हमारे
सीधे-सादे गाँव को
शहर
बनाने की साजिश है
लोगों
के आपसी प्यार को
जहर
बनाने की साजिश है
समझ
नहीं पा रहे हैं
गाँव
के लोग भोले-भाले
कुदरत
की नेमतों को
कहर
बनाने की साजिश है
मिलजुलकर
जहाँ रहते हैं
सदियों
से गाँव के लोग
उस
गाँव को अब मतलबी
शहर
बनाने की साजिश है
देते
हैं साथ एक-दूसरे का
सुख-दुःख
में जहाँ पर
उस
भाईचारे को अब
बेअसर
बनाने की साजिश है
उगती
हैं जहाँ खेतों में
अमृतमयी
फसलें
उन
खेतों को ही अब यहाँ
बंजर
बनाने की साजिश है
बहती
हैं जहाँ गाँवों में
नदियाँ
मीठे पानी की
उस
पानी को भरकर बोतलों में
दौलत
कमाने कि साजिश है
कर
लेते थे जहाँ आपसी
लड़ाई-झगड़ों
का निपटारा
पंच-परमेश्वरों
को ख़तम कर
कचहरियाँ
बनाने की साजिश है
अब
भी नहीं चेते अगर तो
बचा
नहीं पायेगा कोई तुमको
समझते
क्यों नहीं आखिर कि
तुम्हें
ही ख़त्म करने की साजिश है!
(कृष्ण
धर शर्मा, 7.3.2017)
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