"सूर्य जब गिरि-शिखर के अन्तराल में अवतीर्ण हो गए तब दिन की नाट्यशाला पर एक दीर्घ छाया-यवनिका पड़ गई; पर्वत का व्यवधान होने के कारण यहां सूर्यास्त के समय प्रकाश और अन्धकार का सम्मिलन बहुत देर तक स्थायी नहीं रहता। घोड़े पर बैठकर जरा घूम-फिर आऊं, यह सोचकर अब उठूं, तब उठूं कर रहा था कि सीढ़ी पर पैरों की आहट सुनाई पड़ी। पीछे फिरकर देखा, कोई नहीं था।" (अतिथि-रवीन्द्रनाथ टैगोर)
नमस्कार,आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757
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