नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

अतिथि-रवीन्द्रनाथ टैगोर

 "सूर्य जब गिरि-शिखर के अन्तराल में अवतीर्ण हो गए तब दिन की नाट्यशाला पर एक दीर्घ छाया-यवनिका पड़ गई; पर्वत का व्यवधान होने के कारण यहां सूर्यास्त के समय प्रकाश और अन्धकार का सम्मिलन बहुत देर तक स्थायी नहीं रहता। घोड़े पर बैठकर जरा घूम-फिर आऊं, यह सोचकर अब उठूं, तब उठूं कर रहा था कि सीढ़ी पर पैरों की आहट सुनाई पड़ी। पीछे फिरकर देखा, कोई नहीं था।" (अतिथि-रवीन्द्रनाथ टैगोर)



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मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

दत्ता-शरतचंद्र

 "सारा कमरा निस्तब्ध हो उठा और इस प्रकार की नीरवता के बीच इतनी देर में मानो एक साथ ही सब कार्यों की कदर्य श्रीहीनता सबकी दृष्टि में आ गई। मानो बाजार में क्रय-विक्रय की वस्तु के संबंध में दो पक्षों में तीव्र कठोर मोल-भाव हो रहा था। जिसमें लज्जा, शर्म, श्री-शोभा की रत्तीभर गुंजाइश न थी। केवल दो व्यक्ति नग्न स्वार्थ को मजबूत मुट्ठी में पकड़कर छीन लेने के लिए खींचा-तानी कर रहे थे।" (दत्ता-शरतचंद्र)



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