"तारा!" सुषेण बोले। "हां पिताजी," तारा का स्वर दृढ़ हो आया, "आपकी तारा और कर ही क्या सकती थी? मैंने एक ओर अपने पति के राजनीतिक विरोधियों नाश की कामना की और दूसरी ओर मेरा मन प्रजा की रक्षा के लिए सुग्रीव तथा अंगद के लिए शक्ति, सत्ता और दीर्घ-जीवन मांगता रहा। पुत्र को पिता के विरुद्ध ले चलने के लिए, मैंने सुग्रीव को सैकड़ों शाप दिए और अंगद को प्रजा हित के मार्ग पर ले चलनेवाले उसके गुरु सुग्रीव को मैंने अपनी समस्त सद्भावनाएं भेंट कीं," तारा के कंठ से हिचकियां फूट आईं, "अब मुझे कोई बताए, मेरे पति को मृत्यु के मुख में धकेलनेवाली अलका के लिए तुम लोगों से मृत्युदंड की प्रार्थना करूं अथवा उसे अपमानित जीवन से उबारने के लिए सम्राट और मायावी को विलुप्त करने के लिए ईश्वर का धन्यवाद करूं...।"
तारा चुप हो गई, किन्तु न उसके आंसू रुके न हिचकियां।
('पृष्ठभूमि' बाली और सुग्रीव के साथ राम के अंतरसंबंधों की गाथा-नरेंद्र कोहली)
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