"रात एक हसीन जादूगरनी है। हर शाम वह शहर को अपनी बाँहों में समेट लेती है और उस पर अपना सितारों ढका कामदानी का काला दुपट्टा डाल देती है और फिर सुबह होने तक शहर की सारी कुरूपता, शहर के शरीर पर झूलते हुए मैले, बदबूदार चीथड़े, शहर के हाथ-पाँव और चेहरे पर खून और पीप से रिसते हुए ज़ख्म और नासूर- वे सब इस जादू के दुपट्टे से ढके रहते हैं। हर बुराई, हर बदसूरती, हर बेइन्साफी, हर जुल्म पर अँधेरे का परदा पड़ा रहता है। और रात की तिलिस्मी बाँहों में सिमटकर शहर के चेहरे पर निखार आ जाता है; शहर सुन्दर, जवान और स्वस्थ हो जाता है; रोशनी के लाखों दाँतों की नुमायश करने के लिए खिलखिलाकर हँस पड़ता है। मगर फिर सुबह होती है। एक-एक करके रोशनियाँ बुझती जाती हैं, जैसे किसी के चेहरे से खिसियानी हँसी के आसार आहिस्ता-आहिस्ता मिट जाते हैं- और फिर सूरज अपना आग्नेय हाथ बढ़ाता है और शहर को रात की नरम बाँहों में से घसीटकर वास्तविकता के क्रूर उजाले में नंगा ला खड़ा कर देता है।..." (रात कि बाँहों में -मोहन राकेश)
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