मौत की वजहों में दिल का दौरा और सीने में दर्द से लेकर सड़क दुर्घटनाएं और आत्महत्याएं शामिल थीं. इतना ही नहीं, ये सभी मौतें असामयिक और रहस्यमयी थीं.

  भारत की केंद्रीय जांच एजेंसी, सीबीआई ने व्यापम घोटाले से संबंधित मौतों की जब जांच शुरू की तो सबसे पहला यही सवाल था कि ये मरने वाले लोग कौन थे और उनकी मौत कैसे हुई? कहीं इन मौतों में कोई स्पष्ट पैटर्न तो नहीं था? व्यापम घोटाले से जुड़े कई लोगों की मौत बीमारियों के कारण भी हुई है, इस रिपोर्ट में केवल उन लोगों को शामिल किया गया है जिनकी मृत्यु की परिस्थितियाँ संदेह पैदा करती हैं या परिजनों ने साज़िश की बात कही है.

इंदौर के महात्मा गांधी मेडिकल कॉलेज की 19 साल की छात्रा नम्रता दामोर जनवरी, 2012 की एक सुबह लापता हो गईं. सात जनवरी, 2012 को उनका शव उज्जैन में रेलवे ट्रैक से बरामद किया गया.  

शुरुआती पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि उनकी मौत दम घुटने से हुई थी. इसके बाद उनकी मौत को हत्या के तौर पर दर्ज किया गया.  शुरुआती रिपोर्ट में उनके होठों पर चोट के निशान और कुछ दांतों के ग़ायब होने का उल्लेख भी था. हालांकि बाद में पुलिस ने शुरुआती आकलनों को खारिज़ कर दिया और दूसरी पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बाद उनकी मौत को आत्महत्या के तौर पर दर्ज किया.  

इसके तीन साल बीतने के बाद एक प्रमुख मीडिया संस्थान के पत्रकार अक्षय सिंह नम्रता के पिता का इंटरव्यू लेने झाबुआ गए. इंटरव्यू रिकॉर्ड करने से पहले उन्हें खांसी होने लगी और मुंह से झाग़ बाहर निकलने लगा.

अक्षय सिंह मध्य प्रदेश के झाबुआ ज़िले में मेहताब सिंह दामोर के घर पहुंचे थे. वे मेहताब सिंह की बेटी नम्रता दामोर की 2012 में हुई संदिग्ध मौत के बारे में बात करना चाहते थे. पिता मेहताब सिंह भी बात करने को तैयार थे. दोनों आमने-सामने बैठे थे. मेहताब सिंह ने अपनी याचिकाओं और कोर्ट के फ़ैसले की फोटोकॉपी सामने बैठे अक्षय सिंह को सौंपी. चाय आ गई थी. जैसे ही सिंह ने चाय पी, उनका चेहरा अकड़ने लगा और होठों पर झाग के साथ वे ज़मीन पर गिर गए.  

अक्षय सिंह को मेहताब सिंह दामोर के घर तक ले जाने वाले इंदौर के स्थानीय पत्रकार राहुल कारिया कहते हैं, "हमने उन्हें फ़र्श पर लिटाया, उनके कपड़े ढीले कर दिए और उनके चेहरे पर पानी छिड़का. मैं उनकी नब्ज़ देखी और मुझे तुरंत पता चला गया कि अक्षय सिंह की मौत हो चुकी है."  उन्हें सिविल अस्पताल और बाद में एक निजी अस्पताल ले जाया गया, लेकिन डॉक्टर उन्हें बचाने में असफल रहे. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हुई थी और मौत के समय उनके दिल का आकार बढ़ा हुआ था.  

इसके एक दिन बाद, राज्य के एक सरकारी मेडिकल कॉलेज के डीन जो व्यापम में शामिल छात्रों की सूची तैयार कर रहे थे, वे नई दिल्ली के एक होटल में मृत पाए गए.

शर्मा जबलपुर मेडिकल कॉलेज के डीन थे और और उन्होंने कथित तौर पर मध्य प्रदेश के स्पेशल टास्क फ़ोर्स के पास 200 से ज़्यादा दस्तावेज़ जमा कराए थे. उन्होंने खुद से उन छात्रों की सूची तैयार की थी जिन पर कथित तौर पर धांधली में शामिल होने का आरोप था.

अक्षय की मौत के एक दिन बाद, वे दिल्ली स्थित अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के नज़दीक स्थित होटल उप्पल में अपने बिस्तर पर मृत पाए गए थे.वे इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की ओर से एक निगरानी के लिए त्रिपुरा की राजधानी अगरतला जा रहे थे. पुलिस को उनके कमरे से शराब की खाली बोतल मिली थी. ऐसा ज़ाहिर हो रहा था कि शर्मा ने रात में काफ़ी शराब पी थी और रात में उन्हें उल्टियां भी आई थीं.

मामले की जांच करने वाले अधिकारी ने प्राकृतिक कारण से होने वाली मौत बताते हुए जांच बंद कर दी थी. अचरज की बात यह थी कि वे मेडिकल कॉलेज के दूसरे डीन थे जिनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई थी. एक साल पहले जबलपुर मेडिकल कॉलेज के एक दूसरे डीन ने अपने घर के पीछे बगीचे में आत्महत्या कर ली थी.

डॉ. डीके जबलपुर मेडिकल कॉलेज के तत्कालीन डीन थे, साथ ही वे व्यापम की जांच कर रहे कॉलेज की आंतरिक जांच समिति के प्रभारी भी थे. सुबह 8.45 बजे जब उनकी पत्नी टहलने के बाहर गई हुई थीं, तब वे आग की लपटों के बीच अपने घर से बाहर निकले थे.  

पुलिस ने बाद में दावा किया कि ये आत्महत्या है और इसमें कुछ भी संदिग्ध नहीं है. हालांकि इस मामले को उजागर करने वाले कार्यकर्ताओं का दावा है कि ये आत्महत्या का मामला नहीं था और उन्होंने उनकी असमय मौत की केंद्रीय एजेंसियों से जांच कराने की मांग की थी.

नरेंद्र राजपूत झांसी कॉलेज में बैचलर ऑफ़ आयुर्वेदिक मेडिसीन एंड सर्जरी (बीएएमएस) से डिग्री हासिल करने के बाद अपने गांव हरपालपुर लौट गए थे. असामयिक मौत से महज छह महीने पहले उन्होंने अपने गांव में अपना क्लिनिक शुरू किया था.  

13 अप्रैल, 2014 को नरेंद्र ने खेतों में काम करने के दौरान छाती में दर्द की शिकायत की और घर की तरफ़ लौटने लगे लेकिन घर के दरवाज़े पर ही वे ढेर हो गए. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उनकी मौत की स्पष्ट वजह का पता नहीं चला. उनके परिवार वालों ने सरकार की किसान बीमा योजना के तहत बीमा लाभ के लिए आवेदन किया, लेकिन पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत की वजहों का पता नहीं चलने की वजह बीमा का लाभ भी परिवार वालों को नहीं मिला.  

नरेंद्र के रिश्तेदारों के मुताबिक मौत के कुछ महीनों के बाद पुलिस उनके घर पहुंची और तब जाकर परिवार वालों को पता चला था कि व्यापम घोटाले में बिचौलिए के तौर पर उन पर मामला दर्ज है.

सरकार के अनुमान के मुताबिक 2007 से 2015 के बीच व्यापम मामले से जुड़े 32 लोगों की मौत हुई. हालांकि स्वतंत्र मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक इस मामले में 40 से अधिक लोगों की मौत हुई थी. हमने उन मामलों को देखा है जिसे मीडिया ने प्रकाशित किया है और एसटीएफ़ और सीबीआई ने अपनी चार्ज़शीट में शामिल किया है.

साभार- बी बी सी एशिया 

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रविवार, 2 फ़रवरी 2025

आदिवासी बच्चों का अनोखा स्कूल

मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में ऐसा आवासीय स्कू ल है, जहां न केवल पलायन करने वाले आदिवासी मजदूरों के बच्चे पढ़ते हैं बल्कि हुनर भी सीखते हैं।

मध्यप्रदेश के अलीराजपुर जिले के ककराना गांव में ऐसा आवासीय स्कूल है, जहां न केवल पलायन करने वाले आदिवासी मजदूरों के बच्चे पढ़ते हैं बल्कि हुनर भी सीखते हैं। यहां उनकी पढ़ाई भिलाली, हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में होती है। वे यहां खेती-किसानी से लेकर कढ़ाई, बुनाई, बागवानी और मोबाइल पर वीडियो बनाना सीखते हैं। आज के कॉलम में इस अनोखे स्कूल की कहानी सुनाना चाहूंगा, जिससे यह पता चले कि स्थानीय लोग भी स्कूल बना सकते हैं, चला सकते हैं और उनके बच्चों को शिक्षित कर सकते हैं।  

मैं इस स्कूल को देखने और समझने दो बार जा चुका हूं। स्कूल के अतिथि गृह में ठहरा हूं। इस दौरान शिक्षकों, छात्रों और ग्रामीणों से मिला हूं। कई गांवों में गया हूं। मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि यहां का स्कूल बहुत ही अनुशासित, व्यवस्थित और नियमित है। स्कूल के साथ-साथ प्रकृति से जुड़कर पढ़ाने पर जोर दिया जाता है। यहां के अधिकांश शिक्षक स्वयं आदिवासी हैं, और इनमें से एक-दो तो इसी स्कूल से पढ़े हैं।  

पश्चिमी मध्यप्रदेश का अलीराजपुर जिला सबसे कम साक्षरता वाले जिलों में से एक है। यहां के बाशिन्दे भील आदिवासी हैं। यहां की प्रमुख आजीविका खेती है। लेकिन चूंकि असिंचित और पहाड़ी खेती है, इसलिए अधिकांश लोग पलायन करते है। यहां के अधिकांश लोग राजस्थान और गुजरात में मजदूरी के लिए जाते हैं, इसलिए उनके बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाती थी। लेकिन इस आवासीय स्कूल से बच्चों की पढ़ाई हो रही है। 

 इस इलाके में आदिवासियों के हक और सम्मान के लिए खेडुत मजदूर चेतना संगठन सक्रिय रहा है। शुरूआत में इस संगठन ने अनौपचारिक रूप से आदिवासी बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। लेकिन बाद में इसके कार्यकर्ता कैमत गवले व गांववासियों ने मिलकर ककराना गांव में आवासीय स्कूल की शुरूआत की। यह वर्ष 2000 की बात है। स्कूल का नाम रानी काजल जीवनशाला है। यह स्कूल, मध्यप्रदेश शिक्षा विभाग में पंजीकृत है और यहां माध्यमिक स्तर की शिक्षा दी जाती है।  

स्कूल के प्राचार्य निंगा सोलंकी बताते हैं कि वर्ष 2008 में हमने कल्पांतर शिक्षण एवं अनुसंधान केन्द्र समिति गठित की, जो स्कूल के संचालन के लिए वित्तीय मदद जुटाती है। हाल ही में महिला जगत लिहाज समिति नामक संस्था ने भी संचालन में सहयोग करना शुरू किया है,जिसकी मदद से नए भवन बने हैं और छात्रावास भी संचालित हो रहा है। स्कूल का सर्व सुविधायुक्त परिसर है, भवन हैं और 2 एकड़ जमीन है, जिसमें हरे-भरे पेड़-पौधों के साथ जैविक खेती भी होती है।  

यह परिसर पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यहां मिट्टी-पानी का संरक्षण हो, यह सुनिश्चित किया जा रहा है। मिट्टी का क्षरण न हो और पानी की एक बूंद भी परिसर से बाहर न जाए, इसलिए परिसर में पेड़-पौधों का रोपण किया गया है। यहां सागौन, महुआ, शीशम, कटहल, बादाम, सीताफल, जाम, नीम, नींबू, अंजन जैसे करीब 2000 पौधे रोपे गए हैं। विद्यार्थी प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व संवर्धन का काम करते हैं। परिसर में सैकड़ों तरह के पक्षियों का बसेरा भी है।  

वे आगे बताते हैं कि आदिवासी बच्चों के लिए आवासीय स्कूल की जरूरत है, क्योंकि उनके परिवार में पढ़ाई-लिखाई का कोई माहौल नहीं है। वे आजाद भारत में पहली पीढ़ी हैं, जो शिक्षित हो रहे हैं। हमने यह महसूस किया कि बच्चों को एक दिन के स्कूल की तुलना में ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। इसलिए आवासीय स्कूल का निर्णय लिया गया। दैनिक स्कूलों में कामकाज की समीक्षा से पता चला कि अशिक्षित माता-पिता के बच्चों के प्रभावी शिक्षण के लिए उन्हें नियमित स्कूली घंटों के अलावा भी पढ़ाने की जरूरत है। इन्हें जो शिक्षक पढ़ाते हैं, वे भी उनके बीच के हैं और परिसर में ही रहते हैं।  

इस शाला का नाम आदिवासियों की देवी रानी काजल के नाम पर रखा गया है। जिसके बारे में मान्यता है कि यह देवी महामारी व संकट के समय उनकी रक्षा करती है। स्कूल की फीस का ढांचा ऐसा है कि अभिभावक इसे वहन कर सकें।  प्राचार्य सोलंकी बतलाते हैं कि इस स्कूल का उद्देश्य आदिवासी पहचान और संस्कृति का संरक्षण करना भी है। इसमें दूसरी कक्षा तक भिलाली भाषा में बच्चों को पढ़ाया जाता है। और इसके बाद हिन्दी और अंग्रेजी भी पढ़ाई जाती है। कुछ भीली किताबों का अंग्रेजी और हिन्दी में भी अनुवाद किया गया है।  

वे आगे बताते हैं कि यहां पढ़ाई के साथ हाथ के हुनर व कारीगरी सिखाई जाती है। किसानी, लोहारी, बढ़ईगिरी, सिलाई और बागवानी इसमें प्रमुख हैं। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश शिक्षा मंडल द्वारा आयोजित पांचवी और आठवीं कक्षा की परीक्षाओं में इस विद्यालय के विद्यार्थी जिले में अव्वल आए थे। कुछ अधिकारी और सरकारी नौकरियों में गए हैं। स्कूल के एक शिक्षक हैं, जो पहले इसी स्कूल के विद्यार्थी रह चुके हैं। पहली बार नर्मदा किनारे गांवों की लड़कियां पढ़ रही हैं, और उनमें से एक शिक्षिका भी बन गई हैं।  इसके अलावा, यहां आधुनिक रिकार्डिंग स्टूडियों भी है, जहां आदिवासी संस्कृति पर वीडियो बनाए जाते हैं, इसका भील वॉयस नामक एक यू ट्यूब चैनल भी है, जिसमें कार्यक्रम प्रसारित किए जाते हैं।  

स्कूल की शुरूआत में बिना पाठ्यपुस्तकों के ही पढ़ाई होती थी। भिलाली और हिन्दी में बच्चों को पढ़ना-लिखना सिखाया जाता था। लेकिन जल्द ही पाठ्यक्रम विकसित किया गया। अब तो मध्यप्रदेश के स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा कौशल आधारित शिक्षा व प्रशिक्षण दिया जाता है।  

हर साल गर्मी की छुट्टियों के दौरान प्राचार्य निंगा सोलंकी और शिक्षिका रायटी बाई ने नई शिक्षण पद्धति अपनाई है। वे पाठ्यक्रम से संबंधित शैक्षणिक वीडियो व आडियो बनाते हैं, जिन्हें बाद में बच्चों के माता-पिता के मोबाइल पर साझा किया जाता है। इससे बच्चे परिसर के बाहर घर में भी उनकी पढ़ाई जारी रखते हैं। महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिए फोन कॉल और संदेशों का आदान-प्रदान भी किया जाता है।  

प्राचार्य सोलंकी बतलाते हैं कि आदिवासियों की संस्कृति, बोलियां और जीवनशैली आधुनिक प्रभावों के कारण तेजी से बदल रही है। उनकी पारंपरिक जीवनशैली का अनूठापन लुप्त हो रहा है, इसलिए हमने भीली में यह कार्यक्रम शुरू किया है, जिससे उसका संरक्षण किया जा सके।  

इसके लिए अमेरिका में प्रवासीय भारतीय प्रोफेसर उत्तरन दत्ता ने सहयोग दिया है और उनके मार्गदर्शन में 15-20 बच्चों को मोबाइल वीडियोग्राफी और वीडियो संपादन का प्रशिक्षण दिया गया है। इसके माध्यम से लोकगीत, कहानियां और पारंपरिक उपचार विधियों और जंगलों के खान-पान व महत्व पर आधारित कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं।  

कुल मिलाकर, यह आदिवासी मजदूर बच्चों का आवासीय स्कूल है, जिसमें न केवल पढ़ाई करते हैं, बल्कि गतिविधि आधारित शिक्षा भी हासिल करते हैं। प्रकृति अवलोकन, श्रम आधारित उत्पादन पद्धति से भी सीखते हैं। उनकी भीली-भिलाली भाषा में मौलिक अभिव्यक्ति भी करते हैं। इसके लिए उनका यू ट्यूब चैनल भी है। इस स्कूल के मूल्यों में एक आदिवासी पहचान,संस्कृति व अच्छी परंपराओं का संरक्षण करना भी है।  

इस स्कू ल की खास बात यह भी है कि स्कूली शिक्षक उनके बीच रहते हैं। जिज्ञासा, सवाल व समस्याओं के हल के लिए सहज ही उपलब्ध हैं। वे एक परिवार की तरह रहते हैं। बच्चों को तोतारटंत किताबी ज्ञान नहीं, बल्कि श्रम के मूल्य साथ समझ विकसित करने की कोशिश की जाती है। इस स्कूल ने श्रम के मूल्य का बोध भी कराया है, जिसका पूरी शिक्षा व्यवस्था में लोप हो गया है। यह पूरी पहल सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है।

बाबा मायाराम

साभार -देशबंधु 

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'स्वराज संवाद' की जरूरत

गांवों में ऐसी नीतियां व तकनीकें न आएं जिनसे किसानों की क्षति होती है व वे लूटे जाते हैं, अपितु ऐसी नीतियां आएं जिनसे किसानों का आधार मजबूत हो, खेती-किसानी व पशुपालन जैसी आजीविका अधिक समृद्ध व टिकाऊ बने। गांवों में हरियाली बढ़े, जल-संरक्षण हो, पर्यावरण की रक्षा हो। किसान अपने बीजों की रक्षा करें व महंगी तकनीकों के स्थान पर स्थानीय संसाधनों पर आधारित, पर्यावरण की रक्षा करने वाली सस्ती-से-सस्ती तकनीकों का बेहतर उपयोग कर अधिक व उचित उत्पादन प्राप्त करें।

 हमारे समाज में जो सबसे सार्थक व उपयोगी सोच अनेक दशकों से रही है, उसे निरंतर नई चुनौतियों से जोड़ते रहने व नए स्तर से अधिक उपयोगी बनाए रखने की जरूरत है। इस तरह यह सोच अधिक महत्वपूर्ण व सार्थक रूप से मौजूदा समाज, विशेषकर नई पीढ़ी के सरोकारों से भी जुड़ी रहेगी व उनकी समस्याओं के समाधान में अधिक उपयोगी सिद्ध होगी। 

 इस तरह का एक प्रयास हाल ही में एक राष्ट्रीय स्तर के 'स्वराज संवाद' के रूप में देखा गया जिसका विषय यह था, 'परंपरागत ग्रामीण व आदिवासी ज्ञान का बेहतर उपयोग जलवायु बदलाव के संकट के समाधान के लिए कैसे हो सकता है।' इस संवाद का आयोजन 'राईज क्लाईमेट अलायंस' व 'वागधारा' ने किया था। इस संवाद में टिकाऊ खेती, बीज संरक्षण, जल-संरक्षण, वैकल्पिक ऊर्जा, पंचायती राज व विकेन्द्रीकरण आदि के संदर्भ में बहुत प्रेरणादायक कार्यों व उस पर आधारित आगे के सुझावों को प्रस्तुत किया गया। इससे जलवायु बदलाव का संकट कम भी हो सकता है व ग्रामीण समुदाय उसका सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार भी हो सकते हैं। इस संवाद में यह भी सामने आया कि इन उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए विकेन्द्रीकरण, गांवों में बढ़ती आत्म-निर्भरता और स्वराज की राह अपनाने से बहुत मदद मिलती है। इस राह पर चलते हुए यदि परंपरागत ज्ञान का उपयोग टिकाऊ आजीविका को सुदृढ़ करने, ग्रामीण समुदायों, विशेषकर महिलाओं व आदिवासी समुदायों को सशक्त करने व जलवायु बदलाव के संकट के समाधानों के प्रयास एक साथ किए जाएं, तो यह बहुत रचनात्मक व उपयोगी हो सकता है व इसके बहुत उत्साहवर्धक परिणाम मिल सकते हैं। यह जलवायु बदलाव के समाधान की ऐसी राह होगी जो हमारे अपने ग्रामीण विकास व छोटे किसानों के हितों के अनुकूल है व अनेक अन्य विकासशील देशों को इसमें बहुत रुचि हो सकती है।  

स्वराज का महत्व केवल नीतियों, कार्यक्रमों या योजनाओं के संदर्भ में नहीं है, इसका महत्त्व सांस्कृतिक व वैचारिक संदर्भ में भी है। साम्राज्यवादी विचारधारा बड़ी चालाकी से और बहुत साधन-संपन्न तरीकों का उपयोग करते हुए हमारी सोच पर हावी होना चाहती है। उसका प्रयास है कि केवल साम्राज्यवादी, पूंजीवादी, कारपोरेट, बड़े बिजनेस की सोच ही हावी हो। अत: स्वराज का महत्व सामाजिक, सांस्कृतिक व वैचारिक क्षेत्रों में साम्राज्यवाद के विरोध को आगे बढ़ाने व अपनी आजादी की सोच को सही संदर्भ में रखने से भी जुड़ा है। स्वराज की सोच है कि हमारे साधनों को कोई नहीं लूटेगा, उनका बेहतर-से-बेहतर उपयोग हम अपने लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए करेंगे या पर्यावरण और विभिन्न तरह के जीवन की रक्षा के लिए करेंगे।  

गांवों में ऐसी नीतियां व तकनीकें न आएं जिनसे किसानों की क्षति होती है व वे लूटे जाते हैं, अपितु ऐसी नीतियां आएं जिनसे किसानों का आधार मजबूत हो, खेती-किसानी व पशुपालन जैसी आजीविका अधिक समृद्ध व टिकाऊ बने। गांवों में हरियाली बढ़े, जल-संरक्षण हो, पर्यावरण की रक्षा हो। किसान अपने बीजों की रक्षा करें व महंगी तकनीकों के स्थान पर स्थानीय संसाधनों पर आधारित, पर्यावरण की रक्षा करने वाली सस्ती-से-सस्ती तकनीकों का बेहतर उपयोग कर अधिक व उचित उत्पादन प्राप्त करें।  

गांवों के हितों की रक्षा हो सके, इसके लिए गांवों में स्वशासन मजबूत हो। पंचायत राज में जरूरी सुधार किए जाएं। ग्रामसभा व वार्डसभा को सशक्त किया जाए। पंचायतों व ग्रामसभाओं को समुचित अधिकार व संसाधन मिलें यह जरूरी है, पर साथ में यह भी जरूरी है कि जो गांवों में अभी तक सबसे कमजोर व निर्धन रहे हैं उनके अधिकारों व हितों की रक्षा का विशेष प्रयास हो।  

जिन गांवों में पहले से समानता है, वहां तो विकेंद्रीकरण से लाभ-ही-लाभ हैं क्योंकि ग्रामसभा में सब परिवार समान रूप में भागीदारी कर सकेंगे, पर जहां चंद सामन्ती व धनी तत्त्वों का दबदबा है या कुछ अपराधी छवि के व्यक्ति हावी हैं, उनकी कुचेष्टा यह होगी कि निर्धन व कमजोर परिवारों को ग्रामसभा के स्तर पर भी दबा दिया जाए व अपनी सामंतशाही ही चलाई जाए।  ऐसे में पंचायतों में भी कमजोर वर्ग के हितों की रक्षा के विशेष प्रयास जरूरी हैं। साथ में व्यापक स्तर पर समानता लाने, निर्धन भूमिहीनों को भूमि देने व उनकी बेहतरी के अन्य प्रयासों की विशेष जरूरत है। ऐसा नहीं होगा तो भूमि व अन्य संसाधनों के अभाव में सबसे निर्धन परिवार 'स्वराज' से वंचित ही रहेंगे। 'स्वराज' उन्हें भी मिले इसलिए सबसे गरीब व कमजोर लोगों के हित में व्यापक प्रयास जरूरी है - गांवों में भी और शहरों में भी।  

इस तरह स्वराज के साथ समता की सोच भी अनिवार्य तौर से जुड़ी है। यदि स्वराज के साथ समता को नहीं जोड़ा गया तो देश के सबसे जरूरतमंद लोग 'स्वराज' से वंचित ही रह जाते हैं। आदिवासियों के संदर्भ में स्वराज का विशेष महत्त्व है क्योंकि अब तक वे देश के सबसे उपेक्षित समुदायों में रहे हैं तथा उनके जल, जंगल, जमीन पर बड़ा हमला भी हो रहा है। स्वराज की सोच में आदिवासी अधिकारों की रक्षा का भी अपना विशेष महत्त्व है।  इस तरह एक ओर स्वराज की व्यापक स्तर पर सोच साम्राज्यवाद की अगुवाई वाले भूमंडलीकरण के विरोध से जुड़ी है तो दूसरी ओर यह जमीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण को मजबूत करने व हर स्तर पर समतावादी सोच अपनाने से भी जुड़ी है। 'स्वराज संवाद' में देश के लगभग सभी राज्यों के लगभग 500 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उम्मीद है कि इस माध्यम से नए संदर्भों में भी स्वराज संदेश फैल सकेगा व जलवायु बदलाव के ऐसे समाधानों की सोच अधिक व्यापक बनेगी जो टिकाऊ विकास, किसानी संकट के समाधान व ग्रामीण समुदायों के सशक्तीकरण से भी जुड़े हैं।

भारत डोगरा

साभार-देशबंधु 

samajkibaat  Samaj  Ki  Baat 

कब करें गूगल मैप पर भरोसा

 गूगल मैप की वजह से न जाने कितने लोग हर रोज अपने सही ठिकाने पर पहुंचते हैं। जब रास्ता न पता हो तो यही काम में आता है, लेकिन इस बार गूगल मैप का इस्तेमाल करना तीन लोगों के लिए मौत का कारण बन गया। 

उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के फरीदपुर थाना क्षेत्र में जीपीएस पर सही जानकारी न अपडेट होने की वजह से यह हादसा हुआ। ऐसे में गूगल मैप का इस्तेमाल करते समय कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है। मैप इस्तेमाल करते वक्त सावधान भले ही गूगल मैप ज्यादातर सही जानकारी देता है, लेकिन कई बार इस पर भरोसा करना रिस्की भी साबित हो जाता है। 

कुछ दिन पहले दो दोस्त मैप की वजह से गलत रास्ते पर चले गए। जिसकी वजह से हादसा हो गया।  गूगल मैप से कहीं जा रहे हैं, तो चलने से पहले एक बार चेक कर लें कि मैप पर कोई गलत गतिविधी तो नहीं होती दिख रही। कई बार मैप नदी, अनजान या सुनसान रास्ते दिखाने लगता है और कुछ लोग इन पर चल निकलते हैं, लेकिन ऐसा करना रिस्की हो सकता है। इसलिए ऐसा करने से बचना चाहिए। मैप न समझ आए तो कोशिश करें कि लोकल लोगों की मदद ले ली जाए। इसमें आपके कुछ मिनटों का समय तो खर्च होगा, लेकिन जानकारी सही मिल जाएगी। 

मैप के नए फीचर्स से खुद को अपडेट रखना बहुत जरूरी है, ताकि मुश्किल में फंसने पर इन फीचर्स की मदद ली जा सके। कहीं भी निकलने से पहले मैप को अपडेट करना भी बहुत जरूरी है।

कब करें गूगल मैप पर भरोसा

मैप पर आंख बंद करके भरोसा करना सही नहीं है। आप गूगल मैप की मदद ले सकते हैं, लेकिन उसके भरोसे नहीं रह सकते हैं। अगर आप किसी बड़ी सड़क पर जा रहे हैं, तो यहां मैप सही काम करता है, कमजोर इंटरनेट होने की स्थिति में गूगल मैप आपको परेशानी में डाल सकता है। इसलिए हमेशा दुरुस्त इंटरनेट कनेक्शन रखें। साथ ही मैप को इस्तेमाल करते समय सतर्क रहना बहुत जरूरी है।

कहां होता है रिस्की अक्सर देखा गया है कि मैप ऐसी जगह पर गलत रास्ते दिखाता है, जो ज्यादा आम नहीं होती हैं और नई होती हैं। ऐसी स्थिति में सबसे अच्छा तरीका होता है कि वहां के लोगों से रास्ते के बारे में सही जानकारी ले ली जाए। 

साभार-जागरण 

समाज की बात  Samaj Ki Baat 

samajkibaat Krishnadhar 

बुधवार, 14 अगस्त 2024

नेक बैंड और ईयर बड के अधिक उपयोग से सुनने की क्षमता हो रही कम

अगर आप मोबाइल नेक बैंड या ईयर बड का अधिक उपयोग करते हैं, तो यह खबर आपके लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। ईएनटी विशेषज्ञ डॉ. राकेश वर्मा ने दावा किया है कि इन उपकरणों के अत्यधिक इस्तेमाल से कानों को नुकसान पहुंच सकता है, जिससे सुनने की क्षमता कम हो सकती है और यहां तक कि बहरेपन की समस्या भी हो सकती है 

अगर आप मोबाइल नेक बैंड या ईयर बड का अधिक उपयोग करते हैं, तो यह खबर आपके लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। ईएनटी विशेषज्ञ डॉ. राकेश वर्मा ने दावा किया है कि इन उपकरणों के अत्यधिक इस्तेमाल से कानों को नुकसान पहुंच सकता है, जिससे सुनने की क्षमता कम हो सकती है और यहां तक कि बहरेपन की समस्या भी हो सकती है।  

डॉ. वर्मा ने बताया कि आजकल के युवा मोबाइल नेक बैंड और ईयर बड का बहुत अधिक उपयोग कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप उनकी सुनने की शक्ति कमजोर हो रही है। इसके साथ ही, कान में दर्द और संक्रमण की शिकायतें भी बढ़ रही हैं। उन्होंने चेताया कि ईयरफोन, हेडफोन, और ईयर बड्स का लंबे समय तक इस्तेमाल करना कान के लिए हानिकारक हो सकता है, और इससे कानों में गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।

  डॉ. वर्मा ने कहा, "130 डेसिबल से ऊपर की आवाज कान में दर्द पैदा कर सकती है, और ज्यादा बेस वाले इयरफोन का वाइब्रेशन कान के पर्दे पर जोरदार प्रभाव डालता है, जिससे कानों को नुकसान पहुंचता है।"  

उन्होंने जोर देकर कहा कि इन उपकरणों का उपयोग बहुत कम और सावधानीपूर्वक करना चाहिए।  कानों की देखभाल के लिए इयरफोन और ईयर बड का सुरक्षित उपयोग करना महत्वपूर्ण है। ध्वनि के स्तर को नियंत्रित करना और सुरक्षित सुनने की आदतें विकसित करना आवश्यक है। 

संक्रमण से बचने के लिए साफ-सफाई का ध्यान रखना भी जरूरी है। समाज में इस समस्या के प्रति जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, ताकि युवाओं में इसके दुष्प्रभावों के बारे में जानकारी बढ़े। इसके अलावा, इन उपकरणों के विकल्प के रूप में हेडफोन और स्पीकर का उपयोग भी किया जा सकता है, जो कानों के लिए कम हानिकारक होते हैं। 

इसके अलावा, उन्होंने यह भी सलाह दी कि कभी भी किसी और के इयरफोन का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे संक्रमण फैलने का खतरा रहता है। उन्होंने कहा कि इयरफोन और इयरबड्स का उपयोग कम करें और अपने कानों की सुरक्षा का ध्यान रखें, ताकि भविष्य में सुनने की समस्याओं से बचा जा सके।

 डॉ. राकेश वर्मा

(साभार- देशबंधु)

Samaj Ki Baat समाज की बात 

Krishnadhar Sharma कृष्णधर शर्मा 

रविवार, 14 जुलाई 2024

काम की खबर: स्पायवेयर से मोबाइल में लगी रही सेंध, डाटा चोरी से बचना है... तुरंत ऑटो डाउनलोड करें बंद

 APK File: ऐसे कई मामले हैं, जिनमें लोगों ने न तो कोई कॉल उठाया, न एसएमएस आया और अचानक मोबाइल हैक हुआ, खाते से रुपये निकल गए। यह एपीके फाइल के जरिये स्पायवेयर अटैक है। इसमें एपीके फाइल के जरिये हैकर मोबाइल में सेंध लगा रहे हैं।

ग्वालियर का कारोबारी विनोद अग्रवाल। न मोबाइल पर एसएमएस आया, न ओटीपी आया। अचानक मोबाइल बंद हो गया, खाते से धड़ाधड़ ट्रांजेक्शन हुआ और करीब 87 हजार रुपये निकल गए। नगर निगम के उपायुक्त डॉ.प्रदीप श्रीवास्तव, एक एसएमएस के जरिये आई फाइल डाउनलोड करते ही आधा घंटे तक मोबाइल हैक रहा और खाते से 47 हजार रुपये निकल गए। यह तो सिर्फ दो उदाहरण हैं।

लगातार हो रही इस तरह की घटनाओं के बाद जब नईदुनिया ने साइबर एक्सपर्ट से बात की तो सामने आया कि ऐसी वारदातों के पीछे सबसे बड़े जिम्मेदार खुद लोगों की चूक है या यह भी कहा जा सकता है कि लोगों को जानकारी ही नहीं है। उनका डाटा उनकी ही छोटी सी चूक से चोरी हो रहा है। उनके मोबाइल की हर गतिविधि पर निगाह रखी जा रही है।

क्या है एपीके फाइल?

 एंड्रायड ऑपरेटिंग सिस्टम पर काम करती है। एपीके यानि एंड्रायड पैकेज किट फाइल। यह सिर्फ एंड्रायड ऑपरेटिंग सिस्टम पर काम करती है। एपीके फाइल एक तरह का स्पायवेयर है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो रहा है, स्पाय यानि निगरानी रखना।  सारी जानकारी हैकर तक पहुंच जाती है स्पायवेयर ऐसा टूल है, जिससे मोबाइल, लैपटाप या अन्य डिवाइस के डाटा और यूजर्स के डाटा से लेकर हर गतिविधि पर बिना अनुमति निगाह रखी जाती है। गैलरी, डॉक्यूमेंटस, कांटेक्ट, एसएमएस बिना अनुमति थर्ड पाट्री को भेज दिए जाते हैं। इसमें लोकेशन, इमेल से लेकर अन्य जानकारी तक हैकर तक पहुंच जाती हैं।  मीडिया आटोडाउनलोड से मोबाइल में प्रवेश करती है एपीके फाइल कई बार लोग ऐसी फाइल को क्लिक भी नहीं करते और यह फाइल डिवाइस में पहुंचकर डाटा चोरी कर लेती हैं। इसकी वजह होती है वाट्स एप व अन्य मैसेंजर का आटो डाउनलोड फीचर्स। जिसमें लोग मीडिया, डाक्यूमेंट, आडियो, वीडियो को आटो डाउनलोड मोड पर रखते हैं। यही सबसे बड़ी गलती है। अगर एपीके फाइल मोबाइल में डाउनलोड नहीं हुई तब तक स्पायवेयर काम नहीं करेगा। फाइल डाउनलोड होते ही मोबाइल का एक्सेस हासिल हो जाता है और मोबाइल हैक कर ठगी होती है।

 यह रखें सावधानी अगर आप वॉट्सएप या कोई अन्य मैसेंजर चलाते हैं तो आटो डाउनलोड मोड पर न रखें। अनजान फाइल डाउनलोड न करें। रिवार्ड पाइंट रिडीम करने का झांसा देकर सबसे ज्यादा ऐसी फाइल डाउनलोड करा दी जाती हैं। फाइल साइज में बहुत ही कम केबी की होती हैं, इसलिए क्लिक करते ही डाउनलोड हो जाती हैं। अगर आप मोबाइल में एंटी वायरस रखते हैं तो यह तुरंत हार्मफुल फाइल को पकड़कर आपको अलर्ट देगा।

साइबर एक्सपर्ट चातक वाजपेयी ने बताया कि एपीके फाइल एक तरह का स्पायवेयर है। यह स्पायवेयर के जरिये डाटा पर निगाह रखता है और डाटा चोरी कर थर्ड पार्टी को भेज देता है। ऑटो डाउनलोड मोड पर मोबाइल न रखें और कोई भी अंजान फाइल, लिंक पर क्लिक ही न करें। उन्होंने कहा, 'एंटी वायरस मोबाइल या अन्य डिवाइस में रखें। एंटी वायरस भी मुफ्त वाला नहीं, क्योंकि यह खुद वायरस होते हैं।'


साभार- नई दुनिया 

Samaj Ki Baat समाज की बात 

Krishnadhar Sharma कृष्णधर शर्मा 



बुधवार, 20 दिसंबर 2023

युवाओं के सामाजिक सरोकार

 आजकल के नौजवानों का क्या? उन्हें तो मोटी सेलरी वाली अच्छी नौकरी मिल जाए, रोज-रोज होटल का खाना, ब्रैंडेड कपडे, महंगा मोबाइल, टैब-शैब, महंगी कार, बिना मतलब वाली कानफाडू म्यूजिक, डांस, पार्टी-शार्टी.. बस! जिंदगी का कुल मतलब उनके लिए यहीं तक सीमित रह गया है। देश-दुनिया में क्या हो रहा है और उसमें उनका क्या फर्ज बनता है, इससे तो उनका कोई मतलब ही नहीं है..  दो-तीन साल पहले तक अधिकतर बुजुर्गो की युवाओं के बारे में यही राय थी। वे मानते थे कि आज का युवा न तो अपने रीति-रिवाज और परंपराओं की कोई समझ रखता है, न इतिहास और अपने महानायकों को जानता है और न आसपास के परिवेश से ही उसका कोई मतलब है। लेकिन, इधर यह सोच बदली है। आज अगर कोई बुजुर्ग ऐसा कुछ कहे तो उसके हमउम्र साथी ही उसे टोकते हैं.

ऐसा नहीं है भाई! आज के बच्चे हमारी पीढी से बहुत तेज हैं। वे समाज में लगातार सक्रिय केवल दिखते ही नहीं हैं, लेकिन खयाल हर बात का रखते हैं। देश और समाज से लेकर इतिहास-भूगोल और अर्थव्यवस्था तक सब उनकी चिंता के विषय हैं। कभी फेसबुक-ट्विटर पर देखा है, कैसे कमेंट्स होते हैं आज की व्यवस्था पर इन लोगों के। कुछ तो एकदम नौजवान लडके-लडकियां ऐसी बातें करते हैं, जो हमें दंग कर देती हैं। ऐसे कमेंट्स बिना चिंता किए नहीं निकलते। लेकिन, एक बात हमेशा ध्यान रखने की है। वह यह कि उनका समय हमारे समय से बहुत कठिन है। उनकी मुश्किलों पर गौर करें तो आपकी सारी शिकायतें दूर हो जाएंगी.

इसके पहले कि हम नई पीढी के सरोकारों की बात करें, इस बात पर गौर करना जरूरी होगा कि वह किन हालात में जिंदगी जी रही है। अगर आप 80-90 की कस्बाई जीवनशैली की कसौटी पर रख कर आज के युवाओं के सरोकारों का विश्लेषण करना चाहें तो शायद उसके साथ कभी न्याय नहीं हो सकेगा। न तो अब कहीं 10-5 बजे वाली नौकरियां रह गई हैं, न होलसेलर से सामान लेकर ग्राहक को बेच देने तक सीमित व्यापार और न पहले जैसी परंपरागत खेती ही। कडी प्रतिस्पर्धा के इस दौर में सब कुछ बदल चुका है। हर क्षेत्र में हर स्तर पर नए प्रयोगों की भरमार है और बडी मेहनत से निकाले गए प्रयोग भी नए और कारगर साबित हो पाएंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। 

 स्थितियों के आकलन का अगर कोई पैमाना होता और उस पर देखा जा सकता तो शायद यह पाया जाता कि आज के युवा की जिंदगी पहले की तुलना में कई गुना च्यादा कठिन हो गई है। यह सही है कि सुविधाएं बढी हैं, लेकिन जितनी तेजी से सुविधाएं बढी हैं, हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और भविष्य के प्रति असुरक्षा की भावना उससे कहीं च्यादा तेजी से बढी है। इसमें अपने को टिकाए रखने के लिए सिर्फ दिमाग का तेज रहना और कडी मेहनत ही पर्याप्त नहीं, खुद को अपने और दूसरे क्षेत्रों की नवीनतम गतिविधियों से लगातार अपडेट भी रखना पडता है। यह एक ऐसी आवश्यकता है, जिसके लिए आज का युवा लगातार कुछ नया जानने, सीखने और पढने में लगा रहता है। लगातार दिखता अपना लक्ष्य उसे दफ्तर और घर में अंतर नहीं करने देता। इसके अलावा खुद को एकरसता या ऊब से बचाने और तरोताजा बनाए रखने के लिए मनोरंजन की खुराकभी जरूरी ही है। 

 सार्थक हस्तक्षेप का जोश  इन हालात में भी हम विभिन्न सोशल नेटव‌र्क्स से लेकर ब्लॉग और आंदोलनों तक में युवाओं की सक्रिय हिस्सेदारी देखते हैं। यह सही है कि वे महत्वाकांक्षी हैं और जिंदगी से हमेशा कुछ अधिक चाहते रहते हैं और यह कोई अपराध नहीं है। ऐसी कोई पीढी नहीं हुई है, जिसने अपने जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश न की हो। यही वे भी कर रहे हैं। लेकिन, इसी क्रम में वे अपना सारा कामकाज छोडकर उन सामाजिक आंदोलनों में हिस्सेदारी भी निभाते हैं, जिनसे उनका और देश का सीधा जुडाव है। किसी की मदद से भी वे पीछे नहीं हटते हैं। शर्त यह है कि उसका औचित्य उनकी समझ में आए। हवा-हवाई नारों और झूठमूठ के वादों में वे विश्वास नहीं करते। आज का युवा जिस चीज से सबसे च्यादा परेशान है, वह सरकारी महकमों में व्याप्त भ्रष्टाचार है। इसके लिए वह एक स्थायी समाधान चाहता है। काले धन को बाहर लाने या जन लोकपाल की मांग को लेकर हुए आंदोलनों में न केवल दिल्ली, बल्कि देश भर के युवाओं ने अपने निजी नुकसान की शर्त पर भी हिस्सेदारी की। ठीक ऐसी ही बेताबी निर्भया के साथ हुई दरिंदगी के समय भी देखी गई।

  काले धन और जन लोकपाल वाले मसले तो सामाजिक-राजनीतिक संगठनों की ओर से उठाए गए थे, लेकिन निर्भया के मसले पर तो किसी संगठन की ओर से कोई आह्वान तक नहीं किया गया और फिर भी इंडिया गेट के आसपास का पूरा क्षेत्र घेर लिया गया। आसपास के इलाकों में मेट्रो रेल रोक देने और प्रवेश वर्जित कर देने के बाद भी कई दिनों तक धरना चलता रहा। यह विरोध प्रदर्शन करने वाले सारे युवा ही थे। इनमें कॉलेजों के छात्र-छात्राओं से लेकर नए प्रोफेशनल्स तक शामिल थे। वाटर कैनन, आंसू गैस और लाठीचार्ज सब झेलकर भी वे डटे रहे। इन सभी मामलों में लडकियों की शिरकत भी लडकों से कुछ कम नहीं थी। क्या अपने समय के समाज से जुडे होने और उसमें सार्थक हस्तक्षेप की अपनी भूमिका सुनिश्चित करने का इससे बडा कोई और प्रमाण चाहिए?

कर्तव्यों का बोध  ऐसा भी नहीं है कि युवाओं का यह जोश केवल विरोध प्रदर्शन और उनकी चेतना केवल अपने अधिकारों तक ही सीमित है। यह पीढी अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति भी कम जागरूक नहीं है। विभिन्न सामाजिक आयोजनों में आप उसे हर स्तर पर सहयोग करते देख सकते हैं। ऐसे युवाओं की कमी नहीं है जो अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावजूद गरीब ब"ाों को पढाने, युवाओं को रोजगार की तरकीबें सिखाने, सामाजिक-धार्मिक आयोजनों की व्यवस्था बनाने के लिए समय निकालते हैं। वहां भी वे अपनी जिम्मेदारी पूरी लगन के साथ निभाते हैं। पिछले दो बार से चुनावों में हम मतदान का प्रतिशत अप्रत्याशित रूप से बढते देख रहे हैं और साथ ही युवा मतदाताओं की संख्या भी। इस बार लोकसभा चुनावों में जो 10 करोड नए मतदाता जुडे हैं, उनमें 2.31 करोड 18-19 वर्ष आयु वर्ग के हैं और कमोबेश सभी राजनीतिक पार्टियों की कोशिश इन्हें लुभाने की है। निश्चित रूप से यह उनकी क्षमताओं और जागरूकता को देखते हुए ही हो रहा है। पार्टियां यह भी जानती हैं कि यह युवा वोटर जाति-धर्म जैसे आभासी मुद्दों पर आकर्षित होने वाला नहीं है। वह खोखले आदर्शो और आधार विहीन योजनाओं में यकीन नहीं करता। उसे अपने और देश के विकास के लिए ठोस कार्ययोजना चाहिए। शायद यही वजह है कि हर स्तर पर व्यापक बदलाव के संकेत दिखाई दे रहे हैं। 

 अपनी संस्कृति का मोह  जिन युवाओं को हम अपनी संस्कृति से टूटा हुआ समझते हैं, उन्हीं में से कई अपने प्राचीन साहित्य और संस्कृति में नए अर्थ की तलाश में लगे हैं। इनमें से कई तो रोजगार के लिए अपना देश छोडकर अमेरिका, यूरोप और दूसरे देशों में रह रहे हैं। दूसरे देशों में रहते हुए भी अपनी संस्कृति से उनका जुडाव देखना चाहते हैं तो कभी ब्लॉग की दुनिया का रुख करें। आप पाएंगे कि नई पीढी में सॉफ्टवेयर, इंजीनियरिंग, चिकित्सा विज्ञान और अकाउंटेंसी जैसी साहित्येतर विधाओं से जुडे कई लोग अपनी संस्कृति को दुनिया की संस्कृति के सामने रखकर देखने की कोशिश में लगे हैं और ऐसा करते हुए वे किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त नहीं हैं। वे न तो अपने को किसी से बेहतर मानते हैं और न ही कमतर। बल्कि इस तरह वे अपनी संस्कृति में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं और इस क्रम में संगीत, नृत्य, साहित्य, पुरातत्व और धर्मशास्त्र सब खंगाल रहे हैं।  

इन चीजों को लेकर उनकी सोच पहले की तरह केवल मिशनरी नहीं, बल्कि प्रोफेशनल है। वे देख रहे हैं कि संस्कृति केवल अपनी पहचान जताने ही नहीं, बल्कि पर्यटन का एक महत्वपूर्ण तत्व भी है और पर्यटन दुनिया के सबसे बडे उद्योगों में से एक है। भारत में इसके लिए प्रचुर संभावनाएं हैं और यह हमारे लिए केवल आय का जरिया ही नहीं बनेगा, विश्व समुदाय में इसे नई प्रतिष्ठा भी दिला सकता है। यह अपने राष्ट्रीय कर्तव्यों के प्रति नई पीढी की जागरूकता का प्रमाण है।

हताशा भी कम नहीं  हालांकि उसे तब घोर हताशा होती है, जब वह देखता है कि हमारे यहां बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी है। अपनी संस्कृति की महानता की दुहाई देते न थकने वाले कुछ लोग यत्र नार्यस्तु पूच्यंते रमंते तत्र देवता का हवाला जरूर देते हैं, लेकिन उन्हीं लोगों को दहेज के लिए अपने घर की बहू को जला देने में कोई पछतावा नहीं होता। दहेज या मायके की हैसियत को लेकर उन पर व्यंग्य करने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं होता। वहशीपने का आलम यह है कि अबोध ब"िायां तक सामूहिक दुष्कर्म की शिकार हो जा रही हैं। सिस्टम ऐसा कि जिसमें कहीं किसी बात की सुनवाई हो जाए, यही बहुत है। यह स्थिति उनमें आक्रोश भरती है और उन्हें हताश करती है। बेशक, इन्हीं चीजों को लेकर कभी-कभी वह अराजक होती दिखती है, लेकिन उसका जोर अपने सिस्टम को दुरुस्त करने पर है, न कि उसे बिगाडने या बदले की कार्रवाई पर। 

 वह अपनी हताशा को छिपाने की चालाक कोशिश नहीं करता। अगर उसे उम्मीद की कोई किरण दिखती है और उस पर उसका भरोसा बन पाता है, तो उसे अपनी बाकी व्यस्तताएं छोडकर उसके साथ हो लेने में कोई दिक्कत महसूस नहीं होती और अगर उसे लगता है कि वह इसमें छला गया तो उसे उससे अलग होते भी देर नहीं लगती। व्यक्ति की पहचान के मामले में अपनी गलती स्वीकार करने में उसे कमतरी का एहसास नहीं होता। हाल के आंदोलनों में उसकी शिरकत और फिर मोहभंग इसके बडे उदाहरण हैं। इसकी वजह यही है कि वह किसी प्रयास से सिर्फ विचार के नाम पर नहीं, बल्कि ठोस परिणाम के लिए जुडता है।  

सूचनाक्रांति का असर  पिछले दो दशकों में सूचना तकनीक की दुनिया में जो क्रांति आई है, उसने जीवनशैली ही नहीं, जीवन से आम आदमी की अपेक्षाएं भी बदल दी हैं। अब उसे किसी दूसरे देश की व्यवस्था जानने के लिए ग्रंथालयों की दौड लगाने और किताबों के पन्ने पलटने की जरूरत नहीं होती। एक क्लिक पर दुनिया भर की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं और इतिहास-भूगोल सब उसके सामने होता है। पहले जिन जगहों और तकनीकों को केवल सफेद-काले चित्र देखकर समझना पडता था, अब टीवी पर उनका लाइव शो होता है। किसी कारण से आप उसे न भी देख सकें तो रिकॉर्डिग से लेकर यूटयूब तक कई दूसरे उपाय भी मौजूद हैं। इस क्रांति के चलते सूचनाओं की प्राप्ति ही नहीं, उनकी साझेदारी और अभिव्यक्ति में भी विस्फोट जैसी स्थिति बनी है। मन में जो कुछ चल रहा है, वह दुनिया को बताने के लिए उन्हें बहुत इंतजार करने की जरूरत नहीं होती। वे किसी भी सोशल नेटवर्क पर प्रोफाइल बनाते हैं और अपने सुख-दुख से लेकर विभिन्न मसलों पर विचार तक सब सीधे सबके सामने।

नए भारत की ओर  विभिन्न माध्यमों पर आ रहे उसके विचार यह स्पष्ट करते हैं कि वह पहले की तरह डरा हुआ नहीं है और न संकोची ही। उसने आजाद देश की हवा में सांस ली है और आजादी के मूल्य को वह समझता है। वह इसे बनाए रखना चाहता है और इसीलिए व्यवस्था में सुधार को अनिवार्य मानता है। वह अभिव्यक्ति की आजादी की अहमियत, अर्थ और उसकी सीमाएं भी जानता है। वह संकोच में कुछ भी मान नहीं लेता, तर्क करता है और ठोस सुबूतों के साथ ठोस कार्ययोजना चाहता है। बेहतर होगा कि इस तर्कशीलता को अशिष्टता के रूप में न देखें।  

वह हर चीज को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार ही आंकने की कोशिश करता है। आत्मविश्वास से लबरेज आज के युवा के इस तेवर और नए तरह के उसके संस्कार को समझने के लिए बडों को भी थोडे धैर्य और नई समझ का परिचय देना होगा। अगर उसे सहानुभूतिपूर्वक समझा जाए और उसके लिए उसके स्पेस का सम्मान करते हुए उसे नई दिशा दी जाए तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले दिनों में हम एक नए भारत के नागरिक होंगे, जिसका दुनिया भर में अपना अलग और बेहद सम्मानजनक स्थान होगा।

अमीर देश का युवा  इम्तियाज अली  

20 साल पहले का युवक ज्यादा पाखंडी था। आज के युवकों का सोसायटी से कंसर्न है। वह अपनी बातें खुलकर कहने लगा है। उसे किसी से मॉरल सर्टिफिकेट नहीं चाहिए। यह कहना सही नहीं होगा कि आज के युवक मोटी सेलरी और बडी नौकरी के पीछे भाग रहे हैं। गौर करें तो वे अपने मन की नौकरी करना चाहते हैं और उसके लिए अच्छे पैसे पा रहे हैं। सच कहूं तो आज का युवक अमीर देश का नागरिक है। वह 20 साल पहले के युवकों की गरीब सोच से आगे निकल चुका है। ऊपरी तौर पर उसमें तडप कम है, क्योंकि उसका पेट भरा हुआ है। मुझे लगता है कि आज के युवकों के पास रोल मॉडल की कोई कमी नहीं है। पारंपरिक सोच में हम कुछ नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को ही रोल मॉडल मानते हैं। आज एक फिल्म स्टार, क्रिकेटर, बैंकर, नॉवेलिस्ट, एनजीओ कार्यकर्ता आदि रोल मॉडल हो सकते हैं। समकालीन युवकों को समझने के लिए हमें अपनी पुरानी सोच बदलनी पडेगी। 

अब इस नजरिये से देखें तो रोल मॉडल के लिए इंदिरा गांधी या अमिताभ बच्चन तक सीमित रहने की जरूरत नहीं है। यह भी जरूरी नहीं है कि भारतीय युवक का रोल मॉडल कोई भारतीय ही हो। मैं अपनी बेटी की बात बताऊं। उसे सुपरवुमन नाम की एक गायिका बहुत पसंद है। वह उसकी फैन है। उसका ऑटोग्राफ लेकर आई है। उसकी इस पसंद पर मैं चौंका, लेकिन आप कोई सवाल नहीं कर सकते। वह एक यूट्यूबर है। अपने गाने बनाती है और यूट्यूब पर डालती है। उसका वास्तविक नाम लीली है। अन्ना आंदोलन हो या निर्भया दुष्कर्म कांड.. ऐसी घटनाओं पर युवकों के सडक पर उतर आने को मैं बहुत सही नहीं मानता। इसे आप उनकी आजादी का प्रदर्शन कह सकते हैं। हो सकता है गुस्सा और विरोध भी हो। कई बार मुझे लगता है कि यह हडबडी में लिया गया फैसला होता है। वे अभियान या आंदोलन को शुरू तो कर देते हैं, लेकिन उसे किसी अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते। सडकों पर आ जाना ही निदान या समाधान नहीं है।

कोई रोल मॉडल ही नहीं  सलिल भट्ट, शास्त्रीय संगीतज्ञ 

 आज के युवा की स्थिति दो दशक पहले जैसी नहीं रह गई है। सूचना का जो विस्फोट हुआ है, उसने सब कुछ बदल दिया है। इसने हमें निजी और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर बदला है। कुछ मामलों में वह समाज से कटा है तो कुछ में जुडा भी है। आम तौर पर देखने में ऐसा लगता है कि वह अपने तक ही सिमट कर रह गया है, लेकिन पिछले दो-तीन वर्षो में ऐसा बहुत कुछ हुआ है जिससे समाज से उसके सरोकार बहुत मुखर रूप में सामने आए हैं। इससे जाहिर होता है कि वह समाज से कटा नहीं है। हां, यह जरूर है कि बेमतलब के झंझटों में वह नहीं पडना चाहता। इसकी एक वजह तो यह है कि उसके पास समय का बहुत अभाव है। कठिन प्रतिस्पर्धा के इस दौर में उसे सबसे पहले समाज में अपनी स्थिति सुनिश्चित करनी है, जो दिन-ब-दिन बहुत मुश्किल होती जा रही है। इसी हाल में वह यह भी देख रहा है कि उसके सामने कोई भरोसे लायक रोल मॉडल ही नहीं है। लोग आते तो हैं समाज का भला करने के नाम पर और फिर जुट जाते हैं केवल अपना, अपने परिवार और रिश्तेदारों का भला करने में। ऊपर से वह मनोरंजन के सस्ते साधनों से जकडा हुआ है। यह सही है कि आज सूचना और मनोरंजन के लिए बहुत सारे साधन हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर अपरिपक्व और सतही किस्म के हैं। जो अच्छे और गुणवत्तापूर्ण साधन हैं, उन तक अभी भी कम लोगों की पहुंच है। इसे सर्वसुलभ बनाया जाना चाहिए। हमारे देश की युवा ऊर्जा अपने समग्र रूप में एक सही दिशा पाए, इसके लिए सामूहिक प्रयास होना चाहिए।  

समय का अभाव  सुदीप नागरकर, लेखक  

आज के युवा के पास खुद के लिए ही समय नहीं है। प्रतिस्पर्धा और महंगाई इतनी बढ गई है कि उसके लिए कोई विकल्प ही नहीं बचा। ऐसी स्थिति में वह समाज के लिए समय निकाले कैसे? फिर भी हम यह देखते हैं कि व्यस्तता और आपाधापी के इस दौर में भी वह बडे-बडे आंदोलनों में शामिल होता है। स्वत: स्फूर्त ढंग से बडे आंदोलन खडे कर देता है। जाहिर है, वह सब कुछ करने के लिए तैयार है। बस जरूरत इस बात की है कि कोई बात उसके मन को छुए और नेतृत्व पर उसका भरोसा बने। इसका आप पूरा असर सोशल नेटवर्किग पर देख सकते हैं। मुझे तो लगता है कि अगले लोकसभा चुनाव में भी फेसबुक-ट्विटर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रहने वाली है। लेकिन आज का युवा अगर अपने आसपास के मामलों में रुचि लेता दिखाई नहीं देता तो इसमें कई बार हमारे कानून भी कारण होते हैं। मसलन किसी दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को अस्पताल तक न पहुंचाने में वह संकोच करता है। इसका एक ही कारण है और वह है पुलिस की बेमतलब पूछताछ। 

अगर पुलिस इस सोच से उबर सके तो इन स्तरों पर भी वह सक्रिय दिखाई देगा।  यह संक्रमण का समय है संदीप नाथ, गीतकार भारत को आजाद हुए छह दशक से ज्यादा बीत गए। आज का युवा आजादी के बाद की चौथी पीढी है। इस पीढी ने वह कष्ट नहीं देखा जो हमारे पूर्वजों ने देखा और थोडा हमने भी महसूस किया। हमारा समय भी संक्रमण का समय है। एक सदी छोडकर दूसरी में आए ही हैं। बाजारवाद का जो सरकारीकरण 91 में शुरू हुआ था, वह शुरुआत में बहुत अच्छा लगा। लोगों को ऐसा लगा कि शायद अब योग्यता और क्षमता की कद्र होगी। कुछ दिनों तक ऐसा रहा भी। लेकिन जल्दी ही यह भ्रम टूट गया। इससे उसके भीतर आक्रोश पैदा हुआ। इसके साथ ही एक नए बदलाव के लिए बेचैनी शुरू हो गई। यह सही है कि आज के युवा को अच्छा खाना-पहनना अच्छा लगता है। लेकिन, इसका यह मतलब नहीं कि उसके लिए जीवन का कुल अर्थ यहीं तक सीमित है। वह समाज के सुख-दुख से भी वह उतना ही जुडा है, जितना कि अपनी निजी चाहतों से।

 वह भौतिकवादी भी है और आध्यात्मिक भी। लेकिन पहले की तरह समाज में सिर्फ औपचारिकताएं निभाने के लिए वह समय नहीं निकाल सकता। उसके पास अपने लिए ही समय नहीं है तो वह समाज के लिए कहां से निकाले। लेकिन जहां वास्तविक जरूरत होती है, वहां वह किसी भी कीमत पर हाजिर होता है। अपने बडे नुकसान करके भी। छोटी-छोटी बातों पर लडना उसके लिए संभव नहीं है। आज उसकी कोई प्रासंगिकता भी नहीं है। वह चाहता है सिस्टम में बदलाव लाना और सिस्टम के ख्िालाफ अपनी आवाज बुलंद करने का उसके पास बहुत बडा माध्यम आज उसका वोट है। रही बात कुछ आत्मकेंद्रित और पलायनवादी लोगों की, तो ऐसे लोग किस समय नहीं थे? आजादी के पहले भी कुछ लोग सर और रॉय बनने की होड में लगे रहते थे और कुछ लोग सिर कटाने को बेताब थे। ये दोनों तरह के लोग हमेशा थे और हमेशा रहेंगे।

छिप जाती हैं अच्छाइयां महेश भट्ट  

मैं कुछ उदाहरणों से अपनी बात रखना चाहूंगा। अंतरराष्ट्रीय सम्मान जीतने वाली सारांश में अनुपम खेर ने रिटायर्ड अध्यापक का किरदार निभाया था, जो अपनी पेइंग गेस्ट की सहायता करना कर्तव्य समझता है। सत्ता के मद में डूबे राजनेता से लडाई मोल लेता है। इससे उनके उदास दिल को शांति मिलती है और उन्हें जिंदगी का मकसद मिलता है। फि ल्म डैडी, जिससे मेरी बेटी पूजा ने करियर शुरू किया था, इसमें एक सत्रह वर्षीय युवती की उन मुश्किलों को संवेदनशील तरीके से दिखाया गया था, जो अपने शराबी पिता को संभालने की जिम्मेदारी उठाती है। अनुपम खेर ने इसमें पिता का किरदार निभाया था। फिल्म इतनी असरदार थी कि आज भी ऐसे कई लोग मिल जाते हैं, जिन्होंने फिल्म देखने के बाद शराब से तौबा कर ली। कन्या भ्रूण हत्या पर बनी फिल्म तमन्ना पूजा द्वारा निर्मित पहली फिल्म थी। इसने सामाजिक समस्या पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार जीता था। 

 रमजान के महीने में मुंबई के गटर से एक हिजडा नन्ही मासूम बच्ची को उठा कर घर लाता है, उसे पालता है। जिम्मेदारी लेने का यह संदेश मेरी ज्यादातर फिल्मों की जान है। इन सभी फिल्मों को दर्शकों की अच्छी प्रतिक्रिया मिली। मतलब यह कि दर्शक, खासकर आज के युवा उन फिल्मों में उठाए गए विषयों से कोरिलेट करते हैं। एमएनसी में काम करने के साथ-साथ समाज को वापस देने की प्रवृत्ति भी उसमें है। उसे पता है कि सामाजिक जिम्मेदारी निभाना मानव प्रगति की ऊर्जा है। इसे भुलाते ही हम विफल हो जाएंगे और बिखर भी जाएंगे। बल्कि वह तो आक्रामक है। सभी कुरीतियों को जड से उखाड फेंकना चाहता है। यह अलग बात है कि उसकी जश्न मनाने की प्रवृत्ति की ओट में उसकी अच्छाइयां, समझदारी और परिपक्वता छिप जाती है।

आक्रामक हैं युवा  विद्या बालन  

आज के युवा वर्क लाइक ए कुली, लिव लाइक ए किंग में यकीन रखते हैं। वे जीतोड मेहनत कर खुद अपनी, परिवार, समाज और राष्ट्र की तरक्की में अहम भूमिका निभाना चाहते हैं। निर्भया केस हो या अन्ना आंदोलन वे अपनी समझ और होशो हवास में गुनहगारों पर बिना किसी लाग-लपेट के कार्रवाई की मांग करते हैं। वे तकनीकी विवरणों में नहीं जाते। सरल शब्दों में सीधी बात करते हैं और सीधे शब्दों में ठोस कार्रवाई की मांग करते हैं। पर साथ ही जीवन का जश्न मनाने में भी कोई कोताही नहीं बरतना चाहते। वे काम और मौज-मस्ती दोनों ही एक्स्ट्रीम लेवेल पर करते हैं। आज ऐसे ही आक्रामक युवाओं की दरकार हर देश को है, वरना कडी प्रतिस्पर्धा के दौर में वह पीछे छूट जाएगा।

इंटरव्यू : मुंबई से अजय ब्रह्मात्मज, अमित, दुर्गेश और दिल्ली से इष्ट देव।  

इष्ट देव सांकृत्यायन साभार- जागरण  


समाज की बात Samaj Ki Baat 

कृष्णधर शर्मा Krishnadhar Sharma


रविवार, 12 मार्च 2023

2060 में दुनिया में सबसे ज्यादा होगी भारत की आबादी

 वर्ष 2020 के मध्य तक भारत जनसंख्या के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा ऐसा अनुमान है। वर्ष 2060 में भारत की जनसंख्या 1.65 अरब होने का आकलन भी किया गया है और इस शिखर तक पहुंचने के बाद संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि भारत की जनसंख्या में गिरावट आने लगेगी। 

कई रिपोट्‌र्स 2050 तकभारत की जनसंख्या के स्थिर होने और 2060 के बाद उसमें गिरावट का अनुमान लगा रहा है।  भारत की जनसंख्या वृद्धि दर बीते कुछ दशकों में कम हुई है मगर जितनी अधिक जनसंख्या भारत में है वह अभी भी दुनिया के कई देशों की तुलना में ज्यादा है। 

अनुमान है कि भारत 2050 तक दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा।  जनसंख्या पर नियंत्रण भी पाया जून 2019 में जारी संयुक्त राष्ट्र के 'वर्ल्ड पापुलेशन प्रॉस्पैक्ट्‌स 2019' के अनुसार एक दशक से भी कम समय में भारत चीन को पीछे छोड़ देगा, किंतु जबसे संयुक्त राष्ट्र ने यह जनसंख्या संबंधी अनुमान लगाना शुरू किया है तबसे अब तक 2011 में भारत की जनसंख्या वृद्धि दर सबसे कम रही है। 

2001 से 2011 तक तक भारत की जनसंख्या दर में गिरावट आई है। 1991 से 2001 तक यह 21.5 प्रतिशत रही थी तो 2001 से 2011 तक 17.7 प्रतिशत पर आ गई। भारत के 24 राज्यों औरकेंद्र शासित प्रदेशों ने जनसंख्या नियंत्रण में अच्छा प्रदर्शन किया है और यह इस बूते ही संभव हुआ है कि महिलाओं को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराई गई हैं। इसमें वर्ष 2000 में बनी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति की भी अहम भूमिका रही है।

 जनसंख्या वृद्धि दर इस तरह हुई कम

भारत की कुल जनसंख्या वृद्धि दर लगातार कम हुई है। कभी 1971 में एक स्त्री द्वारा औसतन 5.2 बच्चों को जन्म दिया जा रहा था। सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में यह दर लगातार कम हुई है। भारत प्रति स्त्री द्वारा 2.1 की संतोषजनक जन्म दर को अगले पांच वर्षों में प्राप्त कर सकता है। तब करीब-करीब 'यह हम दो हमारे दो' की स्थिति हो जाएगी।  

2100 में देश में आधी आबादी को सहारे की जरूरत होगी संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड पापुलेशन प्रॉस्पेक्ट्‌स के अनुसार वर्ष 1950 में भारत में प्रति 100 व्यक्तियों पर 6.4 बुजुर्ग थे। इस सदी के पूरा होने तक यानी 2100 में भारत में प्रति 100 व्यक्तियों में से 49.9 लोग ऐसे होंगे जो बुजुर्गावस्था में होंगे और उन्हें सहारे की जरूरत होगी। तब जितने लोग कामकाजी होंगे उतनी ही आबादी ऐसी भी होगी जिसे देखभालकी जरूरत होगी।

साभार- नयी दुनिया 

भारतीय लोकाचार के अनुरूप नहीं है समलैंगिक विवाह : केंद्र सरकार

 केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की दलीलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पार्टनर के रूप में एक साथ रहना और समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा यौन संबंध बनाना, जिसे अब अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है, भारतीय परिवार इकाई एक पति, एक पत्नी व उनसे पैदा हुए बच्चों के साथ तुलनीय नहीं है। 

केंद्र ने जोर देकर कहा कि समलैंगिक विवाह सामाजिक नैतिकता और भारतीय लोकाचार के अनुरूप नहीं है।   एक हलफनामे में, केंद्र सरकार ने कहा कि शादी की धारणा ही अनिवार्य रूप से विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के बीच एक संबंध को मानती है। यह परिभाषा सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी रूप से विवाह के विचार और अवधारणा में शामिल है और इसे न्यायिक व्याख्या से कमजोर नहीं किया जाना चाहिए। 

हलफनामे में कहा गया है कि विवाह संस्था और परिवार भारत में महत्वपूर्ण सामाजिक संस्थाएं हैं, जो हमारे समाज के सदस्यों को सुरक्षा, समर्थन और सहयोग प्रदान करती हैं और बच्चों के पालन-पोषण और उनके मानसिक और मनोवैज्ञानिक पालन-पोषण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।  केंद्र ने जोर देकर कहा कि याचिकाकर्ता देश के कानूनों के तहत समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं।  

हलफनामे में कहा गया है कि सामाजिक नैतिकता के विचार विधायिका की वैधता पर विचार करने के लिए प्रासंगिक हैं और आगे, यह विधायिका के लिए है कि वह भारतीय लोकाचार के आधार पर ऐसी सामाजिक नैतिकता और सार्वजनिक स्वीकृति का न्याय करे और उसे लागू करे।  

केंद्र ने कहा कि एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच विवाह या तो व्यक्तिगत कानूनों या संहिताबद्ध कानूनों के तहत होता है, जैसे कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955, ईसाई विवाह अधिनियम, 1872, पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 या विशेष विवाह अधिनियम, 1954 या विदेशी विवाह अधिनियम, 1969।  यह प्रस्तुत किया गया है कि भारतीय वैधानिक और व्यक्तिगत कानून शासन में विवाह की विधायी समझ बहुत विशिष्ट है। केवल एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच विवाह, यह कहा।  

इसमें कहा गया है कि विवाह में शामिल होने वाले पक्ष एक ऐसी संस्था का निर्माण करते हैं, जिसका अपना सार्वजनिक महत्व होता है, क्योंकि यह एक सामाजिक संस्था है, जिससे कई अधिकार और दायित्व प्रवाहित होते हैं।  हलफनामे में कहा गया है, शादी के अनुष्ठान/पंजीकरण के लिए घोषणा की मांग करना साधारण कानूनी मान्यता की तुलना में अधिक प्रभावी है। पारिवारिक मुद्दे समान लिंग से संबंधित व्यक्तियों के बीच विवाह की मान्यता और पंजीकरण से परे हैं।  

केंद्र की प्रतिक्रिया हिंदू विवाह अधिनियम, विदेशी विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम और अन्य विवाह कानूनों के कुछ प्रावधानों को इस आधार पर असंवैधानिक बताते हुए चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आई कि वे समान लिंग वाले जोड़ों को विवाह करने से वंचित करते हैं।   केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की दलीलों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि पार्टनर के रूप में एक साथ रहना और समलैंगिक व्यक्तियों द्वारा यौन संबंध बनाना, जिसे अब अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है।   

केंद्र ने कहा कि हिंदुओं के बीच, यह एक संस्कार है, एक पुरुष और एक महिला के बीच पारस्परिक कर्तव्यों के प्रदर्शन के लिए एक पवित्र मिलन और मुसलमानों में, यह एक अनुबंध है, लेकिन फिर से केवल एक जैविक पुरुष और एक जैविक महिला के बीच ही परिकल्पित किया जाता है। इसलिए, धार्मिक और सामाजिक मानदंडों में गहराई से निहित देश की संपूर्ण विधायी नीति को बदलने के लिए शीर्ष अदालत की रिट के लिए प्रार्थना करने की अनुमति नहीं होगी।  

केंद्र ने इस बात पर जोर दिया कि किसी भी समाज में, पार्टियों का आचरण और उनके परस्पर संबंध हमेशा व्यक्तिगत कानूनों, संहिताबद्ध कानूनों या कुछ मामलों में प्रथागत कानूनों/धार्मिक कानूनों द्वारा शासित और परिचालित होते हैं। किसी भी राष्ट्र का न्यायशास्त्र, चाहे वह संहिताबद्ध कानून के माध्यम से हो या अन्यथा, सामाजिक मूल्यों, विश्वासों, सांस्कृतिक इतिहास और अन्य कारकों के आधार पर विकसित होता है और विवाह, तलाक, गोद लेने, रखरखाव, आदि जैसे व्यक्तिगत संबंधों से संबंधित मुद्दों के मामले में या तो इसमें कहा गया है कि संहिताबद्ध कानून या पर्सनल लॉ क्षेत्र में व्याप्त है।  

यह प्रस्तुत किया गया है कि समान लिंग के व्यक्तियों के विवाह का पंजीकरण भी मौजूदा व्यक्तिगत के साथ-साथ संहिताबद्ध कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन करता है।  हलफनामे में कहा गया है कि एक पुरुष और महिला के बीच विवाह के पारंपरिक संबंध से ऊपर कोई भी मान्यता, कानून की भाषा के लिए अपूरणीय हिंसा का कारण बनेगी। 

साभार-देशबंधु.इन    

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

क्या है न्याय व्यवस्था की बीमारी का इलाज!

 इस संदर्भ में अगर भारतीय न्याय व्यवस्था का आकलन करें तो बहुत निराशाजनक दृश्य सामने आता है। इन दिनों लोग यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि कोर्ट के बाहर ही निपटारा कर लो वरना जिंदगी भर पांव घीसते रहोगे। यह बताता है कि भारत में न्याय इतनी देर से मिलता है कि वह अंधेर में बदल जाता है। यही कारण कि चीफ जस्टिस को कहना पड़ा कि 18 हजार जज मिलकर 3 करोड़ मुकदमों का भार नहीं उठा सकते।

 भारतीय न्याय व्यवस्था की स्थिति की पड़ताल उनके इस बयान के संदर्भ में जरूरी हो जाती है।  इस बयान से यह स्पष्ट रूप में समझ आता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था जजों की कमी से जूझ रही है। जजों की संख्या बढ़ाया जाना सरकार की शीर्ष प्राथमिकता होना चाहिए। अमूमन राजनेताओं की इसमें दिलचस्पी कम ही होती है। अदालत की कछुआ चाल उनके लिए अधिक सुविधाजनक होती है। भले ही भ्रष्टाचार के मामले हों या फिर उनके कार्यों को चुनौती देने वाली याचिकाएं। उनकी इच्छा यही नजर आती है कि अदालत में जाने वाले मामले लंबे समय तक लंबित रहें। इसमें वे अपने लिए राहत देखते हैं। सरकार को चाहिए कि वह अदालतों को प्रकरणों के त्वरित निपटारे के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध करवाए।  

भारत के चीफ जस्टिस कहते हैं कि लोगों में इस बात के लिए चेतना लाना जरूरी है कि वे राजनेताओं को समय पर न्याय उपलब्ध कराने के लिए बाध्य करें। अपनी इस भूमिका से तो जनता भी अनजान ही है। लंबे समय से खाली पड़े जजों के पद न्याय को सुलभ कैसे करवा सकते हैं। सैंकडों साल चलने वाले मुकदमों से मुक्ति भी तभी संभव है जबकि पर्याप्त जज हों। फिर यह भी कि ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर सरकार के बजाय अदालत को अपना समय देना पड़ता है।   

दूसरे अर्थों में कहें तो जिस सुशासन की जिम्मेदारी सरकार पर है वह काम अदालत को करना होता है। सड़क पर सम और विषम नंबर वाले वाहनों के चलने का मुद्दा हो या फिर स्कूल में एडमिशन को लेकर गाइडलाइन का पालन। इन सभी मुद्दों पर अदालत का बहुत समय जाता है तो उसके पास आम आदमी के प्रकरणों के लिए समय कम हो जाता है। ये सारे मुद्दे कार्यपालिका की जिम्मेदारी पर ही छोड़ दिए जाने चाहिए। कार्यपालिका को इन मुद्दों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभानी चाहिए।  

ऊपर अपील से बढ़ रहा बोझ  न्यायपालिका को प्रकरणों के निपटारे का समय छह माह या एक वर्ष तय करना चाहिए जैसा दुनिया के अन्य विकसित देश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका में स्पीडी ट्रायल एक्ट 1947 के अनुसार यह सुनिश्चित किया गया है कि सारे प्रकरण एक समयसीमा में हल किए जाएंगे। केवल अपवाद के रूप में सामने वाले प्रकरणों में ही अधिक समय लग सकता है।  

हालांकि सिविल प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में प्रकरण के विभिन्ना चरणों के लिए समय सीमा तय की गई है लेकिन पूरे प्रकरण के निपटारे के लिए लगने वाले अधिकतम समय के बारे में स्पष्टता का अभाव है। यह बचाव पक्ष और अभियोजन पक्ष को केस की सुनवाई को कई मर्तबा आगे बढ़वाने की सुविधा देता है और सालों साल केस अदालत में लटके रहते हैं। प्रकरण के स्थगन की सुविधा को लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और अदालतें मूक दर्शक बनी हैं।  

भारत में बड़ी संख्या में की जाने वाली अपील भी बड़ा मुद्दा है। इसके कारण शीर्ष अदालतों पर बोझ बहुत ज्यादा बढ़ जाता है और वहां प्रकरण इकट्ठा होते जाते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे प्रकरणों पर नजर डालें तो उनमें कई प्रकरण बहुत ही मामूली बातों को लेकर भी हैं। तलाक और कॉलेज में एडमिशन के मामले भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं।  मामूली प्रकरण के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाने की वजह यह है कि संविधान ने सुप्रीम कोर्ट तक जाने की आजादी हर व्यक्ति को दी है। हर व्यक्ति अपने केस की मेरिट देखे बगैर उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है। इसके लिए भी कोई व्यवस्था नहीं है।  

भारत की न्याय व्यवस्था ब्रिटेन और अमेरिका मॉडल पर आधारित है और इसलिए वहां की न्याय प्रणाली को देखा जाना जरूरी है। एक अध्ययन के अनुरूप 2006 से 2011 के बीच भारतीय उच्चतम न्यायालय ने 500 सामान्य मामलों का निपटारा किया और हर महीने यहां 5000 केस नए आ गए। इसके मुकाबले इंग्लैंड की सुप्रीम कोर्ट में 2010 से 2013 के बीच एक दर्जन जज ने मिलकर एक वर्ष में औसतन 70 मामले निपटाए।  इन सुधारों से बन सकती है बात  उच्चतम न्यायालय के एक न्यायधीश के अनुसार निचली अदालतों में आने वाले प्रकरणों को उनकी प्रवृत्ति और स्थिति के अनुरूप अलग-अलग श्रेणियों में बांटा जाना चाहिए और तय किया जाना चाहिए कि किन प्रकरणों में त्वरित निर्णय जरूरी है। जैसे सीनियर सिटीजन और गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति के प्रकरणों में त्वरित सुनवाई की जरूरत होती है। यहां दूसरे मामलों की गंभीरता को कम करना बिल्कुल भी उद्देश्य नहीं है लेकिन व्यक्ति के जीते-जी मामलों का निपटारा जरूरी है।  

भारतीय अदालतों में अभी भी ज्यादातर काम कागज पर होता है जबकि विदेश की अदातलें पेपरलेस हो चुकी हैं। कार्यपालिका ने ई-कोर्ट्स की स्थापना को भी मंजूरी दे दी है लेकिन जिन अदालतों में काम कागज पर हो रहा है उसे सुधारने की जरूरत है। ई-कोर्ट्स में सारी प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और लेटलतीफी से मुक्ति मिलेगी।  निचली अदालतों द्वारा लिखे जाने वाले फैसले बहुत स्पष्ट और संक्षिप्त होने चाहिए ताकि जब मामला ऊपरी अदालत तक पहुंचे तो अपीलीय अदालत बहुत जल्दी से पूरे मामले और उस पर सुनाए गए फैसले के कारणों को समझ सके।  किसी भी प्रकरण में बार-बार तारीख दिए जाने से जल्दी सुलझने वाला मामला लंबे समय तक चलता रहता है। मामले को स्थगित रखना दोषी का पक्ष लेने और न्याय की आस करने वाले के खिलाफ जाता है।  

26/11 या फिर सलमान खान हिट एंड रन केस या इसी तरह के अन्य बड़े मामलों का उच्च अदालत तक पहुंचना तय है तो फिर उनके लिए निचली अदालत का समय क्यों जाया हो। इन प्रकरणों को सीधे ही उच्च अदालत द्वारा क्यों न सुना जाए। बहुत सारे लोग निचली अदालतों के न्याय से ही संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन वह न्याय भी उन्हें मिले तो।  न्यायालयों में जजों की नियुक्ति लंबे समय तक अटकी पड़ी रहती है और इस दिशा में त्वरित सुधार की जरूरत है ताकि जजों के खाली पड़े पदों पर नियुक्ति संभव हो सके। लॉ कॉलेज की स्थिति सुधारना भी आवश्यक।  फिजूल प्रकरणों को लंबे समय तक खींचने के बजाय उन्हें तुरत ही निपटाया जाए। 

बहुत छोटी बातों पर होने वाले विवादों को न्यायालय में स्वीकार किया जाएगा या नहीं इस पर भी स्पष्ट दिशा निर्देश होने चाहिए। खासकर तब जबकि अदालतों पर केस का इतना ज्यादा बोझ है।  टैक्स नीति या पर्यावरण नीति जैसे तकनीकी मुद्दों से जुड़े प्रकरणों में भी अदालत को बहुत वक्त देना पड़ता है जबकि इन मुद्दों को सरकार अपने स्तर पर निपटा सकती है।    

भारत और अमेरिका में यह फर्क  एक अन्य अध्ययन बताता है कि भारतीय उच्चतम न्यायालय अपने समक्ष आने वाली हर पांच में से 1 अपील को स्वीकार कर लेता है इस लिहाज से यह आने वाले मामलों के मुकाबले स्वीकार करने वाले मामलों का 20 प्रतिशत हुआ जबकि अमेरिका में यह दर केवल 1 प्रतिशत है। वहां 100 केस में से केवल 1 केस स्वीकार किया जाता है। इसी भारतीय न्यायधीशों पर काम का बोझ निश्चित रूप से ज्यादा है।  इन सारे कारणों से भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय के लिए लगाई जाने वाली पुकार दबकर रह जाती है। न्याय की आस में गुहार लगाने वालों को लंबे समय इंतजार करना पड़ता है। सिर्फ जज की संख्या बढ़ाए जाने से काम नहीं चलेगा और व्यवस्था के अन्य पक्षों पर भी सुधार की दरकार है। जजों की कमी तो इस पूरी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भर है। 

विदेशों में लंबित प्रकरण इसलिए नहीं  दुनिया के विकसित देशों में अदालतों में प्रकरणों के लंबित रहने की समस्या नहीं है। उदाहरण के लिए अमेरिका के उच्चतम न्यायालय में सिलेक्टिव डॉकेट सिस्टम लागू है। वहां किसी याचिका को स्वीकार करने से पहले सुप्रीम कोर्ट के 9 में से 4 जज का मानना जरूरी है कि याचिका में ऐसे प्रश्न हैं जों संघीय कानून या संविधान की अधिक व्याख्या की मांग करते हैं। इस तरह उसके सामने हर वर्ष जो 7000 याचिकाएं पहुंचती हैं उनमें से केवल 75-80 को ही सुना जाता है।  

जर्मनी जैसे देशों में फेडरल कॉन्स्टीट्यूशनल कोर्ट हर प्रस्तुत याचिका को परखती है। 3 जज की एक पैनल जिसे चेम्बर कहा जाता है प्रकरणों की जांच करती हैं। ऐसी याचिकाएं जो कोई नया मुद्दा नहीं उठाती उन्हें तुरंत खत्म किया जाता है। कोर्ट केवल उन्हीं याचिकाओं को सुनती है जो चेंबर की जांच में खरे उतरते हैं।  अमेरिकी अदालत में एक बार केस डॉकेट में आ जाने के बाद तय समय-सीमा का पालन होता है। सुनवाई की तारीख कोर्ट के कैलेंडर में दर्ज हो जाती हैं। एक बार कैलेंडर में दर्ज हो जाने पर उनमें शायद ही कोई बदलाव होता है। हर केस को दो सप्ताह में सुनवाई के लिए लगाया जाता है और वकीलों को अपने पक्ष में 30 मिनट दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त समय किसी भी वकील को नहीं दिया जाता। इस तरह तुरंत न्याय उपलब्ध कराया जाता है।

अभिषेक कपूर