डॉ. गोवर्धन बंजारा
दलित साहित्य की दृष्टि से अतीत एक स्याह पृष्ठ है, जहां सिर्फ अपमान, घृणा, द्वेष और तिरस्कार है। अतीत के आदर्श उसके लिए खोखले, झूठे एवं छद्मपूर्ण हैं।
दलितेतर, लेखकों की प्रतीतियों से दलित लेखकों की प्रतीतियों का स्वरूप कुछ भिन्न है। उनका परिप्रेक्ष्य भिन्न है। वर्तमान और अतीत से उनका संबंध भिन्न है। क्योंकि तथाकथित सवर्ण समाज ने सदियों से दलितों का आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि अनेक दृष्टियों से शोषण ही किया है- उन्हें दूर ही रखा है। फलत: उनकी अपनी अलग दुनिया बनी। उनका रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, जीवन-शैली, सौंदर्य की अवधारणा भी तथाकथित सवर्ण समाज से भिन्न बनी। उन्हें उनका अपना दु:ख अन्यों से अलग प्रतीत होना स्वाभाविक है। दलित साहित्यकार उन्हीं दु:खदर्द एवं तल्ख अनुभवों को परिवर्तनकामी चेतना के साथ साहित्य में अभिव्यक्त करता है तो उसके साथ उसका पूरा परिवेश-पूरा संसार आता है और यही उसकी प्रामाणिकता, जीवंतता और कलात्मकता का प्रमाण है। सांस्कृतिक विभिन्नताओं के रहते हुए मूल्यांकन के एक-समान प्रतिमान हो ही नहीं सकते। दलित साहित्य के सौंदर्य में काल्पनिक, रोमांटिक, रंगीनियाँ नहीं है बल्कि जीवन के बहुआयामी सच का खुरदरापन है। उसमें निहित नकार, निषेध और विद्रोह के माध्यम से समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का विकास ही उसके सौंदर्य के मानदण्ड हैं।
दलित साहित्य की अपनी निजी विशेषता है। वह दलितों के सदियों के संताप-दु:ख, दारिद्रय, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, अन्याय, अत्याचार का दाहक दस्तावेज है, नारकीय यंत्रणा है और ये यंत्रणाएँ दलितों के जन्म से ही शुरू हो जाती हैं। अन्यायपूर्ण भारतीय समाज व्यवस्था में अनेक दु:ख केवल इस वर्ण में जन्म लेने से ही जुड़ जाते हैं। जिनसे अन्य वर्ण के लोग मुक्त हैं।
दलित साहित्यिक विमर्श के अंतर्गत इसके सौंदर्यशास्त्र अथवा आस्वादन के प्रतिमानों को लेकर दलित एवं दलितेतर विद्वानों में काफी मत-मतांतर रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि एवं शरणकुमार लिम्बाले ने तो इस विषय पर एक-एक पुस्तक भी लिखी है-जिनमें दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र की कतिपय कसौटियों का भी निर्धारण हुआ है। दलित साहित्यिकों के द्वारा इस साहित्य के आस्वादन के लिए अलग सौंदर्यशास्त्र की मांग होती रही है। उनका मानना है कि परम्परावादी सौंदर्यशास्त्रीय मानदंडों-प्रतिमानों के आधार पर दलित साहित्य को नहीं समझा जा सकता है। दलितेतर विद्वानों का मानना है कि दलित वर्ग से आए लेखकों में लिखने की तड़प जागी है, इससे साहित्य के अनुभव-जगत और सोच में श्रीवृध्दि होगी, किन्तु उनकी कमजोरी को भी साहित्य की एक नवीन उपलब्धि मानकर, उसके मूल्यांकन का एक नया आधार खोजा जाए, यह उचित नहीं है। साहित्य में आरक्षण नहीं चल सकता। नितांत भिन्न इन विचारों पर अपनी टिप्पणी (राय) देने से पहले इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वस्तुत: दलित साहित्य के लिए जो अलग सौंदर्यशास्त्र की मांग होती है इसके पीछे क्या कारण हैं?
गौरतलब है कि दलित साहित्यकारों के लिए दलित साहित्य महज एक साहित्यिक आंदोलन मात्र नहीं है, किन्तु अपनी अस्मिता, अपनी पहचान एवं मुक्ति-संघर्ष का साहित्य है। इसीलिए साहित्य-निर्मित एवं मूल्यांकन की प्रक्रिया में वह सामाजिक-बोध और प्रतिबध्दता को महत्व देता है। अब उसे दया, करूणा या सहानुभूति नहीं, अपना अधिकार चाहिए। वह अपनी लड़ाई खुद लड़ना चाहता है और उन बर्बर परंपराओं के तिलस्म को तोड़ना चाहता है, जो सदा से रूढ़ और जर्जर होने पर भी सदैव श्रेष्ठ एवं पूज्यनीय रही है। इसी प्रकार पारंपरिक सौंदर्य-शास्त्र, काव्य-शास्त्र को भी सामंती मूल्यों की अभिव्यक्ति मानकर अपने लिए त्याज्य समझता है। इस संदर्भ में डॉ. शिवकुमार मिश्र का मत ध्यान देने योग्य है ''जिस काव्य-शास्त्र अथवा साहित्य-शास्त्र द्वारा निर्धारित प्रतिमानों से रस लेकर सदियों-सहस्राब्दियों से भारतीय रचनाशीलता विकसित और पल्लवित होती रही है, महान रचनाकारों की विश्व-विख्यात रचनाएं जिसकी कीर्तिपताका फहरा रही हैं, वह काव्य-शास्त्र या साहित्यशास्त्र भी अंतत: उसे कुलीन मानसिकता की देन है, जो हमारे सामाजिक विधान की भी सृष्टा है। इस काव्य-शास्त्र में अभिजनोचित रुचियों, रुझानों, संस्कारों और सौंदर्यबोध का ही तो वर्चस्व है। उच्च कुलोत्पन्न, धीरोदात्त व्यक्ति ही इसमें नायकत्व का अधिकारी कहा गया है। सौंदर्य के प्रतिमानों और भावों का गांभीर्य तथा उावलता भी यहां अभिजनोचित रुचियों के आधार पर तय की गई है। इसी प्रकार प्राचीन साहित्य-परम्परा पर प्रहार करते हुए श्री पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी कहते हैं- ''वर्ण-व्यवस्था के अमानवीय बंधनों ने शताबिद्यों से दलितों के भीतर हीनता भाव को पुख्ता किया है। धर्म और संस्कृति की आड़ में साहित्य ने भी इस भावना की नींव सुदृढ़ की है, जो समाज के अनिवार्य और अंतसंबंधों को खंडित करने में सहायक रहा है।''
वस्तुत: कला अपने आप में स्थिर और अपरिवर्तनशील नहीं बल्कि अस्थिर और परिवर्तनशील हैं। कला का स्वरूप असीमित और व्यापक होने के कारण उसकी एक निश्चित कसौटी पर साहित्य को परखना औचित्यपूर्ण नहीं है। बदलती संस्कृति और समाज के साथ साहित्य भी बदलता है। लेकिन यदि इनके साथ-साथ कला के प्रतिमान नहीं बदलते हैं तो साहित्य और समीक्षा के बीच संतुलित संबंध कैसे संभव है? आस्वाद के भिन्न-भिन्न स्तर एवं भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएं हैं। एक को जो आस्वादपरक लगे, वह दूसरे को भी आस्वादपरक लगे- यह आवश्यक नहीं। जैसे कि पाश्चात्य देशों में जहां सूर्यदर्शन दुर्लभ होता है, वहां धूप आनंद और सुख का प्रतीक मानी जाती है, किन्तु हमारे यहां ऐसा नहीं है। यहां तो धूप को सांसारिक दु:ख ताप एवं कष्ट के रूप में माना गया है। इसी प्रकार यूरोपीय देशों में शारीरिक सुन्दरता के जो मापदण्ड थे वे गोरों को केन्द्रों में रखकर बनाये गये थे। उदाहरणार्थ सुन्दर नाक का पैमाना तीखी और नुकीली नाक है, ऐसा इसलिए था कि गोरों की नाक नुकीली होती है। अत: कवि या कलाकार की कल्पना भी ऐसे नाक वाले स्त्री-पुरुषों को रचती रही। दूसरी ओर प्राय: सभी अश्वेत लोगों की नाक चौड़ी और फैली होती है, तो उनके लिए सुन्दरता के पैमाने में नाक की सुन्दरता के पैमाने क्या होंगे? क्या नुकीली और तीखी नाक की कल्पना बेमानी नहीं होगी। फिर अश्वेतों में तो कोई सुन्दर ही नहीं होगा। अत: सुन्दरता की कसौटी अपनी-अपनी संस्कृति और समाज के वैशिष्टय पर आधारित होनी चाहिए। अत: दलित साहित्य के आस्वादन के प्रतिमान उसी साहित्य में ढूंढ़ने होंगे। परम्परागत कसौटियां इसके साथ न्याय नहीं कर पायेंगी। इसीलिए तो शरणकुमार लिम्बाले अपनी प्रसिध्द पुस्तक दलित साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र लिखते हैं- किसी के लेखन को साहित्य कहना हो तो उस पर हमारे साहित्य की कसौटियां ही लागू होंगी, ऐसी भूमिका लेना सांस्कृतिक तानाशाही का लक्षण है। साहित्य की कसौटियां सभी कालों में स्थिर नहीं रहती बदलते काल के साथ साहित्य भी बदलता है और उसकी समीक्षा में भी बदलाव की सम्भावना होती है। रूढ़ साहित्यिक कसौटी के आधार पर नई साहित्यिक धारा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। युध्दरत आम आदमी की संपादिका रमणिका गुप्ता भी नए सौंदर्य शास्त्र को इन शब्दों में खारिज करती है- ''चूंकि ये अभिजात वर्ग जातीय अहम् और दंभ को अपना संस्कार और गुण मानते हैं, इसलिए कला, शिल्प भाषा-विन्यास, शैली-चमत्कार, मिथक और दुरूहता उनके सौंदर्यशास्त्र की कसौटी हैं जिनकी कोई दिशा नहीं है, केवल लक्ष्य है- आनंदरस, सुख-मदमस्ती-मदहोशी। वस्तु उनके लिए गौण है। अभिव्यंजना की शैली को माँज-माँजकर, पीतल को चमकाकर सोना साबित करने का छल इनके साहित्य का प्रमुख हिस्सा रहा है। वस्तु के नाम पर विषय संदर्भ के नाम पर इनके पास रहे हैं- राजा, जाति, धर्म या फिर युध्द, प्रेम और औरत।''
दलित साहित्य की अपनी निजी विशेषता है। वह दलितों के सदियों के संताप-दु:ख, दारिद्रय, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, अन्याय, अत्याचार का दाहक दस्तावेज है, नारकीय यंत्रणा है और ये यंत्रणाएँ दलितों के जन्म से ही शुरू हो जाती हैं। अन्यायपूर्ण भारतीय समाज व्यवस्था में अनेक दु:ख केवल इस वर्ण में जन्म लेने से ही जुड़ जाते हैं। जिनसे अन्य वर्ण के लोग मुक्त हैं। यही कारण है कि दलित साहित्य समीक्षा की रूढ़ कसौटियों, मानदंडों एवं सौंदर्यशास्त्र संकल्पनाओं को खारिज करते हुए अपने नये प्रतिमान गढ़ता है। Elener Zelliot के शब्दों में-
दलित साहित्य की अपनी निजी विशेषता है। वह दलितों के सदियों के संताप-दु:ख, दारिद्रय, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, अन्याय, अत्याचार का दाहक दस्तावेज है, नारकीय यंत्रणा है और ये यंत्रणाएँ दलितों के जन्म से ही शुरू हो जाती हैं। अन्यायपूर्ण भारतीय समाज व्यवस्था में अनेक दु:ख केवल इस वर्ण में जन्म लेने से ही जुड़ जाते हैं। जिनसे अन्य वर्ण के लोग मुक्त हैं।
दलित साहित्यिक विमर्श के अंतर्गत इसके सौंदर्यशास्त्र अथवा आस्वादन के प्रतिमानों को लेकर दलित एवं दलितेतर विद्वानों में काफी मत-मतांतर रहा है। ओमप्रकाश वाल्मीकि एवं शरणकुमार लिम्बाले ने तो इस विषय पर एक-एक पुस्तक भी लिखी है-जिनमें दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र की कतिपय कसौटियों का भी निर्धारण हुआ है। दलित साहित्यिकों के द्वारा इस साहित्य के आस्वादन के लिए अलग सौंदर्यशास्त्र की मांग होती रही है। उनका मानना है कि परम्परावादी सौंदर्यशास्त्रीय मानदंडों-प्रतिमानों के आधार पर दलित साहित्य को नहीं समझा जा सकता है। दलितेतर विद्वानों का मानना है कि दलित वर्ग से आए लेखकों में लिखने की तड़प जागी है, इससे साहित्य के अनुभव-जगत और सोच में श्रीवृध्दि होगी, किन्तु उनकी कमजोरी को भी साहित्य की एक नवीन उपलब्धि मानकर, उसके मूल्यांकन का एक नया आधार खोजा जाए, यह उचित नहीं है। साहित्य में आरक्षण नहीं चल सकता। नितांत भिन्न इन विचारों पर अपनी टिप्पणी (राय) देने से पहले इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि वस्तुत: दलित साहित्य के लिए जो अलग सौंदर्यशास्त्र की मांग होती है इसके पीछे क्या कारण हैं?
गौरतलब है कि दलित साहित्यकारों के लिए दलित साहित्य महज एक साहित्यिक आंदोलन मात्र नहीं है, किन्तु अपनी अस्मिता, अपनी पहचान एवं मुक्ति-संघर्ष का साहित्य है। इसीलिए साहित्य-निर्मित एवं मूल्यांकन की प्रक्रिया में वह सामाजिक-बोध और प्रतिबध्दता को महत्व देता है। अब उसे दया, करूणा या सहानुभूति नहीं, अपना अधिकार चाहिए। वह अपनी लड़ाई खुद लड़ना चाहता है और उन बर्बर परंपराओं के तिलस्म को तोड़ना चाहता है, जो सदा से रूढ़ और जर्जर होने पर भी सदैव श्रेष्ठ एवं पूज्यनीय रही है। इसी प्रकार पारंपरिक सौंदर्य-शास्त्र, काव्य-शास्त्र को भी सामंती मूल्यों की अभिव्यक्ति मानकर अपने लिए त्याज्य समझता है। इस संदर्भ में डॉ. शिवकुमार मिश्र का मत ध्यान देने योग्य है ''जिस काव्य-शास्त्र अथवा साहित्य-शास्त्र द्वारा निर्धारित प्रतिमानों से रस लेकर सदियों-सहस्राब्दियों से भारतीय रचनाशीलता विकसित और पल्लवित होती रही है, महान रचनाकारों की विश्व-विख्यात रचनाएं जिसकी कीर्तिपताका फहरा रही हैं, वह काव्य-शास्त्र या साहित्यशास्त्र भी अंतत: उसे कुलीन मानसिकता की देन है, जो हमारे सामाजिक विधान की भी सृष्टा है। इस काव्य-शास्त्र में अभिजनोचित रुचियों, रुझानों, संस्कारों और सौंदर्यबोध का ही तो वर्चस्व है। उच्च कुलोत्पन्न, धीरोदात्त व्यक्ति ही इसमें नायकत्व का अधिकारी कहा गया है। सौंदर्य के प्रतिमानों और भावों का गांभीर्य तथा उावलता भी यहां अभिजनोचित रुचियों के आधार पर तय की गई है। इसी प्रकार प्राचीन साहित्य-परम्परा पर प्रहार करते हुए श्री पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी कहते हैं- ''वर्ण-व्यवस्था के अमानवीय बंधनों ने शताबिद्यों से दलितों के भीतर हीनता भाव को पुख्ता किया है। धर्म और संस्कृति की आड़ में साहित्य ने भी इस भावना की नींव सुदृढ़ की है, जो समाज के अनिवार्य और अंतसंबंधों को खंडित करने में सहायक रहा है।''
वस्तुत: कला अपने आप में स्थिर और अपरिवर्तनशील नहीं बल्कि अस्थिर और परिवर्तनशील हैं। कला का स्वरूप असीमित और व्यापक होने के कारण उसकी एक निश्चित कसौटी पर साहित्य को परखना औचित्यपूर्ण नहीं है। बदलती संस्कृति और समाज के साथ साहित्य भी बदलता है। लेकिन यदि इनके साथ-साथ कला के प्रतिमान नहीं बदलते हैं तो साहित्य और समीक्षा के बीच संतुलित संबंध कैसे संभव है? आस्वाद के भिन्न-भिन्न स्तर एवं भिन्न-भिन्न प्रक्रियाएं हैं। एक को जो आस्वादपरक लगे, वह दूसरे को भी आस्वादपरक लगे- यह आवश्यक नहीं। जैसे कि पाश्चात्य देशों में जहां सूर्यदर्शन दुर्लभ होता है, वहां धूप आनंद और सुख का प्रतीक मानी जाती है, किन्तु हमारे यहां ऐसा नहीं है। यहां तो धूप को सांसारिक दु:ख ताप एवं कष्ट के रूप में माना गया है। इसी प्रकार यूरोपीय देशों में शारीरिक सुन्दरता के जो मापदण्ड थे वे गोरों को केन्द्रों में रखकर बनाये गये थे। उदाहरणार्थ सुन्दर नाक का पैमाना तीखी और नुकीली नाक है, ऐसा इसलिए था कि गोरों की नाक नुकीली होती है। अत: कवि या कलाकार की कल्पना भी ऐसे नाक वाले स्त्री-पुरुषों को रचती रही। दूसरी ओर प्राय: सभी अश्वेत लोगों की नाक चौड़ी और फैली होती है, तो उनके लिए सुन्दरता के पैमाने में नाक की सुन्दरता के पैमाने क्या होंगे? क्या नुकीली और तीखी नाक की कल्पना बेमानी नहीं होगी। फिर अश्वेतों में तो कोई सुन्दर ही नहीं होगा। अत: सुन्दरता की कसौटी अपनी-अपनी संस्कृति और समाज के वैशिष्टय पर आधारित होनी चाहिए। अत: दलित साहित्य के आस्वादन के प्रतिमान उसी साहित्य में ढूंढ़ने होंगे। परम्परागत कसौटियां इसके साथ न्याय नहीं कर पायेंगी। इसीलिए तो शरणकुमार लिम्बाले अपनी प्रसिध्द पुस्तक दलित साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र लिखते हैं- किसी के लेखन को साहित्य कहना हो तो उस पर हमारे साहित्य की कसौटियां ही लागू होंगी, ऐसी भूमिका लेना सांस्कृतिक तानाशाही का लक्षण है। साहित्य की कसौटियां सभी कालों में स्थिर नहीं रहती बदलते काल के साथ साहित्य भी बदलता है और उसकी समीक्षा में भी बदलाव की सम्भावना होती है। रूढ़ साहित्यिक कसौटी के आधार पर नई साहित्यिक धारा का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। युध्दरत आम आदमी की संपादिका रमणिका गुप्ता भी नए सौंदर्य शास्त्र को इन शब्दों में खारिज करती है- ''चूंकि ये अभिजात वर्ग जातीय अहम् और दंभ को अपना संस्कार और गुण मानते हैं, इसलिए कला, शिल्प भाषा-विन्यास, शैली-चमत्कार, मिथक और दुरूहता उनके सौंदर्यशास्त्र की कसौटी हैं जिनकी कोई दिशा नहीं है, केवल लक्ष्य है- आनंदरस, सुख-मदमस्ती-मदहोशी। वस्तु उनके लिए गौण है। अभिव्यंजना की शैली को माँज-माँजकर, पीतल को चमकाकर सोना साबित करने का छल इनके साहित्य का प्रमुख हिस्सा रहा है। वस्तु के नाम पर विषय संदर्भ के नाम पर इनके पास रहे हैं- राजा, जाति, धर्म या फिर युध्द, प्रेम और औरत।''
दलित साहित्य की अपनी निजी विशेषता है। वह दलितों के सदियों के संताप-दु:ख, दारिद्रय, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान, अन्याय, अत्याचार का दाहक दस्तावेज है, नारकीय यंत्रणा है और ये यंत्रणाएँ दलितों के जन्म से ही शुरू हो जाती हैं। अन्यायपूर्ण भारतीय समाज व्यवस्था में अनेक दु:ख केवल इस वर्ण में जन्म लेने से ही जुड़ जाते हैं। जिनसे अन्य वर्ण के लोग मुक्त हैं। यही कारण है कि दलित साहित्य समीक्षा की रूढ़ कसौटियों, मानदंडों एवं सौंदर्यशास्त्र संकल्पनाओं को खारिज करते हुए अपने नये प्रतिमान गढ़ता है। Elener Zelliot के शब्दों में-
New anguage, new experiences, new sources, of poetic inspiration, new entrants in to a field previously dominted by high castes-these are all non-controversial accomplishments of Dalit Sahitya. There is however, much controversy. Crittics have asked, can there be Dalit Literature, regardless of subject? Can only Dalit write Dalit Literature? Can educcated ex, untouchables whose life style is now some what middle class be considered dalit? These in the Dalit school would say : Yes there is Dalit literature.”दलित साहित्य की दृष्टि से अतीत एक स्याह पृष्ठ है, जहां सिर्फ अपमान, घृणा, द्वेष और तिरस्कार है। अतीत के आदर्श उसके लिए खोखले, झूठे एवं छद्मपूर्ण हैं। दलितेतर, लेखकों की प्रतीतियों से दलित लेखकों की प्रतीतियों का स्वरूप कुछ भिन्न है। उनका परिप्रेक्ष्य भिन्न है। वर्तमान और अतीत से उनका संबंध भिन्न है। क्योंकि तथाकथित सवर्ण समाज ने सदियों से दलितों का आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आदि अनेक दृष्टियों से शोषण ही किया है- उन्हें दूर ही रखा है। फलत: उनकी अपनी अलग दुनिया बनी। उनका रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, जीवन-शैली, सौंदर्य की अवधारणा भी तथाकथित सवर्ण समाज से भिन्न बनी। उन्हें उनका अपना दु:ख अन्यों से अलग प्रतीत होना स्वाभाविक है। दलित साहित्यकार उन्हीं दु:खदर्द एवं तल्ख अनुभवों को परिवर्तनकामी चेतना के साथ साहित्य में अभिव्यक्त करता है तो उसके साथ उसका पूरा परिवेश-पूरा संसार आता है और यही उसकी प्रामाणिकता, जीवंतता और कलात्मकता का प्रमाण है। सांस्कृतिक विभिन्नताओं के रहते हुए मूल्यांकन के एक-समान प्रतिमान हो ही नहीं सकते। दलित साहित्य के सौंदर्य में काल्पनिक, रोमांटिक, रंगीनियाँ नहीं है बल्कि जीवन के बहुआयामी सच का खुरदरापन है। उसमें निहित नकार, निषेध और विद्रोह के माध्यम से समानता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व का विकास ही उसके सौंदर्य के मानदण्ड हैं। सदियों से दबा आक्रोश शब्द बम बनकर फूटता है, तब भाषा और कला उसे सीमाबध्द करने में अक्षम हो जाती हैं। सच तो यह है कि दलित रचनाकार न तो लुक-छिपकर या घुमा-फिराकर बात कहने का हिमायती है। न आभिजात्य भाषा प्रयोग का और न ही कलात्मक प्रतीकों का। कल्पना और पाखंड पर आधारित पध्दति और मापदण्ड उसके लिए त्याज्य हैं
''जिंदगी सीने के लिए,
चमड़ा काटता है वह,
किसी की जेब या गला नहीं।''
अर्थात् दलित साहित्यकार अपने जीवनानुभवों को ऐसी भाषा में व्यक्त करता है, जिसमें भटकाव या उलझन नहीं, बल्कि एक सरलता, सहजता एवं स्पष्टता होती है। संप्रेषणीयता दलित साहित्य का एक महत्वपूर्ण आयाम है। जिन यातनाओं-संघर्षों से वह गुजरता है, सामाजिक शोषण की जिन व्यवस्थाओं से उसका सामना है, दलित साहित्य में वह पूरी तल्खी से व्यक्त हुआ है। देखिए कंवल भारती की ये काव्य पंक्तियाँ
''यह बताओ
बलात्कार की शिकार
तुम्हारी माँ की भाषा कैसी होगी?
ठाकुर की हवेली में दम तोड़ती
तुम्हारी बहिन के शब्द
क्या सुन्दर होंगे?''
यहाँ कवि व्यवस्था के नियंताओं पर सीधे प्रहार की मुद्रा में दिखाई देता है। एन. सिंह अपनी प्रसिध्द पुस्तक ''मेरा दलित चिंतन'' में लिखते हैं- दलित साहित्य का शब्द सौंदर्य प्रहार में है, सम्मोहन में नहीं। वह समाज और साहित्य में शताब्दियों से चली आ रही सड़ी-गली परम्पराओं पर बेदर्दी से चोट करता है। वह शोषण और अत्याचार के बीच हताश जीवन जीने वाले दलित को लड़ना सिखाता है, वह सिर पर पत्थर ढोने वाली मजदूर महिला को उसके अधिकारों के विषय में बतलाता है। ...उसके लिए जिस शाब्दिक प्रहार क्षमता की आवश्यकता है, वह उसमें है और यही दलित साहित्य का शिल्प-सौंदर्य है।''
दलित साहित्य में निहित यह आक्रोश नपुंसक नहीं है, बल्कि दमनकारी व्यवस्थातंत्र की नींव हिलाने वाला है और दलित एवं शोषित वर्ग के अधिकारों हेतु संघर्ष की चेतना जगाने वाला है। मौन, दहशत और भय का साम्राज्य देने वाले सामाजिक षड़यंत्र का पता चलते ही दलित साहित्यकारों को शब्द की शक्ति का एहसास हुआ और उसे अपने संघर्ष में कारगर हथियार के रूप में प्रयोग किया। अत: दलित साहित्य में आक्रोश की भूमिका अनिवार्य एवं अपरिहार्य है।
दलित साहित्य में नकार-निषेध विद्रोह-प्रतिकार की एक जबरदस्त अनुगूंज है। इस नकार-निषेध के पीछे स्वस्थ समाज-निर्माण की भावना है, जो समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व एवं न्याय जैसे जीवन-मूल्यों पर आधारित हो। यह नकार और निषेध यहां जाति-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी सोच एवं अन्याय के प्रति है। वह भाग्य और भगवान, हिन्दू धर्मशास्त्रों एवं हिन्दू संस्कृति की पहचान रखने वाले मिथकों, प्रतीकों एवं विचारों को नकारता है। नकार को दलित साहित्य के सौंदर्य का महत्वपूर्ण तत्व बतलाते हुए डॉ. महीपसिंह लिखते हैं- जब तक विषमता, अन्याय शोषण, दास्य आर्थिक तथा सांस्कृतिक भेदभाव और वर्ग कलहों से निर्मित अंतर्विरोध एवं अंतत: संघर्ष जारी रहेगा तब तक दलितों के क्रांतिकारी जीवन से तथा क्रांतिक्षम युगचेतना से निर्मित दलित साहित्य के प्राणतत्व नकार एवं क्रांति इन्हीं तत्वों पर टिके रहने वाले हैं, जिससे साहित्य को अस्मिता, सौंदर्य एवं सामर्थ्य प्राप्त होगा।''
दलित साहित्य के सौंदर्य का एक और महत्वपूर्ण आयाम है- वेदना-व्यथा, यंत्रणा, बैचेनी या विकलता। दलित साहित्य में दलितों की व्यथा-कथा एवं सदियों के संताप की अभिव्यक्ति हुई है। यह व्यथा-कथा दलितों का प्रलाप मात्र नहीं है, बल्कि समतामूलक समाज निर्माण के लिए हमें सोचने विचारने के लिए विवश करती है। यह वेदना-व्यथा मूल्यगर्भा होने से इसकी बैचेनी भी हमें आनंद प्रदान करती है। दलित साहित्य में दलितों की व्यथा-कथा का रोना-धोना ही नहीं है, बल्कि प्रेम, आनंद और सौंदर्य की भी अभिव्यक्ति है। अपनी लहलहाती फसल को देखकर दलित व्यक्ति भी प्रसन्न होता है। दलित दंपति भी परस्पर प्रेम और सौंदर्य से आकर्षित होते हैं, मीठे मजाक और मनुहार करते हैं। पलने में झूलते बालकृष्ण को देखकर माता यशोदा जिस प्रकार स्नेह बरसाती थी, उसी प्रकार दलित स्त्री भी अपने बच्चे को दुलारती है। परंतु सौंदर्य, आनंद और प्रेम यहां जीवन-संघर्षों और कर्म में है।
दलित लेखन अपने बाप-दादाओं और स्वयं अपने जातीय और वर्गीय अपमान तथा नारकीय यंत्रणा के भोक्ता रहे हैं। अपने भोगे हुए तल्ख अनुभवों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति दलित साहित्य में हुई है। दलित साहित्य में मैं की अनुभूति (अपमान, तिरस्कार, वेदना-व्यथा) हम की अनुभूति है। यह दलित साहित्य की अपनी एक अलग पहचान है। स्वानुभूति की भांति परानुभूति भी स्वागतेय है, बशर्ते कि उसमें ईमानदारी हो और यथास्थिति को बदलने की सच्ची छटपटाहट हो।
दलित साहित्य पर फूहड़ता और अनगढ़ता का आरोप लगाया जाता है, परन्तु यह अनगढ़ता ही तो उसकी विशेषता है। उसका सौंदर्य है। गमलों में सजे फूल-पौधों का अपना एक सौंदर्य है। बाग-बगीचों में कटे-छंटे, निश्चित आकार के पेड़-पौधों का अपना एक सौंदर्य है, उसी प्रकार विस्तृत वनस्थली का अपना एक अलग सौंदर्य है और कदाचित गमलों तथा बाग-बगीचे के पेड़-पौधों से अधिक चित्ताकर्षक सौंदर्य। सच तो यह है कि अपनी अनगढ़ता के रहते हुए भी दलित साहित्य ने अपनी संवेदना को पूरी सिद्दत से व्यक्त किया है और यही इसका खरा सौंदर्य है। दलित साहित्य को पृथक सत्ता दिलाने वाली उसकी कुछ पैमाने निर्धारित किए जा सकते हैं, वे हैं- निषेध, नकार, आक्रोश, विद्रोह, अस्मिताबोध, स्वाभिमान, अस्तित्व की निरंतर तलाश, समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय की कामना, सामाजिक उत्थान, आर्थिक भौतिक उत्कर्ष, मानवीय अधिकारों की जांच पड़ताल, सपाटबयानी-संप्रेषणीयता-सहजता, यातना, वेदना और बेचैनी, अनुभूति की प्रामाणिकता आदि-आदि। दलित साहित्य के सौंदर्य-शास्त्र के उपर्युक्त तत्वों का निर्धारण इसके अब-तक के ऐतिहासिक विकासक्रम को दृष्टिपथ में रखकर किया गया है जो अपने आप में अंतिम नहीं है। आने वाले समय में अनेक परिवर्तन और परिवर्धन की आवश्यकता है।
इस प्रकार कला का स्वरूप असीम और व्यापक होने से उसकी निश्चित कसौटी बनाना मुश्किल ही नहीं असंभव है क्योंकि साहित्य या कला के ऐतिहासिक विकासक्रम में समयांतर पर नए-नए भाव-बोध, नई-नई वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित होती रही है। उसी के अनुरूप अभिव्यक्ति के नये-नये औजारों का इस्तेमाल होता रहा है। अत: समय समय पर ये कसौटियां भी बदलती रही हैं। जैसे कि छायावाद अपनी कुछ नवीन कसौटियां ले आया। छायावाद के अस्त होते ही ये कसौटियां फिर बदलीं। परंपरित काव्य शास्त्र की कसौटियां आधुनिक साहित्य पर लागू नहीं की जा सकती। अगर ऐसा नहीं होता तो मुक्तिबोध को नए साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र नामवर सिंह को कविता के नए प्रतिमान जैसी पुस्तकें न लिखनी पड़ती। स्वयं प्रेमचंद जी को भी यह महसूस होने लगा था कि साहित्य को समझने और उसके आस्वादन के लिए नए मानदण्डों की आवश्यकताएं हैं और सुन्दरता की परंपरागत कसौटियां अब ज्यादा कारगर नहीं रह गई हैं। जबकि उस समय दलित साहित्य का उदय भी नहीं हुआ था। तात्पर्य यह कि साहित्य में जब-जब नई चेतना से नया कुछ लिखा गया तब-तब बनी बनाई या पूर्ववर्ती कसौटियां बेमानी सिध्द हुई हैं। दलित साहित्य भी हिन्दी में नवीन चेतना लेकर आया है, जिसमें अत्यंत विशुध्द जीवनानुभव रूपायित हो रहा है।
समीक्षा से सामान्यत: यह अपेक्षा रहती है कि वह साहित्य रूपी लता की पोषिका बने। समीक्षा साहित्य लता के पोषण के अनुकूल तभी बन सकती है, जब समीक्षक कवि की दृष्टि एवं उद्देश्यों को दृष्टिपथ में रखे। अर्थात् जो साहित्य जिस उद्देश्य से रचा गया हो, उसी के आधार पर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। दलित साहित्य का उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना नहीं है। वह कार्य के लिए प्रवृत्त करने वाला साहित्य है। वर्ण और जातिप्रथा के आधार पर फैलाई गई विषमता के विरुध्द उसने संघर्ष की भूमिका अपनाई है। यह संघर्ष ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ है और हिन्दी का सौंदर्य-शास्त्र संस्कृत से प्रभावित है, अत: ये कसौटियां दलित साहित्य के मूल्यांकन करने के लिए देखना यह चाहिए कि कलाकार में सामाजिक प्रतिबध्दता है या नहीं, उसकी रचना में स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा एवं न्याय आदि जीवनमूल्यों का उत्कर्ष है या नहीं और पाठकों को उन कारणों पर धावा बोलने की सोच शक्ति प्रदान कराती है। या नहीं। शरणकुमार लिम्बाले के शब्दों में कहें तो - जो कलाकृति अधिकाधिक दलित चेतना जागृत करेगी वह कलाकृति श्रेष्ठ है।''
''जिंदगी सीने के लिए,
चमड़ा काटता है वह,
किसी की जेब या गला नहीं।''
अर्थात् दलित साहित्यकार अपने जीवनानुभवों को ऐसी भाषा में व्यक्त करता है, जिसमें भटकाव या उलझन नहीं, बल्कि एक सरलता, सहजता एवं स्पष्टता होती है। संप्रेषणीयता दलित साहित्य का एक महत्वपूर्ण आयाम है। जिन यातनाओं-संघर्षों से वह गुजरता है, सामाजिक शोषण की जिन व्यवस्थाओं से उसका सामना है, दलित साहित्य में वह पूरी तल्खी से व्यक्त हुआ है। देखिए कंवल भारती की ये काव्य पंक्तियाँ
''यह बताओ
बलात्कार की शिकार
तुम्हारी माँ की भाषा कैसी होगी?
ठाकुर की हवेली में दम तोड़ती
तुम्हारी बहिन के शब्द
क्या सुन्दर होंगे?''
यहाँ कवि व्यवस्था के नियंताओं पर सीधे प्रहार की मुद्रा में दिखाई देता है। एन. सिंह अपनी प्रसिध्द पुस्तक ''मेरा दलित चिंतन'' में लिखते हैं- दलित साहित्य का शब्द सौंदर्य प्रहार में है, सम्मोहन में नहीं। वह समाज और साहित्य में शताब्दियों से चली आ रही सड़ी-गली परम्पराओं पर बेदर्दी से चोट करता है। वह शोषण और अत्याचार के बीच हताश जीवन जीने वाले दलित को लड़ना सिखाता है, वह सिर पर पत्थर ढोने वाली मजदूर महिला को उसके अधिकारों के विषय में बतलाता है। ...उसके लिए जिस शाब्दिक प्रहार क्षमता की आवश्यकता है, वह उसमें है और यही दलित साहित्य का शिल्प-सौंदर्य है।''
दलित साहित्य में निहित यह आक्रोश नपुंसक नहीं है, बल्कि दमनकारी व्यवस्थातंत्र की नींव हिलाने वाला है और दलित एवं शोषित वर्ग के अधिकारों हेतु संघर्ष की चेतना जगाने वाला है। मौन, दहशत और भय का साम्राज्य देने वाले सामाजिक षड़यंत्र का पता चलते ही दलित साहित्यकारों को शब्द की शक्ति का एहसास हुआ और उसे अपने संघर्ष में कारगर हथियार के रूप में प्रयोग किया। अत: दलित साहित्य में आक्रोश की भूमिका अनिवार्य एवं अपरिहार्य है।
दलित साहित्य में नकार-निषेध विद्रोह-प्रतिकार की एक जबरदस्त अनुगूंज है। इस नकार-निषेध के पीछे स्वस्थ समाज-निर्माण की भावना है, जो समानता, स्वतंत्रता, बन्धुत्व एवं न्याय जैसे जीवन-मूल्यों पर आधारित हो। यह नकार और निषेध यहां जाति-व्यवस्था, ब्राह्मणवादी सोच एवं अन्याय के प्रति है। वह भाग्य और भगवान, हिन्दू धर्मशास्त्रों एवं हिन्दू संस्कृति की पहचान रखने वाले मिथकों, प्रतीकों एवं विचारों को नकारता है। नकार को दलित साहित्य के सौंदर्य का महत्वपूर्ण तत्व बतलाते हुए डॉ. महीपसिंह लिखते हैं- जब तक विषमता, अन्याय शोषण, दास्य आर्थिक तथा सांस्कृतिक भेदभाव और वर्ग कलहों से निर्मित अंतर्विरोध एवं अंतत: संघर्ष जारी रहेगा तब तक दलितों के क्रांतिकारी जीवन से तथा क्रांतिक्षम युगचेतना से निर्मित दलित साहित्य के प्राणतत्व नकार एवं क्रांति इन्हीं तत्वों पर टिके रहने वाले हैं, जिससे साहित्य को अस्मिता, सौंदर्य एवं सामर्थ्य प्राप्त होगा।''
दलित साहित्य के सौंदर्य का एक और महत्वपूर्ण आयाम है- वेदना-व्यथा, यंत्रणा, बैचेनी या विकलता। दलित साहित्य में दलितों की व्यथा-कथा एवं सदियों के संताप की अभिव्यक्ति हुई है। यह व्यथा-कथा दलितों का प्रलाप मात्र नहीं है, बल्कि समतामूलक समाज निर्माण के लिए हमें सोचने विचारने के लिए विवश करती है। यह वेदना-व्यथा मूल्यगर्भा होने से इसकी बैचेनी भी हमें आनंद प्रदान करती है। दलित साहित्य में दलितों की व्यथा-कथा का रोना-धोना ही नहीं है, बल्कि प्रेम, आनंद और सौंदर्य की भी अभिव्यक्ति है। अपनी लहलहाती फसल को देखकर दलित व्यक्ति भी प्रसन्न होता है। दलित दंपति भी परस्पर प्रेम और सौंदर्य से आकर्षित होते हैं, मीठे मजाक और मनुहार करते हैं। पलने में झूलते बालकृष्ण को देखकर माता यशोदा जिस प्रकार स्नेह बरसाती थी, उसी प्रकार दलित स्त्री भी अपने बच्चे को दुलारती है। परंतु सौंदर्य, आनंद और प्रेम यहां जीवन-संघर्षों और कर्म में है।
दलित लेखन अपने बाप-दादाओं और स्वयं अपने जातीय और वर्गीय अपमान तथा नारकीय यंत्रणा के भोक्ता रहे हैं। अपने भोगे हुए तल्ख अनुभवों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति दलित साहित्य में हुई है। दलित साहित्य में मैं की अनुभूति (अपमान, तिरस्कार, वेदना-व्यथा) हम की अनुभूति है। यह दलित साहित्य की अपनी एक अलग पहचान है। स्वानुभूति की भांति परानुभूति भी स्वागतेय है, बशर्ते कि उसमें ईमानदारी हो और यथास्थिति को बदलने की सच्ची छटपटाहट हो।
दलित साहित्य पर फूहड़ता और अनगढ़ता का आरोप लगाया जाता है, परन्तु यह अनगढ़ता ही तो उसकी विशेषता है। उसका सौंदर्य है। गमलों में सजे फूल-पौधों का अपना एक सौंदर्य है। बाग-बगीचों में कटे-छंटे, निश्चित आकार के पेड़-पौधों का अपना एक सौंदर्य है, उसी प्रकार विस्तृत वनस्थली का अपना एक अलग सौंदर्य है और कदाचित गमलों तथा बाग-बगीचे के पेड़-पौधों से अधिक चित्ताकर्षक सौंदर्य। सच तो यह है कि अपनी अनगढ़ता के रहते हुए भी दलित साहित्य ने अपनी संवेदना को पूरी सिद्दत से व्यक्त किया है और यही इसका खरा सौंदर्य है। दलित साहित्य को पृथक सत्ता दिलाने वाली उसकी कुछ पैमाने निर्धारित किए जा सकते हैं, वे हैं- निषेध, नकार, आक्रोश, विद्रोह, अस्मिताबोध, स्वाभिमान, अस्तित्व की निरंतर तलाश, समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व, न्याय की कामना, सामाजिक उत्थान, आर्थिक भौतिक उत्कर्ष, मानवीय अधिकारों की जांच पड़ताल, सपाटबयानी-संप्रेषणीयता-सहजता, यातना, वेदना और बेचैनी, अनुभूति की प्रामाणिकता आदि-आदि। दलित साहित्य के सौंदर्य-शास्त्र के उपर्युक्त तत्वों का निर्धारण इसके अब-तक के ऐतिहासिक विकासक्रम को दृष्टिपथ में रखकर किया गया है जो अपने आप में अंतिम नहीं है। आने वाले समय में अनेक परिवर्तन और परिवर्धन की आवश्यकता है।
इस प्रकार कला का स्वरूप असीम और व्यापक होने से उसकी निश्चित कसौटी बनाना मुश्किल ही नहीं असंभव है क्योंकि साहित्य या कला के ऐतिहासिक विकासक्रम में समयांतर पर नए-नए भाव-बोध, नई-नई वैचारिक पृष्ठभूमि निर्मित होती रही है। उसी के अनुरूप अभिव्यक्ति के नये-नये औजारों का इस्तेमाल होता रहा है। अत: समय समय पर ये कसौटियां भी बदलती रही हैं। जैसे कि छायावाद अपनी कुछ नवीन कसौटियां ले आया। छायावाद के अस्त होते ही ये कसौटियां फिर बदलीं। परंपरित काव्य शास्त्र की कसौटियां आधुनिक साहित्य पर लागू नहीं की जा सकती। अगर ऐसा नहीं होता तो मुक्तिबोध को नए साहित्य का सौंदर्य-शास्त्र नामवर सिंह को कविता के नए प्रतिमान जैसी पुस्तकें न लिखनी पड़ती। स्वयं प्रेमचंद जी को भी यह महसूस होने लगा था कि साहित्य को समझने और उसके आस्वादन के लिए नए मानदण्डों की आवश्यकताएं हैं और सुन्दरता की परंपरागत कसौटियां अब ज्यादा कारगर नहीं रह गई हैं। जबकि उस समय दलित साहित्य का उदय भी नहीं हुआ था। तात्पर्य यह कि साहित्य में जब-जब नई चेतना से नया कुछ लिखा गया तब-तब बनी बनाई या पूर्ववर्ती कसौटियां बेमानी सिध्द हुई हैं। दलित साहित्य भी हिन्दी में नवीन चेतना लेकर आया है, जिसमें अत्यंत विशुध्द जीवनानुभव रूपायित हो रहा है।
समीक्षा से सामान्यत: यह अपेक्षा रहती है कि वह साहित्य रूपी लता की पोषिका बने। समीक्षा साहित्य लता के पोषण के अनुकूल तभी बन सकती है, जब समीक्षक कवि की दृष्टि एवं उद्देश्यों को दृष्टिपथ में रखे। अर्थात् जो साहित्य जिस उद्देश्य से रचा गया हो, उसी के आधार पर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। दलित साहित्य का उद्देश्य पाठकों का मनोरंजन करना नहीं है। वह कार्य के लिए प्रवृत्त करने वाला साहित्य है। वर्ण और जातिप्रथा के आधार पर फैलाई गई विषमता के विरुध्द उसने संघर्ष की भूमिका अपनाई है। यह संघर्ष ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद और सामंतवाद के खिलाफ है और हिन्दी का सौंदर्य-शास्त्र संस्कृत से प्रभावित है, अत: ये कसौटियां दलित साहित्य के मूल्यांकन करने के लिए देखना यह चाहिए कि कलाकार में सामाजिक प्रतिबध्दता है या नहीं, उसकी रचना में स्वतंत्रता, समानता, भाईचारा एवं न्याय आदि जीवनमूल्यों का उत्कर्ष है या नहीं और पाठकों को उन कारणों पर धावा बोलने की सोच शक्ति प्रदान कराती है। या नहीं। शरणकुमार लिम्बाले के शब्दों में कहें तो - जो कलाकृति अधिकाधिक दलित चेतना जागृत करेगी वह कलाकृति श्रेष्ठ है।''
(व्याख्याता, एच.के.आर्ट्स कॉलेज अहमदाबाद, गुजरात)
साभार: भारती दलित साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश, उज्जैन की मासिक पत्रिका आश्वस्त से [साभार-देशबंधु]
साभार: भारती दलित साहित्य अकादमी मध्यप्रदेश, उज्जैन की मासिक पत्रिका आश्वस्त से [साभार-देशबंधु]
आज 11/02/2013 को आपकी यह पोस्ट (दीप्ति शर्मा जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
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