नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 17 दिसंबर 2022

क्या है न्याय व्यवस्था की बीमारी का इलाज!

 इस संदर्भ में अगर भारतीय न्याय व्यवस्था का आकलन करें तो बहुत निराशाजनक दृश्य सामने आता है। इन दिनों लोग यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि कोर्ट के बाहर ही निपटारा कर लो वरना जिंदगी भर पांव घीसते रहोगे। यह बताता है कि भारत में न्याय इतनी देर से मिलता है कि वह अंधेर में बदल जाता है। यही कारण कि चीफ जस्टिस को कहना पड़ा कि 18 हजार जज मिलकर 3 करोड़ मुकदमों का भार नहीं उठा सकते।

 भारतीय न्याय व्यवस्था की स्थिति की पड़ताल उनके इस बयान के संदर्भ में जरूरी हो जाती है।  इस बयान से यह स्पष्ट रूप में समझ आता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था जजों की कमी से जूझ रही है। जजों की संख्या बढ़ाया जाना सरकार की शीर्ष प्राथमिकता होना चाहिए। अमूमन राजनेताओं की इसमें दिलचस्पी कम ही होती है। अदालत की कछुआ चाल उनके लिए अधिक सुविधाजनक होती है। भले ही भ्रष्टाचार के मामले हों या फिर उनके कार्यों को चुनौती देने वाली याचिकाएं। उनकी इच्छा यही नजर आती है कि अदालत में जाने वाले मामले लंबे समय तक लंबित रहें। इसमें वे अपने लिए राहत देखते हैं। सरकार को चाहिए कि वह अदालतों को प्रकरणों के त्वरित निपटारे के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध करवाए।  

भारत के चीफ जस्टिस कहते हैं कि लोगों में इस बात के लिए चेतना लाना जरूरी है कि वे राजनेताओं को समय पर न्याय उपलब्ध कराने के लिए बाध्य करें। अपनी इस भूमिका से तो जनता भी अनजान ही है। लंबे समय से खाली पड़े जजों के पद न्याय को सुलभ कैसे करवा सकते हैं। सैंकडों साल चलने वाले मुकदमों से मुक्ति भी तभी संभव है जबकि पर्याप्त जज हों। फिर यह भी कि ऐसे कई मुद्दे हैं जिन पर सरकार के बजाय अदालत को अपना समय देना पड़ता है।   

दूसरे अर्थों में कहें तो जिस सुशासन की जिम्मेदारी सरकार पर है वह काम अदालत को करना होता है। सड़क पर सम और विषम नंबर वाले वाहनों के चलने का मुद्दा हो या फिर स्कूल में एडमिशन को लेकर गाइडलाइन का पालन। इन सभी मुद्दों पर अदालत का बहुत समय जाता है तो उसके पास आम आदमी के प्रकरणों के लिए समय कम हो जाता है। ये सारे मुद्दे कार्यपालिका की जिम्मेदारी पर ही छोड़ दिए जाने चाहिए। कार्यपालिका को इन मुद्दों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभानी चाहिए।  

ऊपर अपील से बढ़ रहा बोझ  न्यायपालिका को प्रकरणों के निपटारे का समय छह माह या एक वर्ष तय करना चाहिए जैसा दुनिया के अन्य विकसित देश कर रहे हैं। उदाहरण के लिए अमेरिका में स्पीडी ट्रायल एक्ट 1947 के अनुसार यह सुनिश्चित किया गया है कि सारे प्रकरण एक समयसीमा में हल किए जाएंगे। केवल अपवाद के रूप में सामने वाले प्रकरणों में ही अधिक समय लग सकता है।  

हालांकि सिविल प्रक्रिया संहिता और भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता में प्रकरण के विभिन्ना चरणों के लिए समय सीमा तय की गई है लेकिन पूरे प्रकरण के निपटारे के लिए लगने वाले अधिकतम समय के बारे में स्पष्टता का अभाव है। यह बचाव पक्ष और अभियोजन पक्ष को केस की सुनवाई को कई मर्तबा आगे बढ़वाने की सुविधा देता है और सालों साल केस अदालत में लटके रहते हैं। प्रकरण के स्थगन की सुविधा को लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है और अदालतें मूक दर्शक बनी हैं।  

भारत में बड़ी संख्या में की जाने वाली अपील भी बड़ा मुद्दा है। इसके कारण शीर्ष अदालतों पर बोझ बहुत ज्यादा बढ़ जाता है और वहां प्रकरण इकट्ठा होते जाते हैं। अगर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे प्रकरणों पर नजर डालें तो उनमें कई प्रकरण बहुत ही मामूली बातों को लेकर भी हैं। तलाक और कॉलेज में एडमिशन के मामले भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाते हैं।  मामूली प्रकरण के सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाने की वजह यह है कि संविधान ने सुप्रीम कोर्ट तक जाने की आजादी हर व्यक्ति को दी है। हर व्यक्ति अपने केस की मेरिट देखे बगैर उसे लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है। इसके लिए भी कोई व्यवस्था नहीं है।  

भारत की न्याय व्यवस्था ब्रिटेन और अमेरिका मॉडल पर आधारित है और इसलिए वहां की न्याय प्रणाली को देखा जाना जरूरी है। एक अध्ययन के अनुरूप 2006 से 2011 के बीच भारतीय उच्चतम न्यायालय ने 500 सामान्य मामलों का निपटारा किया और हर महीने यहां 5000 केस नए आ गए। इसके मुकाबले इंग्लैंड की सुप्रीम कोर्ट में 2010 से 2013 के बीच एक दर्जन जज ने मिलकर एक वर्ष में औसतन 70 मामले निपटाए।  इन सुधारों से बन सकती है बात  उच्चतम न्यायालय के एक न्यायधीश के अनुसार निचली अदालतों में आने वाले प्रकरणों को उनकी प्रवृत्ति और स्थिति के अनुरूप अलग-अलग श्रेणियों में बांटा जाना चाहिए और तय किया जाना चाहिए कि किन प्रकरणों में त्वरित निर्णय जरूरी है। जैसे सीनियर सिटीजन और गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति के प्रकरणों में त्वरित सुनवाई की जरूरत होती है। यहां दूसरे मामलों की गंभीरता को कम करना बिल्कुल भी उद्देश्य नहीं है लेकिन व्यक्ति के जीते-जी मामलों का निपटारा जरूरी है।  

भारतीय अदालतों में अभी भी ज्यादातर काम कागज पर होता है जबकि विदेश की अदातलें पेपरलेस हो चुकी हैं। कार्यपालिका ने ई-कोर्ट्स की स्थापना को भी मंजूरी दे दी है लेकिन जिन अदालतों में काम कागज पर हो रहा है उसे सुधारने की जरूरत है। ई-कोर्ट्स में सारी प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और लेटलतीफी से मुक्ति मिलेगी।  निचली अदालतों द्वारा लिखे जाने वाले फैसले बहुत स्पष्ट और संक्षिप्त होने चाहिए ताकि जब मामला ऊपरी अदालत तक पहुंचे तो अपीलीय अदालत बहुत जल्दी से पूरे मामले और उस पर सुनाए गए फैसले के कारणों को समझ सके।  किसी भी प्रकरण में बार-बार तारीख दिए जाने से जल्दी सुलझने वाला मामला लंबे समय तक चलता रहता है। मामले को स्थगित रखना दोषी का पक्ष लेने और न्याय की आस करने वाले के खिलाफ जाता है।  

26/11 या फिर सलमान खान हिट एंड रन केस या इसी तरह के अन्य बड़े मामलों का उच्च अदालत तक पहुंचना तय है तो फिर उनके लिए निचली अदालत का समय क्यों जाया हो। इन प्रकरणों को सीधे ही उच्च अदालत द्वारा क्यों न सुना जाए। बहुत सारे लोग निचली अदालतों के न्याय से ही संतुष्ट हो जाते हैं लेकिन वह न्याय भी उन्हें मिले तो।  न्यायालयों में जजों की नियुक्ति लंबे समय तक अटकी पड़ी रहती है और इस दिशा में त्वरित सुधार की जरूरत है ताकि जजों के खाली पड़े पदों पर नियुक्ति संभव हो सके। लॉ कॉलेज की स्थिति सुधारना भी आवश्यक।  फिजूल प्रकरणों को लंबे समय तक खींचने के बजाय उन्हें तुरत ही निपटाया जाए। 

बहुत छोटी बातों पर होने वाले विवादों को न्यायालय में स्वीकार किया जाएगा या नहीं इस पर भी स्पष्ट दिशा निर्देश होने चाहिए। खासकर तब जबकि अदालतों पर केस का इतना ज्यादा बोझ है।  टैक्स नीति या पर्यावरण नीति जैसे तकनीकी मुद्दों से जुड़े प्रकरणों में भी अदालत को बहुत वक्त देना पड़ता है जबकि इन मुद्दों को सरकार अपने स्तर पर निपटा सकती है।    

भारत और अमेरिका में यह फर्क  एक अन्य अध्ययन बताता है कि भारतीय उच्चतम न्यायालय अपने समक्ष आने वाली हर पांच में से 1 अपील को स्वीकार कर लेता है इस लिहाज से यह आने वाले मामलों के मुकाबले स्वीकार करने वाले मामलों का 20 प्रतिशत हुआ जबकि अमेरिका में यह दर केवल 1 प्रतिशत है। वहां 100 केस में से केवल 1 केस स्वीकार किया जाता है। इसी भारतीय न्यायधीशों पर काम का बोझ निश्चित रूप से ज्यादा है।  इन सारे कारणों से भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय के लिए लगाई जाने वाली पुकार दबकर रह जाती है। न्याय की आस में गुहार लगाने वालों को लंबे समय इंतजार करना पड़ता है। सिर्फ जज की संख्या बढ़ाए जाने से काम नहीं चलेगा और व्यवस्था के अन्य पक्षों पर भी सुधार की दरकार है। जजों की कमी तो इस पूरी व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भर है। 

विदेशों में लंबित प्रकरण इसलिए नहीं  दुनिया के विकसित देशों में अदालतों में प्रकरणों के लंबित रहने की समस्या नहीं है। उदाहरण के लिए अमेरिका के उच्चतम न्यायालय में सिलेक्टिव डॉकेट सिस्टम लागू है। वहां किसी याचिका को स्वीकार करने से पहले सुप्रीम कोर्ट के 9 में से 4 जज का मानना जरूरी है कि याचिका में ऐसे प्रश्न हैं जों संघीय कानून या संविधान की अधिक व्याख्या की मांग करते हैं। इस तरह उसके सामने हर वर्ष जो 7000 याचिकाएं पहुंचती हैं उनमें से केवल 75-80 को ही सुना जाता है।  

जर्मनी जैसे देशों में फेडरल कॉन्स्टीट्यूशनल कोर्ट हर प्रस्तुत याचिका को परखती है। 3 जज की एक पैनल जिसे चेम्बर कहा जाता है प्रकरणों की जांच करती हैं। ऐसी याचिकाएं जो कोई नया मुद्दा नहीं उठाती उन्हें तुरंत खत्म किया जाता है। कोर्ट केवल उन्हीं याचिकाओं को सुनती है जो चेंबर की जांच में खरे उतरते हैं।  अमेरिकी अदालत में एक बार केस डॉकेट में आ जाने के बाद तय समय-सीमा का पालन होता है। सुनवाई की तारीख कोर्ट के कैलेंडर में दर्ज हो जाती हैं। एक बार कैलेंडर में दर्ज हो जाने पर उनमें शायद ही कोई बदलाव होता है। हर केस को दो सप्ताह में सुनवाई के लिए लगाया जाता है और वकीलों को अपने पक्ष में 30 मिनट दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त समय किसी भी वकील को नहीं दिया जाता। इस तरह तुरंत न्याय उपलब्ध कराया जाता है।

अभिषेक कपूर

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