नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 9 फ़रवरी 2014

राज कपूर

राज कपूर (१९२४-१९८८) प्रसिद्ध अभिनेता, निर्माता एवं निर्देशक थे। नेहरूवादी समाजवाद से प्रेरित अपनी शुरूआती फिल्मों से लेकर प्रेम कहानियों को मादक अंदाज से परदे पर पेश करके उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए जो रास्ता तय किया, इस पर उनके बाद कई फिल्मकार चले। भारत में अपने समय के सबसे बड़े 'शोमैन' थे। सोवियत संघ और मध्य-पूर्व में राज कपूर की लोकप्रियता दंतकथा बन चुकी है। उनकी फिल्मों खासकर श्री ४२० में बंबई की जो मूल तस्वीर पेश की गई है, वह फिल्म निर्माताओं को अभी भी आकर्षित करती है। राज कपूर की फिल्मों की कहानियां आमतौर पर उनके जीवन से जुड़ी होती थीं और अपनी ज्यादातर फिल्मों के मुख्य नायक वे खुद होते थे।

     

जन्म14 दिसम्बर 1924
पेशावर, उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रांत,ब्रिटिश भारत
मृत्यु2 जून 1988 (उम्र 63)
मुम्बई, महाराष्ट्र, भारत
व्यवसायअभिनेता, निर्माता,निर्देशक
कार्यकाल१९३५- १९८५


फिल्मी सफर

सन् 1935 में, जब उनकी उम्र केवल 11 वर्ष थी, फिल्म इंकलाब में अभिनय किया था| वे बांबे टाकीज़ स्टुडिओ में सहायक (helper) का काम करते थे| बाद में वेकेदार शर्मा के साथ क्लैपर ब्वाय का कार्य करने लगे| उनके पिता पृथ्वीराज कपूर को विश्वास नहीं था कि राज कपूर कुछ विशेष कार्य कर पायेगा, इसीलिये उन्होंने उसे सहायक या क्लैपर ब्वाय जैसे छोटे काम में लगवा दिया था| केदार शर्मा ने राज कपूर के भीतर के अभिनय क्षमता और लगन को पहचाना और उन्होंने राज कपूर को सन् 1947 में अपनी फिल्म नीलकमल, जिसकी नायिका (heroine) मधुबाला थी, में नायक (hero) का काम दे दिया| 24 साल की उम्र में ही अर्थात सन् 1948 में उन्होंने अपनी स्टुडिओ, आर.के. फिल्म्स, की स्थापना कर लिया था और उस समय के सबसे कम उम्र के निर्देशक बन गये थे| सन् 1948 में उन्होंने पहली बार फिल्म 'आग' का निर्देशन किया और वह अपने समय की सफलतम फिल्म रही|
राज कपूर ने सन् 1948 से 1988 तक की अवधि में अनेकों सफल फिल्मों का निर्देशन किया जिनमें अधिकतम फिल्में बॉक्स आफिस पर सुपर हिट रहीं| अपने द्वारा निर्देशित अधिकतर फिल्मों में राज कपूर ने स्वयं हीरो का रोल निभाया| राज कपूर और नर्गिस की जोड़ी सफलतम फिल्मी जोड़ियों से एक थी, उन्होंने फिल्म आह, बरसात, आवारा, श्री 420, चोरी चोरी आदि में एक साथ काम किया था|
मेरा नाम जोकर उनकी सर्वाधिक महत्वाकांक्षी फिल्म थी जो कि सन् 1970 में प्रदर्शित हुई और जिसके निर्माण में 6 वर्षों से भी अधिक समय लगा| उनकी इस फिल्म के प्रति महत्वाकांक्षा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि सन् 1955 में प्रदर्शित उनकी फिल्म श्री 420 में नर्गिस के सामने वे अपने रोल में कहते हैं कि "खा गई न तुम भी कपड़ों से धोखा" और ब्लेक बोर्ड पर जोकर का चित्र बना देते हैं| शायद 'जोकर' (Joker, विदूषक) थीम पर फिल्म बनाने का उनका विचार सन् 1955 से ही था पर बना पाये वे सन् 1970 में| पर बॉक्स आफिस पर उनकी यह फिल्म टिक नहीं सकी और उन्हें अत्यंत मायूसी हुई| किसी प्रकार से अपनी निराशा से मुक्ति पाकर राज कपूर ने फिल्म बॉबी के निर्माण व निर्देशन में जुट गये| बॉबी सन् 1973 में प्रदर्शित हुई जो बॉक्स आफिस पर सुपर हिट हुई| अपनी इस फिल्म में उन्होंने अपने बेटे ऋषि कपूर और नई कलाकार डिंपल कापड़िया को मुख्य रोल दिया और दोनों ही बाद में सुपर हिट स्टार साबित हुये|
 
बॉबी फिल्म की सफलता के बाद राज कपूर ने अपनी अगली फिल्म सत्यं शिवं सुन्दरं बनाई जो कि फिर एक बार हिट हुई| इस फिल्म के के क्लाइमेक्स में बाढ़ का दृश्य था जिसे फिल्माने के लिये अपने खर्च से नदी पर बांध बनवाया और नदी में भरपूर पानी भर जाने के बाद बांध को तुड़वा दिया जिससे कि बाढ़ का स्वाभाविक दृश्य फिल्माया जा सके| इस दृश्य के फिल्मांकन हो जाने के बाद जब उसे राज कपूर को दिखाया गया तो दृश्य उन्हें पसंद नहीं आया और एक बार फिर से लाखों रुपये खर्च करके राज कपूर ने बांध बनवाया तथा उस दृश्य को फिर से शूट किया गया|
सत्यं शिवं सुन्दरं के बाद राज कपूर की अगली सफल फिल्म राम तेरी गंगा मैली रही| राम तेरी गंगा मैली बनाने के बाद वे हिना के निर्माण में लगे थे जिसकी कहानी भारतीय युवक और पाकिस्तानी युवती के प्रेम सम्बंध पर आधारित थी| हिना के निर्माण के दौरान राज कपूर की मृत्यु हो गई और उस फिल्म को उनके बेटे रणधीर कपूर ने पूरा किया|
राज कपूर को सिने प्रेमी दर्शकों के साथ ही साथ फिल्म आलोचकों से भी भरपूर प्रशंसा मिली| वे चार्ली चैपलिन के प्रशंसक थे और उनके अभिनय में चार्ली चैपलिन का पूरा पूरा प्रभाव पाया जाता था| राज कपूर को भारतीय सिनेमा का चार्ली चैपलिन भी कहा जाता है| राज कपूर की फिल्मों ने सोवियत रूस, चीन,आफ्रीका आदि देशों में भी प्रसिद्धि पाई| रूस में तो उनकी फिल्मों के हिंदी गाने भी अत्यंत लोकप्रिय रहे हैं विशेषकर फिल्म आवारा और श्री 420 के|
राज कपूर को संगीत की बहुत अच्छी समझ थी| साथ ही साथ वे यह भी अच्छी तरह से जानते थे कि किस तरह के संगीत को लोग पसंद करते हैं यही कारण है कि आज तक उनके फिल्मों के गाने लोकप्रिय हैं| संगीतकार शंकर जयकिशन, जो कि लगातार 18 वर्षों तक नंबर 1 संगीतकार रह चुके हैं, को उन्होंने ही अपनी फिल्म बरसात में पहली बार संगीत निर्देशन का अवसर दिया था| फिल्म बरसात से राज कपूर ने अपनी फल्मों के गीत संगीत के लिये एक प्रकार से एक टीम बना लिया था जिसमें उनके साथ गीतकार शैलेन्द्र तथा हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और संगीतकार शंकर जयकिशन शामिल थे| ये सभी के एक दूसरे के अच्छे मित्र थे और लगभग 18 वर्षों के एक बहुत लंबे अरसे तक एक साथ मिल कर काम करते रहे|

नामांकन और पुरस्कार

राज कपूर को सन् 1987 में दादा साहेब फाल्के पुरष्कार प्रदान किया गया था|राज कपूर को कला के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा, सन १९७१ में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार

  • 1983 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार - प्रेम रोग
  • 1972 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार - मेरा नाम जोकर
  • 1970 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार - मेरा नाम जोकर
  • 1965 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार - संगम
  • 1962 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - जिस देश में गंगा बहती है
  • 1960 - फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार - अनाड़ी

प्रमुख फिल्में

वर्षफ़िल्मचरित्रटिप्पणी
1982गोपीचन्द जासूस
1982वकील बाबूवकील माथुर
1981नसीब
1980अब्दुल्लाअबदुल्ला
1978सत्यम शिवम सुन्दरमप्रस्तुतकर्ता, पार्श्व स्वर
1978नौकरीस्वराज सिंह 'कैप्टेन'
1977चाँदी सोना
1976ख़ान दोस्त
1975धरम करम
1975दो जासूस
1973मेरा दोस्त मेरा धर्म
1971कल आज और कल
1970मेरा नाम जोकर
1968सपनों का सौदागरराज कुमार
1967एराउन्ड द वर्ल्डराज सिंह
1967दीवानाप्यारेलाल
1966तीसरी कसम
1964संगम
1964दूल्हा दुल्हनराज कुमार
1963दिल ही तो है
1963एक दिल सौ अफ़सानेशेखर
1962आशिक
1961नज़राना
1960जिस देश में गंगा बहती हैराजू
1960छलिया
1960श्रीमान सत्यवादीविजय
1959अनाड़ीराज कुमार
1959कन्हैया
1959दो उस्ताद
1959मैं नशे में हूँराम दास खन्ना
1959चार दिल चार राहेंगोविन्दा
1958परवरिशराजा सिंह
1958फिर सुबह होगीराम बाबू
1957शारदाशेखर
1956जागते रहो
1956चोरी चोरी
1955श्री ४२०
1954बूट पॉलिश
1953धुन
1953आह
1953पापी
1952अनहोनीराजकुमार सक्सेना
1952अंबरराज
1952आशियानाराजू
1952बेवफ़ाराज
1951आवारा
1950सरगम
1950भँवरा
1950बावरे नैनचाँद
1950प्यार
1950दास्तानराज
1950जान पहचानअनिल
1949परिवर्तन
1949बरसातप्राण
1949सुनहरे दिनप्रेमेन्द्र
1949अंदाज़राजन
1948अमर प्रेम
1948गोपीनाथमोहन
1948आग
1947नीलकमलमधुसूदन
1947चित्तौड़ विजय
1947दिल की रानी
1947जेल यात्रा
1946वाल्मीकि
1943गौरी
1943हमारी बात
1935इन्कलाब

राजकपूर की यादें जुदा हैं सबसे
 

 
 
मेरा एक शेर है-
इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में, कोई देर से जाने वाला
ज़िंदगी की तरह मौत भी संसार की एक हक़ीकत है. महात्मा बुद्ध से एक बार एक माँ मिलने आई जिसका बेटा मर चुका था.
वह महात्मा से पुत्र को जीवित करने का अनुरोध कर रही थी. महात्मा बुद्ध ने कहा, “माई, यह असंभव उसी समय संभव होगा जब तू ऐसे किसी घर से आग लाएगी जिसमें कभी कोई मौत नहीं हुई हो.”
बुद्ध की बात सुनकर वह स्त्री कई घरों में गई. फिर थक हार कर बैठ गई उसे सब्र आ गया था. उसने मौत के यथार्थ को स्वीकार कर लिया था.
जिगर मुरादाबादी ने दूसरी तरह इस हक़ीकत को क़ुबूल किया था. उनकी ग़ज़ल का मतला है,
बना बना के जो दुनिया मिटाई जाती है
ज़रूर इसमें कमी कोई पाई जाती है
मज़ाक-मज़ाक में...
हर व्यक्ति स्वयं अतीत बन जाने तक अपने बीते हुए को जीता है. यादों के रूप में, माँ की गोद से क़ब्र या श्मशान की आग तक के इस छोटे से रास्ते में आदमी की नज़र से बहुत कुछ गुज़रता है.
 हर व्यक्ति स्वयं अतीत बन जाने तक अपने बीते हुए को जीता है. यादों के रूप में, माँ की गोद से क़ब्र या श्मशान की आग तक के इस छोटे से रास्ते में आदमी की नज़र से बहुत कुछ गुज़रता है. 
 

लेकिन इस देखे हुए बहुत कुछ में से वही कुछ याद बन पाता है, जो भीड़ में भीड़ न बनकर थोड़ा से अलग नज़र आता है.
फ़िल्म अभिनेता और निर्देशक राजकपूर मेरी ऐसी ही यादों में से एक हैं.
उनसे मेरी पहली मुलाक़ात मुंबई के खार में मेरे फ्लैट में टेलीफ़ोन पर हुई थी. इस फोन कॉल की छोटी सी कहानी है.
मैं दिन के वक़्त एक दिन लोकल ट्रेन से चर्च गेट के एक साहित्यिक समारोह में जा रहा था. लोकल के उस डिब्बे में फ़िल्म से संबंधित एक-दो लोग भी थे.
वे मुझे देखकर मेरे क़रीब आए. जब उन्होंने अपना परिचय दिया तो मैने अपनी मज़ाक की आदत के मुताबिक़ अपने पास बैठे हुए व्यक्ति का परिचय पाकिस्तान के मशहूर शायर अहमद फराज़ कह कर करा दिया.
उनमें से एक जो शायरी में थोड़ी दिलचस्पी रखते थे, मेरे परिचित कराए सज्जन से बहुत टूट कर मिले. वे रास्ते भर उसे अहमद फराज़ मानकर बातें करते रहे और मेरे साथ बैठे हुए हज़रत अपनी भूमिका को किसी मंजे हुए अभिनेता की तरह निभाते रहे.
राजकपूर की यादें
राज कपूर की 1988 में मौत हो गई थी
मुझसे ट्रेन में मिले सज्जन बंबई सेंट्रल के स्टेशन पर उतर गए. उन दिनों बंबई सेंट्रल के करीब ताड़देव में कई फ़िल्मों के ऑफ़िस हुआ करते थे. जाते वक़्त निहायत एहतराम के साथ वह मेरे बनाए हुए फराज़ से मिलकर गए थे.
अपने पसंदीदा शायर से मिलने की खुशी को वे जहाँ-जहाँ गए नई ख़बर की तरह बाँटते रहे. एक मुँह से दूसरे मुँह, दूसरे से तीसरे मुँह से गुज़रती हुई यह ख़बर चेम्बूर में बने राजकपूर स्टूडियो पहुँची.
और वहाँ से उस स्टूडियो के अंदर उस कॉटेज में पहुँच गई जहाँ राज साहब आराम भी करते थे और काम भी करते थे.
उनसे मिलने के लिए जो लोग आते थे वह फ़र्श और गावतकियों से सजे इसी काटेज में आते थे. इसी कॉटेज से जुड़ा एक किचन भी था, जहाँ से थोड़े-थोड़े समय से चाय और खाने-पीने की दूसरी चीज़ें आती रहती थीं.
दूसरे दिन की बात है. मैं खार में अपने घर में अपनी तनहाइयों को किसी पुस्तक से बहला रहा था. अचानक टेलीफोन की घंटी बजी.
समय ढाई बजे का था. मेरे ‘हैलो’ के जवाब में कई फ़िल्मों में सुनी हुई जानी पहचानी आवाज़ गूँजी. यह आवाज़ निहायत तहज़ीबी अंदाज़ में बोल रही थी.
“क्या मैं निदा फाज़ली साहब से बात कर सकता हूँ?”
“मैं बोल रहा हूँ...आप कौन साहब?” मैने कहा.
“जी ख़ाकसार का नाम राजकपूर है.”
राज साहब का नाम सुनते ही मुझे लगा, शायद वह अपनी नई फ़िल्म में गीत लिखवाने का ऑफ़र देने वाले हैं.
लेकिन मालूम हुआ उन्होंने मुझे फ़ोन दूसरी वजह से किया था. दूसरों की तरह उन्हें भी मालूम हुआ था कि पाकिस्तान के मशहूर शायर निदा फाज़ली के मेहमान हैं.
अतीत के आईने से..
मैने जब राजकपूर को पाकिस्तान के मशहूर शायर की ख़बर की असलियत बताई तो टेलीफोन का रिसीवर देर तक उनके क़हक़हे से गूँजता रहा.
राजकपूर ने कहा था
 निदा साहब मैं तो आपको संजीदा शायर समझता था. आप तो कॉमेडी में भी माहिर हैं
 

क़हक़हे के बाद उनके अल्फ़ाज़ थे, "निदा साहब मैं तो आपको संजीदा शायर समझता था. आप तो कॉमेडी में भी माहिर हैं. मैं आपकी इस ख़ूबी का ज़रूर इस्तेमाल करूँगा."
और उन्होंने जब अपने बैनर पर ‘बीवी ओ बीवी ’ का ऐलान किया तो इस वायदे को पूरा भी किया.
इसी फ़िल्म के सिलसिले में जब उनसे मुलाक़ात हुई तो टेलीफ़ोन पर सुनी आवाज़, चेहरा और शरीर बन चुकी थी.
यह चेहरा और शरीर उस राजकपूर से अलग थे जो ‘आवारा’, ‘संगम’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘जागते रहो’ आदि में हीरो की भूमिकाओं में नज़र आते थे.
अब भरे हुए चेहरे और भारी होते जिस्म से वे राजकपूर कम, पृथ्वीराज कपूर ज़्यादा नज़र आते थे.
फ़िल्म ‘बीवी ओ बीवी’ में संजीव कुमार और रणधीर कपूर मुख्य भूमिकाओं में थे और संगीत आरडी बर्मन ने दिया था.
इस फ़िल्म के पहले गीत की रिकॉर्डिंग थी, गीत मैं लिख चुका था. संगीत अरेंज हो चुका था.
आरडी के म्युज़िक रूम में फाइनल रिहर्सल पूरी तैयारी में थी. फ़िल्म के डायरेक्टर रवेल और रणधीर कपूर बैठे थे. गीत की धुन और बोल सब पसंद कर चुके थे.
नशा नशे के लिए है.....
राज कपूर अपनी फ़िल्मों के संगीत पर विशेष ध्यान देते थे
पंचम का म्यूज़िक रूम उन दिनों सांताक्रूज़ में दूसरी मंज़िल पर था. साज़ खनखना रहे थे. पंचम गीत गा रहे थे. रणधीर प्रशंसा में सिर हिला रहे थे कि अचानक लिफ़्ट खुलने की आवाज़ आई.
सबने देखा एक हाथ में भेलपूरी थामे राज साहब आ रहे हैं. उन्हें देखकर सब खड़े हो गए.वे मुस्कुराते हुए, जहाँ मैं बैठा था, उसके सामने आ कर बैठ गए. रिहर्सल फिर से शुरू हुई.
राज साहब की आँखें और गर्दन के इशारों से लगता था कि उन्हें संगीत पसंद है. साज़ों की आवाज़ खामोश होने के बाद उन्होंने कहा भी. जी बहुत अच्छा है, धुन भी ख़ूब है.
फिर मुझे अपने पास बुलाकर पूछा, “आपको सिचुएशन किसने सुनाई थी”. मैने रणधीर कपूर की तरफ़ इशारा किया. उन्होंने सिर हिलाया और कहा अगर कल आपको फ़ुर्सत हो तो चेम्बूर में हमारी कुटिया में आकर हमसे भी सिचुएशन सुन लीजिए.
पंचम समझ चुके थे कि कल गीत रिकॉर्ड नहीं हो सकता. उन्होंने मुझे अकेले में बताया कि अगर मैं कल राज साहब की कॉटेज जाकर उनसे गीत का सब्जेक्ट सुनकर वहीं इसी धुन पर गीत लिख दूँगा तो रिकॉर्डिंग होगी नहीं तो नहीं होगी.
मैं दूसरे दिन राज साहब के सामने था. पहले अपने अतीत और छोड़े हुए पेशावर की बातें करते रहे.
फिर अचानक बोले, “देयर इज़ एक गर्ल, देयर इज़ ए बॉय, देयर वाज़ ए गर्ल, देयर वाज़ ए बॉय, देयर विल बी एक गर्ल एंड ए बॉय...एंड दैट इज़ द होल लाइफ़.”
अंग्रेजी के इन जुमलों के बाद बोले, “जी बस इसी ख़्याल को गीत बनाना है.” धुन मेरे ज़हन में थी, दिमाग भी थोड़ा काम कर रहा था.
मैने फ़ौरन उन्हें मुखड़ा बनाकर सुनाया.........
“सदियों से दुनिया में ये ही तो क़िस्सा है
एक ही तो लड़की है एक ही तो लड़का है
जब भी ये मिल गए, प्यार हो गया...”
बोल उन्हें पसंद आए और इसे आरडी ने रिकार्ड किया.
राजकपूर अब नहीं हैं. लेकिन वे यादों के रूप में मेरी तरह आज भी कई ज़हनों में जिंदा हैं.
मेरी उनसे आख़िरी मुलाकात चेम्बूर में उन्हीं के बंगले में हुई थी. वह उस समय डायबिटिक हो चुके थे.
उनकी पत्नी कृष्णा जी उनकी शराब पीने की आदत पर कंट्रोल करने के लिए उन पर पहरा लगाए रखती थीं. लेकिन जैसे ही वह ओझल होती थीं, राज साहब पेग चढ़ा लेते थे...
नशा नशे के लिए है अज़ाब में शामिल
किसी की याद को कीजे शराब में शामिल.

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साभार-बी.बी.सी.हिंदी एवं विकिपीडिआ 

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