“तो
क्या इस पहाड़ को
ख़त्म
ही करना होगा?
क्या
नहीं बचा है
अब
कोई भी विकल्प!”
“बात
सिर्फ इस पहाड़ की
नहीं
है मेरे दोस्त
कल
को जब तोडा जायेगा
दूसरा
पहाड़ भी
रास्ता
बनाने को या
पत्थर
फोड़ने को
तब
भी तुम पूछोगे
यही
यही सवाल हर बार
इसलिए
मैं नहीं समझता जरूरी
कि
दिया जाए जवाब
तुम्हारे
हर फिजूल सवाल का
बैठा
लो तुम अपने दिमाग में यह बात
कि
जंगल, पहाड़, नदियाँ और झरने
बने
ही हैं यह सब हमारे लिए
ताकि
कर सकें हम इनका
उपयोग
और उपभोग
अपनी
बेतहाशा बढती
जरूरतों
के हिसाब से
धीरे-धीरे
ख़त्म होना ही है
इनकी
नियति
देकर
अपना जीवन
हमारे
काम आकर”
“नहीं!
तुम कर रहे हो गलत
इन
सबके साथ
इन्हें
नहीं, हमें बनाया गया था
इनके
लिए
ताकि
कर सकें हम इनकी
सुरक्षा
और देखभाल
इसीलिए
दिए गए हैं हमें
दो
हाथ, दो पैर और दिमाग
ताकि
हम इन हाथों से दे सकें
पानी
इन पेड़ों की जड़ों में
और
बदले में ले सकें
प्राणवायु
और ढेरों फल
मगर
हमने किया ठीक
इसके
विपरीत ही हमेशा
काटते
रहे हम इनकी जड़ों को
पानी
देने के बदले
जिससे
हुआ है कटाव मिटटी का
और
बिगड़ा है संतुलन पहाड़ों का
बिखरा
है बहाव नदियों का
और
खतरे में पड़े हैं हम ही
नहीं
हैं जिम्मेदार हमारी तबाही के
यह
खूबसूरत जंगल, नदी या पहाड़
हम
खुद ही हैं अपने भस्मासुर
मगर
लगता है नहीं आएगी समझ
हमें
भस्म होने से पहले!’’
(कृष्ण
धर शर्मा, 16.7.2017)
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