"नेता ने ठहाका लगाया, " बस इत्ती सी बात ! अभी वापस लेते हैं अपील। पागल हैं हमारे कार्यकर्ता। अरे, हमारी जो करतूतें हैं, वह सिर्फ हमारे लिए हैं। हम चाहते हैं कि हमारे कार्यकर्ता मौलिक करतूतें विकसित करें। अब जैसा हमने देश को बताया कि तंदूर जो है वो सिर्फ रोटी बनाने के काम में नहीं आता, उसमें औरत की बोटी-बोटी काट कर भी डाला जा सकता है। हत्या के क्षेत्र में यह अभिनव प्रयोग है। नयी पीढ़ी इसी तरह का कुछ नया करे। हमारे आदर्शों पर न चलकर वह खुद अपने आदर्श गढ़े।" (मंत्री को जुकाम- गिरीश पंकज)
नमस्कार,आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757
शुक्रवार, 25 मई 2018
गुरुवार, 17 मई 2018
मोहिनीअट्टम नृत्य
मोहिनीअट्टम की शाब्दिक
व्याख्या ‘‘मोहिनी’’ के नृत्य के रूप में की जाती है, हिन्दू पौराणिक गाथा की दिव्य मोहिनी, केरल का शास्त्रीय एकल नृत्य-रूप है ।
पौराणिक गाथा के अनुसार
भगवान विष्णु ने समुद्र मन्थन के सम्बंध में और भस्मासुर के वध की घटना के सम्बंध
में लोगों का मनोरंजन करने के लिए ‘‘मोहिनी’’ का वेष धारण किया था ।
यह केवल स्त्रियों द्वारा
निष्पादित किया जाता है ।
मोहिनीअट्टम का उल्लेख
मज्हमंगलम नारायणन नम्बुतिरि द्वारा 1709 में लिखित ‘‘व्यवहारमाला’’ पाठों और बाद में महान कवि कुंजन नम्बियार द्वारा
लिखित ‘‘घोषयात्रा’’ में पाया जाता है ।
केरल के इस नृत्य रूप की
संरचना त्रावणकोर राजाओं महाराजा कार्तिक तिरुनल और उसके उत्तराधिकारी महाराजा
स्वाति तिरुनल (18वीं-19वीं शताब्दी ईसवी) द्वारा आजकल के शास्त्रीय स्वरूप में की
गई थी ।
‘‘मोहिनीअट्टम’’ की लोकप्रियता 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में आजकल के त्रिचुर और
पालघाट जिलों को मिलाकर क्षेत्र तक सीमित थी ।
उसका उद्भव केरल के
मन्दिरों में हुआ । यद्यपि इसके उद्भव की सही-सही अवधि ज्ञात नहीं है तथापि स्त्री
मन्दिर नृतकियों के समुदाय की विद्यमानता को सिद्ध करने के लिए साक्ष्य मौजूद हैं
। जिन्होंने मन्दिर पुजारियों द्वारा उच्चारित मंत्रों की अभिव्यक्ति मुद्राएं शामिल
करके मन्दिर रीति-रिवाजों में सहायता प्रदान की ।
भिन्न-भिन्न काल अवधियों के
दौरान नृतकियों को भिन्न–भिन्न नामों से पुकारा जाता था ।
तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के
लगभग लिखित ‘‘कौटिल्य के अर्थशास्त्र’’ में देवदासियों और नृत्य में उनके
प्रशिक्षण का उल्लेख मिलता है ।
उन्हें ‘‘ताली नंगई अथवा
ननगाची’’ (सुन्दर हाथवाली) ‘‘दासी’’ (सेविका) ‘‘तेवितिचि’’ अथवा ‘‘देवा अडि-अची’’
(जो भगवान के पैरों में सेवा करती है), ‘‘कुथाचि’’ (जो कुथु अथवा नृत्य निष्पादित करती थी) ।
उनके नृत्यों को ‘‘नंगल
नाटकम’’ ‘’दासियाट्टम’’, ‘’तेवितिचियाट्टम’’
आदि के नाम से जाना जाता था । ‘’ननगीअर्स’’, जो नम्बियार
समुदाय की स्त्रियाँ होती हैं, अभी भी एकमात्र
रूप से मन्दिर रीति-रिवाजों के लिए निर्धारित नृत्य की कठोर संहिता का पालन करती
हैं ।
ननगिआर कुथु के निष्पादन के
पहले दिन, नृत (विशुद्ध नृत्य) को अभिनय की तुलना में अधिक
महत्व दिया जाता है ।
भरतनाट्यम, ओडिसी और मोहिनीअट्टम की एक समान प्रवृत्ति है और उन सभी का
उद्भव ‘’देवदासी’’ नृत्य से हुआ ।
कुछ विद्वानों का मत है कि 19वीं शताब्दी ईसवी के आस-पास, तमिलनाडु के शासक पेरूमालों ने तिरुवनचिकुलम (वर्तमान में कोडुगंल्लुर, केरल) में अपनी राजधानी के साथ चेरा साम्राज्य पर शासन किया
।
ये शासक अपने साथ उत्तम
नृतकों को लाए जो मन्दिरों में बस गए, जिनका निर्माण
राजधानी के विभिन्न भागों में किया गया था ।
उनके नृत्य को
‘’दासियाट्टम’’ कहा जाता था ।
‘’दासियाट्टम’’ की विद्यमानता की
‘’सिलाप्पनटीकरम’’ महाकाव्य से भी पुष्टि होती है जिसे 5वीं शताब्दी ईसवी में चेरा राजकुमार इल्लंगों अडिक्कदल
द्वारा लिखा गया था ।
चेरा साम्राज्य अथवा
पेरुमाल शासन के पतन और बाद में समाजार्थिक परिवर्तनों के साथ इन ‘’दासियों’’ को
मन्दिर परिसरों से बाहर जाने के लिए बाध्य किया गया ।
कुछेक ननगिअर्स के साथ जुड
गईं, जो केरल के अन्य क्षेत्रों के मन्दिरों में रहते
और निष्पादन करते थे तथा उन्होंने ननगिआर कुथु को बढ़ावा दिया ।
कुछेक अन्य थे जिन्होंने
समृद्व सामन्त प्रमुखों और योद्धाओं का मनोरंजन करते थे । इससे ‘’रसियाट्टम’’ का
गम्भीर अवनयन हुआ जिसकी वजह से इसका पतन और अन्तंत: लुप्त हो गया ।
‘’दासियाट्टम’’ को तन्जोर चतुष्कों (पोन्नाया, चिन्नाया, शिवानन्दन और
वडीवेलु) द्वारा पुनसज्जिवित किया गया । वे नन्तुवन्स (संगीत शिक्षक) थे जिन्होंने
आजकल के ‘’भरतनाट्यम’’ और ‘’मोहिनीअट्टम’’ की संरचना की ।
तन्जोर भाइयों में से एक
‘’वडीवेलु ने देवदासी ‘’सुगन्धावल्ली’’ के साथ ‘’महाराजा स्वाति तिरुनल’’ की
शरण ली ।
स्वाति तिरुनल गद्दी पर
आसीन हुआ जबकि वह 1829 में केवल 16 वर्ष की आयु का था । उसने ललित कलाओं को विशेष रूप से
संगीत और नृत्य को प्रोत्साहित किया ।
उसके शासन के दौरान भारत के
सभी भागों से अनेक कलाकार और विद्वान तिरुवनन्तपुरम आए । उसी समय, स्वाति, अपने दरबारी
संगीतकारों के साथ (किलिमनूर, विद्वान
कोथीतमपुरम और इरायीम्मन टम्पी) ‘’मोहिनीअट्टम’’ के विकास कार्य में लगे थे ।
वडीवेलु ने एक उचित रंगपटल
के साथ ‘’मोहिनीअट्टम’’ की पुनसंरचना की जिसमें कोलकेतु (मोहिनीअट्टम में पहली मद)
जातिस्वरम, पदावर्णम, पदम और तिलाना
सम्मिलित था । सुगन्धावल्ली ने उनका निष्पादन किया ।
स्वाति ने स्वयं मलयालम, तेलुगु और संस्कृत में पद्मों की रचना की जिन्हें नृतकों
ने बड़ी खुशी से अपनाया ।
तथापि, इस शाही सरंक्षक ‘महाराजा स्वाति तिरुनल’ को जल्द और असमय
मृत्यु से इस नृत्य की एक अन्य निराशापूर्ण अवधि शुरू हुई, जिसका मुख्य कारण शाही संरक्षण का अभाव था ।
‘मोहिनीअट्टम’ को ‘महाकवि वल्लाटोल’ के कठोर
प्रयासों से एक नया जीवन मिला, जो केरल के एक
कवि साहित्यकार थे, तथा कला के एक
अन्य कदरदान थे । कवि, इसे एक विशिष्ट
शास्त्रीय एकल शैली का सम्मान प्रदान करने में सफल हुए ।
वर्ष 1930 में ‘वल्लावटोल’ ने ‘केरल कलामण्डलम्’ की स्थापना की, जो नत्तुवनार, गुरू कृष्ण
पाणिकर और कल्याणी अम्मा के साथ, ‘मोहिनीअट्टम’
के पहले नियमित शिक्षक के रूप में, केरल के कला
स्वरूपों में प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए एक अग्रणी संस्थान था ।
उनकी शिष्या श्रीमती
तनकामणि गोपीनाथ (वहाँ पाठ्यक्रम शुरू किए जाने पर केरल कलामण्डलम में मोहिनीअट्टम
के लिए दाखिल प्रथम शिष्य, चिन्नामु अम्मा
और कल्याणी कुट्टी अम्मा, इस आकर्षक
नृत्य शैली के पथ-प्रदर्शक बन गए ।
कलामण्डलम् शिक्षण पद्धति
में ‘मोहिनीअट्टम’ की केवल शास्त्रीय पद्धति को स्वीकार किया जाता था ।
मोहिनीअट्टम नृत्य की
खास-खास बातें
‘मोहिनीअट्टम’ की विशेषता, बिना किसी अचानक झटके अथवा उछाल के लालित्यपूर्ण, ढलावदार शारीरिक अभिनय है ।
यह, ‘लस्प’ शैली से संबंधित है जो स्त्रीत्वपूर्ण, मुलायम और सुन्दर है । अभिनय में सर्पण द्वारा बल दिया जाता
है,
तथा पंजो पर ऊपर और नीचे अभिनय होता है, जो समुद्र की लहरों तथा कोकोनट पाम वृक्षों अथवा खेत में
धान पौधों के ढलान से मिलता-जुलता है ।
पाद कार्य संक्षिप्त नहीं
तथा कोमलता के साथ प्रस्तुत किया जाता है । हस्त भंगिमाओ को महत्व दिया जाता है
तथा मुखाभिनय विलक्षण मुखीय अभिव्यक्ति के साथ ।
बहुत से अभिनय स्त्री मंदिर
नृत्यों से नकल किए गए हैं जैसे कि ननगियर कुथु और लोक नृत्य जैसे कि
‘कईकोत्तीकली’ जिसे तिरुवतिराकली के नाम से भी जाना जाता है ।
‘तिरुवतिराकली’ एक विशुद्ध नृत्य है ।
दूसरी ओर ‘मोहिनीअट्टम’ के
अन्तर्गत अभिनय पर बल दिया जाता है ।
नृतक ‘पद्मों’ और
‘वर्नामों’ के विषय और भावों के साथ मेल खाता है ।
हस्त भंगिमाएं मुख्यत:
‘हस्तालक्षण दीपिका’ से अपनाई गई हैं, जो एक पाठ है
जिसका पालन कथकली द्वारा किया जाता है ।
कुछेक ‘नाट्य शास्त्र’ और
‘अभिनय दर्पण’ से भी अपनाए गए हैं । भंगिमाएं और मुखीय अभिव्यक्ति स्वाभाविक
(ग्राम्य) और वास्तविक (लोकधर्मी) के साथ मिलती-जुलती हैं, न कि नाट्य अथवा कठोर परम्परा (नाट्यधर्मी) के साथ ।
पारम्परिक रंगपटल के
अन्तर्गत ‘’चोल्लुकेत्तु’’ ‘‘पद्मावरणम’’, ‘’पैद्म तिलाना’’ ओर ‘’स्लोकम’’ सम्मिल्लित हैं । इसके अलावा, इन दो मदों के अन्तर्गत ‘पंडाट्टम’ और ‘ओमानातिंकल’
(लुल्लबी) भी, जिसे वलाटोल द्वारा प्रारम्भ किया गया था, लोकप्रिय है और उसे प्राय: गायन में शामिल किया जाता है ।
अधिकांश रचनाएं, जो रंगपटल में सम्मिलित हैं, स्वाति तिरूनल द्वारा रचित हैं जिनके अन्तर्गत ‘’साहित्य भाव’’ अर्थात
साहित्यिक सामग्री पर बल दिया जाता है ।
शैली के अन्तर्गत मुखीय
अभिव्यक्तियों को और हस्त मुद्राओं को, शुद्व नृत्य
अथवा पादकार्य और शारिरिक हाव-भाव के मुकाबले, अधिक महत्व
दिया जाता है ।
साभार- संस्कृति मंत्रालय भारत
सरकार
समाज की बात Samaj Ki Baat
कृष्णधर शर्मा Krishnadhar Sharma
बुधवार, 16 मई 2018
कठपुतली के रूप
पुतलीकला की खोज मानवजाति
के लिए एक उल्लेखनीय एवं महत्वपूर्ण अविष्कारों में से एक है । यह कहा गया है
कि पुतली की उपयोगिता उसके लिए अपने जीवन से भी बढ़कर है और इसीलिए यह आकर्षक एवं
स्थायित्व को लिए हुए हैं ।
प्राचीन हिन्दू दर्शानिक
पुतलकारों का बहुत ही सम्मान करते थे । वे पुतलकारों को सर्वशक्तिमान विधाता और
पूरे ब्रहमाण्ड को एक पुत्तल मंच मानते थे । महान ग्रन्थ श्रीमद् भागवत, भगवान श्री कृष्ण के बालरूप की नह्द कथा के अनुसार भगवान
धागों सत्, रज और तम प्रत्येक से पूरे विश्व को कठपुतली
की भांति चलाते हैं ।
संसकृत शब्दावली को
पुतलीका तथा पुट्टीका का अर्थ ‘छोटे पुत्रों’ से है । पुतली शब्द लेटिन भाषा के
‘प्यूपा’ से लिया गया है जिसका अर्थ है पुतली है । भारत को पुतलियों का घर कहा
जाता है लेकिन अभी भी इस सम्बंध में बहुत सारी सम्भावनाओं को खोजने की आवश्यकता
है ।
पुतली कला की प्राचीनता के
सम्बंध में पहली एवं दूसरी सदी ईसा पूर्व में लिखे गए लेख तमिल ग्रन्थ ‘सिल्पादीकर्म’
में पाए जाते हैं ।
नाटयशास्त्र दूसरी सदी ईसा
पूर्व से द्वितीय सदी इसवीं तक के दौरान कभी कभार नाटयशास्त्र पर प्रभावशाली ढंग
से लिखे गए लेख पुतली कला का वर्णन नहीं मिलता है लेकिन मानव नाटय के निर्माता-सह
निर्देशक को ‘सूत्रधार’ के रूप में प्रभावित किया गया है जिसका अर्थ धागों से है ।
इस शब्द ने नाटय शब्दावली में शायद अपना स्थान ‘नाटयशास्त्र’ के लिऐ जाने से
बहुत पहले पाया है, लेकिन यह शब्द
पुतलीकला नाटय (रंगमंच) से अवश्य आया होगा । इस प्रकार पतुलीकला नाटय में 500 ईसा पूर्व भी बहुत पहले वर्षों से आयी होगी ।
भारत की पुतली कला शैलियां
भारत में लगभग सभी प्रकार
की पुतलियां पाई जाती हैं तथा पारंपरिक मनोरंजन में सदियों से पुतलीकला का महत्वपूर्ण स्थान रहा है ।
पारंपरिक नाटक की भांति ही पुतली नाटय महाकाव्यों और दंत कथाओं पर आधारित होते
हैं तथा देश के विभिन्न प्रांतों को पुतलियों की अपनी एक खास पहचान होती है । उन
में चित्रकला और मूर्तिकला की क्षेत्रीय शैली झलकती है ।
शारीरिक एवं मानसिक रूप से
विकलांग बच्चों को अपने शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिए प्रेरित करने में पुतली
कला का सफलता के साथ उपयोग किया गया है । अपनी प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक विरासत
के संरक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने संबंधी कार्यक्रम काफी सहायक साबित हुए
हैं । साथ ही इन कार्यक्रमों का लक्ष्य छात्रों में शब्द, आकार, रंग और गति के
सौंदर्य के प्रति संवेदना जागृत करना भी है । पुतलियों के निर्माण तथा उनके माध्यम
से संप्रेषण करने में जो सौंदर्य-आनंद मिलता है वह बच्चों के व्यक्तित्व के
चहुंमुखी विकास में सहायक होता है ।
भारत में पारंपरिक पुतली
नाटकों की कथावस्तु पौराणिक साहित्य, दंत कथाओं और
किंवदंतियों से ली जाती रही है तथा बदले में उनमें चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, नृत्य और नाटक आदि को रचनात्मक अनुभूतियों का समावेश होता
रहा है । पुतली कार्यक्रमों को प्रस्तुत करने में एक साथ अनेक लोगों के सृजनात्मक
प्रयासों की जरूरत पड़ती है ।
आज के आधुनिक समय में सारे
विश्व के शिक्षाविदों ने संचार माध्यम रूप में पुतलियों को उपयोगिता के महत्व
को अनुभव किया है । भारत में आज अनेक व्यक्ति तथा संस्थाएं शैक्षणिक संकल्पनाओं
के संप्रेषण में पुतलियों के इस्तेमाल करने में छात्रों एवं अध्यापकों को
सम्मिलित कर रही हैं ।
धागा पुतली
भारत में धागा पुतलियों की परंपरा अत्यंत प्राचीन तो है ही
साथ ही समृद्ध भी । अनेक जोड़ युक्त अंग तथा धागों द्धारा संचालन इन्हें अत्यंत
लचीलापन प्रदान करते हैं । जिस कारण ये पुतलियां काफी लचीली होती है । राजस्थान, उड़ीसा, कर्नाटक और
तमिलनाडु ऐसे प्रांत हैं जहां यह पुतली कला पल्लवित हुई ।
कठपुतली, राजस्थान
राजस्थान की परंपरागत पुतलियों की कठपुतली करहते हैं । काठ
के एक टुकड़े से तराश कर बनाई गई ये पुतलियां रंगबिरंगे पहनावे में बड़ी गुडि़यों
के समान लगती हैं । उनकी वेशभूषा और मुकुट मध्य कालीन राजस्थानी शैली में होती
है जो आज तक प्रचलित है । अत्यन्त नाटकीय क्षेत्रीय संगीत कठपुतली नृत्य की
संगत करता है । इन के अंडाकार मुख, मछलियों जैसी
बड़ी-बड़ी आंख, कमानी जैसे भौं और बड़े-बड़े होंठ आदि कुछ
विशिष्ट लक्षण है । इसके साथ ही ये पुतलियां लम्बा पुछल्ला लहँगा पहलती है और
इनके पैरों में जोड़ नहीं होते । पुतली संचालक अपनी उंगलियों से बंधे दो या पांच
धागों से उनका संचालन करता है ।
कुनढेई, उड़ीसा
उड़ीसा की धागा पुतली को कुनढेई कहते हैं । ये हल्की लकड़ी
से बनी होती है और इनके पैर नहीं होते तथा ये पुछल्ला लहँगा पहने होती हैं । इन
पुतलियों में अनेक जोड़ होते हैं । इसी कारण इनका संचालन सरल है । पुतली संचालक
साधारणत: एक लकड़ी के तिकोने फ्रेम को पकड़े रहता है जिस पर संचालन करने के लिए
धागे बंधे होते हैं । परंपरागत जात्रा नाटक के अभिनेताओं के भांति कुनढेई की
वेशभूषा होती है । क्षेत्र की प्रसिद्ध धुनों से ही संगीत लिया जाता है और कभी-कभी
ओडिसी नृत्य के संगीत का गहरा प्रभाव दिखता है ।
गोम्बेयेट्टा, कर्नाटक
कर्नाटक की धागा पुतली को गोम्बेयेट्टा कहते हैं । गोम्बेयेट्टा
का सम्बन्ध कर्नाटक के नोकनृत्य यक्षगान से है इसी कारण यह उससे काफी साम्यता
रखता है । गोम्बेयेट्टा पुतलियों की आकृतियां अत्यंत सुसज्जित होती हैं और पैर, कंधे, कोहनी, कूल्हे और घुटने में जोड़ होते हैं । इनका संचालन फ्रेम से
बंधे हुए पांच से सात धागों से होता है । दो तीन संचालकों के एक साथ संचालन द्वारा
पुतली की कुछ जटिल क्रियाओं का प्रदर्शन भी किया जाता है गोम्बेयेट्टा में
यक्षगान के प्रसंगों को प्रदर्शित किया जाता है साथ में बजने वाला संगीत नाटकीय
होने के साथ-साथ लोक संगीत तथा शास्त्रीय संगीत का सुंदर समन्वित रूप होता है ।
बोम्मालट्टा, तमिलनाडु
छड़ और धागा पुतली की तकनीक तमिलनाडु की ‘बोम्मालट्टा
पुतली में एक साथ मिलती है । ये लकड़ी से बनी होती हैं और संचालन करने के धागे एक
लोहे के रिंग से बंधे रहते हैं जिसे कि पुतली संचालक मुकुट की तरह अपने सिर पर
धारण किए रहते हैं ।
कुछ पुतलियों की हथेलियों
और हाथों में जोड़ होते हैं जिनका संचालन छड़ों से होता है । बोम्मालट्टा पुतली
आकार में बड़ी और भारी होती है और भारतीय परंपरागत पुतलियों में सबसे सुस्पष्ट
होती है । एक पुतली लगभग साढ़े चार फीट ऊंची होती है तथा उसका वजन दस किलो के
आस-पास होता है । इस नाटय विधा के प्रारंभिक कार्य विनायक पूजा, कोमली, अमनाट्टम तथा
पुसेकनाट्टम आदि चार भागों में विभक्त रहते हैं ।
छाया पुतली
भारत में अनेक प्रकार की छाया पुतलियों का प्रचयन है और
विभिन्न प्रांतों में उसकी अनेक शैलियां विद्यमान है । छाया पुतलियां चपटी होती
हैं, अधिकांशत: वे चमड़े से बनाई जाती है । इन्हें
पारभासी बनाने के लिए संशोधित किया जाता है । पर्दे को पीछे से प्रदीप्त किया
जाता है और पुतली का संचालन प्रकाश स्रोत तथा पर्दे के बीच से किया जाता है ।
दर्शक पर्दे के दूसरे तरफ से छायाकृतियों को देखते हैं । ये छायाकृतियां रंगीन भी
हो सकती हैं । छाया पुतली की यह परंपरा उड़ीस, केरल, आन्ध्र प्रदेश, कनार्टक, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में प्रचलित है ।
तोगलु गोम्बयेट्टा, कर्नाटक
कर्नाटक में छाया पुतली को तोगलु गोम्बयेट्टा कहते हैं ।
यह साधारणत: आकार में छोटी होती हैं । सामाजिक परिवेश के अनुसार पत्रों के आधार
बड़े-छोटे होते हैं । जैसे राजाओं और धार्मिक पात्रों के आकार बड़े होते हैं जबकि
आम जनता और नौकरों के आकार छोटे होते हैं ।
तोलु बोम्मालट्टा, आन्ध्र प्रदेश
आन्ध्र प्रदेश की छाया नाटक को तोलु बोम्मालट्टा कहते हैं
तथा इनकी परंपरा अत्यंत समृद्ध है । पुतलियां आकृति में बड़ी होती हैं और उनकी
कमर, गर्दन, कंधा और घुटनों
में जोड़ होते हैं । पुतलियां दोनों तरफ से रंगी जाती है जिससे पर्दे पर रंगीन
छाया पड़ती है ।
पुतली नाटकों का संगीत मुख्यत:
इस क्षेत्र का शास्त्रीय संगीत होता है तथा उनकी कथाएं रामायण, महाभारत और पुराणों की होती है ।
रावण छाया उड़ीसा
उड़ीसा की रावणछाया सभी में अत्यंत नाटकीय होती है ।
पुतलियां एकहरी होती हैं तथा उनमें कोई संधि नहीं होती । साथ ही चूंकि वे रंगीन भी
नहीं होती इस कारण पर्दे पर उनकी छाया श्वेत-श्याम होती है । पुतलियों में जोड़
न होने के कारण उनका संचालन दक्षता से करना पड़ता है । ये पुतलियां मृग-चर्म की
बनी होती है तथा इनका रूप अत्यंत नाटकीय होता है । मानव एवं पशु चरित्रों के
साथ-साथ वृक्ष, पर्वत तथा रथ आदि भी इस्तेमाल किए जाते हैं ।
यद्यपि रावणछाया पुतलियां अपने आकार में दो फीट बड़ी नहीं होती और उनके घुटने भी
जोड़ युक्त नहीं होते लेकिन फिर भी उनकी छाया एकदम लयात्मक एवं संवेदनशील होती
है ।
छड़ पुतली
छड़ पुतली वैसे तो दस्ताना पुतली का अगला चरण है लेकिन यह
उससे काफी बड़ी होती है तथा नीचे स्थित छड़ों पर आधारित रहती है और उसी से संचालित
होती है । पुतलीकला का यह रूप आज पश्चिमी बंगाल तथा उड़ीसा में पाया जाता है ।\
पुत्तलनाच, पश्चिमी बंगाल
पश्चिमी बंगाल की छड़ पुतली कला परंपरा को पुत्तलनाच के
नाम से जाना जाता है । वे काष्ठ से बनाई जाती है और क्षेत्र विशेष की विभिन्न
कला शैलियों का अनुसरण किया जाता है । संचालन की विधि रोचक होने के साथ-साथ अत्यंत
रंगमंचीय होती है । संचालक की कमर से बांस की टोपी बंधी रहती है तथा उस पर
पुतलियां से जुड़ी छड़ें आधारित होती हैं । प्रत्येक पुतली का संचालक आदमकद पर्दे
के पीछे खड़ा रह कर स्वयं हलचल और नृत्य करता है जिससे उसके क्रिया-कलाप
पुतलियों में हस्तांतरित होते रहते हैं । इनके साथ ही संचालक गीत गाता हुआ गद्यात्मक
संवादों को भी बोलता है । मंच के साथ बैठे हुए तीन-चार संगीतकार ढोलक, हारमोनियम तथा झांझ बजाते हुए संगति करते हैं । लोक नाटय
जात्रा से यह सब काफी साम्यता रखता है ।
उड़ीसा की छड़ पुतलियां
आकार में छोटी लगभग 12 से 18 इंच लंबी होती हैं । इनमें भी जोड़ तो तीन ही होते हैं
लेकिन उनके साथ छड़ों के बजाए धागों से बंधे होते हैं । इस प्रकार वहां पर छड़
पुतलियां, धागा तथा छड़ पुतलियों का समन्वित रूप होती हें
। पुतली संचालक पर्दे के पीछे जमीन पर बैठ कर उनका संचालन करते हैं ।
गद्यात्मक संवाद कभी-कभार
ही इस्तेमाल होते हैं । ज्यादातर संवाद गये होते हैं । संगीत लोक धुनों तथा शास्त्रीय
ओडीसी धुनों का समन्वित रूप होता है । संगीत का आरंभ स्तुति से होता है तथा बाद
में नाटक प्रस्तुत किया जाता है ।
पश्चिमी बंगाल तथा आंध्र
प्रदेश की पुतलियों की तुलना में उड़ीसा की पुतलियां काफी छोटी होती हैं तथा पुतली
नाटकों में गद्यात्मक संवाद नहीं होते ।
पश्चिमी बंगाल के नादिया
जिले में आदमकद पुतलियां होती थी जैसी की जापान की बनराकू । लेकिन पुतलियों का यह
रूप अब विलुप्त हो गया है । पश्चिमी बंगाल की शेष प्रचलित पुतलियां तीन-चार फुट
लंबी होती हैं तथा वहां के लोक-नाटक जात्रा के पात्रों की भांति उनके भी परिधान
होते हैं । प्राय: इनमें तीन जोड़े होते हैं । मुख्य छड़ पर आधारित मस्तक गर्दन
से जुड़ा होता है तथा दो छड़ों से जुड़े हाथ कंधे से मिले होते हैं ।
यमपुरी, बिहार
बिहार की पारंपरिक छड़ पुतलियों को यमपुरी के नाम से जाना
जाता है । ये पुतलियां काष्ठ की बनी होती हैं । पश्चिमी बंगाल और उड़ीसा की छड़
पुतलियों के समान ये पुतलियां एक टुकड़े में होती हैं और उनमें कोई जोड़ नहीं होता
है । चूंकि इनमें कोई जोड़ नहीं होता, इसलिए इन्हें
चलाना अन्य छड़ पुतलियों से भिन्न होता है अत: इन्हें चलाने में अति निपुणता की
आवश्यकता होती है ।
दस्ताना पुतली
दस्ताना पुतली को भुजा, कर या हथेली
पुतली भी कहा जाता है । इन पुतलियों का मस्तक पेपर मेशे (कुट्टी), कपड़े या लकड़ी का बना होता है तथा गर्दन के नीचे से दोनों
हाथ बाहर निकलते हैं । शेष शरीर के नाम पर केवल एक लहराता घाघरा होता है । ये
पुतलियां वैसे तो निर्जीव गुडि़यों जैसी होती हैं तपर निपुण संचालक के हाथों में
पहुंचते ही अनेक गतिविधियों को सक्षमता से प्रस्तुत करती हैं । इनके परिचालन की
विधि अत्यंत सरल है । हाथों से गतिविधियों पर नियंत्रण रखा जाता है । पहली अंगुली
मस्तक में जाती है तथा मध्यमा और अंगूठा पुतली की दोनों भुजाओं में । इस प्रकार
अंगूठे और दो अंगुलियों की सहायता से दस्ताना अंगुली सजीव हो उठती है ।
भारत में दस्ताना पुतली की
परम्परा उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल और केरल में लोकप्रिय है । उत्तर प्रदेश के
दस्ताना पुतली नाटक सामाजिक विषय वस्तु प्रस्तुत करते हैं तो उड़ीसा में
राधा-कृष्ण की कहानियों पर ये नाटक आधारित होते हैं । उड़ीसा में संचालक एक हाथ
में ढोलक बजाता है और दूसरे हाथ से पुतले का संचालन करता है । संवाद बोलना, पुतली का संचालन और ढोलक की थाप सुन्दर रूप से क्रमानुसार
होता है और एक नाटकीय वातावरण की सृष्टि होती है ।
पावाकूथू, केरल
केरल में पारंपरिक पुतली नाटकों को पावाकूथू कहा जाता है ।
इसका प्रार्दुभाव 18वीं शताब्दी
में वहां के प्रसिद्ध शास्त्रीय नृत्य नाटक कथकली के पुतली-नाटकों पर पड़ने वाले
प्रभाव के कारण हुआ । पावाकूथू में पुतली की लंबाई एक-दो फीट के बीच होती है । मस्तक
तथा दोनों हाथ लकड़ी से बना कर एक मोटे कपड़े से जोड़े जाते हैं फिर एक छोटे से
थैले के रूप में सिए जाते हैं ।
पुतली के चेहरे के अंकरण
में रंग, चमकीले टीन के टुकड़े तथा मोरपंखों का उपयोग
किया जाता है । परिचालक उस थैली में अपनी हाथ डाल कर पुतली के मस्तक और दोनों
भुजाओं का संचालन करता है । इस प्रस्तुति के समय चेंडा, चेनगिल, इलाथलम
वाद्य-यंत्रों तथा शंख का उपयोग किया जाता है । केरल के ये पुतली-नाटक रामायण तथा
महाभारत की कथाओं पर आधारित होते हैं ।
साभार- संस्कृति मंत्रालय भारत
सरकार
समाज की बात Samaj Ki Baat
कृष्णधर शर्मा Krishnadhar Sharma