नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

वरदान- मुंशी प्रेमचंद

 रुक्मिणी- ''यों कहने को जो चाहो कह लो, परन्तु वास्तव में सुख काले वर से ही मिलता है।'' सेवती- "सुख नहीं, धूल मिलती है। ग्रहण सा आकर लिपट जाता होगा।" रुक्मिणी- "यही तो तुम्हारा लड़कपन है। तुम जानती नहीं, सुन्दर पुरुष अपने ही बनाव-सिंगार में लगा रहता है। उसे अपने आगे स्त्री का कुछ ध्यान नहीं रहता। यदि स्त्री परम रूपवती हो तो, कुशल है। नहीं तो थोड़े ही दिनों में वह समझता है कि मैं ऐसी दूसरी स्त्रियों के हृदय पर सुगमता से अधिकार पा सकता हूँ! उससे भागने लगता है और कुरूप पुरुष सुन्दर स्त्री को पा जाता है, तो समझता है कि मुझे हीरे की खान मिल गई। बेचारा काला अपने रूप की कमी को  प्यार और आदर से पूरा करता है। उसके हृदय में ऐसी धुकधुकी लगी रहती है कि मैं तनिक भिबिसे खट्टा पड़ा तो यह मुझसे घृणा करने लगेगी।" 

चंद्रकुंवर- "दूल्हा सबसे अच्छा वह, जो मुँह से बात निकलते ही पूरी करे।" रामदेई- "तुम अपनी बात न चलाओ। तुम्हें तो अच्छे-अच्छे गहनों से प्रयोजन है- दूल्हा चाहे कैसा ही हो।" सीता- "न जाने कोई पुरुष से किसी वस्तु की आज्ञा कैसे करता है। क्या संकोच नहीं होता?" 

रुक्मिणी- "तुम बपुरी क्या आज्ञा करोगी, कोई बात भी तो पूछे?" सीता- मेरी तो उन्हें देखने से ही तृप्ति हो जाती है। वस्त्राभूषणों पर जी नहीं चलता।" (वरदान- मुंशी प्रेमचंद)




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