नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

अतृप्ति की सभ्यता

हम सदियों से जीवित रहते आ रहे हैं, हम आज भी जीवित हैं, और हम एक ऐसे यथार्थ के आकांक्षी हैं जिसकी अनुभूति के स्तर पर कभी अंत नहीं होता। यह एक ऐसा यथार्थ है,
जो मृत्यु के बाद भी बना रहता है, जो जीवन को ऐसा अर्थवान बनाता है कि सभी बुराइयां नष्ट हो जाती हैं, यह शांति व पवित्रता को स्थापित कर देता है, स्व के आनंदमय परित्याग में सहायक होता है। आंतरिक जीवन का यह प्रवर्धन एक जीवंत प्रबंधन है।  इसकी तब जरूरत पड़ती है, जब कोई युवक थककर तथा धूल-मिट्टी से सनकर घर लौटता है, जब कोई सैनिक घायल होता है, जब कोई संपत्ति गंवा देता है तथा उसका स्वाभिमान चूर-चूर हो चुका होता है, जब किसी मनुष्य का हृदय तथ्यों के ढेर में सत्य के लिए एवं विरोधी प्रवृत्तियों में सामरस्य के लिए रोता है। इसका मूल्य भौतिक चीजों को बढ़ाते रहने में नहीं बल्कि आध्यात्मिक परिपूर्णता में है।
राजनीतिक सभ्यता, जिसका जन्म यूरोप की मिट्टी में हुआ और तेजी से उगने वाले किसी खरपतवार की तरह अब पूरे विश्व में फैल चुकी है, अनन्यता पर आधारित है। यह अन्देशीय लोगों को अपने पास न फटकने देने या उनका उन्मूलन करने के लिए सदा तत्पर रहती है। इसकी प्रवृत्ति मांसाहारी और नरभक्षी होने की है। यह अन्य लोगों के संसाधनों को हड़प लेती है और उनके समूचे भविष्य को निगल लेने को सदा तैयार रहती है। यह अन्य नस्लों द्वारा प्रतिष्ठा पा लेने से हमेशा डरती है और ऐसी उपलब्धि को खतरनाक घोषित करती है। अपनी सीमाओं से बाहर दिखने वाले महानता के किसी भी लक्षण को कुचलने की कोशिश करने लगती है, कमजोर नस्लों के लोगों को दबाए रखती है और चाहती है कि ये हमेशा अपनी कमजोरी का शिकार बने रहें। इस राजनीतिक सभ्यता द्वारा शक्ति प्राप्त कर लेने तथा धरती के महान महाद्वीपों को निगलने के लिए अपने जबड़े खोलने से पहले ही हमें युध्दों, लूटपाटाें, राजसत्ताओं में परिवर्तन और इसके परिणामस्वरूप होने वाली आपदाओं ने घेर लिया। लेकिन उससे पहले अतृप्ति का ऐसा डरावना तथा निराशाजनक रूप, एक के बाद एक राष्ट्र का ऐसा भक्षण, धरती के बड़े-बड़े हिस्सों को मांस की तरह पीस देने वाले विशाल मशीनें, बदसूरत दांतों तथा पंजों से युक्त भयानक ईष्याएं जो मनुष्य के सभी प्राणाधार अंगों को फाड़ देने को तैयार हों- ऐसा होते पहले कभी देखा न था।  यह राजनीतिक सभ्यता वैज्ञानिक है, मानवीय नहीं।  यह इसलिए शक्तिशाली है क्योंकि यह अपनी सारी ताकत एक ही उद्देश्य के लिए लगा देती है, जैसे कि कोई लखपति अपनी आत्मा को बेचकर भी धन जुटाने में लगा रहता है। यह अपनी आस्था को भी धता बता देती है, यह बेशर्मी से अपने झूठ का जाल बुनती रहती है, यह अपने मंदिरों में लालच की मूर्तियों को प्रतिष्ठित करती है और इनकी पूजा के खर्चीले कर्म-कांडों पर खूब गर्व करती है, और इसे देशभक्ति कहती है। इसके बारे में हम विश्वास के साथ भविष्यवाणी कर सकते हैं कि ऐेसा चलता नहीं रह सका क्योंकि इस दुनिया में नैतिक नियम भी हैं, जो व्यक्तियों एवं मानव के संगठित स्वरूपों पर भी लागू होते हैं। आप राष्ट्र के नाम पर
इन नियमों को भंग नहीं करते रह सकते, जबकि एक व्यक्ति के नाते आप इनका लाभ उठाने के इच्छुक भी हों। नैतिक आदर्शों को दुर्बल बनाने का प्रयास धीरे-धीरे समाज के प्रत्येक सदस्य पर पड़ता है। यह उस हिस्से को कमजोर कर देता है जो बाहर से दिखाई नहीं देता, मानव के स्वभाव की हर पवित्र चीज के प्रति कटु विश्वास जो देता है, जो बुढ़ापे की असली निशानी है। आपको याद रखना चाहिए कि यह राजनीतिक सभ्यता, देशभक्ति का यह सिध्दांत, कसौटी पर कसा नहीं गया है। प्राचीन ग्रीस का दीप उस धरती पर ही बुझा हुआ है, जहां वह सबसे पहले जलाया गया था। रोम की सत्ता मर चुकी है और अपनी विस्तृत साम्राज्य के खंडहरों के नीचे दबी पड़ी है। पर जिस सभ्यता का आधार समाज तथा मानव का आध्यात्मिक आदर्श रहा है, वह आज भी चीन में तथा भारत में जीवित है। आधुनिक युग की मशीनी शक्ति के आगे यह भले ही कमजोर तथा लघु लगती हो, लेकिन छोटे बीजों की तरह इसमें वह जीवन है, जो अंकुरित एवं विकसित होता है तथा समय आने पर इसकी कल्याणकारी शाखाओं पर फूल व फल लगते हैं और स्वर्ग इस पर अपनी कृपा-वर्षा करता रहता है। लेकिन सत्ता की बहुमंजिली इमारतों के खंडहरों तथा लालच की ध्वस्त मशीनरी को तो भगवान की वर्षा भी पुनर्जीवित नहीं कर सकती। वस्तुत: ये जीवन के लिए नहीं बल्कि जीवन के विरूध्द जाने वाले तत्व थे। ये उस विद्रोह के अवशेष हैं जिसने शाश्वत तत्व के सामने स्वयं को टुकड़े-टुकड़े कर लिया है।
लेकिन हम पर आरोप लगाया जाता है कि पौर्वात्य में हम जिन आदर्शों का पोषण करते हैं, वे गतिहीन हैं, कि इनमें ज्ञान व बल की नई प्रत्याशाओं को छू लेने की प्रेरक शक्ति नहीं है। हम जिन दार्शनिक पध्दतियों को अपना रहे हैं, वे पूर्व की बासी सभ्यताओं का मूल आधार हैं और बाहरी प्रमाणों की अवहेलना करती है। हम इनकी व्यक्तिनिष्ठ अवश्यंभाविता से संतुष्ट होकर निर्विकार बने रहते हैं।  इसके द्वारा यह सिध्द किया जा रहा है कि जब हमारा ज्ञान ही अस्पष्ट है, तब हमारे ज्ञान का पदार्थ भी अस्पष्ट ही होगा। पश्चिमी पर्यवेक्षक को हमारी सभ्यता मात्र तत्वमीमांसा लगती है, जैसे कि किसी बहरे व्यक्ति को पिऑनो बजाना संगीत नहीं, मात्र उंगलियों का संचालन लगता है। वह यह नहीं सोच पाता कि हमने यथार्थ के किसी गहरे आधार को खोज लिया है और उसी पर हमारे सभी नियम निर्मित हुए हैं।
बेशक यथार्थ के सभी सबूत उसकी अनुभूति पर निर्भर करते हैं। किसी भी दृश्य का यथार्थ इस बात पर निर्भर करता है कि आप से देख पा रहे हैं। किसी अविश्वासी व्यक्ति के सामने हमारे लिए यह सिध्द करना बहुत ही कठिन है कि हमारी सभ्यता किन्हीं अमूर्त अनुमानों की अस्पष्ट पध्दति नहीं है बल्कि इसने जो उपलब्ध किया है, यह यथार्थमूलक सत्य है- एक ऐसा सत्य जो मनुष्य के हृदय का उसका आश्रय व आहार प्रदान करता है।  इसने एक आंतरिक बोध का विकास किया है- अंतर्दृष्टि का बोध, समस्त परिमित पदार्थों में अपरिमित यथार्थ की अंतदृष्टि।
लेकिन उसका कहना है, ''आप कोई प्रगति नहीं कर रहे, आपमें कोई गति नहीं है।'' मैं उससे पूछता हूं, ''आप कैसे जानते हैं? आप प्रगति का निर्णय उसके लक्ष्य से ही कर सकते हैं। रेलवे ट्रेन की प्रगति अपने अंतिम स्टेशन की ओर बढ़ना है- यही उसकी गति है। लेकिन एक पूर्ण विकसित वृक्ष की गति ट्रेन जैसी नहीं होती, उसकी प्रगति तो जीवन के आंतरिक विकास की ओर होती है। वह प्रकाश की और उन्मुख रहकर उसे अपने पत्तों में ग्रहण करता है और चुपके से उस रस में परिवर्तित कर लेता है, यदि उसका जीवन है।''
हम सदियों से जीवित रहते आ रहे हैं, हम आज भी जीवित हैं, और हम एक ऐसे यथार्थ के आकांक्षी हैं जिसकी अनुभूति के स्तर पर कभी अंत नहीं होता। यह एक ऐसा यथार्थ है, जो मृत्यु के बाद भी बना रहता है, जो जीवन को ऐसा अर्थवान बनाता है कि सभी बुराइयां नष्ट हो जाती हैं, यह शांति व पवित्रता को स्थापित कर देता है, स्व के आनंदमय परित्याग में सहायक होता है। आंतरिक जीवन का यह प्रवर्धन एक जीवंत प्रबंधन है।  इसकी तब जरूरत पड़ती है, जब कोई युवक थककर तथा धूल-मिट्टी से सनकर घर लौटता है, जब कोई सैनिक घायल होता है, जब कोई संपत्ति गंवा देता है तथा उसका स्वाभिमान चूर-चूर हो चुका होता है, जब किसी मनुष्य का हृदय तथ्यों के ढेर में सत्य के लिए एवं विरोधी प्रवृत्तियों में सामरस्य के लिए रोता है। इसका मूल्य भौतिक चीजों को बढ़ाते रहने में नहीं बल्कि आध्यात्मिक परिपूर्णता में है।[रवीन्द्रनाथ टैगोर] साभार-देशबन्धु
कविगुरु के डेढ़ सौवें जन्मदिवस पर प्रस्तुत है यह लेख जिसमें गहन सभ्यता विमर्श है, साथ ही इसमें उनकी विराट विश्वदृष्टि का परिचय भी मिलता है।- संपादक

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