एक बात तो तय है कि ईमानदारी का रास्ता होता कठिन है, मगर मान सम्मान में अवश्य वृद्धि होती है। आत्मसंतुष्टि रहती है, इसका भी अपना सुख है। सचिव साहब ने जब मेरी पीठ थपथपाई कितना आनन्द मिला था। मुझे धन के सुख से कहीं अधिक यह सुख लगा। अधिक धन होना भी सुख चैन हराम कर देता है। उसके खो जाने के गम में असली सुख भी खो जाता है। अपना सिद्धांत है, "सांई इतना दीजिए जाके कुटुम्ब समाय। मै भी भूखा न रहूँ, साधू न भूखा जाय।" बहुत अधिक संग्रह करके क्या करूँगा ? (आधुनिक मीराबाई- उमा सिंह)
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