नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 18 जनवरी 2014

सिद्धार्थ का 'गौतम बुद्ध' बनने का सफर


एक दिन सिद्धार्थ बगीचे में घूमने के लिए घर से निकले। कड़ा पहरा होने पर भी पता नहीं कैसे, कुछ लोग मुर्दे को उठाकर ले जाते दिखाई दिए।

मुर्दा कपड़े में लिपटा और डोरियों से बंधा था। मरने वाले के संबंधी जोर-जोर से रो रहे थे। उसकी पत्नी छाती पीट-पीटकर रो रही थी। उसकी मां और बहनों का बुरा हाल था।

राजकुमार ने सारथी से इस रोने-पीटने का कारण पूछा। 


उसने बताया कि जिस कपड़े में लपेटकर और डोरियों से बांधकर चार जने उठाकर चल रहे हैं, यह मर गया है। रोने वाले इसके संबंधी हैं। इसे श्मशान में जला दिया जाएगा।

यह सुनकर राजकुमार के चेहरे पर गहरी उदासी छा गई।
उसने पूछा, यह मर क्यों गया?'
सारथी ने कहा, 'एक ‍न एक दिन सभी को मरना है। मौत से आज तक कौन बचा है।'
राजकुमार ने सारथी को रथ लौटाने की आज्ञा दी। राजा ने आज भी सारथी से जल्दी लौट आने का कारण पूछा। सारथी ने सारी बातें बता दी।

राजा ने पहरा और बढ़ा दिया। 

चौथी बार बगीचे में घूमने जाते हुए राजकुमार ने एक संन्यासी को देखा। उसने भली प्रकार गेरुआ वस्त्र पहने हुए थे। उसका चेहरा तेज से दमक रहा था। वह आनंद में मग्न चला जा रहा था।

राजकुमार ने सारथी से पूछा कि यह कौन जा रहा है?
उसने बताया कि यह संन्यासी है। इसने सबसे नाता तोड़कर भगवान से नाता जोड़ लिया है।

उस दिन सिद्धार्थ ने बगीचे की सैर की। वह राजमहल में लौट कर सोचने लगे, बुढ़ापा, बीमारी और मौत इन सबसे छुटकारा कैसे मिल सकता है?
दुखों से बचने का क्या उपाय है? मुझे क्या करना चाहिए? मैं भी उस आनंदमग्न संन्यासी की तरह क्यों न बनूं?'


इन्हीं दिनों सिद्धार्थ की पत्नी यशोधरा ने एक पुत्र को जन्म दिया।
राजा शुद्धोदन को ज्यों ही पता लगा कि उनके पुत्र के पुत्र उत्पन्न हुआ है तो उन्होंने बहुत दान-पुण्य किया।
बालक का नाम रखा - राहुल।
कुछ दिन बात रात के समय सिद्धार्थ चुपचाप उठ खड़ा हुआ। द्वार पर जाकर उसने पहरेदार से पूछा, 'कौन है?'
पहरेदार ने कहा, 'मैं छंदक हूं।'
सिद्धार्थ ने कहा, एक घोड़ा तैयार करके लाओ।'
'जो आज्ञा।' कहकर छंदक चला गया।
सिद्धार्थ ने सोचा कि सदा के लिए राजमहल को छोड़ने से पहले एक बार बेटे का मुंह तो देख लूं। वे यशोधरा के पलंग के पास जा खड़े हुए।
शिशु को‍ लिए यशोधरा सोई हुई थी। सिद्धार्थ ने सोचा कि अगर मैं यशोधरा के हाथ को हटाकर पुत्र का मुंह देखने का प्रयत्न करूंगा तो वह जाग जाएगी। इसलिए अभी पुत्र का मुंह नहीं देखूंगा। जब ज्ञानवान हो जाऊंगा, तब आकर देखूंगा।

छंदक एक सुंदर घोड़े की पीठ पर साज सजाकर लौट आया। इस घोड़े का नाम था कंथक।
सिद्धार्थ महल से उतर कर घोड़े पर सवार हुआ। यह घोड़ा एकदम सफेद था।
छंदक घोड़े के पीछे-पीछे चला। वे आधी रात के समय नगर से बाहर निकल गए।
वे रात ही रात में अपनी और अपने मामा की राजधानी को लांघ गए। फिर रामग्राम को पीछे छोड़ 'अनीमा' नदी के तट पर जा पहुंचे। नदी को पार कर रेतीले तट पर खड़े होकर सिद्धार्थ ने छंदक से कहा, 'छंदक! तू मेरे इन गहनों और इस घोड़े को लेकर वापस लौट जा। मैं तो अब संन्यासी बनूंगा।
छंदक ने कहा, मैं भी संन्यासी बनूंगा।'
सिद्धार्थ ने उसे संन्यासी बनने से रोका और वापस लौट जाने को कहा।
फिर सिद्धार्थ ने अपनी तलवार से अपने सिर के लंबे बालों को काट डाला।
संन्यासी के वेश में सिद्धार्थ ने राजगृह में प्रवेश किया। तत्पश्चात् वे भिक्षा मांगने नगर में निकले।
इस सुंदर युवक संन्यासी के नगर में आने की खबर राजा को मिली।
राजा इस संन्यासी युवक के पास गया। राजा ने उसकी मनचाही वस्तु मांगने को कहा।
इस युवा संन्यासी ने उत्तर दिया, 'महाराज! मुझे न तो किसी चीज की इच्छा है और न संसार के भोगों की। मेरे महलों में यह सब कुछ था। मैं तो परम ज्ञान प्राप्त करने के लिए घर से निकला हूं।'
राजा ने कहा, 'आपका पक्का निश्चय देखकर लगता है कि आप अवश्य सफलता पाएंगे। बस, मेरी एक ही प्रार्थना है कि जब आपको परम ज्ञान मिल जाए तो सबसे पहले हमारे राज्य में आना।'
सच्चा ज्ञान पाने के लिए यह भिक्षु बना युवक बहुत दिन इधर-उधर भटकता रहा। फिर उरुबेल में पहुंच कर कठिन तपस्या करने लगा। कौंडिन्य आदि पांच लोग भी भिक्षु बनकर उसके साथ उरुबेल में रहने लगे।

कठिन तपस्या करते हुए उसने खाना-पीना भी छोड़ दिया। उसका सुंदर शरीर काला पड़ गया। अब उसमें महापुरुषों जैसा कोई लक्षण दिखाई नहीं देता था।
एक दिन तो वह चक्कर खाकर गिर पड़ा। तब उसने सोचा कि शरीर को सुखाने से मुझे क्या मिला? इसलिए उसने फिर भिक्षा मांग कर भोजन करना शुरू कर दिया।

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यह देखकर उसके साथी पांचों भिक्षुओं ने सोचा कि इसकी तपस्या भंग हो गई। अब इसे ज्ञान कैसे मिलेगा? यही सोचकर वे पांचों उसे छोड़कर चले गए।
वैशाख मास की पूर्णिमा के दिन यह भिक्षु ब‍ोधिवृक्ष के नीचे बैठा हुआ था। पास के गांव की सुजाता नाम की एक युवती खीर पका कर लाई।

यह खीर उसने संन्यासी को खाने को दी। खीर खाकर संन्यासी के शरीर में ताकत आने लगी।
छह वर्ष की तपस्या के बाद सिद्धार्थ ने सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया। तब वह 'बुद्ध' कहलाए। बुद्ध का अर्थ है जिसे बोध अर्थात् ज्ञान हो गया हो। उनकी सारी इच्छाएं समाप्त हो गईं।

अब जिसे पाकर वह महात्मा बुद्ध बने थे, उसे लोगों में बांटने का विचार मन में आया। महात्मा बुद्ध ने सोचा कि मैं सबसे पहले उन पांच साथियों को ही उपदेश दूंगा जो मुझे छोड़कर चले गए थे। इन साथियों ने तपस्या के दिनों में उनकी बहुत सेवा की थी।

ज्ञान को प्राप्त होने के बाद बुद्ध जब घर लौटे तो उनकी पत्नी ने बुद्ध से पूछा कि जो आपने यह ज्ञान बाहर जाकर प्राप्त किया, इसे घर में प्राप्त नहीं कर सकते थे।

तब बुद्ध ने विचार कर माना कि, हां.... यह ज्ञान तो घर रहकर भी प्राप्त किया जा सकता था और वर्षों तक अपने बीवी-बच्चों से दूर रहने के लिए उन्होंने दोनों से क्षमा भी मांगी। उनका मानना था कि यह भी एक प्रकार की हिंसा थी 
 

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