शहरों
में भले ही न मानते हों किसी काम का
मगर
गांवों में बहुत काम के होते हैं बूढ़े लोग
छोटे-मोटे
कई सारे काम बूढ़े ही कर लेते हैं गाँव में
चाहे
फिर गाय-बैलों को देना हो चारा-पानी
या
फिर करनी हो देखभाल घर के छोटे बच्चों की
या
करना हो पूजा-पाठ घर की शांति के लिए
खेती-बाड़ी
के भी कई काम कर लेते हैं बूढ़े लोग
फिर
चाहे धान या गेहूं की बुवाई करवानी हो
या
डलवानी हो मजदूरों से खेतों में खाद
निराई-गुड़ाई
से लेकर फसल कटाई तक, और
खलिहान
में अनाज नापने की निगरानी तक
बहुत
जिम्मेदारी से निभाते हैं सब कुछ बूढ़े लोग
अगर
इतना कुछ करने में असमर्थ भी हो जाएँ
किसी
बीमारी या लाचारी की वजह से तो
घर
की चौकीदारी तो कर ही लेते हैं बूढ़े लोग
इन
सारी सेवाओं के बदले मगर हमसे
कहाँ
कुछ भी मांगते हैं बूढ़े लोग
दो
जून की रोटी और थोड़ा सा सम्मान
इतने
में ही मान जाते हैं बूढ़े लोग
सुनो,
एकाध रोटी कम भले ही देना बूढों को
मगर
कभी अपमान मत करना उनका
क्योंकि
अपमान सहने की ताकत उनमें
जरा
सी कम हो जाती है बुढ़ापे में
बहुत
जल्दी हो जाते हैं नाराज छोटी-मोटी बातों से
अपमानित
होकर जल्दी ही मर जाते हैं बूढ़े लोग
(कृष्ण धर शर्मा, 22.7.2017)
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