नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 29 मार्च 2015

दुनिया को डाँवाडोल करने की बढ़ती कोशिशें

दुनिया के विभिन्न इलाकों में तनाव लगातार बढ़ता जा रहा है। आम तौर पर मानव इतिहास में घटने वाली महत्वपूर्ण घटनाओं से पहले इस तरह की जानकारियां सामने आती हैं। जब भी विश्व की महाशक्तियों के बीच मतभेद पैदा होते हैं और विरोधाभास सामने आते हैं, क्षेत्रीय युद्ध होते हैं या बीसवीं शताब्दी की तरह विश्व-युद्ध होने वाले होते हैं, तभी सारी दुनिया के विभिन्न इलाकों में ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है। आज भी हम वैसी ही स्थिति का सामना कर रहे हैं। दुनिया की एकमात्र महाशक्ति का व•ान और महत्व दुनिया में कम होता जा रहा है। पहले सिर्फ अमेरिका ही दुनिया में खेल के नियम तय करता था। अब रूस और चीन भी ये नियम तय करने लगे हैं। रूस तो सिर्फ ढाल की भूमिका में ही है, लेकिन चीन वैश्विक आर्थिक महाशक्ति के रूप में सामने आ रहा है। हालांकि अभी भी रूस और चीन अकेले-अकेले अमेरिका का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं हैं, लेकिन दोनों देश मिलकर अमेरिका को पानी पिला सकते हैं। आम आदमी को फिलहाल इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन दुनिया की राजनीति में रुचि रखने वाले लोग इस बात को भली-भांति देख पा रहे हैं कि कौन सी महाशक्ति का वजन कम हो रहा है और किसका वजन लगातार बढ़ता जा रहा है। इसलिए यदि अमेरिका आज ही कुछ नहीं करेगा तो पांच-सात साल में लोग उसका नाम लेना भी भूल जाएंगे, कोला, मडोन्ना, बिगमैक और हालीवुड की बात करने वालों को गंवार माना जाने लगेगा और आम जनता के बीच इनका असर धीरे-धीरे खत्म हो जाएगा। अमेरिका सक्रिय रूप से इन प्रवृत्तियों का विरोध कर रहा है। यदि पहले अमेरिका अपने अलावा बाकी दुनिया में अराजकता, अफरा-तफरी और उथल-पुथल फैलाने की कोशिश कर रहा था तो आज वही अराजकता खुद अमेरिका को खा रही है। अपना प्रभुत्व जमाने की अमेरिकी अवधारणा अब कमजोर और अपंग होती जा रही है। यही नहीं, अब वे दो अवधारणाएं, वे दो विरोधाभास, जो पहले दुनिया को सहज ही दिखाई नहीं पड़ते थे, रिपब्लिक और डेमोक्रेटिक पार्टियां नहीं, बल्कि 'युद्ध समर्थकÓ और 'शान्ति समर्थकÓ दोनों लाबियां अब अमरेकिा में खुलकर एक-दूसरे के आमने-सामने आ गई हैं। क्लिंटन और मक्कैन के रूप में और बुश और ओबामा के रूप में ये दोनों लाबियां अब स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी हैं। ओबामा को इसीलिए नोबल पुरस्कार दिया गया था कि वे 'युद्ध-समर्थक लॉबीÓ की प्रतिनिधि हिलैरी क्लिंटन को सत्ता में नहीं आने देंगे। यदि हिलैरी क्लिंटन तब सत्ता में आई होतीं तो आज विश्व-युद्ध हो रहा होता। और अब हिलैरी क्लिंटन के खिलाफ मुकदमा शुरू करने की बात की जा रही है। इस बात पर अमेरिका के दोनों प्रभावशाली गुट, दोनों ताकतवर लॉबियां ताल ठोंककर एक-दूसरे के आमने-सामने खड़ी हो गई हैं। ऐसा तो अमेरिका में हुए गृह-युद्ध के बाद से कभी नहीं हुआ था। यानी आज अमेरिका खुद बड़ी जटिल स्थिति में फंस गया है, जब अमेरिका राजनीतिज्ञ एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध की घोषणा करने की स्थिति में पहुंच गए हैं। और देश के भीतर स्थिति खराब न हो, इसके लिए वे अपना तनाव, जो अमेरिका को दो फाड़ कर सकता है, बाहर निकालने की कोशिश कर रहे हैं। वैसे ही, जैसे वे अपने डॉलरों की रद्दी बाहरी दुनिया में फेंकते रहते हैं ताकि अमेरिका का वित्त-बाजार उसके वजन से न ढह जाए। इसी के परिणामस्वरूप आज हम दुनिया में यह देखते हैं कि कभी यहां लड़ाई हो रही है तो कभी वहां लड़ाई हो रही है। इन लड़ाइयों की शुरूआत भी अब जल्दी-जल्दी होने लगी है। जरा अरब क्रान्तियों को याद करें, फिर सीरिया में गृह-युद्ध भड़क उठा, फिर हांगकांग में अव्यवस्था फैली, फिर वेनेजुएला में गड़बड़ हुई, फिर इराक में 'इस्लामी राज्यÓ (आईएसआईएस) नामक आतंकवादी गिरोह का उदय हुआ, फिर उक्राइना में खूनी सत्ता-पलट हुआ और उक्राइना में गृह-युद्ध शुरू हो गया। पिछले ही हफ्ते ब्रा•ाील में लाखों लोग सड़कों पर निकल आए थे और प्रदर्शन कर रहे थे और करीब-करीब ऐसी ही हालत हांगकांग की भी हुई। ऐसा लग रहा था कि ब्रा•ाील में प्रदर्शनकारी राष्ट्रपति दिल्मा रूसेफ की नीतियों का विरोध कर रहे थे लेकिन बात कुछ और ही थी। दिल्मा रूसेफ को यह समझाया जा रहा था कि रूस, चीन और भारत के साथ मिलकर एक ही गीत गाने की जरूरत नहीं है। फिर इसी हफ्ते जर्मनी के इस निर्णय से नाखुश होकर कि वह चीन द्वारा बनाए जा रहे एशियाई बैंक का साथ देगा, अमेरिका की युद्ध-समर्थक लॉबी ने फैंकफर्ट में भारी जन-प्रदर्शन का आयोजन कर दिखाया। दुनिया को डाँवाडोल करने की कोशिशें लगातार बढ़ती जा रही हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय बीत रहा है यह काम मुश्किल होता जा रहा है। उक्राइना में अमरीकी नीतियों की हार हो रही है। रूस पर वित्तीय हमला करके भी रूसी रुबल को कोई भारी चोट पहुंचाना सम्भव न हो पाया है, यही नहीं रुबल धीरे-धीरे वापिस मजबूत हो रहा है। हांगकांग में सूचना-विस्फोट के बाद चीन ने अपनी वित्तीय-आर्थिक सक्रियता बढ़ा दी है। ब्रिटेन, जर्मनी और दूसरे देशों ने भी चीन से यह अनुरोध किया है कि वह उन्हें अपने एशियाई बैंक में शामिल कर ले। वहीं दूसरी तरफ ब्रिक्स विकास बैंक की गतिविधियां शुरू होने वाली हैं और इस तरह वित्तीय क्षेत्र में अमेरिकी प्रभुत्व पर प्रश्नचिह्न लगता जा रहा है। इसलिए हो सकता है कि निकट भविष्य में अमेरिका कोई ऐसी हरकत करेगा, जो सभी नियमों और कायदों के खिलाफ होंगी। यह पहले की तरह कोई वैश्विक सूचनात्मक धमाका हो सकता है। सद्दाम हुसैन के पास नरसंहारक हथियारों का जखीरा होने जैसी कोई सूचना हो सकती है, जिसके बाद उसके खिलाफ युद्ध शुरू कर दिया जाएगा या उक्राइना में गिराए गए बोर्इंग विमान की तरह की कोई ऐसी दुर्घटना हो सकती है, जिसकी गूँज सारी दुनिया को थर्रा देगी। इस घटना का उद्देश्य होगा संचार-सूचना साधनों को नियंत्रित करना। इसलिए अब हम सभी को उस 'अप्रत्याशितÓ घटना या सूचना का इन्तजार करना चाहिए। लेकिन जब यह घटना घटनी शुरू होगी तो हमें यह ख्याल भी रखना होगा कि हम अमेरिकी प्रचारतंत्र का शिकार न हों। हमें सबसे पहले यह सोचना होगा कि — इससे किसे लाभ होने वाला है। अनिल जनविजय

1 टिप्पणी:

  1. आपने लिखा...
    कुछ लोगों ने ही पढ़ा...
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें...
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना दिनांक 15/03/2016 को पांच लिंकों का आनंद के
    अंक 242 पर लिंक की गयी है.... आप भी आयेगा.... प्रस्तुति पर टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।

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