" 'लड़का नक्सली था ?' 'नहीं, नक्सलियों की तो आलोचना करता था ।' 'आलोचना ?' इसमें प्रश्न से अधिक अविश्वास की ध्वनि थी । 'उनके काम करने के तरीक़े को वह ग़लत मानता था ।' 'उसका अपना काम करने का तरीक़ा क्या था ?' 'काम ! काम तो शायद वह कुछ करता ही नहीं था !' 'क्यों, सुना है हरिजनों और खेत-मज़दूरों को मालिकों के ख़िलाफ़ भड़काया करता था । नक्सली भी तो यही सब करते हैं ।' 'भड़काया नहीं करता था, सर...उन्हें केवल अवेयर करता था अपने अधिकारों के लिए। जैसे सरकार ने जो मज़दूरी तय कर दी है वह जरूर लो ... नहीं दें तो काम मत करो। पर झगड़ा-फ़साद या मार-पीट के लिए वह कभी नहीं कहता था।' फिर एक क्षण रुककर बोला, ' इसी बात में तो वह शायद नक्सलियों से अलग भी था ।" (महाभोज-मन्नू भंडारी)
नमस्कार,आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757
शनिवार, 29 सितंबर 2018
शनिवार, 22 सितंबर 2018
मार्था का देश- राजी सेठ
"माँ के पास तो ढेर-ढेर तरीके हैं- यह हलवा तेरे लिए। यह चटनी तेरे लिए। यह तेरी पसंद की चादर। यह तेरे लिए ख़रीदा कैसेट। यह करौंदे का अचार। मेरे पास क्या है जिससे मैं 'माँ को अच्छा लगे' की अनुभूति को संभव बना सकता हूँ। यहाँ कौन सा छोर है जो नितांत मेरा अपना है जो इस हार्दिकता की सृष्टि कर सके।" (मार्था का देश- राजी सेठ)
गुरुवार, 20 सितंबर 2018
थके पांव- भगवतीचरण वर्मा
"उस अन्तहीन अवगत पथ के साथ एक अनिवार्य गति भी है जो जिंदगी कहलाती है। इस गति की सीमाएँ हैं जन्म और मृत्यु के रूप में। इस गति का आरम्भ जन्म के साथ होता है, इस गति का अन्त मृत्यु के साथ होता है। जन्म और मृत्यु के बीच इस गति में कहीं किसी प्रकार का व्यक्तिक्रम नहीं। इस गति से किसी को कहीं कोई छुटकारा नहीं।" (थके पांव- भगवतीचरण वर्मा)
सोमवार, 10 सितंबर 2018
असतो मा सद्गमय- रेणु 'राजवंशी' गुप्ता
"यह उपन्यास जीवन के सनातन पहलुओं से गुजरती हुई कथा आधुनिक राजतांत्रिक और अफसरशाही तक भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार की कथा भी है तो हमारी पुरातन, परंतु नित नवीन आध्यात्मिक भारत की कथा भी है। इस कथा में भक्ति, ज्ञान, अहंकार, उच्चाकांक्षा, संतोष, भाग्य, पदलिप्सा, लोभ, कर्म, स्नेह,औदार्य सभी भाव समाहित हैं। यह कथा जीवन की सभी कलाओं से परिचय कराती है तथा चेतावनी भी देती है कि बुरे कर्म का परिणाम बुरा ही होता है।" (असतो मा सद्गमय- रेणु 'राजवंशी' गुप्ता)