''काव्य का जो चरम लक्ष्य सर्वभूत को आत्मभूत करके अनुभव कराना है। (दर्शन के समान केवल ज्ञान कराना नहीं) उसके साधन में भी अहंकार का त्याग आवश्यक है। जब तक इस अहंकार से पीछा न छूटेगा तब तक प्रकृति के सब रूप मनुष्य की अनुभूति के अंदर नहीं आ सकते।
इधर वाल्मीकि को देखिए। उन्होंने प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन में केवल मंजरियों से छाए हुए रसालों, सुरभित सुमनों से लदी हुई मालती लताओं, मकरंद-पराग-पूरित सरोजों का ही वर्णन नहीं किया, इंगुदी, अंकोट, तेंदू-बबूल, बहेड़े आदि जंगली पेड़ों का भी तल्लीनता के साथ वर्णन किया है। उसी प्रकार योरप के कवियों ने भी अपने गांव के पास बहते हुए नाले के किनारे उगने वाली झाड़ी या घास तक का नाम आँखों में आँसू भरकर लिया है।
इससे स्पष्ट है कि मनुष्य को उसके व्यापरगर्त से बाहर प्रकृति के विशाल और विस्तृत क्षेत्र में ले जाने की शक्ति फारस की परिमित काव्यपद्धति में नहीं है--भारत और योरप की पद्धति में है।" (चिन्तामणि- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)
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