ओ
कसाब!
क्या
कांपे नही थे तुम्हारे हाथ!
जब
होठों को भींचकर
अपनी
आँखों से
बरसा
रहे थे तुम नफ़रत
और
बन्दूक से गोलियां
सच
बताना कसाब!
क्या
चल रहा था तुम्हारे मन में
किसके
लिए थी
तुम्हारी
बेशुमार नफ़रत!
क्या
सचमुच उन्हीं के लिए
जिनपर
बरसा रहे थे तुम
अंधाधुंध
गोलियां...
बिना
कुछ सोचे बिना कुछ समझे
कि
मरने वाले ने क्या बिगाड़ा था
तुम्हारा
या तुम्हारे आकाओं का!
क्या
तुम्हारा दिल या दिमाग
तुम्हारे
बस में ही था
या
फिर कोई और ही संचालित
कर
रहा था तुम्हें!
क्या
बेगुनाहों को मारते हुए
तुम
समझ नहीं पाए अपना निशाना
क्या
तुम ढूंढ नहीं पा रहे थे
अपने
असली दुश्मन
क्या
इसी हताशा में तुम पर
छा
रहा था पागलपन
और
तुम अपने हाथों में थामे मशीनगन
खुद
बन चुके थे मौत की मशीन
ठीक
उसी तरह से जैसे कि हजारों जिहादी
जो
समझ नहीं पाते जिहाद का मतलब
और
बनाते रहते हैं
सारी
दुनिया को जहन्नुम!
(कृष्ण
धर शर्मा, 15.09.2016)
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