नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 25 मई 2015

पत्थर होता आदमी


पत्थरों के बीच रहकर
खुद भी पत्थर होता जाता है आदमी
पत्थरों के साथ ही जागना-सोना
उन्ही के साथ जीना-मरना
भी सीख जाता है आदमी
पत्थरों को तोड़ते हुए, तराशते हुए
तलाशता रहता है खुद को भी उन्हीं में
पत्थरों के संगीत को ही जब
जीवन संगीत मान बैठता है आदमी
तब उसके पत्थर हो जाने में नहीं
रह जाता कोई संशय
मिलकर-घुलकर रह जाता है
वह भी पत्थरों में
नहीं लौटना चाहता फिर वह
वापस अपनी दुनिया में
जहाँ पर आदमी के भेष में
पत्थर रहते हैं

             (कृष्ण धर शर्मा, २०१५)

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