"पीठ पर ठंड बरदाश्त की जा सकती है, लू बरदाश्त की जा सकती है, पीठ पर कँटीले के पत्ते, रेंगते हुए कनखजूरे बरदाश्त किये जा सकते हैं। इस हद तक बरदाश्त किये जा सकते हैं कि इनकी चुभन से सिर्फ अपनी देह में ही कँपकँपी, तपिश, या बेचैनी अनुभव हो। रामप्यारी अनुभव करती है कि पीठ पर चुभती हुई मरदों की हथेलियाँ और आँखें इस सीमा तक नहीं सही जा सकती हैं कि किसी एक ओर को मुँह फेरकर खड़ा रहा जा सके। (कोई अजनबी नहीं- शैलेश मटियानी)
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