नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 18 जुलाई 2022

कथा सागर, विनोदिनी के पाँच उपन्यास- विनोदिनी

 ग्यारहवाँ दिन आज के दिन भी पत्रो नदी के घाट जाकर पिन्डदान तर्पण हुआ। फिर घर से थोड़ी दूर ही देवालय में अन्य श्राद्धकर्म, पूजन दोपहर तक चलता रहा, वहीं दरिद्र भोजन की व्यवस्था थी, सबों को खाना खिलाते-खिलाते करीब तीन बज गए । महेन्द्र बाबू भूख-प्यास से निढाल हो रहे थे, गंगा भी उनके साथ था उसने घर से प्रबन्ध कर नींबू का शर्बत ला सबों को पिलाया । उनकी तब कुछ जान में जान आई। आज आखिरी श्राद्ध था, कल तो पहले हवन फिर ब्राह्मण भोजन उसके बाद शहर के सभी जात बिरादरी को खाने का न्योता दिया गया है। 

जब वे थके हारे लौटे तब वहाँ पंडाल बाँधा जा रहा था, पिछवाड़े हलवाई बैठे मिठाइयाँ बना रहे थे। देखकर उनका तन-मन जल गया, उनके मना करते करते भी सब तरह के आडम्बर पुराने रीति-रिवाज सब पूरे किए जा रहे थे। उन्होंने चाचा और भाई कमला से कितना कहा था कि यह कोई ब्याह का मौका तो है नहीं, मरनी की बात है सब काम काज बहुत ही सादगीपूर्ण होना चाहिए। केवल ब्राह्मण-भोज तथा परिवार के सदस्य का ही खाना, पीना होगा और इतने हलवाई महराज बैठाने की क्या आवश्यकता है, केवल पूरी तरकारी घर में बनना चाहिए, बाकी मिठाई बाजार से आ जाएगी। परन्तु उनकी सुनता ही कौन था, चाचा की तो बस एक ही बात-वही बेटा-जैसा देश वैसा भेस-यदि यहाँ के रीति-रिवाज के अनुसार काम नहीं हुआ तो जात बिरादरी में थू-थू हो जाएगी। इतने सारे सगे-सम्बन्धी आ रहे हैं, वे क्या कहेंगे ? आगे हमारे बाल-बच्चों की ब्याह शादी होनी मुश्किल हो जाएगी। परिवार की बदनामी हो जाएगी!. (कथा सागर, विनोदिनी के पाँच उपन्यास- विनोदिनी)



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