नमस्कार,आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757
शुक्रवार, 25 मार्च 2016
औद्योगिक रुग्णता व बैंकों की अनर्जक परिसम्पत्तियां चिंताजनक
भारतीय बैंकों खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बढ़ती हुई अनर्जक परिसम्पत्तियां एन.पी.ए. भारतीय रिजर्व बैंक बल्कि भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के लिए भी चिन्ता का सबब बन गई है। अनर्जक परिसम्पत्तियों में किस प्रकार से कमी लाई जाय इस पर चर्चा हेतु वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 21 मार्च को बैंक के अधिकारियों की बैठक दिल्ली में आहूत की। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा पहले से ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मार्च 2017 तक अनर्जक परिसम्पत्तियां अर्थात् एन.पी.ए. में कमी लाकर वस्तुस्थिति साफ करने की सलाह जारी की जा चुकी है। अनर्जक परिसम्पत्तियां जिन्हें हिन्दी में गैर-निष्पादन आस्तियां भी कहा जाता है, बैंकों द्वारा दिया गया वह कर्ज है जो कालातीत हो चुका है तथा जिसकी वापसी संदेहास्पद है अथवा सामान्य परिस्थितियों में वापसी की सम्भावना नहीं के बराबर है।
31 दिसम्बर 2014 को बैंकों का सकल एन.पी.ए. 300 हजार करोड़ रुपए था जिसमें से भारतीय स्टेट बैंकों के समूह सहित 24 सरकारी क्षेत्र के बैकों का एन.पी.ए. 273 हजार करोड़ रुपए था। 31 दिसम्बर 2015 को कुल एन.पी.ए. बढ़कर लगभग 401 हजार करोड़ हो गया है अर्थात एक साल में एन.पी.ए. का आकार में 34 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है । 401 हजार करोड़ रुपए के एनपीए में सरकारी क्षेत्र के बैंकों का एन.पी.ए. 361 हजार करोड़ रुपए था कुल एनपीए में सरकारी बैंकों का हिस्सा 90 प्रतिशत था। एनपीए की गंभीरता इस बात से आंकी जा सकती है कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों के 100 रुपए के इक्विटी शेयर मूल्य पर 150 रुपए का एन.पी.ए. है। भारत के सरकारी क्षेत्र के बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज का 7.30 फीसदी संदेहास्पद वसूली कालातीत ऋण या अनर्जक परिसम्पत्ति बन चुका है। इस अनर्जक परिसम्पत्ति के अलावा सरकारी बैंकों द्वारा कॉरपोरेट ऋण पुनर्गठन सीडीआर की प्रक्रिया के तहत पुनर्भुगतान की अवधि बढ़ाकर ब्याज रकम में कमी की जाने वाले राशि 272 हजार करोड़ रुपए है जिसकी वसूली सीडीआर प्रक्रिया के तहत होनी है। जबकि निजी क्षेत्र के 16 बैंकों का एनपीए उनके द्वारा दिए गए कुल कर्ज का 2.36 फीसदी है।
2 मार्च को विजय माल्या के भारत से इंग्लैंड पलायन के बाद वे 9 हजार करोड़ रुपए का बकाया कर्ज अर्थात एन.पी.ए. के कारण समाचारपत्रों में सुर्खियों में छाए रहे हैं तो दूसरी ओर विजय माल्या के कारण ही समाचार माध्यमों में अनर्जक परिसम्पत्तियों एन.पी.ए. पर चर्चा हो रही है। विजय माल्या पर बकाया 9000 करोड़ रुपए का कर्ज सिक्योरिटीझेेसन एक्ट 2002 के प्रावधानों के तहत पुनर्गठित किये जाने के बाद अवधि बढ़ाई जा चुकी है तथा तकनीकी रूप से यह कर्ज एनपीए की बजाय कॉरपोरेट ऋण पुनर्गठन सीडीआर के अंतर्गत आता है। देखा जाय तो जिन कारपारेट का ऋण पुनर्गठन हुआ है उसकी भी वसूली बहुत कमजोर होने से उसको भी एनपीए माना जा सकता है। इस प्रकार 31 दिसम्बर 2015 बैंकों का 401 हजार करोड़ रुपए का एनपीए तथा 272 हजार करोड़ रुपए का सीडीआर इस प्रकार कुल मिलाकर कालातीत बकाया कर्ज 673 हजार करोड़ रुपए हो जाता है। इस 673 हजार करोड़ रुपए कुल कालातीत कर्ज में विजय माल्या का बहुचर्चित कर्ज 9 हजार करोड़ रुपए तो मात्र 1.34 फीसदी हिस्सा है। एकल स्वामित्व उद्योग व्यवसाय एवं किसान से कर्ज वसूली आसान है किन्तु कारपोरेट एनपीए की जटिलताओं के कारण वसूली बकाया रकम की वसूली बहुत कठिन हो जाती है।
रिजर्व बैंक अधिकारियों के अनुसार 31 दिसम्बर 2015 को जानबूझकर बैंक कर्ज अदा न करने वाले कारपोरेट कर्जदारों की संख्या 7686 थी जिन पर 66,190 करोड़ रुपए बकाया है। इनमें से 1669 कर्जदारों के विरूद्ध एफ.आई.आर दर्ज करवाई जा चुकी है। इनमें से 584 प्रकरणों पर बैंकों द्वारा सिक्योरिटीझेसन एक्ट 2002 के तहत कार्रवाई प्रारम्भ कर दी गई है। जहां तक अलग-अलग बैंकों की अर्जक परिसम्पत्तियों का संबंध है जो बैंक जितना बड़ा है तथा जिसने जितना अधिक कर्ज दिया है उसकी एनपीए राशि भी उतनी ही अधिक है। एनपीए राशि में पहले स्थान पर भारतीय स्टेट बैंक है जिसका एनपीए 600 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक है। दूसरे क्रम पर पंजाब नेशनल बैंक है जिसका एनपीए 200 हजार करोड़ रुपए से अधिक है। तीसरे, चौथे एवं पांचवें क्रम में क्रमश: सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया तथा बैंक ऑफ बड़ौदा हैं। किन्तु कुल दिए गए कर्ज से एनपीए के अनुपात में यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया 19.0 प्रतिशत के साथ पहले स्थान पर है। 17 प्रतिशत से 18 प्रतिशत के कुल कर्ज एनपीए अनुपात में पंजाब एण्ड सिंध बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया तथा यूको बैंक शामिल हैं। दूसरी ओर 5 निजी बैंकों का कुल कर्ज से एनपीए का अनुपात 1 प्रतिशत से भी नीचा है।
वैसे तो बैंकों की अनर्जक परिसम्पत्तियों के अनेक कारण हैं लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण औद्योगिक रुग्णता है। औद्योगिक रुग्णता के कारण नकदी का आगमन प्रवाह धीमा हो जाता है तथा बैंकों को किया जाने वाला प्रभावित होने लगता है। कारपोरेट सेंटर के उद्यमों की औद्योगिक रुग्णता बैंकों के लिए सदैव ही समस्या होती है। बैंक अपनी ओर से सिक्योरिटीझेसन एक्ट 2002 के तहत कर्ज का पुनर्गठन करते हैं यह किस्त का पुनर्गठन वे एनपीए के उपचार के रूप में कर्ज वसूली सुनिश्चित करने के लिए करते हैं किन्तु वह औद्योगिक रुग्णता का उपचार नहीं होता है। औद्योगिक रुग्णता की वर्तमान स्थिति यह है कि कुछ सरकारी क्षेत्र के बैंक भी रुग्णता की स्थिति में है। हमारे देश में औद्योगिक रुग्णता भी बढ़ती जा रही है तथा बैंकों का एनपीए भी बढ़ता जा रहा है । अधोसंरचना जिसमें विद्युत, दूरसंचार, हवाई अड्डे, सड़क निर्माण, बंदरगाह, रेल निर्माण शामिल हैं लौह व इस्पात उद्योग, बिजली, कपड़ा तथा निर्माण उद्योगों में अधिक कर्ज दिए जाने के कारण वसूली कमजोर होने से बैंकों का दो तिहाई एनपीए इन्हीं क्षेत्रों में है। वर्तमान में कारपोरेट मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर मांग की मंदी से जूझ रहा है जिसके कारण अनेक इकाइयां बीमारी की स्थिति में चल रही हैं।
जब तक औद्योगिक रुग्णता का प्रभावी उपचार व रुग्णता से बचाव के प्रभावी तरीके नहीं अपनाए जाएंगे तब तक एनपीए की संभावना बनी रहेगी। बड़े कारपोरेट सेक्टर के मालिकों को जेल में डालकर पूरी कर्ज वसूली में संदेह है क्योंकि उनके जेल जाते ही इनकी संपत्ति का बाजार इतना नीचा गिर जाएगा कि बैंकों का एक चौथाई एनपीए भी वसूल नहीं हो पाएगा। अब तो बैंकों को अपने एनपीए के एक बड़े हिस्से को बट्टे खाते में डालने पर ही इस समस्या से छुटकारा मिल पाएगा। उपचार के रूप में अमेरिका तथा अन्य विकसित देशों में मजबूत इकाई द्वारा अधिग्रहण, संविलियन, व सम्मिलन बहुत प्रभावी सिद्ध हुए हंै इसलिए भारत में भी अधिग्रहण, संविलियन, व सम्मिलन की प्रक्रिया सरल बनाकर इसको प्रोत्साहित करने पर विचार किया जा सकता है।
डॉ. हनुमंत यादव (साभार-देशबंधु)
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