नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 17 अगस्त 2020

आत्मदान- नरेन्द्र कोहली

 "राजवर्धन का सारा संस्कार क्षत्रियों की भांति हुआ था किन्तु उनमें क्षत्रिय दर्प कभी नहीं जागा।... उनका शरीर सक्षम ठौर शास्त्र-विद्या भी उन्होंने सीखी थी, पर युद्ध...। युद्ध में उनकी तनिक भी रुचि नहीं थी। युद्ध किसलिए? कोई क्यों किसी को अपना शत्रु मानता है? क्यों वह युद्धक्षेत्र में शवों के ढेर लगा देता है? हत्या में भी कोई सुख होता है क्या? किसी जीव का वध करने में क्या उपलब्धि है? बहता हुआ रक्त देखकर राज्यवर्धन को कभी प्रसन्नता नहीं हुई।   

तब भी उन्होंने अत्यंत उदासीन भाव से पिता को निहारा था, "पिताजी! यद्यपि आपने मेरे नाम राज्यवर्द्धन रखा है किन्तु मेरी न तो राज्य में कोई रुचि है, न राज्य के वर्धन में। युद्ध किसलिए पिताजी? अपने ही जैसे मनुष्य के संहार के लिए? क्षत्रिय का शरीर कवच धारण करने के योग्य क्या केवल इसलिए होता है कि वह युद्ध के नाम पर हत्याएं करे? जीवित मनुष्य को शवों अथवा पंगु, लुंज-पुंज पीड़ित शरीरों में बदल दे।...नहीं पिता! मनुष्य के जीवन का, उसकी क्षमताओं का लक्ष्य कुछ और होना चाहिए!" (आत्मदान- नरेन्द्र कोहली)



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