उसकी सुंदरता के सिवा
क्या देख सके वह कोमल मन
जिससे निकले है यह जीवन
क्या देख सके उसकी मेहनत
जिससे सजे है तुम्हारा तन-मन
तैरते ही रहे तुम सतहों में
गहराई में तुम न उतर सके
फिर पाओगे कैसे मोती
कैसे संवरेगा तुम्हारा मधुबन
भोर भये से रात गए तक
लडती झंझावातों से
काम में अपने मगन ही रहती
हारती कहाँ आघातों से
फिर भी तुम न पहचान सके
तो इसमें उसकी क्या गलती
दो जून की रोटी खाकर वह
वेतन बिन ही खटती रहती
तुम्हें खिलाये पूरा भोजन
जूठन खाकर भी खुश रहती
पुरुष नहीं हो सकता ऐसा
स्त्री ही ऐसी हो सकती
(कृष्णधर शर्मा 9.3.2019)
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