नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 27 जून 2015

दबे पांव तानाशाही रास्ते पर

जून की 25 तारीख को आंतरिक आपातकाल लगाए जाने के प्रकरण के 40 साल पूरे हो गए।  यह आपातकाल 19 महीने चली थी। आपातकाल का लगाया जाना, स्वतंत्र भारत के इतिहास का एक बदनाम और काला अध्याय है। इंदिरा गांधी को, जो 1971 के लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त बहुमत के साथ जीतीं थीं, बढ़ते जन-असंतोष का सामना करना पड़ रहा था। यह जन-असंतोष गुजरात के नव-निर्माण आंदोलन तथा जेपी आंदोलन जैसे विभिन्न जनांदोलनों के रूप में सामने आया था। इसी दौर में, 1974 के मई के महीने में 17 लाख रेल कर्मचारियों से जुड़ी रेल हड़ताल के रूप में, मजदूर वर्ग की भी सबसे बड़ी कार्रवाई सामने आई थी। इंदिरा गांधी की सरकार ने और सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी ने, जन-विरोध कार्रवाइयों तथा बढ़ते विरोध का मुकाबला दमन का सहारा लेकर करने की कोशिश की थी। इंदिरा सरकार का ‘प्रगतिशीलता का पाखंड’ पश्चिम बंगाल में सीपीआई (एम) तथा अन्य वामपंथी ताकतों के खिलाफ उसके अद्र्घ-फासी आतंक का सहारा लेने के चलते पहले ही बेनकाब हो चुका था। वास्तव में सबसे पहले सीपीआई (एम) ने ही, 1972 में हुई अपनी 9वीं कांग्रेेस से, एक  दलीय तानाशाहीपूर्ण शासन के खतरे की चेतावनी दी थी। आपातकाल लगाए जाने का तात्कालिक कारण तो इंदिरा गांधी की सरकार के विपक्ष की बढ़ती चुनौती में ही छुपा था, जिसका प्रतिनिधित्व जेपी आंदोलन करता था। इसके ऊपर से इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आ गया, जिसने लोकसभा के लिए इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। इन हालात में खुद को घिरता महसूस कर इंदिरा गांधी ने जवाबी हमला करने का फैसला लिया और आपातकाल लगा दी। आपातकाल की घोषणा के बाद, विपक्षी पार्टियों के हजारों नेताओं व कार्यकर्ताओं को निवारक नजरबंदी के तहत पकडक़र जेलों में ठूंस दिया गया, नागरिक स्वतंत्रताओं को कुचला गया, प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गयी और सरकार की आलोचना का स्वर अपनाने वाली तमाम राजनीतिक गतिविधियों पर पाबंदी लगा दी गयी। मीसा के तहत सीपीआई (एम) के सैकड़ों नेताओं तथा कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया। बेशक, इस दमनकारी कदम के पीछे फौरी कारण तो अपने प्रधानमंत्री पद पर बने रहने के लिए इंदिरा गांधी द्वारा खतरा महसूस किए जाने में ही छुपा था। फिर भी उसे ही इकलौता कारण मानना भी गलत होगा। वास्तव में आपातकाल की घोषणा उस तानाशाहीपूर्ण मुहिम का चरमोत्कर्ष थी, जो पहले ही सामने आ चुकी थी। इस मुहिम की जड़ें राजनीतिक व्यवस्था तथा राजनीतिक अर्थव्यवस्था के संकट में और सत्ताधारी पार्टी के सामने आयी चुनौतियों में थीं। देश की राजनीति में एक ही पार्टी के बोलबाले के घटने के साथ, जो 1967 के आम चुनाव से साफ नकार आने लगा था, राजनीतिक अस्थिरता बढ़ रही थी। इन हालात में तानाशाही का सहारा लेना, सत्ताधारी वर्ग के लिए जरूरी हो गया था। इस सबने मिलकर पूंजीवादी जनतंत्र पर हमले की स्थिति रची थी। आपातकाल के जरिए इस गहराते संकट को हल करने की और एक कहीं ज्यादा तानाशाहीपूर्ण संवैधानिक व्यवस्था थोपने की कोशिश की जा रही थी। आपातकाल के दौरान संसद से जो 42वां संविधान संशोधन पारित कराया गया था, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा संसद के बीच के ताकतों के संतुलन को ही बदलने की कोशिश करता था। मिसाल के तौर पर इस संशोधन के जरिए संविधान में यह प्रावधान जोड़ा गया था कि न्याय पालिका, संसद द्वारा संविधान में किए गए किसी भी संशोधन की न्यायिक समीक्षा नहीं कर सकती है। बहरहाल, देश की राजनीतिक व्यवस्था में तानाशाहीपूर्ण विशेषताओं को जोडऩे की समूची कसरत विफल हो गयी क्योंकि जनता ने जनतंत्र पर हमले का साथ देने से इंकार कर दिया और आपातकाल को ठुकरा दिया। याद रहे कि आपातकाल मेें सिर्फ नागरिक स्वतंत्रताओं का अपहरण ही नहीं किया गया था, बल्कि अनिवार्य नसबंदी अभियान, बड़े पैमाने पर गरीबों के घरों के गिराए जाने और अन्य नौकरशाहाना मनमाने फैसलों के जरिए, जनता के खिलाफहमले भी किए जा रहे थे। वास्तव में इंदिरा गांधी ने चुनाव में जीतने की उम्मीद में ही, आपातकाल उठाने और 1977 के मार्च में चुनाव कराने का फैसला लिया था। बहरहाल, जब चुनाव हुए जनता ने उन्हें और उनकी कांग्रेस पार्टी को, धूल चटा दी। आपातकाल के 40 साल पूरे होने के मौके पर, इस मुद्दे पर बहस हो रही है कि क्या भारत में आपातकाल जैसे हालात दोबारा पैदा हो सकते हैं। लेकिन, यह सवाल को ही गलत तरह उठाना है। वास्तव में विचार इस सवाल पर किया जाना चाहिए कि क्या हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था के लिए, तानाशाही फिर से खतरा पैदा कर सकती है। संविधान के आपातकाल के प्रावधान का सहारा लेकर, फिर से तानाशाहीपूर्ण शासन थोपने की कोशिश किए जाने की संभावना बेशक बहुत कम है। लेकिन, इसकी संभावनाएं अपनी जगह मौजूद हैं कि दूसरे रूपों में तानाशाही का खतरा, देश की जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरा पैदा कर दे।      अगर चार दशक पहले आपातकाल लगाए जाने के पीछे राजनीतिक व्यवस्था का संकट, स्थिरता की समस्या तथा आर्थिक हालात पर बढ़ते जन-असंतोष जैसे बुनियादी कारण काम कर रहे थे, आज भी तानाशाही के उभार के लिए जिम्मेदार उक्त सभी कारक, परिपक्व अवस्था में दिखाई दे रहे हैं। नवउदारवाद के कुपरिणाम, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतों का उभार, राजनीतिक पार्र्टियों में गिरावट तथा राज्य की संस्थाओं के खोखले होने, सब ने मिलकर धीरे-धीरे तानाशाही के बढऩे के हालात पैदा कर दिए हैं। यहां यह याद दिलाना उपयोगी होगा कि सीपीआई (एम) की 10वीं कांग्रेस ने, जो 1978 के अप्रैल में जालंधर में हुई थी, यह चेतावनी दी थी कि तानाशाही का खतरा तब तक बना रहेगा जब तक अर्थव्यवस्था पर तथा राजनीतिक व्यवस्था पर बड़े पूंजीपति वर्ग तथा भूस्वामियों का वर्चस्व बना हुआ है और इस या उस राजनीतिक गठजोड़ द्वारा अपने शासन को टिकाऊ बनाने के लिए तानाशाही कायम करने की कोशिशें की जाती रहेंगी। नवउदारवादी व्यवस्था में सिर्फ उत्पादन के ही नहीं, बल्कि शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं के भी बड़े हिस्से बाजार की ताकतों तथा बड़ी पूंजी के हवाले कर दिए गए हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि असमानता तथा भ्रष्टïाचार ने अभूतपूर्व ऊंचाइयों को छू लिया है और यह नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को तथा जनतंत्र को ही खोखला कर रहा है। नवउदारवाद, बाजार को जनता तथा उसके अधिकारों के ऊपर रखने के जरिए, जनतंत्र को सीमित कर रहा है तथा सिकोड़ रहा है। बड़ी पूंजी राजनीतिक व्यवस्था में घुस गई है और तमाम पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियां बड़े पैसे की ताकत की गुलाम हो गई हैं। यही है जो जनतांत्रिक व्यवस्था को खोखला कर रहा है। सत्ताधारी भाजपा, राष्ट्रीय  स्वयंसेवक संघ द्वारा संचालित तथा नियंत्रित है। इससे शासन की संस्थाओं में आरएसएस का एजेंडा तथा उसके लोगों के घुसाए जाने का रास्ता खुल गया है। इस तरह, अद्र्घ-फासीवादी विचारधारा तथा लक्ष्योंवाले इस संगठन को, जिसकी विचारधारा तथा लक्ष्य भारतीय संविधान में घोषित धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक सिद्घांतों के ही खिलाफ पड़ते हैं, इसका मौका मिल गया है कि संविधान को भीतर से खोखला करें। हिंदुत्ववादी संगठन, शासन का सहारा लेकर मनमर्जी कर रहे हैं और धार्मिक अल्पसंख्यकों पर अपने मूल्य थोपने और उनके बुनियादी अधिकारों का अतिक्रमण करने में लगे हुए हैं। इस तरह, तानाशाही बढ़ते पैमाने पर सामाजिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रवेश कर रही है। नवउदारवादी बाजारवादी तत्ववाद और हिंदुत्व का मिश्रण, तानाशाही का खतरनाक नुस्खा है। एक ओर सरकार श्रम कानूनों में बदलावों के जरिए ट्रेड यूनियनों को कमजोर करने के लिए कदम उठा रही है और दूसरी ओर संसद को बरतरफ कर, अध्यादेशों के जरिए बाजार-अनुकूल कानून बनाने की कोशिश कर रही है, जिसका उदाहरण भूमि अधिग्रहण कानून में किए गए बदलाव हैं। अगर इंदिरा गांधी का निजाम एक ‘‘वफादार नौकरशाही’’ की कल्पना करता था, आज शासन के इस औजार को नवउदारवादी बाजारवादी मूल्यों की घुसपैठ ने और भी कमजोर कर दिया है। इन मूल्यों ने बड़े पैमाने के भ्रष्टïाचार को और बड़े कारोबारी-सत्ताधारी राजनीतिज्ञ-नौकरशाह गठजोड़ की ओर से अवैध तथा स्वार्थपूर्ण करतूतों को अंजाम देने की इच्छा को हर तरफ फैला दिया है। न्यायपालिका को आपातकाल में झुका लिया गया था और उसके बाद से उसकी स्वतंत्रता का एक हद तक बहाल भी किया जा सका है। लेकिन, न्यायपालिका की भी स्वतंत्रता तथा ईमानदारी का क्षरण हुआ है। उधर यूएपीए, अफस्पा जैसे दमनकारी कानूनों तथा भारतीय दंड संहिता में राजद्रोह से संबंधित धाराओं की मौजूदगी और इन सब का बार-बार सहारा लिए जाने ने, नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कमजोर कर दिया है। हमने देखा है कि किस तरह सत्ताधारी वर्ग की पार्टियां समय-समय पर राजनीतिक व्यवस्था में ही बदलाव कर, शासन की स्थिरता सुनिश्चित करने की कोशिशें करती आई हैं। मिसाल के तौैर पर, हाल में आपातकाल के दोबारा आ सकने की चेतावनी देने वाले लालकृष्ण आडवानी ही, पिछली एनडीए सरकार के राज में राष्टï्रपति प्रणाली की सरकार लाने के लिए जोर लगा रहे थे। वास्तव में भारत में सत्ताधारी वर्ग के अनेक हिस्से तो यह चाहते ही हैं कि देश में कहीं ताकतवर, कार्यपालिका प्रमुख के रूप में राष्टï्रपति प्रणाली कायम की जाए। उन्हें ऐसा परिवर्तन, हमारे देश की कमजोर तथा निष्प्रभ राजनीतिक व्यवस्था को, तानाशाही एक खुराक दे सकता है। लोकसभा में बहुमत हासिल होने के बाद से मोदी सरकार ने बढ़ते पैमाने पर संसद के प्रति हिकारत का ही प्रदर्शन किया है। अध्यादेशों की बाढ़, राज्यसभा को तुच्छ साबित करने की कोशिशें और सारी शक्तियों का प्रधानमंत्री के हाथों में ही केंद्रित कर दिया जाना, सभी नवउदारवाद के तहत जारी इसकी प्रक्रिया के ही हिस्से हैं कि जनतंंत्र को सिकोड़ा जाए और महत्वपूर्ण निर्णय शक्तियों व नीतियों को निर्वाचित निकायों के हाथों से ही छीन लिया जाए। इस तरह आज हमारा सामना तानाशाहीपूर्ण व्यवस्था की ओर रेंगकर बढ़े जाने से है। नवउदारवाद, हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता और तानाशाही के खिलाफ बहुमुखी संघर्ष की जरूरत है। ये तीनों बुनियादी तरीके से आपस में जुड़े हुए हैं। चार दशक पहले लगाए गए आपातकाल से सही सबक लेना, इस वर्तमान संघर्ष में हमारी मदद करेगा।
प्रकाश करात 
(साभार-देशबंधु)

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