'रात-दिन विदेशी अखबारों-पत्रिकाओं में गर्क रहते हो बरखुरदार! उससे निकाल-निकालकर जो मक्खन परोसते हो, वह बासी रहता है। अरे, पत्रकार बनना है तो धरती पर आओ, कुरसी से उतरो।'
श्रीनाथ अकसर इस चौबट्टी गोष्ठी में बैठने को प्रेरित करता। एक-आध दिन गया भी, पर इसे रास नहीं आया। नुक्कड़ की धुँआती चाय की दुकान और धुँधुआते पत्रकार, लेखक, रंगकर्मी, जवान, बूढ़े।
आत्मश्लाघा के मारे भूतपूर्व कुछ धुँआ उगलते नये उसे पैसिव इन्हेलर की तरह ग्रहण करने को विवश होते। प्रतिदिन कोई न कोई मुरगा बनता, जिसके सिर पर चाय पी जाती। मोटे मुरगे के सिर पर उससे ऊपर की भारी चीज पी जाती।" (जनम अवधि- उषाकिरण खान)
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