नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

रात कि बाँहों में -मोहन राकेश

 "रात एक हसीन जादूगरनी है। हर शाम वह शहर को अपनी बाँहों में समेट लेती है और उस पर अपना सितारों ढका कामदानी का काला दुपट्टा डाल देती है और फिर सुबह होने तक शहर की सारी कुरूपता, शहर के शरीर पर झूलते हुए मैले, बदबूदार चीथड़े, शहर के हाथ-पाँव और चेहरे पर खून और पीप से रिसते हुए ज़ख्म और नासूर- वे सब इस जादू के दुपट्टे से ढके रहते हैं। हर बुराई, हर बदसूरती, हर बेइन्साफी, हर जुल्म पर अँधेरे का परदा पड़ा रहता है। और रात की तिलिस्मी बाँहों में सिमटकर शहर के चेहरे पर निखार आ जाता है; शहर सुन्दर, जवान और स्वस्थ हो जाता है; रोशनी के लाखों दाँतों की नुमायश करने के लिए खिलखिलाकर हँस पड़ता है। मगर फिर सुबह होती है। एक-एक करके रोशनियाँ बुझती जाती हैं, जैसे किसी के चेहरे से खिसियानी हँसी के आसार आहिस्ता-आहिस्ता मिट जाते हैं- और फिर सूरज अपना आग्नेय हाथ बढ़ाता है और शहर को रात की नरम बाँहों में से घसीटकर वास्तविकता के क्रूर उजाले में नंगा ला खड़ा कर देता है।..." (रात कि बाँहों में -मोहन राकेश)



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